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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन १. पं० दलसुख मालवणिया, निशीथ : एक अध्ययन, सन्मति ज्ञानपीठ ७. व्यवहारसूत्रउद्देशक, संपा० मुनि कन्हैलाल जी 'कमल', ८। आगरा, प्रथम संस्करण, पृ० ५४।
८. निशीथ : एक अध्ययन, पृ० ६८। प्रशमरति-उमास्वाति, श्लोक १४५।।
९. निशीथभाष्य, गाथा ३६६-३६७। निशीथभाष्य, (निशीथ चूर्णि) - संपा० उपाध्याय अमरमुनि, १०. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ४९४६-४९४७। सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १७५७, ५२४५।।
११. पं० दलसुखभाई मालवणिया- निशीथ : एक अध्ययन बृहत्कल्पभाष्य, संपा० पुण्यविजयजी, आत्मानन्द जैन सभा, पृ०५३-७०। भावनगर, १९३३, पीठिका, गा. ३२२।
१२. निशीथसूत्रचूर्णि, तृतीय भाग, भूमिका पृ० ७-२८। वही गा. ३२३-३२४।
१३. छेदसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, दशवैकालिक, संपा० मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृष्ठ ७४-७५ (राज०), ६, १४।
जैन-धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था
प्रायश्चित्त और दण्ड
प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ जैन आचार्यों ने न केवल आचार के विधि-निषेधों का प्रतिपादन प्रायश्चित्त शब्द की आगमिक व्याख्या-साहित्य में विभिन्न परिभाषाएँ किया अपितु उनके भङ्ग होने पर प्रायश्चित्त एवं दण्ड की व्यवस्था भी प्रस्तुत की गई हैं। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जो पाप का छेदन करता की। सामान्यतया जैन-आगम ग्रन्थों में नियम-भङ्ग या अपराध के लिए है, वह प्रायश्चित्त है।' यहाँ “प्रायः" शब्द को पाप के रूप में तथा प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया और दण्ड शब्द का प्रयोग सामान्यतया “चित्त' शब्द को शोधक के रूप में परिभाषित किया गया है। हरिभद्र "हिंसा' के अर्थ में हुआ है। अत: जिसे हम दण्ड-व्यवस्था के रूप ने पञ्चाशक में प्रायश्चित्त के दोनों ही अर्थ मान्य किये हैं। वे मूलतः में जानते हैं, वह जैन-परम्परा में प्रायश्चित्त-व्यवस्था के रूप में ही “पायच्छित्त" शब्द की व्याख्या उसके प्राकृत रूप के आधार पर ही मान्य है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त पर्यायवाची माने जाते हैं, करते हैं। वे लिखते हैं कि जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, वह किन्तु दोनों में सिद्धान्ततः अन्तर है। प्रायश्चित्त में अपराध-बोध की प्रायश्चित्त है। इसके साथ ही वे दूसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते भावना से व्यक्ति में स्वत: ही उसके परिमार्जन की अन्त:प्रेरणा उत्पन्न हैं कि जिसके द्वारा चित्त का पाप से शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त होती है। प्रायश्चित्त अन्तःप्रेरणा से स्वयं ही किया जाता है, जबकि है। प्रायश्चित्त शब्द के संस्कृत रूप के आधार पर "प्रायः" शब्द को दण्ड अन्य व्यक्ति के द्वारा दिया जाता है। जैन-परम्परा अपनी प्रकर्ष के अर्थ में लेते हुए यह भी कहा गया है कि जिसके द्वारा चित्त आध्यात्मिक-प्रकृति के कारण साधनात्मक जीवन में प्रायश्चित्त का ही प्रकर्षता अर्थात् उच्चता को प्राप्त होता है वह प्रायश्चित्त है। विधान करती है। यद्यपि जब साधक अन्तःप्रेरित होकर आत्मशुद्धि दिगम्बर टीकाकारों ने "प्रायः" शब्द का अर्थ अपराध और चित्त के हेतु स्वयं प्रायश्चित्त की याचना नहीं करता है तो संघ-व्यवस्था के शब्द का अर्थ शोधन करके यह माना है कि जिस क्रिया के करने लिए उसे दण्ड देना होता है।
से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। एक अन्य व्याख्या में यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड देने से साधक की “प्रायः" शब्द का अर्थ "लोक" भी किया गया है। इस दृष्टि से यह आत्मशुद्धि नहीं होती। चाहे सामाजिक या संघ-व्यवस्था के लिए दण्ड माना गया है कि जिस कर्म से साधुजनों का चित्त प्रसन्न होता है वह आवश्यक हो किन्तु जब तक उसे अन्त:प्रेरणा से स्वीकृत नहीं किया प्रायश्चित्त है। मूलाचार में कहा गया है कि प्रायश्चित्त वह तप है जिसके जाता तब तक वह आत्मविशुद्धि करने में सहायक नहीं होता। जैन- द्वारा पूर्वकृत पापों की विशुद्धि की जाती है। इसी ग्रन्थ में प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त व्यवस्था में परिहार, छेद, मूल, पाराञ्चिक आदि बाह्यत: तो के पर्यायवाची नामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जिसके दण्डरूप हैं, किन्तु उनकी आत्मविशुद्धि की क्षमता को लक्ष्य में रखकर द्वारा पूर्वकृत कर्मों की क्षपणा, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछण, ही ये प्रायश्चित्त दिये जाते हैं।
निराकरण, उत्क्षेपण एवं छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है।
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यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन प्रायश्चित्त के प्रकार
नाम भी वे ही हैं। इसप्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर-परम्परा से सगति श्वेताम्बर-परम्परा में विविध प्रायश्चित्तों का उल्लेख स्थानाङ्ग, रखती है, वहाँ मूलाचार और तत्त्वार्थ कुछ भित्र हैं। सम्भवतः ऐसा निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों में मिलता है। प्रतीत होता है कि जीतकल्प सूत्र के उल्लेखानुसार जब अनवस्थाप्य किन्तु जहाँ समवायाङ्ग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का मात्र नामोल्लेख और पारांचिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाहु के बाद व्युच्छिन्न मान है वहाँ निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त-योग्य अपराधों का भी विस्तृत लिया गया या दूसरे शब्दों में इन प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द कर विवरण उपलब्ध होता है। प्रायश्चित्त सम्बन्धी विविध सिद्धान्तों और दिया गया५ तो इन अन्तिम दो प्रायश्चित्तों के स्वतन्त्र स्वरूप को समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक विवेचन बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य, लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया और उनके नामों में अन्तर हो गया। व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूर्णि में मूलाचार के अन्त में परिहार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य उपलब्ध होता है। जहाँ तक प्रायश्चित्त के प्रकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों से कोई भिन्न नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसमें श्रद्धान प्रायश्चित्त का उल्लेख श्वेताम्बर-आगम स्थानाङ्ग, बृहत्कल्प, निशीथ और जीतकल्प का क्या तात्पर्य है यह न तो मूल ग्रन्थ से और न उसकी टीका में, यापनीय-ग्रन्थ मूलाचार में, दिगम्बर - ग्रन्थ जयधवला में तथा से ही स्पष्ट होता है। यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अत: कठोरतम होना तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं चाहिये। इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसा अपराधी जो में मिलता है।
श्रद्धान से सर्वथा रहित है अत: संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया स्थानाङ्गसूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख हुआ है, जाये किन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तत्त्वरुचि एवं उसके तृतीय स्थान में ज्ञान-प्रायश्चित्त, दर्शन-प्रायश्चित्त और चारित्र- क्रोधादि-त्याग किया है। इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह सहजता प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है। इसी तृतीय स्थान से कठोरता की ओर है। अत: अन्त में श्रद्धान नामक सहज प्रायश्चित्त में अन्यत्र आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त के तीन को रखने के लिए कोई औचित्य नहीं है। वस्तुत: जिन-प्रवचन के रूपों का भी उल्लेख हुआ है। इसी आगम-ग्रन्थ में अन्यत्र छ:, प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, जिसका दण्ड आठ और नौ प्रायश्चित्तों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ये सभी प्रायश्चित्तों मात्र संघ-बहिष्कार है। अत: ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब तक सम्यक् के प्रकार उसके दशम स्थान में जहाँ दशविध प्रायश्चित्तों का विवरण नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस प्रायश्चित्त का दिया गया है उसमें समाहित हो जाते हैं। अत: हम उनकी स्वतन्त्र तात्पर्य है। रूप से चर्चा न करके उसमें उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्ते की चर्चा प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं ही करेंगे
अपने मन में अपराधबोध के परिणामस्वरूप आत्मग्लानि का भाव स्थानाङ्ग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस प्रकार उत्पन्न हो। वस्तुत: आलोचना का अर्थ है- अपराध को अपराध माने गये हैं
के रूप में स्वीकार कर लेना। आलोचना शब्द का अर्थ-देखना, (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना है। (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थाप्य सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनन्दिन व्यवहार में असावधानी
और (१०) पारांचिक।१२ यदि हम इन इसे नामों की तुलना यापनीय (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना नामक प्रायश्चित्त ग्रन्थ मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र" से करते हैं तो मूलाचार में प्रथम के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हुए अपराध या नियमभङ्ग को आठ नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु जीतकल्प के अनवस्थाप्य आचार्य या गीतार्थ मुनि के समक्ष निवेदित करके उनसे उसके प्रायश्चित्त के स्थान पर परिहार और पारांचिक के स्थान पर 'श्रद्धान' का उल्लेख की याचना करना ही आलोचना है। सामान्यतया आलोचना करते हुआ है। मूलाचार श्वेताम्बर-परम्परा से भिन्न होकर तप और परिहार समय यह विचार आवश्यक है कि अपराध क्यों हुआ? उसका प्रेरक को अलग-अलग मानता है। तत्वार्थसूत्र में तो इनकी संख्या नौ मानी तत्त्व क्या है? गई है। इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु मूल के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार का अपराध क्यों और कैसे? उल्लेख हुआ है। पारांचिक का उल्लेख तत्त्वार्थ में नहीं है। अतः अपराध या व्रतभङ्ग क्यों और किन परिस्थितियों में किया जाता वह नौ प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने तप और परिहार है? इसका विवेचन हमें स्थानाङ्ग सूत्र के दशम स्थान में मिलता है। को एक माना है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में तप और परिहार दोनों स्वतन्त्र उसमें दस प्रकार की प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त माने गये हैं, अत: तत्त्वार्थ में परिहार का अर्थ अनवस्थाप्य तात्पर्य है गृहीत व्रत के नियमों के विरुद्ध आचरण करना अथवा भोजन ही हो सकता है। इस प्रकार तत्त्वार्थ और मूलाचार दोनों तप और आदि ग्रहण करना। वस्तुतः प्रतिसेवना का सामान्य अर्थ व्रत या नियम परिहार को अलग-अलग मानते हैं और दोनों में उनका अर्थ अनवस्थाप्य के प्रतिकूल आचरण करना ही है। यह व्रतभङ्ग क्यों, कब और किन के समान है। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ धवला १७ में स्थानाङ्ग परिस्थितियों में होता है इसे स्पष्ट करने हेतु ही स्थानाङ्ग में दस
और जीतकल्प के समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके प्रतिसेवनाओं का उल्लेख है।६।। worrorwardwordwardroiwariwaroranirdwordwordworldwid७८]-6woridwiridwordrobrowdndroidnirdwordwaranitrotakar
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - (१) दर्प-प्रतिसेवना- आवेश अथवा अहकार के वशीभूत एक विचारणीय प्रश्न है। योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त किसी होकर जो हिंसा आदि करके व्रत-भङ्ग किया जाता है वह दर्प- अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह होता है कि प्रतिसेवना है
वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचा सकता (२) प्रमाद-प्रतिसेवना-प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत होकर है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ सकता है। अत: जैनाचार्यों जो व्रत भङ्ग किया जाता है, वह प्रमाद-प्रतिसेवना है।
ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे व्यक्ति के समक्ष करनी चाहिये जो (३) अनाभोग-प्रतिसेवना-स्मृति या सजगता के अभाव में आलोचना सुनने योग्य हो, उसे गोपनीय रख सकता हो और उसका अभक्ष्य या नियम-विरुद्ध वस्तु का ग्रहण करना अनाभोग- अनैतिक लाभ न ले। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार जिस व्यक्ति के सामने प्रतिसेवना है।
आलोचना की जाती है उसे निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना (४) आतुर-प्रतिसेवना-भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर चाहिएकिया जाने वाला व्रत-भङ्ग आतुर-प्रतिसेवना है।
(१) आचारवान्-सदाचारी होना, आलोचना देने वाले व्यक्ति (५) आपात-प्रतिसेवना- किसी विशिष्ट परिस्थिति के का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों के अपराधों उत्पन्न होने पर व्रत-भङ्ग या नियम-विरुद्ध आचरण करना आपात- की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है। जो अपने ही दोषों को प्रतिसेवना है।
शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरों के दोषों को क्या दूर करेगा? (६) शशित-प्रतिसेवना-शङ्का के वशीभूत होकर जो नियम- (२) आधारवान्-अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध में भङ्ग किया जाता है, उसे शङ्कित-प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे यह व्यक्ति नियत प्रायश्चित्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए हमारा अहित करेगा, ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि कर देना। कि किस अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्चित्त नियत है।
(७) सहसाकार-प्रतिसेवना- अकस्मात् होने वाले व्रतभङ्ग या (३) व्यवहारवान्- उसे आगम, श्रुत, जिनाज्ञा, धारणा और नियम-भङ्ग को सहसाकार-प्रतिसेवना कहते हैं।
जीत इन पाँच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना चाहिए क्योंकि (८) भय-प्रतिसेवना-भय के कारण जो व्रत या नियम-भङ्ग सभी अपराधों एवं प्रायश्चित्तों की सूची आगमों में उपलब्ध नहीं है किया जाता है वह भय-प्रतिसेवना है।
अत: आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिये जो स्वविवेक (९) प्रदोष-प्रतिसेवना-द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा अथवा । से ही आगमिक आधारों पर किसी कर्म के प्रायश्चित्त का अनुमान उसका अहित करना प्रदोष-प्रतिसेवना है।
कर सके। (१०) विमर्श-प्रतिसेवना-शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी (४) अपनीडक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए श्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भङ्ग करना कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें आत्म-आलोचन विमर्श-प्रतिसेवना है। दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के लिए की शक्ति उत्पन्न कर सके। विचारपूर्वक व्रतभङ्ग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण करना विमर्श (५) प्रकारी-आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह या प्रतिसेवना है।
सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व इस प्रकार हम देखते हैं कि अपराध व्यक्ति केवल स्वेच्छा से को रूपान्तरित कर सके। जानबूझकर ही नहीं करता अपितु परिस्थतिवश भी करता है। अत: (६) अपरिश्रावी-उसे आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अपराध के सामने प्रगुट नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया है?
सामने आलोचना करने में संकोच करेगा। आलोचना करने का अधिकारी कौन?
(७) निर्यापक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है? इस सम्बन्ध में भी कि वह प्रायश्चित्त-विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित्त करने वाला व्यक्ति स्थानाङ्गसूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है। इसके अनुसार निम्न घबराबर उसे आधे में ही न छोड़ दे। उसे प्रायश्चित्त करने वाले का दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य होता है- सहयोगी बनना चाहिए।
(१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) विनय सम्पन्न, (८) अपायदर्शी- अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह (४) ज्ञान सम्पन्न, (५) दर्शन सम्पत्र, (६) चारित्र सम्पन्न, (७) क्षान्त आलोचना करने अथवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर सके। (क्षमासम्पत्र),(८) दान्त (इन्द्रिय-जयी), (९) अमायावी (मायाचार-रहित) (९) प्रियधर्मा-अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की धर्म-मार्ग
और (१०) अपश्चात्तापी (आलोचना करने के बाद उसका पश्चात्ताप न में अविचल निष्ठा होनी चाहिए। करने वाला)
(१०) धर्मा-उसे ऐसा होना चाहिए कि वह कठिन से कठिन
समय में भी धर्म-मार्ग से विचलित न हो सके। आलोचना किसके समक्ष की जाये?
जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति की इन आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जानी चाहिए? यह भी सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह भी माना
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं आगमज्ञ के समक्ष ही आलोचना सामने आलोचना करना दोषपूर्ण माना गया है। की जानी चाहिए। साथ ही इनके पदक्रम और वरीयता पर विचार (८) बहुजन-दोष- एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष करते हुए यह कहा गया है कि जहाँ आचार्य आदि उच्चाधिकारी उपस्थित आलोचना करना और उनमें से जो सबसे कम दण्ड या प्रायश्चित्त दे हों, वहाँ सामान्य साधु या गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं करनी उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है। चाहिए। आचार्य के उपस्थित होने पर उसी के समक्ष आलोचना की (९) अव्यक्त दोष-दोषों को पूर्णरूप से स्पष्ट न कहते हुए जानी चाहिए। आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय उनकी आलोचना करना अव्यक्त दोष है। की अनुपस्थिति में सांभोगिक साधर्मिक साधु के समक्ष और उनकी (१०) तत्सेवी दोष-जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन करने अनुपस्थिति में अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु के समक्ष आलोचना करनी वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी दोष है। क्योकि चाहिए। यदि अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न हो तो ऐसी जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है उसे दूसरे को प्रायश्चित्त स्थिति में बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान-वेश-धारक साधु के समक्ष देने का अधिकार ही नहीं है। दूसरे, ऐसा व्यक्ति उचित प्रायश्चित्त भी. आलोचना करे। उसके उपलब्ध न होने पर यदि पूर्व में दीक्षा-पर्याय नहीं दे पाता। को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और आगमज्ञ श्रमणोपासक उपस्थित हो तो इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने आलोचना के सन्दर्भ उसके समक्ष आलोचना करे। उसके अभव में सम्यक्त्व-भावित में उसके स्वरूप, आलोचना करने व सुनने की पात्रता और उसके अन्त:करण वाले के समक्ष अर्थात् सम्यक्त्वी जीव के समक्ष आलोचना दोषों पर गहराई से विचार किया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करे। यदि सम्यक्त्वभावी अन्त:करण वाला भी न हो तो ग्राम या नगर निशीथ आदि में पायी जाती है। पाठकों से उसे वहाँ देखने की अनुशंसा के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर अरिहन्त और की जाती है। सिद्ध की साक्षीपूर्वक आलोचना करे। १९
आलोचना-सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी तथ्य आलोचना-योग्य कार्य ध्यान देने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो। स्थानाङ्ग, मूलाचार, जीतकल्प के अनुसार जो भी करणीय अर्थात् आवश्यक कार्य भगवती-आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का उल्लेख हैं, वे तीर्थङ्करों द्वारा सम्पादित होने पर तो निदोष होते हैं, किन्तु छद्यस्थ
मालाचना क दस दोषों का उल्लेख हआ है.
है, वे तीर्थङ्करों द्वारा सम्पानि
श्रमणों द्वारा सम्पादित इन कर्मों की शुद्धि केवल आलोचना से ही (१) आकम्पित दोष-आचार्य आदि को उपकरण आदि देकर मानी गयी है। जीतकल्प में कहा गया है कि आहार आदि का ग्रहण, अपने अनुकूल बना लेना आकम्पित दोष है। कुछ विद्वानों के अनुसार गमनागमन, मल-मूत्र विसर्जन, गुरुवन्दन आदि सभी क्रियाएँ आलोचना आकम्पित दोष का अर्थ है काँपते हुए आलोचना करना, जिससे । के योग्य हैं।२१ इन्हें आलोचना-योग्य मानने का तात्पर्य यह है कि प्रायश्चित्तदाता कम से कम प्रायश्चित्त दे।
साधक इस बात का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन (२) अनुमानित दोष-भय से अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि सजगतापूर्वक अप्रमत्त होकर किया या नहीं। क्योंकि प्रमाद के कारण दिखाकर आलोचना करना अनुमानित दोष है। ऐसा 'अल्प प्रायश्चित्त दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार आचार्य से सौ हाथ की दूरी पर मिले' इस भावना से किया जाता है।
रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, वे भी आलोचना के विषय माने (३) अद्रष्ट-गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख लिया गये हैं। इन कार्यों की गुरु के समक्ष आलोचना करने पर ही साधक हो उसकी तो आलोचना करना और अद्रष्ट दोषों की आलोचना न निर्दोष होता है। गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर रहकर क्या-क्या करना यह अद्रष्ट दोष है।
कार्य किस प्रकार सम्पादित किये हैं? इसके साथ ही किसी (४) बादर दोष-बड़े दोषों की आलोचना करना और छोटे । कारणवश या अकारण ही स्व-गण का परित्याग कर पर-गण में प्रवेश दोषों की आलोचना न करना बादर दोष है।
करने को अथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यों को भी आलोचना (५) सूक्ष्म दोष-छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना और का विषय माना गया है। ईर्या आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों बड़े दोषों को छिपा लेना सूक्ष्म दोष है।
में लगे हुए दोष सामान्यतया आलोचना के विषय हैं। यद्यपि हमें स्मरण (६) छन्न दोष-आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु उसे रखना चाहिए कि ये सभी दोष जो आलोचना के विषय हैं, वे पूरी तरह सुन ही न सके, यह छन्न दोष है। कुछ विद्वानों के अनुसार देश-काल-परिस्थिति और व्यक्ति के आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, आचार्य के समक्ष मैंने यह दोष किया, यह न कहकर किसी बहाने विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार, छेद आदि प्रायश्चित्त के भी योग्य हो से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही उसका प्रायश्चित्त ले लेना सकते हैं। छन्न दोष है।
(७) शब्दाकुलित दोष-कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलोचना प्रतिक्रमण करना जिससे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, यह शब्दाकुलित प्रायचित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है। अपराध या नियमभङ्ग दोष है। दूसरे शब्दों में भीड़-भाड़ अथवा व्यस्तता के समय गुरु के को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे वापस लौट आना
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-- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। करना प्रस्रवण प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण- स्वल्पकालीन दूसरे शब्दों में आपराधिक-स्थिति से अनपराधिक-स्थिति में लौट आना (दैवसिक, रात्रिक आदि) प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है। ही प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण- सम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त आलोचना में अपराध को पुन: सेवन न करने का निश्चय नहीं होता, होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। (५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमणजबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है।
सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित भूल को स्वीकार कर लेना, "मिच्छामि दुक्कडं' ऐसा उच्चारण करना पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सबकी निवृत्ति के और उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है। लिए कृत-पापों की समीक्षा करना और पुन: नहीं करने की प्रतिज्ञा (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने पर करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण का निर्वचन करते उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है।२४ यह हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभ योग की ओर गये हुए अपने विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित है। आचार्य आपको पुन: शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।२२ आचार्य हरिभद्र भद्रबाहु ने जिन-जिन बातों का प्रतिक्रमण करना चाहिए इसका ने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों का निर्देश किया है- निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है।२५ उनके अनुसार (१) मिथ्यात्व, (१) प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म से परधर्म) में गये हुए (२) असंयम, (३) कषाय एवं (४) अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं साधक का पुन: स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रकारान्तर से आचार्य चेतना का स्व-चेतना केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना भी अनिवार्य माना है- (१) गृहस्थ का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान हैं। इस प्रकार एवं श्रमण उपासक के द्वारा निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर, बाह्यदृष्टि से अन्तर्दृष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। (२) क्षायोपशमिक (२) जिन कार्यों के करने का शास्त्रों में विधान किया गया है उन भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक पुन: औदयिक भाव विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शङ्का के से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन उपस्थित हो जाने पर और (४) असम्यक् एवं असत्य सिद्धान्तो का के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। (३) अशुभ आचरण से निवृत्त होकर प्रतिपादन करने पर प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। मोक्षफलदायक शुभ आचरण में नि:शल्य भाव से पुन: प्रवृत्त होना जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए, प्रतिक्रमण है। २३
उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार हैआचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ ज्ञानातिचारों और १८ पापस्थानों का हैं- (१) प्रतिक्रमण- पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए। आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना। (२) प्रतिचरण- हिंसा, असत्य (ब) पञ्च महाव्रतो, मन, वाणी और शरीर के असंयम तथा गमन, आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप एवं मलमूत्र-विसर्जन आदि से सम्बन्धित होना। (३) परिहरण- सब प्रकार की अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण साधकों को करना चाहिए। का त्याग करना। (४) वारण- निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति (स) ५ अणुव्रतों, ३ गुणव्रतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले ७५ नहीं करना। बौद्ध-धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों को करना चाहिए। को प्रवारणा कहा गया है। (५) निवृत्ति- अशुभ भावों से निवृत्त (द) सल्लेखना के पाँच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों होना। (६) निन्दा- गुरुजन, वरिष्ठजन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा के लिए जिन्होंने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया हो। की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके श्रमण-प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र में सम्बन्धित लिये पश्चात्ताप करना। (७) गर्हा- अशुभ आचरण को गर्हित समझना, सम्भावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है। इसके पीछे मूल उससे घृणा करना। (८) शुद्धि- प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित सूक्ष्मतम दोष भी के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए विचार-पथ से ओझल न हो। उसे शुद्धि कहा गया है।
प्रतिक्रमण के भेद प्रतिक्रमण किसका?
साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद है- (१) श्रमण -- स्थानाङ्गसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है- प्रतिक्रमण और (२) श्रावक-अतिक्रमण। कालिक आधार पर प्रतिक्रमण (१) उच्चार प्रतिक्रमण- मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्या के पाँच भेद हैं- (१) दैवसिक- प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे (आने-जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना दैवसिक है। (२) प्रस्रवण प्रतिक्रमण- पेशाब करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण है। (२) रात्रिक- प्रतिदिन प्रात:काल के समय सम्पूर्ण
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• यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन रात्रि के आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना रात्रिक प्रसङ्ग में व्युत्सर्ग और कायोत्सर्ग पर्यायवाची के रूप में ही प्रयुक्त प्रतिक्रमण है। (३) पाक्षिक- पक्ष के अन्तिम दिन अर्थात् अमावस्या हुए हैं। एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। (४) चातुर्मासिक- तप-प्रायश्चित्त कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा एवं आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लिए तप-प्रायश्चित्त के आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक का विधान किया गया है। किस प्रकार के दोष का सेवन करने पर प्रतिक्रमण है। (५) सांवत्सरिक- प्रत्येक वर्ष में संवत्सरी महापर्व किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना होता है। उसका विस्तारपूर्वक (ऋषि पञ्चमी) के दिन वर्षभर के पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना विवेचन निशीथ, बृहत्कल्प और जीतकल्प में तथा उनके भाष्यों में करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।
मिलता है। निशीथ सूत्र में तप-प्रायश्चित्त के योग्य अपराधों की विस्तृत
सूची उपलब्ध है। उसमें तप-प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते " तदुभय
हुए मासलघु, मासगुरु, चातुर्मासलघु, चातुर्मासगुरु से लेकर षट्मासलघु तदुभय प्रायश्चित्त वह है जिसमें अलोचना और प्रतिक्रमण दोनों और षट्मासगुरु प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। जैसा कि हमने किये जाते हैं। अपराध या दोष को दोष के रूप में स्वीकार करके पूर्व में सङ्केत किया है मासगुरु या मासलघु आदि इनका क्या तात्पर्य फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही तदुभय प्रायश्चित्त है। जीतकल्प है, यह इन ग्रन्थों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है किन्तु में निम्न प्रकार के अपराधों के लिए तदुभय प्रायश्चित्त का विधान किया इन पर लिखे गये भाष्य-चूर्णि आदि में इनके अर्थ को स्पष्ट करने गया है- (१) भ्रमवश किये गये कार्य, (२) भयवश किये गये कार्य, का प्रयास किया गया है, मात्र यही नहीं लघु की लघु, लघुतर और (३) आतुरतावश किये गये कार्य, (४) सहसा किये गये कार्य, लघुतम तथा गुरु की गुरु, गुरुतर और गुरुतम ऐसी तीन-तीन कोटियाँ (५) परवशता में किये गये कार्य, (६) सभी व्रतों में लगे हुए निर्धारित की गई हैं। अतिचार।
कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक ऐसे तीन भेद भी किये
गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये विवेक
तीन-तीन भेद किये गये हैं। व्यवहारसूत्र की भूमिका में अनुयोगकर्ता विवेक शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी कर्म के औचित्य मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रत्येक एवं अनौचित्य का सम्यक् निर्णय करना और अनुचित कर्म का के भी तीन-तीन विभाग किये हैं। यथा- उत्कृष्ट के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, परित्याग कर देना। मुनि जीवन में आहारादि के ग्राह्य और अग्राह्य उत्कृष्टमध्यम और उत्कृष्टजघन्य ये तीन विभाग हैं। ऐसे ही मध्यम अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना ही विवेक है। यदि अज्ञात और जघन्य के भी तीन-तीन विभाग किये गये हैं। इस प्रकार तप रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण कर लिया हो तो उसका त्याग करना प्रायश्चित्तों के ३४३४३=२७ भेद हो जाते हैं। उन्होंने विशेष रूप से ही विवेक है। वस्तुत: सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है। मुख्य जानने के लिए व्यवहारभाष्य का सङ्केत किया है किन्तु व्यवहारभाष्य रूप से भोजन, वस्त्र, मुनि-जीवन के अन्य उपकरण एवं स्थानादि मुझे उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसङ्ग में उनके ववहारसुत्तं प्राप्त करने में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि विवेक-प्रायश्चित्त द्वारा के सम्पादकीय का ही उपयोग कर रहा हूँ। उन्होंने इन सम्पूर्ण २७ मानी गयी है।
भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं किया है। अत: इस सम्बन्ध में मुझे भी मौन रहना पड़ रहा है। इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित
मास, दिवस एवं तपों की संख्या का उल्लेख हमें बृहत्कल्पभाष्य गाथा व्युत्सर्ग का तात्पर्य 'परित्याग' या 'विसर्जन' है। सामान्यतया ६०४१-६०४४ में मिलता है। उसी आधार पर निम्न विवरण इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष-आचरण के लिए प्रस्तुत हैशारीरिक व्यापारों का निरोध करके मन की एकाग्रतापूर्वक देह के प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है। जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त का नाम तप का स्वरूप एवं काल गमनागमन, विहार, श्रुत-अध्ययन, सदोष स्वप्न, नाव आदि के द्वारा नदी को पार करना, भक्त-पान, शय्या-आसन, मलमूत्र-विसर्जन, काल
यथागुरु
छह मास तक निरन्तर पाँच-पाँच उपवास व्यतिक्रम, अर्हत् एवं मुनि का अविनय आदि दोषों के लिए व्युत्सर्ग
गुरुतर
चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। जीतकल्प में इस तथ्य का भी
एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपावास(तेले) उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार के दोष के लिए कितने समय
१० बेले १० दिन पारणे (एक मास तक या श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाना चाहिए। प्रायश्चित्त के
निरन्तर दो-दो उपवास)।
व्युत्सर्ग
गुरु
लघु
nodrowonoranoraniwaridnoraniromowonoranoraniordNG[८२ ]ordNiroraniritonironironirandirorombonitoriandoriander
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - लघुतर
२५ दिन तक निरन्तर एक दिन उपवास और में आहारादि रखना, धर्म की निन्दा और अधर्म की प्रशंसा करना, एक दिन भोजन।
अनन्तकाय युक्त आहार खाना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ यथालघु
२० दिन तक निरन्तर आयम्बिल (रूखा-सूखा का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी भोजन)।
को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना आदि क्रियाएँ गुरुचातुर्मासिक लघुष्वक
१५ दिन तक निरन्तर एकासन (एक समय प्रायश्चित्त के योग्य हैं।
भोजन)। लघुष्वकतर
१० दिन तक निरन्तर दो पोरसी अर्थात् १२ तप और परिहार का सम्बन्ध बजे के बाद भोजन ग्रहण।
जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है, तत्त्वार्थ और यापनीय यथालघुष्वक पाँच दिन तक निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में परिहार को स्वतन्त्र प्रायश्चित्त माना गया आदि से रहित भोजन)।
है। जबकि श्वेताम्बर-परम्परा के आगमिक ग्रन्थों में और धवला में इसे
स्वतन्त्र प्रायश्चित्त न मानकर इसका सम्बन्ध तप के साथ जोड़ा गया लघुमासिक-योग्य अपराध
है। परिहार शब्द का अर्थ बहिष्कृत करना अथवा त्याग करना होता दारुदण्ड का पादपोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली है। श्वेताम्बर-आगम ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, गर्हित अपराधों को करने पर भिक्षु या भिक्षुणी को न केवल तप रूप निष्कारण परिचित घरों में दुबारा प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा प्रायश्चित्त दिया जाता था अपितु उसे यह कहा जाता था कि वे भिक्षु-सङ्घ गृहस्थ की संगति करना, शय्या अथवा आवास देने वाले मकान-मालिक या भिक्षुणी-संघ से पृथक् होकर निर्धारित तप पूर्ण करें। निर्धारित तप के यहाँ का आहार-पानी ग्रहण करना, आदि क्रियाएँ लघुमासिक प्रायश्चित्त ___ को पूर्ण कर लेने पर उसे पुनः संघ में सम्मिलित कर लिया जाता के कारण हैं।
था। इस प्रकार परिहार का तात्पर्य था कि प्रायश्चित्त रूप तप की निर्धारित
अवधि के लिए सङ्घ से भिक्षु का पृथक्करण। परिहार तप की अवधि गुरुमासिक-योग्य अपराध
में वह भिक्षु भिक्षुसङ्घ के साथ रहते हुए भी अपना आहार-पानी अलग अङ्गादान का मर्दन करना, अङ्गादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, करता था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि परिहार प्रायश्चित्त में तथा अङ्गादान को नली में डालना, पुष्पादि सूंघना, पात्र आदि दूसरों से ___अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त में मूलभूत अन्तर था। अनवस्थाप्य साफ करवाना, सदोष आहार का उपभोग करना आदि क्रियायें गुरुमासिक प्रायश्चित्त में जहाँ उसे गृहस्थ-वेष धारण करवाकर के ही उपस्थापन प्रायश्चित्त के कारण हैं।
किया जाता था, वहाँ परिहार में ऐसा कोई विधान न था। यह केवल
प्रायश्चित्त की तपावधि के लिए मर्यादित पृथक्करण था। सम्भवतः लघु चातुर्मासिक-योग्य अपराध
प्राचीनकाल में तप नामक प्रायश्चित्त दो प्रकार से दिया जाता रहा होगा। प्रत्याख्यान का बार-बार भङ्ग करना, गृहस्थ के वस्त्र, शय्या आदि परिहारपूर्वक और परिहाररहित। इसी आधार पर आगे चलकर जब का उपयोग करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्तों का प्रचलन समाप्त कर दिया तक रखना, अर्धयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, गया। तब प्रायश्चित्तों की इस संख्या को पूर्ण करने के लिए यापनीय विरेचन लेना अथवा अकारण औषधि का सेवन करना, वाटिका आदि परम्परा में तप और परिहार की गणना अलग-अलग की जाने लगी। सार्वजनिक स्थानों में मल-मूत्र डालकर गन्दगी करना, गृहस्थ आदि परिहार नामक प्रायश्चित्त की अधिकतम अवधि छ: मास ही है। परिहार को आहार-पानी देना, समान आचार वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान का छेद प्रायश्चित्त से अन्तर यह है कि जहाँ छेद प्रायश्चित्त दिये जाने आदि की सुविधा न देना, गीत-गाना, वाद्य-यन्त्र बजाना, नृत्य करना, पर भिक्षुणी सङ्घ में वरीयता बदल जाती थी वहाँ परिहार प्रायश्चित्त अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल से उसकी वरीयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। मूलाचार में परिहार में स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना, योग्य को शास्त्र को जो छेद और मूल के बाद स्थान दिया गया है, वह उचित प्रतीत न पढ़ाना, मिथ्यात्व-भावित अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को शास्त्र पढ़ाना नहीं होता क्योंकि कठोरता की दृष्टि से छेद और मूल की अपेक्षा अथवा उससे पढ़ना आदि क्रियायें लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त की परिहार प्रायश्चित्त कम कठोर था। वसुनन्दी की मूलाचार की टीका में कारण हैं।
परिहार की 'गण से पृथक् रहकर अनुष्ठान करना' ऐसी जो व्याख्या
की गई है वह समुचित एवं श्वेताम्बर-परम्परा के अनुरूप ही है। फिर गुरुचातुर्मासिक-योग्य अपराध
भी यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में मूलभूत अन्तर इतना तो अवश्य मैथुन सम्बन्धी अतिचार या अनाचारों का सेवन करना, राजपिण्ड है कि श्वेताम्बर-परम्परा परिहार को तप से पृथक् प्रायश्चित्त के रूप ग्रहण करना, आधाकर्मी आहार ग्रहण करना, रात्रिभोजन करना, रात्रि में स्वीकार नहीं करती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - दिगम्बर- परम्परा यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम की धवला टीका दर्शन और चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता परिहार को पृथक् प्रायश्चित्त नहीं मानती है। उसमें श्वेताम्बर-परम्परा- है, परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने सम्मत दस प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार का उल्लेख पर मूल प्रायश्चित्त दिया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा सकता नहीं है।
है परन्तु चारित्र की विराधना होने पर तो मूल प्रायश्चित्त दिया ही जाता
है। जो तप के गर्व से उन्मत्त हों अथवा जिन पर सामान्य प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त
या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ __का विधान किया गया है। है अथवा समर्थ होते हुए भी तप के गर्व से उन्मत्त है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में सुधार सम्भव नहीं होता है और तप अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त करके पुन:-पुन: अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना का विधान किया गया है। छेद प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्षु या भिक्षुणी है या अलग कर देना है। इस शब्द का दूसरा अर्थ है- जो सङ्घ के दीक्षा-पर्याय को कम कर देना, जिसका परिणाम यह होता है कि में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है। वस्तुत: जो अपराधी ऐसे अपराधी का श्रमण सङ्घ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान है, वह अपराध करता है जिसके कारण उसे सङ्घ से बहिष्कृत कर देना अपेक्षाकृत निम्न हो जाता है अर्थात् जो दीक्षा-पर्याय में उससे लघु आवश्यक होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है वे उससे ऊपर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसकी वरिष्ठता है। यद्यपि परिहार में भी भिक्षु को सङ्घ से पृथक् किया जाता है किन्तु (सीनियरिटी) कम हो जाती हैं और उसे इस आधार पर जो भिक्षु वह एक सीमित रूप में होता है और उसका वेष-परिवर्तन उससे कभी कनिष्ठ रहे हैं उनको उसे वन्दन आदि करना होता है। आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य किस अपराध में कितने दिन का छेद प्रायश्चित्त आता है इसका स्पष्ट भिक्षु को सङ्घ से निश्चित अवधि के लिए बहिष्कृत कर दिया जाता उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला। सम्भवतः यह परिहारपूर्वक तप है और उसे तब तक पुन: भिक्षु-सङ्घ में प्रवेश नहीं दिया जाता है प्रायश्चित्त का एक विकल्प है। अर्थात् जिसके अपराध के लिए मास जब तक कि वह प्रायश्चित्त के रूप में निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण या दिन के लिए तप निर्धारित हो, उस अपराध के करने पर कभी नहीं कर लेता है और सङ्घ इस तथ्य से आश्वस्त नहीं हो जाता है उतने दिन का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त दिया जाता है। जैसे जो अपराध कि वह पुन: अपराध नहीं करेगा। जैन-परम्परा में बार-बार अपराध षाण्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं, उनके करने पर कभी उसे छह करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित मास का छेद प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। दूसरे शब्दों में उसकी किया गया है। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वरीयता छह मास कम कर दी जाती है। अधिकतम तप की अवधि वाला, अन्य धर्मियों की चोरी करने वाला तथा डण्डे, लाठी आदि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस तीर्थङ्करों के समय में से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आठ मास और महावीर के समय में छह मास मानी गई है। अत: के योग्य माना जाता है। अधिकतम एक साथ छह मास का ही छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। सामान्यतया पार्श्वस्थ, अवसत्र, कुशील और संसक्त भिक्षुओं को पारांचिक प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त दिये जाने का विधान है।
वे अपराध जो अत्यन्त गर्हित हैं और जिनके सेवन से न केवल
व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैनसङ्घ की व्यवस्था धूमिल होती है, वे पारांचिक मूल प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं। पारांचिक प्रायश्चित्त का अर्थ भी भिक्षु-सङ्घ मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व की दीक्षा-पर्याय को पूर्णत: से बहिष्कार ही है। वैसे जैनाचार्यों ने यह माना है कि पारांचिक अपराध समाप्त कर नवीन दीक्षा प्रदान करना। इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान उस भिक्षुसङ्घ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित्त दिया जाता था वह सबसे पूर्ण कर लेता है तो उसे एक बार गृहस्थवेष धारण करवाकर पुनः कनिष्ठ बन जाता था। मूल प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारांचिक सङ्घ में प्रविष्ट किया जा सकता है। बौद्ध-परम्परा में भी पारांचिक प्रायश्चित्तों से अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष अपराधों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ऐसा अपराध करने धारण करना अनिवार्य न था। सामान्यतया पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा वाला भिक्षु सदैव के लिए सङ्घ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को मूल प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता के अनुसार अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के काल से है। इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह सम्बन्धी बन्द कर दिया गया है। इसका प्रमुख कारण शारीरिक क्षमता की कमी दोषों का पुन:-पुन: सेवन करता है वह भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र हो जाना है। स्थानाङ्ग सूत्र में निम्न पाँच अपराधों को पारांचिक प्रायश्चित्त माना गया है। जीतकल्प भाष्य के अनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, के योग्य माना गया है।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन (१) जो कुल में परस्पर कलह करता हो।
है। स्व-गण के आचार्य आदि से भी प्रायश्चित्त लिया जा सकता है। (२) जो गण में परस्पर कलह करता हो।
किन्तु अन्य गण के आचार्य तभी प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे (३) जो हिंसा-प्रेमी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का घात करना इस सम्बन्ध में निवेदन किया जाये। जीतकल्प के अनुसार स्वलिङ्गी चाहता हो।
अन्य गण के आचार्य या मुनि की अनुपस्थिति में छेदसूत्र का अध्येता (४) जो छिद्रप्रेमी हो अर्थात् जो छिद्रान्वेषण करता हो।
गृहस्थ जिसने दीक्षा-पर्याय छोड़ दिया हो वह भी प्रायश्चित्त दे सकता (५) जो प्रश्न-शास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो।
है। इन सब के अभाव में साधक स्वयं भी पापशोधन के लिए स्वविवेक स्थानाङ्ग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य-मैथुनसेवी भिक्षुओं को से प्रायश्चित्त का निश्चय कर सकता है। पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन सेवन करने वाले को क्या प्रायश्चित्त सार्वजनिक रूप में दिया जाये? मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना बनाने वाले इस प्रश्न के उत्तर में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अन्य परम्पराओं एवं परस्पर मैथुन-सेवन करने वालों को पारांचित प्रायश्चित्त के योग्य से भिन्न है। वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का साधन तो मानते क्यों बताया? इसका कारण यह है कि जहाँ हिंसा एवं मैथुन-सेवन हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त के विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में दण्ड करने वाले का अपराध व्यक्त होता है और उसका परिशोध सम्भव केवल इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर अन्य लोग होता है वह मूल प्रायश्चित्त के योग्य है किन्तु इन दूसरे प्रकार के व्यक्तियों अपराध करने से भयभीत हों। अत: जैन-परम्परा सामूहिक रूप में, का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है और सङ्घ के समस्त । खुले रूप में दण्ड की विरोधी है। इसके विपरीत बौद्ध-परम्परा में परिवेश को दूषित बना देता है। वस्तुत: जब अपराधी के सुधार की दण्ड या प्रायश्चित्त को सङ्घ के सम्मुख सार्वजनिक रूप से देने की सभी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं तो उसे पारांचिक प्रायश्चित्त के परम्परा है। बौद्ध-परम्परा में प्रवारणा के समय साधक भिक्षु को सङ्घ योग्य माना जाता है। जीत कल्प के अनुसार तीर्थङ्कर के प्रवचन अर्थात्, के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर सङ्घ-प्रदत्त प्रायश्चित्त या दण्ड श्रुत, आचार्य और गणधर की आशातना करने वाले को भी पारांचिक को स्वीकार करना होता है। वस्तुत: बुद्ध के निर्वाण के बाद किसी प्रायश्चित्त का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन-प्रवचन का सङ्घप्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक नहीं माना गया, अत: प्रायश्चित्त अवर्णवाद करता हो वह सङ्घ में रहने के योग्य नहीं माना जाता। या दण्ड देने का दायित्व सङ्घ पर आ पड़ा। किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि जीतकल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजा के वध की से सार्वजनिक रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने वाला भी क्योंकि इससे समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी पारांचिक प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। वैसे परवर्ती आचार्यों सार्वजनिक रूप से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन के अनुसार पारांचिक अपराध का दोषी भी विशिष्ट तप-साधना के जाता है। पश्चात् सङ्घ में प्रवेश का अधिकारी मान लिया गया है। पारांचिक प्रायश्चित्त का कम से कम समय छह मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न समय १२ वर्ष माना गया है। कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी विचारणीय है कि क्या को आगमों का संस्कृत भाषा में रूपान्तरण करने के प्रयत्न पर १२ जैन-सङ्घ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या एक वर्ष का पारांचिक प्रायश्चित्त दिया गया था। विभिन्न पारांचिक प्रायश्चित्त ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग दण्ड दिया के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें जीतकल्प भाष्य जा सकता है। जैन विचारकों के अनुसार एक ही प्रकार के अपराध की गाथा २५४० से २५८६ तक मिलता है। विशिष्ट विवरण के । के लिए सभी प्रकार के व्यक्तियों को एक ही समान दण्ड नहीं दिया इच्छुक विद्वद्जनों को वहाँ उसे देख लेना चाहिए।
जा सकता। प्रायश्चित्त के कठोर और मृद होने के लिए व्यक्ति की
सामाजिक स्थिति एवं वह विशेष परिस्थिति भी विचारणीय है जिसमें प्रायश्चित्त देने का अधिकार
कि वह अपराध किया गया है। उदाहरण के लिए एक ही प्रकार के सामान्यतः प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य या गणि का माना अपराध के लिए जहाँ सामान्य भिक्षु या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की गया है। सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने अपराध व्यवस्था है। वहीं श्रमण-सङ्घ के पदाधिकारियों को अर्थात् प्रवर्तिनी, के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और । प्रवर्तक, गणि, आचार्य आदि को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है। आचार्य को भी परिस्थिति और अपराध की गुरुता का विचार कर उसे पुन: जैन आचार्य यह भी मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वत: प्रेरित प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार दण्ड या प्रायश्चित्त देने का सम्पूर्ण होकर कोई अपराध करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य अधिकार आचार्य, गणि या प्रवर्तक को होता है। आचार्य या गणि होकर अपराध करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय की अनुपस्थिति में प्रवर्तक की व्यवस्था है। यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ अथवा वरिष्ठ मुनि जो छेद-सूत्रों का ज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्ध - जैन दर्शन नहीं है किन्तु उस स्थिति में भी यदि वह सम्भोग का आस्वादन लेती से विचार किया गया है कि कठोर अपराध को करने वाला व्यक्ति है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। अत: एक ही प्रकार के भी यदि रुग्ण हो, अतिवृद्ध हो, विक्षिप्त चित्त हो, उन्माद या उपसर्ग अपराध हेतु दो भिन्न व्यक्तियों व परिस्थितियों में अलग-अलग प्रायश्चित्त से पीड़ित हो, उसे भोजन-पानी आदि सुविधापूर्वक न मिलता हो अथवा का विधान किया गया है। यही नहीं जैनाचार्यों ने यह भी विचार किया मुनि-जीवन की आवश्यक सामग्री से रहित हो तो ऐसे भिक्षुओं को है कि अपराध किसके प्रति किया गया है। एक सामान्य साधु के प्रति तत्काल सङ्घ से बहिष्कृत करना अथवा बहिष्कृत करके शुद्धि के लिए किए गये अपराध की अपेक्षा आचार्य के प्रति किया गया अपराध कठोर तप आदि की व्यवस्था देना समुचित नहीं है। अधिक दण्डनीय है। जहाँ सामान्य व्यक्ति के लिए किये गये अपराध को मृदु या अल्प दण्ड माना जाता है वहीं श्रमण-सङ्घ के आधुनिक दण्ड-सिद्धान्त और जैन प्रायश्चित्त-व्यवस्था किसी पदाधिकारी के प्रति किये गये अपराध को कठोर दण्ड के योग्य जैसा कि हमने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि दण्ड और प्रायश्चित्त माना जाता है।
की अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है। जहाँ प्रायश्चित्त अन्त:प्रेरणा इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन प्रायश्चित्त-विधान या दण्ड-प्रक्रिया से स्वतः लिया जाता है, वहाँ दण्ड व्यक्ति को बलात् दिया जाता में व्यक्ति या परिस्थति के महत्त्व को ओझल नहीं किया है और माना है। अत: आत्मशुद्धि तो प्रायश्चित्त से ही सम्भव है, दण्ड से नहीं। है कि व्यक्ति और परिस्थति के आधार पर सामान्य और विशेष व्यक्तियों दण्ड में तो प्रतिशोध, प्रतिकार या आपराधिक प्रवृत्ति के निरोध का को अलग-अलग प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, जबकि सामान्यतया दृष्टिकोण ही प्रमुख होता है। बौद्ध-परम्परा में इस प्रकार के विचार का अभाव देखते हैं। हिन्दू-परम्परा पाश्चात्य विचारकों ने दण्ड के तीन सिद्धान्त प्रतिपादित यद्यपि प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मूल्याङ्कन किये हैं - करती है किन्तु उसका दृष्टिकोण जैन-परम्परा से बिल्कुल विपरीत दिखाई (१) प्रतिकारात्मक सिद्धान्त, (२) निरोधात्मक सिद्धान्त, देता है। जहाँ जैन-परम्परा उसी अपराध के लिए प्रतिष्ठित व्यक्तियों (३) सुधारात्मक सिद्धान्त। प्रथम प्रतिकारात्मक सिद्धान्त यह मानकर एवं पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था करती है वहीं चलता है कि दण्ड के समय अपराध की प्रतिशत की जाती है। अर्थात् हिन्दू-परम्परा आचार्यों, ब्राह्मणों आदि के लिए मृदु-दण्ड की व्यवस्था अपराधी ने दूसरे की जो क्षति की है उसकी परिपूर्ति करना या उसका करती है। उसमें एक समान अपराध करने पर भी शूद्र को कठोर दण्ड बदला देना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है। "आँख के बदले आँख" दिया जाता है और ब्राह्मण को अत्यन्त मृदु-दण्ड दिया जाता है। दोनों और “दाँत के बदले दाँत", ही इस दण्ड सिद्धान्त की मूलभूत अवधारणा परम्पराओं में यह दृष्टिभेद विशेष रूप से द्रष्टव्य है। बृहत्कल्पभाष्य है। इस प्रकार की दण्ड-व्यवस्था से न तो समाज के अन्य लोग की टीका में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि जो पद जितना आपराधिक प्रवृत्तियों से भयभीत होते हैं और न उस व्यक्ति का जिसने उत्तरदायित्वपूर्ण होता है उस पद के धारक व्यक्ति को उतना ही कठोर अपराध किया है, कोई सुधार ही होता है। दण्ड दिया जाता था। उदाहरण के रूप में भिक्षुणियों का नदी-तालाब अपराध का दूसरा निरोधात्मक सिद्धान्त मूलत: यह मानकर चलता के किनारे ठहरना, वहाँ स्वाध्याय आदि करना निषिद्ध है। उस नियम है कि अपराधी को दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसने अपराध का उल्लङ्घन करने पर जहाँ स्थविर को मात्र षट्लघु, भिक्षुणी कोषट्गुरु किया है अपितु इसलिए दिया जाता है कि दूसरे लोग अपराध करने प्रायश्चित्त दिया जाता है, वहाँ गणिनी को छेद और प्रवर्तिनी को मूल का साहस न करें। समाज में आपराधिक प्रवृत्ति को रोकना ही दण्ड प्रायश्चित्त देने का विधान है। सामान्य साधु की अपेक्षा आचार्य के का उद्देश्य है। इसमें छोटे अपराध के लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था द्वारा वही अपराध किया जाता है तो आचार्य को कठोर दण्ड दिया होती है। किन्तु इस सिद्धान्त में अपराध करने वाले व्यक्ति को समाज जाता है।
के दूसरे व्यक्तियों को आपराधिक प्रवृत्ति से भयभीत करने के लिए
साधन बनाया जाता है। अत: दण्ड का यह सिद्धान्त न्यायसङ्गत नहीं बार-बार अपराध या दोष-सेवन करने पर अधिक दण्ड कहा जा सकता। इसमें दण्ड का प्रयोग साध्य के रूप में नहीं अपितु
जैन-परम्परा में प्रथम बार अपराध करने की अपेक्षा दूसरी बार साधन के रूप में किया जाता है। या तीसरी बार उसी अपराध को करने पर कठोर प्रायश्चित्त की व्यवस्था दण्ड का तीसरा सिद्धान्त सुधारात्मक सिद्धान्त है, इस सिद्धान्त की गई है। यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी एक नियम का बार-बार अतिक्रमण के अनुसार अपराधी भी एक प्रकार का रोगी है अत: उसकी चिकित्सा करता है तो उस नियम के अतिक्रमण की संख्या में जैसे-जैसे वृद्धि अर्थात् उसे सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार होती जाती है प्रायिश्चत्त मास लघु से बढ़ता हुआ छेद एवं नई दीक्षा दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का सुधार होना चाहिए। वस्तुत: कारागृहों को तक बढ़ जाता है।
सुधारगृहों के रूप में परिवर्तित किया जाना चाहिए ताकि अपराधी
के हृदय को परिवर्तित कर उसे सभ्य नागरिक बनाया जा सके। प्रायश्चित्त देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार
यदि हम इन सिद्धान्तों की तुलना जैन-प्रायश्चित्त-व्यवस्था से जैन-दण्ड या प्रायश्चित्त-व्यवस्था में इस बात पर भी पर्याप्त रूप करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन विचारक अपनी
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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धान्त को और तब तक वह आपराधिक प्रवृत्तियों से विमुख नहीं होगा। यद्यपि इस न निरोधात्मक सिद्धान्त को अपनाते हैं अपितु सुधारात्मक सिद्धान्त आत्मग्लानि या अपराधबोध का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति जीवन मे सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वत: ही अपराधबोध भर इसी भावना से पीड़ित रहे अपितु वह अपराध या दोष को दोष की भावना उत्पन्न करा सकें एवं आपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रखकर के रूप में देखे और यह समझे कि अपराध एक संयोगिक घटना अनुशासित किया जाये। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जब तक है और उसका परिशोधन कर आध्यात्मिक-विकास के पथ पर आगे व्यक्ति में स्वत: ही अपराध के प्रति आत्मग्लानि उत्पत्र नहीं होगी बढ़ा जा सकता है। सन्दर्भ : 1. जीतकल्पभाष्य, जिनभद्रगणि, सं० पुण्यविजयजी, अहमदाबाद, वि०सं० 1994 / 2. पंचाशक (हरिभद्र, सं० डॉ० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 1997), 16/3 (प्रायश्चित्तपंचाशक)। वही। अभिधानराजेन्द्र कोष, पञ्चम भाग, पृ०८५५। तत्त्वार्थवार्तिक 9/22/1, पृ० 620 / वही। मूलाचार, सं०५० पन्नालाल माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० 1977, 5/164 / 8. वही, 5/166 / 9. स्थानाङ्ग, सं० मधुकरमुनि, ब्यावर, 3/470 / 10. वही, 3/448 / 11. वही, 10/73 / 12. (अ) स्थानाङ्ग, 10/73 / (ब) जीतकल्पसूत्र, 4, जीतकल्पभाष्य,गाथा 718-729 / (स) धवला, 13/5, 26/63/1 / 13. मूलाचार, 5/165 / 14. तत्वार्थसूत्र, उमास्वाति, 9/22 / 15. जीतकल्पभाष्य 2586, जीतकल्प, 102 / 16. स्थानाङ्ग, 10/69 / 17. स्थानाङ्ग, 10/71 / 18. स्थानाङ्ग, 10/72 / 19. व्यवहारसूत्र, 1/1/33 / 20. (अ) स्थानाङ्ग, 10/70 / (ब) मूलाचार, 11/15 / 21. जीतकल्प 6, देखें- जीतकल्पभाष्य,गाथा 731-757 / 22. योगशास्त्र-स्वोपज्ञवृत्ति, 3 / 23. आवश्यक टीका, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० 87 / 24. स्थानाङ्ग सूत्र, 6/538 / 25. आवश्यकनियुक्ति, 1250-1268 / सूचना-यापनीय परम्परा में पिण्डछेदशास्त्र और छेदशास्त्र ऐसे दो ग्रन्थ है जिनमें प्रायश्चित्तों का विवेचन है।