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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं आगमज्ञ के समक्ष ही आलोचना सामने आलोचना करना दोषपूर्ण माना गया है। की जानी चाहिए। साथ ही इनके पदक्रम और वरीयता पर विचार (८) बहुजन-दोष- एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष करते हुए यह कहा गया है कि जहाँ आचार्य आदि उच्चाधिकारी उपस्थित आलोचना करना और उनमें से जो सबसे कम दण्ड या प्रायश्चित्त दे हों, वहाँ सामान्य साधु या गृहस्थ के समक्ष आलोचना नहीं करनी उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है। चाहिए। आचार्य के उपस्थित होने पर उसी के समक्ष आलोचना की (९) अव्यक्त दोष-दोषों को पूर्णरूप से स्पष्ट न कहते हुए जानी चाहिए। आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय उनकी आलोचना करना अव्यक्त दोष है। की अनुपस्थिति में सांभोगिक साधर्मिक साधु के समक्ष और उनकी (१०) तत्सेवी दोष-जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन करने अनुपस्थिति में अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु के समक्ष आलोचना करनी वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी दोष है। क्योकि चाहिए। यदि अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न हो तो ऐसी जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है उसे दूसरे को प्रायश्चित्त स्थिति में बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान-वेश-धारक साधु के समक्ष देने का अधिकार ही नहीं है। दूसरे, ऐसा व्यक्ति उचित प्रायश्चित्त भी. आलोचना करे। उसके उपलब्ध न होने पर यदि पूर्व में दीक्षा-पर्याय नहीं दे पाता। को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और आगमज्ञ श्रमणोपासक उपस्थित हो तो इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने आलोचना के सन्दर्भ उसके समक्ष आलोचना करे। उसके अभव में सम्यक्त्व-भावित में उसके स्वरूप, आलोचना करने व सुनने की पात्रता और उसके अन्त:करण वाले के समक्ष अर्थात् सम्यक्त्वी जीव के समक्ष आलोचना दोषों पर गहराई से विचार किया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करे। यदि सम्यक्त्वभावी अन्त:करण वाला भी न हो तो ग्राम या नगर निशीथ आदि में पायी जाती है। पाठकों से उसे वहाँ देखने की अनुशंसा के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर अरिहन्त और की जाती है। सिद्ध की साक्षीपूर्वक आलोचना करे। १९ आलोचना-सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी तथ्य आलोचना-योग्य कार्य ध्यान देने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो। स्थानाङ्ग, मूलाचार, जीतकल्प के अनुसार जो भी करणीय अर्थात् आवश्यक कार्य भगवती-आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का उल्लेख हैं, वे तीर्थङ्करों द्वारा सम्पादित होने पर तो निदोष होते हैं, किन्तु छद्यस्थ मालाचना क दस दोषों का उल्लेख हआ है. है, वे तीर्थङ्करों द्वारा सम्पानि श्रमणों द्वारा सम्पादित इन कर्मों की शुद्धि केवल आलोचना से ही (१) आकम्पित दोष-आचार्य आदि को उपकरण आदि देकर मानी गयी है। जीतकल्प में कहा गया है कि आहार आदि का ग्रहण, अपने अनुकूल बना लेना आकम्पित दोष है। कुछ विद्वानों के अनुसार गमनागमन, मल-मूत्र विसर्जन, गुरुवन्दन आदि सभी क्रियाएँ आलोचना आकम्पित दोष का अर्थ है काँपते हुए आलोचना करना, जिससे । के योग्य हैं।२१ इन्हें आलोचना-योग्य मानने का तात्पर्य यह है कि प्रायश्चित्तदाता कम से कम प्रायश्चित्त दे। साधक इस बात का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन (२) अनुमानित दोष-भय से अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि सजगतापूर्वक अप्रमत्त होकर किया या नहीं। क्योंकि प्रमाद के कारण दिखाकर आलोचना करना अनुमानित दोष है। ऐसा 'अल्प प्रायश्चित्त दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार आचार्य से सौ हाथ की दूरी पर मिले' इस भावना से किया जाता है। रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, वे भी आलोचना के विषय माने (३) अद्रष्ट-गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख लिया गये हैं। इन कार्यों की गुरु के समक्ष आलोचना करने पर ही साधक हो उसकी तो आलोचना करना और अद्रष्ट दोषों की आलोचना न निर्दोष होता है। गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर रहकर क्या-क्या करना यह अद्रष्ट दोष है। कार्य किस प्रकार सम्पादित किये हैं? इसके साथ ही किसी (४) बादर दोष-बड़े दोषों की आलोचना करना और छोटे । कारणवश या अकारण ही स्व-गण का परित्याग कर पर-गण में प्रवेश दोषों की आलोचना न करना बादर दोष है। करने को अथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यों को भी आलोचना (५) सूक्ष्म दोष-छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना और का विषय माना गया है। ईर्या आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों बड़े दोषों को छिपा लेना सूक्ष्म दोष है। में लगे हुए दोष सामान्यतया आलोचना के विषय हैं। यद्यपि हमें स्मरण (६) छन्न दोष-आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु उसे रखना चाहिए कि ये सभी दोष जो आलोचना के विषय हैं, वे पूरी तरह सुन ही न सके, यह छन्न दोष है। कुछ विद्वानों के अनुसार देश-काल-परिस्थिति और व्यक्ति के आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, आचार्य के समक्ष मैंने यह दोष किया, यह न कहकर किसी बहाने विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार, छेद आदि प्रायश्चित्त के भी योग्य हो से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही उसका प्रायश्चित्त ले लेना सकते हैं। छन्न दोष है। (७) शब्दाकुलित दोष-कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलोचना प्रतिक्रमण करना जिससे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, यह शब्दाकुलित प्रायचित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है। अपराध या नियमभङ्ग दोष है। दूसरे शब्दों में भीड़-भाड़ अथवा व्यस्तता के समय गुरु के को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे वापस लौट आना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210775
Book TitleJain Dharm me Prayaschitt evam Dand Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size2 MB
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