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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - (१) दर्प-प्रतिसेवना- आवेश अथवा अहकार के वशीभूत एक विचारणीय प्रश्न है। योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त किसी होकर जो हिंसा आदि करके व्रत-भङ्ग किया जाता है वह दर्प- अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह होता है कि प्रतिसेवना है
वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचा सकता (२) प्रमाद-प्रतिसेवना-प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत होकर है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ सकता है। अत: जैनाचार्यों जो व्रत भङ्ग किया जाता है, वह प्रमाद-प्रतिसेवना है।
ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे व्यक्ति के समक्ष करनी चाहिये जो (३) अनाभोग-प्रतिसेवना-स्मृति या सजगता के अभाव में आलोचना सुनने योग्य हो, उसे गोपनीय रख सकता हो और उसका अभक्ष्य या नियम-विरुद्ध वस्तु का ग्रहण करना अनाभोग- अनैतिक लाभ न ले। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार जिस व्यक्ति के सामने प्रतिसेवना है।
आलोचना की जाती है उसे निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना (४) आतुर-प्रतिसेवना-भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर चाहिएकिया जाने वाला व्रत-भङ्ग आतुर-प्रतिसेवना है।
(१) आचारवान्-सदाचारी होना, आलोचना देने वाले व्यक्ति (५) आपात-प्रतिसेवना- किसी विशिष्ट परिस्थिति के का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों के अपराधों उत्पन्न होने पर व्रत-भङ्ग या नियम-विरुद्ध आचरण करना आपात- की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है। जो अपने ही दोषों को प्रतिसेवना है।
शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरों के दोषों को क्या दूर करेगा? (६) शशित-प्रतिसेवना-शङ्का के वशीभूत होकर जो नियम- (२) आधारवान्-अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध में भङ्ग किया जाता है, उसे शङ्कित-प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे यह व्यक्ति नियत प्रायश्चित्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए हमारा अहित करेगा, ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि कर देना। कि किस अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्चित्त नियत है।
(७) सहसाकार-प्रतिसेवना- अकस्मात् होने वाले व्रतभङ्ग या (३) व्यवहारवान्- उसे आगम, श्रुत, जिनाज्ञा, धारणा और नियम-भङ्ग को सहसाकार-प्रतिसेवना कहते हैं।
जीत इन पाँच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना चाहिए क्योंकि (८) भय-प्रतिसेवना-भय के कारण जो व्रत या नियम-भङ्ग सभी अपराधों एवं प्रायश्चित्तों की सूची आगमों में उपलब्ध नहीं है किया जाता है वह भय-प्रतिसेवना है।
अत: आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिये जो स्वविवेक (९) प्रदोष-प्रतिसेवना-द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा अथवा । से ही आगमिक आधारों पर किसी कर्म के प्रायश्चित्त का अनुमान उसका अहित करना प्रदोष-प्रतिसेवना है।
कर सके। (१०) विमर्श-प्रतिसेवना-शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी (४) अपनीडक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए श्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भङ्ग करना कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें आत्म-आलोचन विमर्श-प्रतिसेवना है। दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के लिए की शक्ति उत्पन्न कर सके। विचारपूर्वक व्रतभङ्ग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण करना विमर्श (५) प्रकारी-आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह या प्रतिसेवना है।
सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व इस प्रकार हम देखते हैं कि अपराध व्यक्ति केवल स्वेच्छा से को रूपान्तरित कर सके। जानबूझकर ही नहीं करता अपितु परिस्थतिवश भी करता है। अत: (६) अपरिश्रावी-उसे आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अपराध के सामने प्रगुट नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया है?
सामने आलोचना करने में संकोच करेगा। आलोचना करने का अधिकारी कौन?
(७) निर्यापक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है? इस सम्बन्ध में भी कि वह प्रायश्चित्त-विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित्त करने वाला व्यक्ति स्थानाङ्गसूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है। इसके अनुसार निम्न घबराबर उसे आधे में ही न छोड़ दे। उसे प्रायश्चित्त करने वाले का दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य होता है- सहयोगी बनना चाहिए।
(१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) विनय सम्पन्न, (८) अपायदर्शी- अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह (४) ज्ञान सम्पन्न, (५) दर्शन सम्पत्र, (६) चारित्र सम्पन्न, (७) क्षान्त आलोचना करने अथवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर सके। (क्षमासम्पत्र),(८) दान्त (इन्द्रिय-जयी), (९) अमायावी (मायाचार-रहित) (९) प्रियधर्मा-अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की धर्म-मार्ग
और (१०) अपश्चात्तापी (आलोचना करने के बाद उसका पश्चात्ताप न में अविचल निष्ठा होनी चाहिए। करने वाला)
(१०) धर्मा-उसे ऐसा होना चाहिए कि वह कठिन से कठिन
समय में भी धर्म-मार्ग से विचलित न हो सके। आलोचना किसके समक्ष की जाये?
जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति की इन आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जानी चाहिए? यह भी सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह भी माना
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