________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धान्त को और तब तक वह आपराधिक प्रवृत्तियों से विमुख नहीं होगा। यद्यपि इस न निरोधात्मक सिद्धान्त को अपनाते हैं अपितु सुधारात्मक सिद्धान्त आत्मग्लानि या अपराधबोध का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति जीवन मे सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वत: ही अपराधबोध भर इसी भावना से पीड़ित रहे अपितु वह अपराध या दोष को दोष की भावना उत्पन्न करा सकें एवं आपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रखकर के रूप में देखे और यह समझे कि अपराध एक संयोगिक घटना अनुशासित किया जाये। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जब तक है और उसका परिशोधन कर आध्यात्मिक-विकास के पथ पर आगे व्यक्ति में स्वत: ही अपराध के प्रति आत्मग्लानि उत्पत्र नहीं होगी बढ़ा जा सकता है। सन्दर्भ : 1. जीतकल्पभाष्य, जिनभद्रगणि, सं० पुण्यविजयजी, अहमदाबाद, वि०सं० 1994 / 2. पंचाशक (हरिभद्र, सं० डॉ० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 1997), 16/3 (प्रायश्चित्तपंचाशक)। वही। अभिधानराजेन्द्र कोष, पञ्चम भाग, पृ०८५५। तत्त्वार्थवार्तिक 9/22/1, पृ० 620 / वही। मूलाचार, सं०५० पन्नालाल माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि०सं० 1977, 5/164 / 8. वही, 5/166 / 9. स्थानाङ्ग, सं० मधुकरमुनि, ब्यावर, 3/470 / 10. वही, 3/448 / 11. वही, 10/73 / 12. (अ) स्थानाङ्ग, 10/73 / (ब) जीतकल्पसूत्र, 4, जीतकल्पभाष्य,गाथा 718-729 / (स) धवला, 13/5, 26/63/1 / 13. मूलाचार, 5/165 / 14. तत्वार्थसूत्र, उमास्वाति, 9/22 / 15. जीतकल्पभाष्य 2586, जीतकल्प, 102 / 16. स्थानाङ्ग, 10/69 / 17. स्थानाङ्ग, 10/71 / 18. स्थानाङ्ग, 10/72 / 19. व्यवहारसूत्र, 1/1/33 / 20. (अ) स्थानाङ्ग, 10/70 / (ब) मूलाचार, 11/15 / 21. जीतकल्प 6, देखें- जीतकल्पभाष्य,गाथा 731-757 / 22. योगशास्त्र-स्वोपज्ञवृत्ति, 3 / 23. आवश्यक टीका, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० 87 / 24. स्थानाङ्ग सूत्र, 6/538 / 25. आवश्यकनियुक्ति, 1250-1268 / सूचना-यापनीय परम्परा में पिण्डछेदशास्त्र और छेदशास्त्र ऐसे दो ग्रन्थ है जिनमें प्रायश्चित्तों का विवेचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org