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________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन (१) जो कुल में परस्पर कलह करता हो। है। स्व-गण के आचार्य आदि से भी प्रायश्चित्त लिया जा सकता है। (२) जो गण में परस्पर कलह करता हो। किन्तु अन्य गण के आचार्य तभी प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे (३) जो हिंसा-प्रेमी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का घात करना इस सम्बन्ध में निवेदन किया जाये। जीतकल्प के अनुसार स्वलिङ्गी चाहता हो। अन्य गण के आचार्य या मुनि की अनुपस्थिति में छेदसूत्र का अध्येता (४) जो छिद्रप्रेमी हो अर्थात् जो छिद्रान्वेषण करता हो। गृहस्थ जिसने दीक्षा-पर्याय छोड़ दिया हो वह भी प्रायश्चित्त दे सकता (५) जो प्रश्न-शास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो। है। इन सब के अभाव में साधक स्वयं भी पापशोधन के लिए स्वविवेक स्थानाङ्ग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य-मैथुनसेवी भिक्षुओं को से प्रायश्चित्त का निश्चय कर सकता है। पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन सेवन करने वाले को क्या प्रायश्चित्त सार्वजनिक रूप में दिया जाये? मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना बनाने वाले इस प्रश्न के उत्तर में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अन्य परम्पराओं एवं परस्पर मैथुन-सेवन करने वालों को पारांचित प्रायश्चित्त के योग्य से भिन्न है। वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का साधन तो मानते क्यों बताया? इसका कारण यह है कि जहाँ हिंसा एवं मैथुन-सेवन हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त के विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में दण्ड करने वाले का अपराध व्यक्त होता है और उसका परिशोध सम्भव केवल इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर अन्य लोग होता है वह मूल प्रायश्चित्त के योग्य है किन्तु इन दूसरे प्रकार के व्यक्तियों अपराध करने से भयभीत हों। अत: जैन-परम्परा सामूहिक रूप में, का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है और सङ्घ के समस्त । खुले रूप में दण्ड की विरोधी है। इसके विपरीत बौद्ध-परम्परा में परिवेश को दूषित बना देता है। वस्तुत: जब अपराधी के सुधार की दण्ड या प्रायश्चित्त को सङ्घ के सम्मुख सार्वजनिक रूप से देने की सभी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं तो उसे पारांचिक प्रायश्चित्त के परम्परा है। बौद्ध-परम्परा में प्रवारणा के समय साधक भिक्षु को सङ्घ योग्य माना जाता है। जीत कल्प के अनुसार तीर्थङ्कर के प्रवचन अर्थात्, के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर सङ्घ-प्रदत्त प्रायश्चित्त या दण्ड श्रुत, आचार्य और गणधर की आशातना करने वाले को भी पारांचिक को स्वीकार करना होता है। वस्तुत: बुद्ध के निर्वाण के बाद किसी प्रायश्चित्त का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन-प्रवचन का सङ्घप्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक नहीं माना गया, अत: प्रायश्चित्त अवर्णवाद करता हो वह सङ्घ में रहने के योग्य नहीं माना जाता। या दण्ड देने का दायित्व सङ्घ पर आ पड़ा। किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि जीतकल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजा के वध की से सार्वजनिक रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने वाला भी क्योंकि इससे समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी पारांचिक प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। वैसे परवर्ती आचार्यों सार्वजनिक रूप से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन के अनुसार पारांचिक अपराध का दोषी भी विशिष्ट तप-साधना के जाता है। पश्चात् सङ्घ में प्रवेश का अधिकारी मान लिया गया है। पारांचिक प्रायश्चित्त का कम से कम समय छह मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न समय १२ वर्ष माना गया है। कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी विचारणीय है कि क्या को आगमों का संस्कृत भाषा में रूपान्तरण करने के प्रयत्न पर १२ जैन-सङ्घ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या एक वर्ष का पारांचिक प्रायश्चित्त दिया गया था। विभिन्न पारांचिक प्रायश्चित्त ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग दण्ड दिया के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें जीतकल्प भाष्य जा सकता है। जैन विचारकों के अनुसार एक ही प्रकार के अपराध की गाथा २५४० से २५८६ तक मिलता है। विशिष्ट विवरण के । के लिए सभी प्रकार के व्यक्तियों को एक ही समान दण्ड नहीं दिया इच्छुक विद्वद्जनों को वहाँ उसे देख लेना चाहिए। जा सकता। प्रायश्चित्त के कठोर और मृद होने के लिए व्यक्ति की सामाजिक स्थिति एवं वह विशेष परिस्थिति भी विचारणीय है जिसमें प्रायश्चित्त देने का अधिकार कि वह अपराध किया गया है। उदाहरण के लिए एक ही प्रकार के सामान्यतः प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य या गणि का माना अपराध के लिए जहाँ सामान्य भिक्षु या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की गया है। सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने अपराध व्यवस्था है। वहीं श्रमण-सङ्घ के पदाधिकारियों को अर्थात् प्रवर्तिनी, के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और । प्रवर्तक, गणि, आचार्य आदि को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है। आचार्य को भी परिस्थिति और अपराध की गुरुता का विचार कर उसे पुन: जैन आचार्य यह भी मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वत: प्रेरित प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार दण्ड या प्रायश्चित्त देने का सम्पूर्ण होकर कोई अपराध करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य अधिकार आचार्य, गणि या प्रवर्तक को होता है। आचार्य या गणि होकर अपराध करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय की अनुपस्थिति में प्रवर्तक की व्यवस्था है। यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ अथवा वरिष्ठ मुनि जो छेद-सूत्रों का ज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210775
Book TitleJain Dharm me Prayaschitt evam Dand Vyavastha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size2 MB
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