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जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
निर्बन्ध परम्परा में सचेलकत्व और अचेलकत्व का प्रश्न अतिप्राचीन काल से ही विवाद का विषय रहा है। वर्तमान में जो श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय हैं, उनके बीच भी विवाद का प्रमुख बिन्दु यही है। पहले भी इसी विवाद के कारण उत्तर भारत का निर्मन्य संघ विभाजित हुआ था और यापनीय सम्प्रदाय अस्तित्व में आया था। दूसरे शब्दों में इसी विवाद के कारण जैनों में विभिन्न सम्प्रदाय अर्थात् श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय निर्मित हुए हैं। यह समस्या मूलतः मुनि आचार से ही सम्बन्धित है, क्योंकि गृहस्थ उपासक, उपासिकाएँ और साध्विय तो तीनों ही सम्प्रदायों में सचेल (सवस्त्र) ही मानी गई हैं।
मुनियों के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा की मान्यता यह है कि मात्र अचेल (नम) ही मुनि पद का अधिकारी है। जिसके पास वस्त्र है, चाहे वह लंगोटी मात्र ही क्यों न हो, वह मुनि नहीं हो सकता है। इसके विपरीत श्वेताम्बरों का कहना है कि मुनि अचेल (नग्न) और सचेल (सवस्त्र) दोनों हो सकते हैं। साथ ही वे यह भी मानते हैं कि वर्तमान काल की परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिसमें मुनि का अचेल ( नम) रहना उचित नहीं है। इन दोनों परम्पराओं से भिन्न यापनीयों की मान्यता यह है कि अचेलता ही श्रेष्ठ मार्ग है, किन्तु आपवादिक स्थितियों में मुनि वस्त्र रख सकता है। इस प्रकार जहाँ दिगम्बर परम्परा एकान्त रूप से अचेलकत्व को ही मुनि-मार्ग या मोक्ष मार्ग मानती है, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा वर्तमान में जिनकल्प (अचेल मार्ग) का उच्छेद दिखाकर सचेलता पर ही बल देती है यापनीय परम्परा का दृष्टिकोण इन दोनों अतिवादियों के मध्य समन्वय करता है। वह मानती है कि सामान्यतया तो मुनि को अचेल या नम्र ही रहना चाहिये, क्योंकि वस्त्र भी परिग्रह ही है, किन्तु आपवादिक स्थितियों में संयमोपकरण के रूप में वस्त्र रखा जा सकता है। उसकी दृष्टि में अचेलकत्व (नग्नत्व) उत्सर्ग मार्ग है और सचेलकत्व अपवाद मार्ग है।
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प्रस्तुत परिचर्चा में सर्वप्रथम हम इस विवाद को इसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न करेंगे कि यह विवाद क्यों, कैसे और किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ?
प्रस्तुत अध्ययन की स्रोत सामग्री
इस प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने हेतु हमारे पास जो प्राचीन स्त्रोत सामग्री उपलब्ध है, उसमें प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगम, पालित्रिपिटक और मथुरा से प्राप्त प्राचीन जिन प्रतिमाओं की पाद पीठ पर अंकित मुनि प्रतिमाएँ ही मुख्य हैं श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य अर्धमागधी आगमों में आचारांग सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक ही ऐसे अन्य हैं जिन्हें इस चर्चा का आधार बनाया जा सकता है, क्योंकि प्रथम तो ये प्राचीन (ई०पू० के है और दूसरे ) इनमें हमें सम्प्रदायातीत दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी इनकी प्राचीनता एवं सम्प्रदाय निरपेक्षता को स्वीकार
किया है। शारसनी आगम साहित्य में कसायपाहुड ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है, जो अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर का है, किन्तु दुर्भाग्य से इसमें वस्त्र - पात्र सम्बन्धी कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं है। शेष शौरसेनी आगम ग्रन्थों में भगवती आराधना, मूलाचार और षट्खण्डागम मूलतः यापनीय परम्परा के हैं। साथ ही गुणस्थान- सिद्धान्त आदि की परवर्ती अवधारणाओं की उपस्थिति के कारण ये ग्रन्यं भी विक्रम की छठी शती के पूर्व के नहीं माने जा सकते हैं, फिर भी प्रस्तुत चर्चा में इनका उपयोग इसलिये आवश्यक है कि अचेल पक्ष को प्रस्तुत करने के लिये इनके अतिरिक्त अन्य कोई प्राचीन स्रोत सामग्री हमें उपलब्ध नहीं है जहाँ तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें सुत्तपाहुड एवं लिंगपाहुड को छोड़कर यह चर्चा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। ये अन्य भी छठीं शती के पूर्व के नहीं हैं। दुर्भाग्य यह है कि अचेल परम्परा के पास सचेलकत्व और अचेलकत्व की इस परिचर्चा के लिये छठी शती के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। यद्यपि दिगम्बर- परम्परा इन ग्रन्थों का काल प्रथम द्वितीय शताब्दी नहीं मानती है।
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जहाँ तक अन्य परम्पराओं के प्राचीन स्रोतों का प्रश्न है, वेदों में नग्न श्रमणों या व्रात्यों के उल्लेख तो मिलते है, किन्तु वे स्पष्टतः निर्मन्थ (जैन) परम्परा के हैं, यह कहना कठिन है। यद्यपि अनेक हिन्दू पुराणों में नग्न जैन श्रमणों के उल्लेख हैं, किन्तु अधिकांश हिन्दू पुराण तो विक्रम की पाँचवीं छठी शती या उसके भी बाद के हैं, अतः उनमें उपलब्ध साक्ष्य अधिक महत्व के नहीं हैं। दूसरे उनमें सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार के जैन मुनियों के उल्लेख मिल जाते हैं, अतः उन्हें इस परिचर्चा का आधार नहीं बनाया जा सकता है।
इस दृष्टि से पालित्रिपिटक के उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और किसी सीमा तक सत्य के निकट भी प्रतीत होते हैं। इस परिचर्चा के हेतु जो आधारभूत प्रामाणिक सामग्री हमें उपलब्ध होती है, वह
मथुरा से उपलब्ध प्राचीन जैन मूर्तियाँ और उनके अभिलेख प्रथम तो यह सब सामग्री ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी की है। दूसरे इसमें किसी भी प्रकार के प्रक्षेप आदि की सम्भावना भी नहीं है। अतः यह प्राचीन भी है और प्रामाणिक भी क्योंकि इसकी पुष्टि अन्य साहित्यिक स्रोतों से भी हो जाती है। अतः इस परिचर्चा में हमने सर्वाधिक उपयोग इसी सामग्री का किया है।
महावीर के पूर्व निर्मन्थ- संघ में वस्त्र की स्थिति
जैन अनुश्रुति के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में भगवान् महावीर से पूर्व तेईस तीर्थङ्कर हो चुके थे। अतः प्रथम विवेच्य बिन्दु तो यही है कि अचेलता के सम्बन्ध में इन पूर्ववर्ती तीर्थद्वरों की क्या मान्यताएँ थीं? यद्यपि सम्प्रदाय भेद स्थिर हो जाने के पश्चात् निर्मित ग्रन्थों में जहाँ दिगम्बर ग्रन्थ एक मत से यह उद्घोष करते हैं कि सभी जिन
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________________ 286 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अचेल होकर ही दीक्षित होते है, वहाँ श्वेताम्बर ग्रन्थ यह कहते हैं उनसे भी इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि नग्न एवं मलिन वस्त्र कि सभी जिन एक देवदूष्य वस्त्र लेकर ही दीक्षित होते हैं। मेरी दृष्टि धारण करने वाले श्रमणों/योगियों/व्रात्यों की एक परम्परा प्राचीन भारत में ये दोनों ही दृष्टिकोण साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त हैं। श्वेताम्बर में अस्तित्व रखती थी। उस परम्परा के अग्र-पुरुष के रूप में ऋषभ और यापनीय परम्परा के अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में स्पष्ट या शिव को माना जा सकता है। किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि इन रूप से यह उल्लेख मिलता है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और अन्तिम सीलों में उस योगी को मुकुट और आभूषणों से युक्त दर्शाया गया तीर्थङ्कर महावीर की आचार-व्यवस्था मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों की है जिससे उसके नग्न निर्ग्रन्थ मुनि होने के सम्बन्ध में बाधा आती आचार-व्यवस्था से भिन्न थी। यापनीय ग्रन्थ मूलाचार प्रतिक्रमण आदि है। ये अंकन श्वेताम्बर तीर्थङ्कर मूर्तियों से आंशिक साम्यता रखते / के सन्दर्भ में उनकी इस भिन्नता का तो उल्लेख करता है किन्तु मध्यवर्ती हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्तियों को आभूषण पहनाते हैं। तीर्थङ्कर सचेल धर्म के प्रतिपादक थे, यह नहीं कहता है। जबकि श्वेताम्बर आगम उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से यह भी उल्लेख है कि अन्तिम ऋषभ का अचेल धर्म तीर्थङ्कर महावीर ने अचेल धर्म का प्रतिपादन किया, जबकि तेईसवें प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगम उत्तराध्ययन में ऋषभ के नाम तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने सचेल धर्म का प्रतिपादन किया था। यहाँ यह का उल्लेख मात्र है, उनके जीवन के सन्दर्भ में कोई विवरण नहीं भी ज्ञातव्य है कि बृहत्कल्पभाष्य में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर को है। इससे अपेक्षाकृत परवर्ती कल्पसूत्र एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ही अचेल धर्म और मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों को सचेल-अचेल धर्म का सर्वप्रथम उनका जीवनवृत्त मिलता है, फिर भी इनमें उनकी साधना प्रतिपादक कहा गया है। यद्यपि उत्तराध्ययन स्पष्टतया पार्श्व के धर्म एवं आचार-व्यवस्था का कोई विशेष विवरण नहीं है। परवर्ती श्वेताम्बर, को 'सचेल' अथवा सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) ही कहता है, सचेल-अचेल दिगम्बर ग्रन्थों में और उनके अतिरिक्त हिन्दू पुराणों तथा विशेषरूप नहीं। 'मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में भी अचेल मुनि होते थे, से भागवत में ऋषभदेव के द्वारा अचेलकत्व के आचरण के जो उल्लेख बृहत्कल्पभाष्य की यह स्वीकारोक्ति उसकी सम्प्रदाय-निरपेक्षता की ही मिलते हैं, उन सबके आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि सूचक है। यद्यपि दिगम्बर और यापनीय परम्परा श्वेताम्बर मान्य आगमों ऋषभदेव अचेल परम्परा के पोषक रहे होंगे। 11 ऋषभ अचेल धर्म के एवं आगमिक व्याख्याओं के इन कथनों को मान्य नहीं करती हैं, किन्तु प्रवर्तक थे, यह मानने में सचेल श्वेताम्बर परम्परा को भी कोई आपत्ति हमें श्वेताम्बर आगमों के इन कथनों में सत्यता परिलक्षित होती है, नहीं है क्योकि उसकी भी मान्यता यही है कि ऋषभ और महावीर हो जाती है। यहाँ हमारा उद्देश्य सम्प्रदायगत मान्यताओं से ऊपर उठकर मात्र प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ही इस समस्या पर विचार करना है। अत: इस परिचर्चा में हम परवर्ती अर्थात् साम्प्रदायिक मान्यताओं के दृढ़ीभूत होने के बाद के ग्रन्थों को आधार नहीं बना महावीर से पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों में मात्र ऋषभ, अरिष्टनेमि और पार्श्व के कथानक ही ऐसे हैं, जो ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। यद्यपि इनमें भी ऋषभ और अरिष्टनेमि के कथानक प्रागैतिहासिक काल के हैं। वेदों से भी हमें इनके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी (नामोल्लेख के अतिरिक्त) नहीं मिलती है। वेदों में भी ये नाम किस सन्दर्भ में प्रयुक्त हुए हैं, और किसके वाचक है, यह तथ्य, आज भी विवादास्पद ही है। इन दोनों के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जैन एवं जैनेतर स्रोतों से भी जो सामग्री उपलब्ध होती है वह ईसा की प्रथम शती के पूर्व की नहीं है। वेदों एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों में व्रात्यों एवं वातरशना मुनियों के जो उल्लेख हैं', उनसे इतना तो अवश्य फलित होता है कि प्रागैतिहासिक काल में नग्न अथवा मलिन एवं जीर्णवस्त्र धारण करने वाले श्रमणों की एक परम्परा अवश्य थी। सिन्धुघाटी-सभ्यता की मोहन-जोदड़ो एवं हड़प्पा से जो नग्न योगियों के अंकन वाली सीलें प्राप्त हुई हैं ___ऋषभ के पश्चात् और अरिष्टनेमि के पूर्व मध्य के 20 तीर्थङ्करों के जीवनवृत्त एवं आचार-विचार के सम्बन्ध में छठी शती के पूर्व अर्थात् सम्प्रदायों के स्थिरीकरण के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। अर्धमागधी आगमों में मात्र समवायांग में और शौरसेनी के आगम-तुल्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में उनके नाम, माता-पिता, जन्म-मरण आदि सम्बन्धी छिटपुट सूचनाएँ हैं, जो प्रस्तुत चर्चा की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं। इस प्रकार मध्यवर्ती बाईसवें अरिष्टनेमि एवं तेईसवें पार्श्व ही ऐसे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएँ उत्तराध्ययन के क्रमश: बाईसवें एवं तेईसवें अध्ययन में मिलती हैं, किन्तु उनमें भी बाईसवें अध्ययन में अरिष्टनेमि की आचार-व्यवस्था का और विशेष रूप से वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी परम्परा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्ययन में राजीमति के द्वारा गुफा में वर्षा के कारण भीगा हुआ अपना वस्त्र सुखाने का उल्लेख होने से केवल एक ही तथ्य की पुष्टि होती है कि अरिष्टनेमि की परम्परा में साध्वियाँ सवस्त्र होती थीं। 13 उस गुफा में साधना में स्थित रथनेमि सवस्त्र थे या निर्वस्त्र, ऐसा कोई स्पष्ट संकेत इसमें नहीं है। अत: वस्त्र-सम्बन्धी विवाद में केवल पार्श्व एवं महावीर इन दो ऐतिहासिक काल के तीर्थङ्गरों के सम्बन्ध में ही जो कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर ही चर्चा की जा सकती है।
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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 287 पार्श्व का सचेल धर्म तो नग्न ही थे, किन्तु पास में वस्त्र रखते थे, जिसे आवश्यकता होने . पार्श्व के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध हैं उनमें भी प्राचीनता पर ओढ़ लेते थे।२९ किन्तु पण्डितजी की यह व्याख्या युक्तिसंगत नहीं की दृष्टि से ऋषिभाषित (लगभग ई०पू० चौथी-पाँचवीं शती), सूत्रकृतांग है क्योंकि संतरुत्तर से नग्नता किसी भी प्रकार फलित नहीं होती है। (लगभग तीसरी-चौथी शती), उत्तराध्ययन (ई०पू० दूसरी शती), वस्तुत: संतरुत्तर शब्द का प्रयोग आचारांग में तीन वस्त्र रखने वाले आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ई०पू० दूसरी शती) एवं भगवती (ई०पू० साधुओं के सन्दर्भ में हुआ है और उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि दूसरी शती से लेकर ईसा की दूसरी शती तक) के उल्लेख महत्त्वपूर्ण ग्रीष्म ऋतु के आने पर वे एक जीर्ण-वस्त्र को छोड़कर संतरुत्तर अर्थात् हैं। इनमें भी ऋषिभाषित और सूत्रकृतांग में पार्श्व की वस्त्र-सम्बन्धी दो वस्त्र धारण करने वाले हो जायें। अत: संतरुत्तर होने का अर्थ मान्यताओं की स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती। उत्तराध्ययन का तेईसवाँ ___ अन्तरवासक और उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र रखना है। अन्तरवस्त्र आजकल अध्ययन ही एकमात्र ऐसा आधार है, जिसमें महावीर के धर्म को अचेल का अंडरवियर अर्थात् गुह्यांग को ढकने वाला वस्त्र है। उत्तरीय शरीर एवं पार्श्व के धर्म को सचेल या संत्तरुत्तर कहा गया है। इससे यह के ऊपर के भाग को ढकने वाला वस्त्र है। 'संतरुत्तर' की शीलांक स्पष्ट है कि वस्त्र के सम्बन्ध में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भिन्न की यह व्याख्या भी हमें यही बताती है कि उत्तरीय कभी ओढ़ लिया थीं। उत्तराध्ययन की प्राचीनता निर्विवाद है और उसके कथन को जाता था और कभी पास में रख लिया जाता था, क्योकि गर्मी में अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता। पुनः नियुक्ति, भाष्य आदि परवर्ती सदैव उत्तरीय ओढ़ा नहीं जाता था। अत: संतरुत्तर का अर्थ कभी सचेल आगमिक व्याख्याओं से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है, अत: इस हो जाना और कभी वस्त्र को पास में रखकर अचेल हो जाना नहीं कथन की सत्यता में सन्देह करने का कोई स्थान शेष नहीं रहता है। है। यदि संतरुत्तर होने का अर्थ कभी सचेल और कभी अचेल (नग्न) किन्तु पार्श्व की परम्परा के द्वारा मान्य 'सांतरुत्तर' शब्द का क्या अर्थ होना होता तो फिर अल्पचेल और एकशाटक होने की चर्चा इसी प्रसंग है- यह विचारणीय है। सांतरुत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती श्वेताम्बर में नहीं की जाती। तीन वस्त्रधारी साधु एक जीर्ण वस्त्र का त्याग करने आचार्यों ने विशिष्ट, रंगीन एवं बहुमूल्य वस्त्र किया है। उत्तराध्ययन पर सांतरुत्तर होता है। एक जीर्ण वस्त्र का त्याग और दूसरे जीर्ण वस्त्र की टीका में नेमिचन्द्र लिखते हैं- सान्तर अर्थात् वर्धमान स्वामी के जीर्ण भाग को निकालकर अल्प आकार का बनाकर रखने पर की अपेक्षा परिमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा उत्तर अर्थात् महामूल्यवान् अल्पचेल, दोनों जीर्ण वस्त्रों का त्याग करने पर एकशाटक अथवा होने से प्रधान, ऐसे वस्त्र जिस परम्परा में धारण किये जायें वह धर्म ओमचेल और तीनों वस्त्रों का त्याग करने पर अचेल होता है। वस्तुत: सान्तरोत्तर है। 15 किन्तु सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) शब्द का यह अर्थ समुचित आज भी दिगम्बर परम्परा का क्षुल्लक सान्तरोत्तर है और ऐलक नहीं है। वस्तुत: जब श्वेताम्बर आचार्य अचेल का अर्थ कुत्सितचेल एकशाटक तथा मुनि नग्न (अचेल) होता है। अतः पार्श्व की सचेल या अल्पचेल करने लगे१६, तो यह स्वाभाविक था कि सान्तरोत्तर का सान्तरोततर परम्परा में मुनि दो वस्त्र रखते थे- अधोवस्त्र और उत्तरीय। अर्थ विशिष्ट, महामूल्यवान् रंगीन वस्त्र किया जाएं, ताकि अचेल के उत्तरीय आवश्यकतानुसार शीतकाल आदि में ओढ़ लिया जाता था परवर्ती अर्थ में और संतरुत्तर के अर्थ में किसी प्रकार से संगति स्थापित और ग्रीष्मकाल में अलग रख दिया जाता था। की जा सके। किन्तु संतरुत्तर का यह अर्थ शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि आचारांग के नवें उपधानश्रुत नामक अध्याय में महावीर का से उचित नहीं है। इससे इन टीकाकारों की अपनी साम्प्रदायिक जीवनवृत्त वर्णित है। ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर की जीवन-गाथा मानसिकता ही प्रकट होती है। संतरुत्तर के वास्तविक अर्थ को आचार्य के सम्बन्ध में इससे प्राचीन एवं प्रामाणिक अन्य कोई सन्दर्भ हमें उपलब्ध शीलांक ने अपनी आचारांग टीका में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया नहीं है। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, भगवती और बाद है। ज्ञातव्य है कि संतरुत्तर शब्द उत्तराध्ययन के अतिरिक्त आचारांग के सभी महावीर के जीवन-चारित्र सम्बन्धी ग्रन्थ इससे परवर्ती हैं और के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी आया है। 18 आचारांग में इस शब्द का प्रयोग उनमें महावीर के जीवन के सथ जुड़ी अलौकिकताएँ यही सिद्ध करती उन निम्रन्थ मुनियों के सन्दर्भ में हुआ है, जो दो वस्त्र रखते थे। उसमें हैं कि वे महावीर की जीवन-गाथा का अतिरंजित चित्र ही उपस्थित तीन वस्त्र रखने वाले मूनियों के लिये कहा गया है कि हेमन्त के करते हैं। इसलिये महावीर के जीवन के सम्बन्ध में जो भी तथ्य हमें बीत जाने पर एवं ग्रीष्म ऋतु के आ जाने पर यदि किसी भिक्षु के उपलब्ध हैं, वे प्रामाणिक रूप में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के * जीर्ण हो गये हों तो वह उन्हें स्थापित कर दे अर्थात् छोड़ दे / इसी उपधानश्रुत में उपलब्ध हैं। इसमें महावीर के दीक्षित होने का और सांतरोत्तर अथवा अल्पचेल (ओमचेल) अथवा एकशाटक अथवा जो विवरण है उससे यह ज्ञात होता है कि वे एक वस्त्र लेकर दीक्षित अचेलक हो जाये।१९ यहाँ संतरुत्तर की टीका करते हुए शीलांक कहते हुए थे और लगभग एक वर्ष से कुछ अधिक समय के पश्चात् उन्होंने हैं कि अन्तर-सहित है उत्तरीय (ओढ़ना) जिसका, अर्थात् जो वस्त्र उस वस्त्र का भी परित्याग कर दिया और पूर्णत: अचेल हो गये।२२ को आवश्यकता होने पर कभी ओढ़ लेता है और कभी पास में रख महावीर के जीवन की यह घटना ही वस्त्र के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जैन लेता है।२० परम्परा के दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है। इसका तात्पर्य इतना ही पं० कैलाशचन्द्रजी ने संतरुत्तर की शीलांक की उपरोक्त व्याख्या है कि महावीर ने अपनी साधना का प्रारम्भ सचेलता से किया, किन्तु से यह प्रतिफलित करना चाहा है कि पार्श्व के परम्परा के साधु रहते कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने पूर्ण अचेलता को ही अपना आदर्श माना।
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________________ 288 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ परवर्ती आगम ग्रन्थों में एवं उनकी व्याख्याओं में महावीर के एक को 'अनुधर्म' कहा गया है, अर्थात् यह परम्परा का अनुपालन मात्र वर्ष पश्चात् वस्त्र-त्याग करने के सन्दर्भ में अनेक प्रवाद या मान्यतायें था। हो सकता है कि उन्होंने मात्र अपनी कुल-परम्परा अर्थात् पापित्यप्रचलित हैं। यापनीय ग्रन्थ भगवती-आराधना और श्वेताम्बर आगमिक परम्परा का अनुसरण किया हो। श्वेताम्बर आचार्य उसकी व्याख्या में व्याख्याओं में इन प्रवादों या मान्यताओं का उल्लेख है। 23 यहाँ हम इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करने की बात कहते हैं। यह मात्र उन प्रवादों में न जाकर केवल इतना ही बता देना पर्याप्त समझते परम्परागत विश्वास है, इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन उल्लेख नहीं है। हैं कि प्रारम्भ में महावीर ने वस्त्र लिया था और बाद में वस्त्र का परित्याग आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपधानश्रुत मात्र वस्त्र-ग्रहण की बात कर दिया। वह वस्त्र-त्याग किस रूप में हुआ यह अधिक महत्त्वपूर्ण कहता है। वह वस्त्र इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदुष्य था, ऐसा उल्लेख नहीं। नहीं है। करता। मेरी दृष्टि में इस 'अनुधर्म' में 'अन्' शब्द का अर्थ वही यदि हम महावीर के समकालीन अन्य श्रमण-परम्पराओं की जो अणुव्रत में 'अणु' शब्द का है अर्थात् आंशिक न्यासग। वस्तुत: वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी अवधारणाओं पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता महावीर का लक्ष्य तो पूर्ण अचेलता का था, किन्तु प्रारम्भ में उन्होंने है कि उस युग में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की श्रमण-परम्पराएँ वस्त्र का आंशिक त्याग ही किया था। जब एक वर्ष की साधा से प्रचलित थीं। उनमें से पार्श्व के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन और उसके उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया कि वे अपनी काम-वासना पर पूर्ण परवर्ती साहित्य में जो कुछ सूचनाएँ उपलब्ध हैं, उन सबसे एक मत विजय प्राप्त कर चुके हैं और दो शीतकालों के व्यतीत हो जाने से से पार्श्व की परम्परा, सवस्त्र परम्परा सिद्ध होती है। स्वयं उत्तराध्ययन उन्हें यह अनुभव हो गया कि उनका शरीर उस शीत को सहने में का तेईसवाँ अध्ययन इस बात का साक्षी है कि पार्श्व की परम्परा सचेल पूर्ण समर्थ है, तो उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया।२४ ज्ञातव्य परम्परा थी। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी सचेल थी। दूसरी ओर आजीवक है कि महावीर ने दीक्षित होते समय मात्र सामायिक चारित्र ही लिया सम्प्रदाय पूर्णत: अचेलता का प्रतिपादक था। यह सम्भव है कि महावीर था, महाव्रतों का ग्रहण नहीं किया था। श्वेताम्बर आगमों का कथन ने अपने वंशानुगत पापित्यीय परम्परा के प्रभाव से एक वस्त्र ग्रहण है कि सभी तीर्थङ्कर एक देवदृष्य लेकर सामायिक चारित्र की प्रतिज्ञा करके अपनी साधना-यात्रा प्रारम्भ की हो। कल्पसूत्र में उनके दीक्षित से ही दीक्षित होते हैं।२५ यह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि सामायिक होते समय आभूषण-त्याग का उल्लेख हैं वस्त्र-त्याग का नहीं। यहाँ चारित्र से दीक्षित होते समय एक वस्त्र ग्रहण करने की परम्परा रही यह भी ज्ञातव्य है कि महावीर उत्तर-बिहार के वैशाली जनपद में शीत होगी। ऋतु के प्रथम मास (मार्गशीर्ष) में दीक्षित हुए थे। उस क्षेत्र की भयंकर निष्कर्ष यह है कि महावीर की साधना का प्रारम्भ सचेलता से सर्दी को ध्यान में रखकर परिवार के लोगों के अति आग्रह के कारण हुआ किन्तु उसकी परिनिष्पत्ति अचेलता में हुई। महावीर की दृष्टि में सम्भवत: महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र स्वीकार किया हो। सचेलता अणुधर्म था और अचेलता मुख्य धर्म था। महावीर द्वारा मेरी दृष्टि में इसमें भी पारिवारिक आग्रह ही प्रमुख कारण रहा होगा। वस्त्र-ग्रहण करने में उनके कुलधर्म अर्थात् पार्थापत्य परम्परा का प्रभाव महावीर ने सदैव ही परिवार के वरिष्ठजनों को सम्मान दिया था। यही हो सकता है किन्तु पूर्ण अचेलता का निर्णय या तो उनका स्वतःस्फूर्त कारण रहा कि माता-पिता के जीवित रहते उन्होंने प्रव्रज्या नहीं ली। था या फिर आजीवक परम्परा का प्रभाव। यह सत्य है कि महावीर पुन: बड़े भाई के आग्रह से दो वर्ष और गृहस्थावस्था में रहे। सम्भवतः पार्थापत्य परम्परा से प्रभावित रहे हैं और उन्होंने पार्थापत्य परम्परा शीत ऋतु में दीक्षित होते समय भाई या परिजनों के आग्रह से उन्होंने के दार्शनिक सिद्धान्तों को ग्रहण भी किया है, किन्तु वैचारिक दृष्टि वह एक वस्त्र लिया हो। सम्भव है कि विदाई की उस बेला में परिजनों से पार्थापत्यों के निकट होते हुए भी आचार की दृष्टि से वे उनसे के इस छोटे से आग्रह को ठुकराना उन्हें उचित न लगा हो। किन्तु सन्तुष्ट नहीं थे। पार्थापत्यों के शिथिलाचार के उल्लेख और उसकी उसके बाद उन्होंने कठोर साधना का निर्णय लेकर उस वस्त्र का उपयोग समालोचना जैनधर्म की सचेल और अचेल दोनों परम्पराओं के साहित्य शरीरादि ढकने के लिये नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय किया और दूसरे में मिलती है।२६ यही कारण था कि महावीर ने पार्थापत्यों की वर्ष के शीतकाल की समाप्ति पर उन्होंने उस वस्त्र का भी परित्याग आचार-व्यवस्था में व्यापक सुधार किये। सम्भव है कि अचेलता के कर दिया। आचारांग से इन सभी तथ्यों की पुष्टि होती है। उसके सम्बन्ध में वे आजीवकों से प्रभावित हुए हों। हर्मन जैकोबी आदि पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे, इस तथ्य को स्वीकार करने में पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस सन्दर्भ में महावीर पर आजीवकों के प्रभाव श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर तीनों में से किसी को भी कोई विप्रतिपत्ति होने की सम्भावना को स्वीकार किया है। नहीं है। तीनों ही परम्पराएँ एक मत से यह स्वीकार करती हैं कि हमारे कुछ दिगम्बर विद्वान् यह मत रखते हैं कि महावीर की महावीर अचेल धर्म के ही प्रतिपालक और प्रवक्ता थे। महावीर का अचेलता से प्रभावित होकर आजीवकों ने अचेलता (नग्नता) को स्वीकार सचेल दीक्षित होना भी स्वैच्छिक नहीं था, वस्त्र उन्होंने लिया नहीं, किया, किन्तु यह उनकी भ्रान्ति है और ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य भी अपितु उनके कन्धे पर डाल दिया गया था। यापनीय आचार्य नहीं है। चाहे गोशालक महावीर के शिष्य के रूप में उनके साथ लगभग अपराजितसूरि ने इस प्रवाद का उल्लेख किया है- वे कहते हैं कि छ: वर्ष तक रहा हो, किन्तु न तो गोशालक से प्रभावित होकर महावीर यह तो उपसर्ग हुआ, सिद्धान्त नहीं। आचारांग में उनके वस्त्र-ग्रहण नग्न हए और न महावीर की नग्नता का प्रभाव गोशालक के माध्यम
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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 289 से आजीवकों पर ही पड़ा, क्योंकि गोशालक महावीर के पास उनके सम्भव नहीं होता है। निर्ग्रन्थ संघ में युवा मुनियों में ये घटनाएँ घटित दूसरे नालन्दा चातुर्मास के मध्य पहुँचा था, जबकि महावीर उसके आठ होती थीं, ऐसे आगमिक उल्लेख है। यदि ये घटनाएँ अरण्य में घटित मास पूर्व ही अचेल हो चुके थे। दूसरे यह कि आजीवकों की परम्परा हों, तो उतनी चिन्तनीय नहीं थीं किन्तु भिक्षा, प्रवचन आदि के समय गोशालक के पूर्व भी अस्तित्व में थी, गोशालक आजीवक परम्परा स्त्रियों की उपस्थिति में इन घटनाओं का घटित होना न केवल उस का प्रवर्तक नहीं था। न केवल भगवतीसूत्र में, अपितु पालित्रिपटक मुनि की चारित्रिक प्रतिष्ठा के लिये घातक था, बल्कि सम्पूर्ण निर्ग्रन्थ में भी गोशालक के पूर्व हुए आजीवक सम्प्रदाय के आचार्यों के उल्लेख मुनि-संघ की प्रतिष्ठा पर एक प्रश्न-चिह्न खड़ा करता था। अत: यह उपलब्ध होते हैं। यदि आजीवक सम्प्रदाय महावीर के पूर्व अस्तित्व आवश्यक समझा गया कि जब तक वासना पूर्णत: मर न जाय, तब में था तो इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उसकी तक ऐसे युवा मुनि के लिये नग्न रहने या जिनकल्प धारण करने अचेलता आदि कुछ आचार परम्पराओं ने महावीर को प्रभावित किया की अनुमति न दी जाय। श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं में तो हो। अत: पार्थापत्य परम्परा के प्रभाव से महावीर के द्वारा वस्त्र का यह स्पष्ट निर्देश है कि 30 वर्ष की वय के पूर्व जिनकल्प धारण ग्रहण करना और आजीवक परम्परा के प्रभाव से वस्त्र का परित्याग नहीं किया जा सकता है। सत्य तो यह है कि निर्ग्रन्थ संघ में सचेल करना मात्र काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। उसके पीछे ऐतिहासिक और अचेल ऐसे दो वर्ग स्थापित हो जाने पर यह व्यवस्था दी गई एवं मनोवैज्ञानिक आधार है। महावीर का दर्शन पापित्यों से और कि युवा मुनियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र न दिया जाकर मात्र सामायिक आचार आजीवकों से प्रभावित रहा है। चारित्र दिया जाय, क्योंकि जब तक व्यक्ति सम्पूर्ण परिग्रह त्याग करके जहाँ तक महावीर की शिष्य-परम्परा का प्रश्न है यदि गोशालाक अचेल नहीं हो जाता, तब तक उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया को महावीर का शिष्य माना जाए, तो वह अचेल रूप में ही महावीर जा सकता है। ज्ञातव्य है कि महावीर ने ही सर्वप्रथम सामायिक चारित्र के पास आया था और अचेल ही रहा। जहाँ तक गौतम आदि गणधरों एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र (महाव्रतारोपण) ऐसे दो प्रकार के चारित्रों और महावीर के अन्य प्रारम्भिक शिष्यों का प्रश्न है मुझे ऐसा लगता की व्यवस्था की जो आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छोटी दीक्षा और है कि उन्होंने जिनकल्प अर्थात् भगवान् महावीर की अचेलता को ही बड़ी दीक्षा के नाम से प्रचलित है। युवा मुनियों के लिये 'क्षुल्लक' स्वीकार किया होगा, क्योंकि यदि गणधर गौतम सचेल होते या सचेल शब्द का प्रयोग किया गया और उसके आचार-व्यवहार के हेतु कुछ परम्परा के पोषक होते तो श्रावस्ती में हुई परिचर्चा में केशी उनसे विशिष्ट नियम बनाये गये, जो आज भी उत्तराध्ययन और दशवैकालिक सचेलता और अचेलता के सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं करते। अतः के क्षुल्लकाध्ययनों में उपस्थित हैं। महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र श्रावस्ती में हुई इस परिचर्चा के पूर्व महावीर का मुनि-संघ पूर्णत: की व्यवस्था उन प्रौढ़ मुनियों के लिये की, जो अपनी वासनाओं पर अचेल ही रहा होगा। उसमें वस्त्र का प्रवेश क्रमश: किन्हीं विशेष पूर्ण नियन्त्रण प्रप्त कर चुके थे और अचेल रहने में समर्थ थे। परिस्थितियों के आधार पर ही हुआ होगा। महावीर के संघ में सचेलता 'छेदोपस्थापना' शब्द का तात्पर्य भी यही है कि पूर्व दीक्षा पर्याय को के प्रवेश के निम्नलिखित कारण सम्भावित हैं समाप्त (छेद) कर नवीन दीक्षा (उपस्थापन) देना। आज भी श्वेताम्बर 1. सर्वप्रथम जब महावीर के संघ में स्त्रियों को प्रव्रज्या प्रदान परम्परा में छेदोपस्थापना के समय ही महाव्रतारोपण कराया जाता है की गई तो उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित किया गया क्योंकि लोक-लज्जा, और तभी दीक्षित व्यक्ति की संघ में क्रम-स्थिति अर्थात् ज्येष्ठता/ मासिक-धर्म आदि शारीरिक कारणों से उन्हें नग्न रूप में दीक्षित किया कनिष्ठता निर्धारित होती है और उसे संघ का सदस्य माना जाता है। जाना उचित नहीं था। अचेलता की सम्पोषक दिगम्बर परम्परा भी इस सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाला मुनि संघ में रहते हुए भी उसका तथ्य को स्वीकार करती है कि महावीर के संघ में आर्यिकाएँ सवस्त्र सदस्य नहीं माना जाता है। इस चर्चा से यह फलित होता है कि निर्ग्रन्थ ही होती थीं। जब एक बार आर्यिकाओं के संदर्भ में विशेष परिस्थिति मुनि-संघ में सचेल (क्षुल्लक) और अचेल (मुनि) ऐसे दो प्रकार के में वस्त्र-ग्रहण की स्वीकृति दी गई तो इसने मुनि-संघ में भी आपवादिक वर्गों का निर्धारण महावीर ने या तो अपने जीवन-काल में ही कर परिस्थिति में जैसे भगन्दर आदि रोग होने पर वस्त्र-ग्रहण का द्वार दिया होगा या उनके परिनिर्वाण के कुछ समय पश्चात् कर दिया गया उद्घाटित कर दिया। सामान्यतया तो वस्त्र परिग्रह ही था किन्तु स्त्रियों होगा। आज भी दिगम्बर परम्परा में साधक की क्षुल्लक (दो वस्त्रधारी), के लिये और अपवादमार्ग में मुनियों के लिये उसे संयमोपकरण मान ऐलक (एक वस्त्रधारी) और मुनि (अचेल) ऐसी तीन व्यवस्थाएँ हैं। लिया गया। अत: प्राचीनकाल में भी ऐसी व्यवस्था रही होगी, इससे इन्कार नहीं 1. पुन: जब महावीर के संघ में युवा दीक्षित होने लगे होंगे किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि इन सभी सन्दर्भो में वस्त्र-ग्रहण तो महावीर को उन्हें भी सवस्त्र रहने का अनुमति देनी पड़ी होगी, का कारण लोक-लज्जा या लोकापवाद और शारीरिक स्थिति ही था। क्योंकि उनके जीवन में लिंगोत्थान और वीर्यपात की घटनाएँ सम्भव 3. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण थीं। ये ऐसी सामान्य मनोदेहिक घटनाएँ हैं जिनसे युवा-मुनि का पूर्णतः सम्पूर्ण उत्तर भारत, हिमालय के तराई क्षेत्र तथा राजस्थान में शीत बच पाना असम्भव है। मनोदैहिक दृष्टि से युवावस्था में चाहे कामवासना का तीव्र प्रकोप होना था। महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थित वे मुनि पर नियन्त्रण रखा जा सकता हो किन्तु उक्त स्थितियों का पूर्ण निर्मूलन जो या तो वृद्धावस्था में ही दीक्षित हो रहे थे या वृद्धावस्था की ओर
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________________ 290 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अग्रसर हो रहे थे, उनका शरीर इस भयंकर शीत के प्रकोप का सामना कुछ मुनियों ने तो महावीर की परम्परा में सम्मिलित होते समय करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। ऐसे सभी मुनियों के द्वारा अचेलकत्व ग्रहण किया, किन्तु कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अचेलता यह भी सम्भव नहीं था कि वे संथारा ग्रहण कर उन शीतलहरों का को ग्रहण नहीं किया। सम्भव है कुछ पार्थापत्यों को सचेल रहने की सामना करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग कर दें। ऐसे मुनियों के लिये अपवाद अनुमति देकर सामायिक चारित्र के साथ महावीर के संघ में सम्मिलित मार्ग के रूप में शीत-निवारण के लिये एक ऊनी वस्त्र रखने की अनुमति किया गया होगा। इस प्रकार महावीर के जीवनकाल में या उसके कुछ दी गई। ये मुनि रहते तो अचेल ही थे, किन्तु रात्रि में शीत-निवारणार्थ पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में सचेल-अचेल दोनों प्रकार की एक मिली-जुली उस ऊनी-वस्त्र (कम्बल) का उपयोग कर लेते थे। यह व्यवस्था स्थविर ___ व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी थी और पार्श्व की परम्परा में प्रचलित या वृद्ध मुनियों के लिये थी और इसलिये इसे 'स्थविरकल्प' का नाम सचेलता को भी मान्यता प्रदान कर दी गयी। दिया गया। मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् प्रथम-द्वितीय शती की निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि महावीर के निर्ग्रन्थ संघ जिन-प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर या फलकों पर जो मुनि प्रतिमाएँ में प्रारम्भ में तो मुनि की अचेलता पर ही बल दिया गया था, किन्तु अंकित हैं वे नग्न होकर भी कम्बल और मुखवस्त्रिका लिये हुए हैं। कालान्तर में लोक-लज्जा और शीत-परीषह से बचने के लिये मेरी दृष्टि में यह व्यवस्था भी आपवादिक ही था। आपवादिक रूप में वस्त्र-ग्रहण को मान्यता प्रदान कर दी गयी। ___हम देखते हैं कि महावीर का जो मुनि-संघ दक्षिण भारत या श्वेताम्बर मान्य आगमों और दिगम्बरों द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थों दक्षिण मध्य-भारत में रहा उसमें अचेलता सुरक्षित रह सकी, किन्तु में आपवादिक स्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें मुनि वस्त्र-ग्रहण जो मुनि-संघ उत्तर एवं पश्चिमोत्तर भारत में रहा उसमें शीत-प्रकोप कर सकता था। की तीव्रता की देश-कालगत परिस्थितियों के कारण वस्त्र का प्रवेश श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य स्थानांगसूत्र (3/3/347) में वस्त्रहो गया। आज भी हम देखते हैं कि जहाँ भारत के दक्षिण और ग्रहण के निम्नलिखित तीन कारणों का उल्लेख उपलब्ध होता हैदक्षिण-मध्य क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा का बाहुल्य है, वहाँ पश्चिमोत्तर 1. लज्जा के निवारण के लिये (लिंगोत्थान होने पर लज्जित भारत में श्वेताम्बर परम्परा का बाहुल्य है। वस्तुत: इसका कारण जलवायु न होना पड़े, इस हेतु)। ही है। दक्षिण में जहाँ शीतकाल में आज भी तापमान 25-30 डिग्री 2. जुगुप्सा (घृणा) के निवारण के लिये (लिंग या अण्डकोष सेल्सियस से नीचे नहीं जाता, वहाँ नग्न रहना कठिन नहीं है किन्तु विद्रूप होने पर लोग घृणा न करें, इस हेतु)। हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमोत्तर भारत एवं राजस्थान जहाँ तापमान 3. परीषह (शीत-परीषह) के निवारण के लिये। शून्य डिग्री से भी नीचे चला जाता है, वहाँ शीतकाल में अचेल रहना स्थानांगसूत्र में वर्णित उपर्युक्त तीन कारणों में प्रथम दो का समावेश कठिन है। पुन: एक युवा साधक को शीत सहन करने में उतनी कठिनाई लोक-लज्जा में हो जाता है, क्योकि जुगुप्सा का निवारण भी एक नहीं होती जितनी कि वृद्ध तपस्वी साधक को। अत: जिन क्षेत्रों में प्रकार से लोक-लज्जा का निवारण ही है। दोनों में अन्तर यह है कि शीत की अधिकता थी उन क्षेत्रों में वस्त्र का प्रवेश स्वाभाविक ही लज्जा का भाव स्वत: में निहित होता है और घृणा दूसरों के द्वारा था। आचारांग में हमें ऐसे मुनियों के उल्लेख उपलब्ध हैं जो शीतकाल की जाती है, किन्तु दोनों का उद्देश्य लोकापवाद से बचना है। में सर्दी से थर-थर काँपते थे। जो लोग उनके आचार (अर्थात् आग इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में मान्य, किन्तु मूलत: यापनीय जलाकर शीत-निवारण करने के निषेध) से परिचित नहीं थे, उन्हें यह ग्रन्थ भगवती-आराधना (76) की टीका में निम्नलिखित तीन शंका भी होती थी कि कहीं उनका शरीर कामावेग में तो नहीं काँप आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की स्वीकृति प्रदान की गयी हैरहा है। यह ज्ञात होने पर कि इनका शरीर सर्दी से काँप रहा है, 1. जिसका लिंग (पुरुष-चिह्न) एवं अण्डकोष विद्रूप हो। कभी-कभी वे शरीर को तपाने के लिये आग जला देने को कहते 2. जो महान् सम्पत्तिशाली अथवा लज्जालु हो। थे, जिसका उन मुनियों को निषेध करना होता था। इस प्रकार यह 3. जिसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हो। स्पष्ट है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र-प्रवेश के लिये उत्तर यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में निर्ग्रन्थ संघ में मुनि के लिये भारत की भयंकर सर्दी भी एक मुख्य कारण रही है। वस्त्र-ग्रहण एक आपवादिक व्यवस्था ही थी। उत्सर्ग या श्रेष्ठ मार्ग 4. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का चौथा कारण तो अचेलता को ही माना गया था। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आचारांग, पार्श्व की परम्परा के मुनियों का महावीर की परम्परा में सम्मिलित होना स्थानांग और उत्तराध्ययन में न केवल मुनि की अचेलता के प्रतिपादक भी है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परम्परा के मुनि सचेल होते थे। सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं अपितु अचेलता की प्रशंसा भी उपलब्ध होती वे अधोवस्त्र और उत्तरीय दोनों ही धारण करते थे। हमें सूत्रकृतांग, है। उनमें भी वस्त्र-ग्रहण की अनुमति मात्र लोक-लज्जा के निवारण उत्तराध्ययन, भगवती, राजप्रश्नीय आदि में न केवल पार्श्व की परम्परा और शीत-निवारण के लिये ही है। आचारांग में चार प्रकार के मनियों के मुनियों के उल्लेख मिलते हैं अपितु उनके द्वारा महावीर के संघ के उल्लेख हैं-१. अचेल, 2. एक वस्त्रधारी, 3. दो वस्रधारी, में पुनः दीक्षित होने के सन्दर्भ भी मिलते हैं। इन सन्दर्भो का सूक्ष्मता 4. तीन वस्त्रधारी। से विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि पार्श्व की परम्परा के 1. इनमें अचेल तो सर्वथा नग्न रहते थे। ये जिनकल्पी
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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 291 कहलाते थे। हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि वस्त्र का ग्रहण एक मनोदैहिक 2. एक वस्त्रधारी भी दो प्रकार के होते थे एवं सामाजिक आवश्यकता है और उससे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों (अ) कुछ एक वस्त्रधारी रहते तो अचेल ही थे, किन्तु अपने ही परम्पराएँ प्रभावित हुई हैं। दिगम्बर परम्परा में ऐलक और क्षुल्लक पास एक ऊनी वस्त्र रखते थे, जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश के की व्यवस्था तो इस आवश्यकता की सूचक है ही, किन्तु इसके साथ समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और सर्दियों की रात्रियों में ही साथ उनमें जो सवस्त्र भट्टारकों की परम्परा का विकास हुआ, उसके शीत-निवारण के लिये करते थे। ये स्थविरकल्पी कहलाते थे। पीछे भी उपरोक्त मनोदैहिक कारण और लौकिक परिस्थितियाँ ही मुख्य (ब) कुछ एक वस्त्रधारी मात्र अधोवस्त्र धारण करते थे, जैसे रहीं। क्या कारण था कि अचेलता की समर्थक इस परम्परा में भी वर्तमान में दिगम्बर परम्परा के ऐलक धारण करते हैं। ऐलक एक- लगभग 1000 वर्षों तक नग्न मुनियों का अभाव रहा। आज दिगम्बर चेलक (वस्त्रधारी) का ही अपभ्रंश रूप है। इसे आगम में एकशाटक परम्परा में शान्तिसागरजी से जो नग्न मुनियों की परम्परा पुनः जीवित कहा गया है। हुई है, उसका इतिहास तो. 100 वर्ष से अधिक का नहीं है। लगभग . 3. दो वस्त्रधारी, जिन्हें सान्तरोत्तर भी कहा गया है, एक अधोवस्त्र ग्यारहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक दिगम्बर मुनियों का प्रायः अभाव व एक उत्तरीयवस्त्र रखते थे, जैसे वर्तमान में क्षुल्लक रखते हैं- ही रहा है। अधोवस्त्र लोक-लज्जा हेतु और उत्तरीय शीत-निवारण हेतु।। आज इन दोनों परम्पराओं में सचेलता और अचेलता के प्रश्न 4. तीन वस्त्रधारी साधु अधोवस्त्र और उत्तरीय के साथ-साथ पर जो इतना विवाद खड़ा कर दिया गया है, वह दोनों की आगमिक शीत-निवारणार्थ एक ऊनी कम्बल भी रखते होंगे। यह व्यवस्था आज व्यवस्थाओं और जीवित परम्पराओं के सन्दर्भ में ईमानदारी से विचार के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुओं में है। करने पर नगण्य ही रह जाता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने आचारांग स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करता है कि वस्त्रधारी मुनि मताग्रहों से न तो आगमिक व्यवस्थाओं को देखने का प्रयत्न करते वस्त्र के जीर्ण होने पर एवं ग्रीष्मकाल के आगमन पर जीर्ण वस्त्रों का है और न उन कारणों का विचार करते हैं, जिनसे किसी आचार-व्यवस्था त्याग करते हुए अचेलता की दिशा में आगे बढ़े। तीन वस्त्रधारी क्रमशः में परिवर्तन होता है। दुर्भाग्य है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा ने जिनकल्प अपने परिग्रह को कम करते हुए सान्तरोत्तर अथवा एक शाटक अथवा के विच्छेद के नाम पर उस अचेलता का अपलाप किया, जो उसके अचेल हो गए। हम देखते हैं कि आचारांग में वर्णित वस्त्र-सम्बन्धी पूर्वज आचार्यों के द्वारा लगभग ईसा की दूसरी शती तक आचरित यह व्यवस्था अचेलता का अति-आग्रह रखने वाली दिगम्बर परम्परा रही और जिसके सन्दर्भ उनके आगमों में आज भी हैं। वहीं दूसरी में भी मुनि, ऐलक और क्षुल्लक के रूप में आज भी प्रचलित है। ओर दिगम्बर परम्परा में सचेल मुनि ही नहीं होता है, यह कहकर उसका क्षुल्लक आचारांग का सान्तरोत्तर है, ऐलक एकशाटक तथा न केवल महावीर की मूल-भूत अनेकान्तिक दृष्टि का उल्लंघन किया मुनि अचेल है। गया, अपितु अपने ही आगमों और प्रचलित व्यवस्थाओं को नकार श्वेताम्बर परम्परा में परवर्ती काल में भी जो वस्त्र-पात्र का विकास दिया गया। हम पूछते हैं कि क्या ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ हैं और हुआ और वस्त्र-ग्रहण को अपरिहार्य माना गया उसके पीछे मूल में यदि ऐसा माना जाय तो इनके मूल अर्थ का ही अपलाप होगा। परिग्रह या संचय वृत्ति न होकर देशकालगत परिस्थितियाँ, संघीय जीवन यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो निर्ग्रन्थ संघ में प्राचीनकाल की आवश्यकताएँ एवं संयम अर्थात् अहिंसा की परिपालना ही प्रमुख से ही क्षुल्लकों (युवा-मुनि) और स्थविरों (वृद्ध-मुनियों) के लिये थी। निर्ग्रन्थ संघ में जब अपरिग्रह महाव्रत के स्थान पर अहिंसा के वस्त्र-ग्रहण की परम्परा मान्य रही है। क्षुल्लक लोक-लज्जा के लिये महाव्रत की परिपालना पर अधिक बल दिया गया तो प्रतिलेखन या और स्थविर (वृद्ध) दैहिक आवश्यकता के लिये वस्त्र-ग्रहण करता पिच्छी से लेकर क्रमश: अनेक उपकरण बढ़ गये। श्वेताम्बर परम्परा है। 'क्षुल्लक मुनि नहीं हैं' यह उद्घोष केवल एकान्तता का सूचक के मान्य कुछ परवर्ती आगमों में मुनि के जिन चौदह उपकरणों का है। 'क्षुल्लक' शब्द अपने आप में इस बात का सूचक है कि वह उल्लेख मिलता है उनमें अधिकांश पात्र-पोछन, पटल आदि के कारण प्रारम्भिक स्तर का मुनि है, गृहस्थ नहीं, क्योंकि 'क्षुल्लक' का अर्थ होने वाली जीव हिंसा से बचने के लिये ही है। ओघनिर्यक्ति (691) छोटा होता है। वह छोटा मुनि ही हो सकता है, गृहस्थ नहीं। प्राचीन स्पष्ट उल्लेख है कि जिनेन्द्र देव ने षट्काय जीवों के रक्षण के आगमों में वस्त्रधारी युवा मुनि के लिये ही 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग लिये ही पात्र-ग्रहण की अनुज्ञा दी है। हुआ है। आचारांग तथा अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो शारीरिक सुख-सुविधा और प्रदर्शन की दृष्टि से जो वस्त्रादि जाता है कि निर्ग्रन्थ संघ में या तो महावीर के जीवनकाल में या निर्वाण उपकरणों का विकास हुआ है वह बहुत ही परवर्ती घटना है और के कुछ ही समय पश्चात् सचेल-अचेल मुनियों की एक मिली-जुली प्राचीन स्तर के मान्य आगमों से समर्थित नहीं है और मुनि-आचार व्यवस्था हो गई थी। यह भी सम्भव है कि ऐसी दोहरी व्यवस्था मान्य का विकृत रूप ही है और यह विकार यति परम्परा के रूप में श्वेताम्बरों करने पर परस्पर आलोचना के स्वर भी मुखरित हुए होंगे। यही कारण और भट्टारक-परम्परा के रूप में दिगम्बरों, दोनों में आया है। है कि आचारांग में स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया गया कि अचेल किन्तु जो लोग वस्त्र के सम्बन्ध में आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखते मुनि, एकशाटक, सान्तरोत्तर अथवा तीन वस्त्रधारी मुनि परस्पर एक
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________________ 292 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दूसरे की निन्दा न करें। ज्ञातव्य है कि संघ-भेद का कारण यह मिली-जुली मिलती है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के अनेक आचार्यों ने व्यवस्था नहीं थी, अपितु इसमें अपनी-अपनी श्रेष्ठता का मिथ्या अहंकार समय-समय पर वस्त्र-ग्रहण की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के विरोध में अपने ही आगे चलकर संघ-भेद का कारण बना है। जब सचेलकों ने अचेलकों स्वर मुखरित किये थे। आर्य भद्रबाहु के पश्चात् भी उत्तर-भारत के की साधना सम्बन्धी विशिष्टता को अस्वीकार किया और अचेलकों निर्ग्रन्थ संघ में आर्य महागिरि, आर्य शिवभूति, आर्य रक्षित आदि ने सचेलक को मुनि मानने से इन्कार किया तो संघ-भेद होना स्वाभाविक ने वस्त्रवाद का विरोध किया था। ज्ञातव्य है कि इन सभी को श्वेताम्बर ही था। परम्परा अपने पूर्वाचार्यों के रूप में ही स्वीकार करती है। मात्र यही ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् नहीं, इनके द्वारा वस्त्रवाद के विरोध का उल्लेख भी करती है। इस जो निम्रन्थ मुनि दक्षिण बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के रास्ते सबसे यही फलित होता है कि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में आगे से तमिलनाडु और कर्नाटक में पहुँचे, वे वहाँ की जलवायुगत चलकर वस्त्र को जो अपरिहार्य मान लिया गया और वस्त्रों की संख्या परिस्थितियों के कारण अपनी अचेलता को यथावत कायम रख सके, में जो वृद्धि हुई वह एक परवर्ती घटना है और वही संघ-भेद का क्योंकि वहाँ सर्दी पड़ती ही नहीं है। यद्यपि उनमें भी क्षुल्लक और मुख्य कारण भी है। ऐलक दीक्षाएँ होती रही होंगी, किन्तु अचेलक मुनि को सर्वोपरि मानने जैन साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ के कारण उनमें कोई विवाद नहीं हआ। दक्षिण भारत में अचेल रहना मुनियों के द्वारा वस्त्र-ग्रहण करने के सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति का ज्ञान सम्भव था, इसलिये उसके प्रति आदरभाव बना रहा। फिर भी लगभग जैनेतर साक्ष्यों से भी उपलब्ध होता है, जो अति महत्त्वपूर्ण है। इनमें पाँचवीं-छठी शती के पश्चात् वहाँ भी हिन्दू-मठाधीशों के प्रभाव से सबसे प्राचीन सन्दर्भ पालित्रिपिटक का है। पालित्रिपिटक में प्रमुख रूप सवस्त्र भट्टारक परम्परा का क्रमिक विकास हुआ और धीरे-धीरे से दो ऐसे सन्दर्भ हैं जहाँ निर्ग्रन्थ की वस्त्र-सम्बन्धी स्थिति का संकेत दसवीं-ग्यारहवीं शती से व्यवहार में अचेलता समाप्त हो गयी। केवल मिलता है। प्रथम सन्दर्भ तो निर्ग्रन्थ का विवरण देते हुए स्पष्टतया अचेलता के प्रति सैद्धान्तिक आदर भाव बना रहा। आज वहाँ जो यह कहता है कि निर्ग्रन्थ एकशाटक थे२८, इससे यह स्पष्ट हो जाता दिगम्बर हैं, वे इस कारण दिगम्बर नहीं हैं कि वे नग्न रहते हैं अपितु है कि बुद्ध के समय या कम से कम पालित्रिपिटक के रचनाकाल इस कारण हैं कि अचेलता/दिगम्बरत्व के प्रति उनमें आदर भाव है। अर्थात् ई० पू० तृतीय-चतुर्थ शती में निर्ग्रन्थों में एक वस्त्र का प्रयोग महावीर का जो निर्ग्रन्थ संघ बिहार से पश्चिमोत्तर भारत की ओर होता था, अन्यथा उन्हें एकशाटक कभी नहीं कहा जाता। जहाँ आजीवक आगे बढ़ा, उसमें जलवायु तथा मुनियों की बढ़ती संख्या के कारण सर्वथा नग्न रहते थे, वहाँ निर्ग्रन्थ एक वस्त्र रखते थे। इससे यही वस्त्र-पात्र का विकास हुआ। प्रथम शक, हूण आदि विदेशी संस्कृति सूचित होता है कि वस्त्र ग्रहण की परम्परा अति प्राचीन है। पुनः निर्ग्रन्थ के प्रभाव से तथा दूसरे जलवायु के कारण से इस क्षेत्र में नग्नता के एकशाटक होने का यह उल्लेख पालित्रिपिटक में ज्ञातपुत्र महावीर को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा, जबकि दक्षिण भारत में नग्नता के की चर्चा के प्रसंग में हुआ है। अत: सामान्य रूप से इसे पार्श्व की प्रति हेय भाव नहीं था। लोक-लज्जा और शीत-निवारण के लिये एक परम्परा कही देना भी ठीक नहीं होगा। फिर भी यदि इसमें चातुर्याम वस्त्र रखा जाने लगा। प्रारम्भ में तो उत्तर भारत का यह निम्रन्थ संघ की अवधारणा के उल्लेख के आधार पर इसे पार्श्व की परम्परा से रहता तो अचेल ही था, किन्तु अपने पास एक वस्त्र रखता था जिसका सम्बन्धित माने तो भी इतना अवश्य है कि महावीर के संघ में पापित्यों उपयोग नगरादि में प्रवेश करते समय लोक-लज्जा के निवारण के के प्रवेश के साथ-साथ वस्त्र का प्रवेश हो गया था। चाहे निम्रन्थ परम्परा लिये और शीत ऋतु में सर्दी सहन न होने की स्थिति में ओढ़ने के पार्श्व की रही हो या महावीर की। यह निर्विवाद है कि निर्ग्रन्थ संघ लिये किया करता था। मथुरा से अनेक ऐसे अचेल जैन मुनियों की में प्राचीनकाल से ही वस्त्र के सम्बन्ध में वैकल्पिक व्यवस्था मान्य प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनके हाथ में यह वस्त्र (कम्बल) इस प्रकार रही है, फिर चाहे वह अपवाद मार्ग के रूप में हो या स्थविर कल्प प्रदर्शित है कि उनकी नग्नता छिप जाती है। उत्तर भारत में निर्ग्रन्थों, के रूप में ही क्यों न हो। मुनियों की इस स्थिति को ही ध्यान में रखकर सम्भवत: पालित्रिपिटक पालित्रिपिटकर के एक अन्य प्रसंग में महावीर के स्वर्गवास में निर्ग्रन्थों को एकशाटक कहा गया है। हमें प्राचीन अर्थात् ईसा की के पश्चात् निम्रन्थ संघ के पारस्परिक कलह और उसके दो भागों में पहली-दूसरी शती के जो भी साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाण मिलते विभाजित होने का निम्न उल्लेख मिलता है- वे एक-दूसरे की हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में शीत आलोचना करते हुए कहते थे, "तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता। और लोक-लज्जा के लिये वस्त्र-ग्रहण किया जाता था। श्वेताम्बर मान्य मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। तू क्या इस धर्म-विनय को जानेगा? आगमिक व्याख्याओं से जो सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं, उनसे भी यह आदि-आदि।" इस विवाद के सम्बन्ध में विद्वानों में दो प्रकार के मत ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र का प्रवेश होते हैं। मुनि कल्याणविजय जी आदि कुछ विद्वानों के अनुसार यह विवरण हुए भी महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग छ: सौ वर्षों तक अचेलकत्व महावीर के जीवन-काल में ही उनके और गोशालक के बीच हुए उस उत्सर्ग या श्रेष्ठमार्ग के रूप में मान्य रहा है। विवाद का सूचक है, जिसके कारण महावीर के निर्वाण का प्रवाद श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य से ही हमें यह भी सूचना भी प्रचलित हो गया था। भगवतीसूत्र में हमें इस विवाद का विस्तृत म
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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 293 उल्लेख मिलता है। इसमें वस्त्रादि के सन्दर्भ में कोई चर्चा नहीं है। टीकाकार अपराजित ने यहाँ उत्सर्गलिंग का अर्थ स्पष्ट करते हुए सकल मात्र महावीर पर यह आरोप है कि वे पहले अकेले वन में निवास परिग्रहत्यागरूप अचेलकत्व के ग्रहण को ही उत्सर्गलिंग कहा है। इसी करते थे, अब संघ सहित नगर या गाँव के उपान्त में निवास करते प्रकार अपवाद की व्याख्या करते हुए कारणसहित परिग्रह को हैं और तीर्थङ्कर न होकर भी अपने को तीर्थङ्कर कहते हैं। किन्तु इस अपवादलिंग कहा है। अगली गाथा की टीका में उन्होंने स्पष्ट रूप विवाद के प्रसंग में, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, वह यह कि से सचेललिंग को अपवादलिंग कहा है। इसके अतिरिक्त आराधनाकार पालित्रिपिटक में इसका सम्बन्ध धर्म-विनय से जोड़ा गया है और औदात्त शिवार्य एवं टीकाकार अपराजित ने यह भी स्पष्ट किया है कि जिनका अर्थात् श्रेष्ठ-वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थ श्रावकों को इस विवाद पुरुष-चिह्न अप्रशस्त हो अर्थात् लिंग चर्मरहित हो, अतिदीर्घ हो, से उदासीन बताया गया है। इससे इतना तो अवश्य प्रतिफलित अण्डकोष अतिस्थूल हो तथा लिंग बार-बार उत्तेजित होता हो तो उन्हें होता है कि विवाद का मूलभूत विषय धर्म-विनय अर्थात् श्रमणाचार सामान्य दशा में तो अपवादलिंग अर्थात् सचेललिंग ही देना होता से ही सम्बन्धित रहा होगा। अत: उसका एक पक्ष वस्त्र-पात्र रखने है, किन्तु ऐसे व्यक्तियों को भी संलेखना के समय एकान्त में उत्सर्गलिंग या न रखने से सम्बन्धित हो सकता है। अर्थात् अचेलकत्व प्रदान किया जा सकता है। किन्तु उसमें सभी इस समस्त चर्चा से यह प्रतिफलित होता है कि सचेलता और अपवादलिंगधारियों को संलेखना के समय अचेललिंग ग्रहण करना अचेलता की समस्या निम्रन्थ संघ की एक पुरानी समस्या है और इसका आवश्यक नहीं माना गया है। आगे वे स्पष्ट लिखते हैं कि जिनके आविर्भाव पार्श्व और महावीर के निर्ग्रन्थ संघ के सम्मेलन के साथ स्वजन महान् सम्पत्तिशाली, लज्जाशील और मिथ्यादृष्टि अर्थात् जैन हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि जहाँ एक ओर आजीवकों धर्म को नहीं मानने वाले हों, ऐसे व्यक्तियों के लिये न केवल सामान्य की अचेलता ने महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में स्थान पाया, वहीं पार्श्व दशा में अपितु संलेखना के समय भी अपवादलिंग अर्थात् सचेलता की सचेल परम्परा ने भी उसे प्रभावित किया। परिणामस्वरूप वस्त्र ही उपयुक्त है। के सम्बन्ध में महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में एक मिली-जुली व्यवस्था इस समग्र चर्चा से स्पष्टत: यह फलित होता है कि यापनीय स्वीकार की गई। उत्सर्ग मार्ग में अचेलता को स्वीकार करते हुए भी सम्प्रदाय उन व्यक्तियों को, जो समृद्धिशाली परिवारों से हैं, जो लज्जालु आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की अनुमति दी गयी। पालित्रिपिटक हैं तथा जिनके परिजन मिथ्यादृष्टि हैं अथवा जिनके पुरुषचिह्न अर्थात् में आजीवकों को सर्वथा अचेलक और निम्रन्थ को एकशाटक कहा लिंग चर्मरहित है, अतिदीर्घ है, अण्डकोष स्थूल हैं एवं लिंग बार-बार गया है और इसी आधार पर वे आजीवकों और निम्रन्थ में अन्तर उत्तेजित होता है, को आपवादिक लिंग धारण करने का निर्देश करता भी करते हैं। आजीवकों के लिये 'अचेलक' शब्द का भी प्रयोग करते है। इस प्रकार वह यह मानता है कि उपर्युक्त विशिष्ट परिस्थितियों हैं। धम्मपद की टीका में बुद्धघोष कहते हैं कि कुछ भिक्षु अचेलकों में व्यक्ति सचेल लिंग धारण कर सकता है। अत: हम कह सकते की अपेक्षा निर्ग्रन्थ को वरेण्य समझते हैं क्योंकि अचेलक तो सर्वर्था हैं कि यापनीय परम्परा यद्यपि अचेलकत्व पर बल देती थी और यह नग्न रहते हैं, जबकि निर्ग्रन्थ प्रतिच्छादन रखते हैं। 32 बुद्धघोष के इस भी मानती थी कि समर्थ साधक को अचेललिंग ही धारण करना चाहिए उल्लेख से भी यह प्रतिफलित होता है कि निम्रन्थ नगर-प्रवेश आदि किन्तु उसके साथ-साथ वह यह मानती थी कि आपवादिक स्थितियों के समय जो एक वस्त्र (प्रतिच्छादन) रखते थे, उससे अपनी नग्नता में सचेल लिंग भी धारण किया जा सकता है। यहाँ उसका श्वेताम्बर छिपा लेते थे। इस प्रकार मूल त्रिपिटक में निर्ग्रन्थ को एकशाटक कहना, परम्परा से स्पष्ट भेद यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा जिनकल्प का बुद्धघोष द्वारा उनके द्वारा प्रतिच्छादन रखने का उल्लेख करना और विच्छेद बताकर अचेललिंग का निषेध कर रही थी, वहाँ यापनीय परम्परा मथुरा से प्राप्त निम्रन्थ मुनियों के अंकन में उन्हें एक वस्त्र से अपनी समर्थ साधक के लिये हर युग में अचेलता का समर्थन करती है। नग्नता छिपाते हुए दिखाना–ये सब साक्ष्य यही सूचित करते हैं कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा वस्त्र-ग्रहण को सामान्य नियम या उत्सर्ग मार्ग उत्तर भारत में निर्ग्रन्थ संघ में कम से कम ई० पू० चौथी-तीसरी शताब्दी मानने लगी वहाँ यापनीय परम्परा उसे अपवाद मार्ग के रूप में ही में एक वस्त्र रखा जाता था और यह प्रवृत्ति बुद्धघोष के काल तक स्वीकार करती रही। अत: उसके अनुसार आगमों में जो वस्त्र-पात्र अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी तक भी प्रचलित थी। सम्बन्धी निर्देश हैं, वे मात्र आपवादिक स्थितियों के हैं। दुर्भाग्य से मुझे यापनीय ग्रन्थों में इस तथ्य का कहीं स्पष्ट निर्देश नहीं मिला वस के सम्बन्ध में यापनीय दृष्टिकोण कि आपवादिक लिंग में कितने वस्त्र या पात्र रखे जा सकते थे। यापनीय-परम्परा का एक प्राचीन ग्रन्थ भगवतीआराधना है। इसमें यापनीय ग्रन्थ भगवतीआराधना की टीका में यापनीय आचार्य दो प्रकार के लिंग बताये गये हैं-१. उत्सर्गलिंग (अचेल) और 2. अपराजित सूरि लिखते हैं कि चेल (वस्त्र) का ग्रहण, परिग्रह का उपलक्षण अपवादलिंग (सचेल)। आराधनाकार स्पष्ट रूप से कहता है कि संलेखना है, अत: समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग ही आचेलक्य है। आचेलक्य ग्रहण करते समय उत्सर्गलिंगधारी अचेल श्रमण का तो उत्सर्गलिंग के लाभ या समर्थन में आगे वे लिखते हैंअचेलता ही होता है, अपवादलिंगधारी सचेल श्रमण का भी यदि लिंग 1. अचेलकत्व के कारण त्याग धर्म (दस धर्मों में एक धर्म) प्रशस्त है तो उसे भी उत्सर्गलिंग अर्थात् अचेलकत्व ग्रहण करना चाहिये। में प्रवृत्ति होती है।
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________________ 294 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 2. जो अचेल होता है, वही अकिंचन धर्म के पालन में तत्पर वह भाज्य होती है, उसी प्रकार जो अचेल है उसकी शुद्धि निश्चित होता है। होती है, किन्तु सचेल की शुद्धि भाज्य है (एवमचेलवतिनियमादेव, 3. परिग्रह (वस्त्रादि) के लिये हिंसा (आरम्भ) में प्रवृत्ति होती भाज्या सचेले। भगवतीआराधना-४२३ पर विजयोदया टीका, पृ० है, जो अपरिग्रही है, वह हिंसा (आरम्भ) नहीं करता है। अत: पूर्ण 322), अर्थात् सचेल की शुद्धि हो भी सकती है और नहीं भी हो अहिंसा के पालन के लिये अचेलता आवश्यक है। सकती है। यहाँ दिगम्बर परम्परा और यापनीय परम्परा का अन्तर स्पष्ट 4. परिग्रह के लिये ही झूठ बोला जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर / है। दिगम्बर परम्परा यह मानती है कि सचेल मुक्त (शुद्ध) नहीं हो परिग्रह के अभाव में झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, अत: सकता, चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो जबकि यापनीय परम्परा यह / अचेल-मुनि सत्य ही बोलता है। मानती है कि स्त्री, गृहस्थ और अन्यतैर्थिक सचेल हेकर भी मुक्त 5. अचेल में लाघव भी होता है। सकते हैं। यहाँ भाज्य (विकल्प) शब्द का प्रयोग यापनीयों की उदार 6. अचेलधर्म का पालन करने वाले का अदत्त-त्याग भी सम्पूर्ण और अनेकान्तिक दृष्टि का परिचायक है। होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही बिना दी हुई वस्तु के 6. अचेलता में राग-द्वेष का अभाव होता है। राग-द्वेष बाह्य ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है।। द्रव्य के आलम्बन से होता है। परिग्रह के अभाव में आलम्बन का 7. परिग्रह के निमित्त क्रोध कषाय होता है, अतः परिग्रह के अभाव होने से राग-द्वेष नहीं होते, जबकि सचेल को मनोज्ञ वस्त्र के अभाव में क्षमा-भाव रहता है। प्रति राग-भाव हो सकता है। 8. अचेल को सुन्दर या सम्पन्न होने का मद भी नहीं होता, 7. अचेलक शरीर के प्रति उपेक्षा भाव रखता है, तभी तो वह अत: उसमें आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है। शीत और ताप के कष्ट सहन करता है। 9. अचेल में माया (छिपाने की प्रवृत्ति) नहीं होती, अत: उसके 8. अचेलता में स्वावलम्बन होता है और देशान्तर गमन में किसी आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है। की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों 10. अचेल शीत, उष्ण, दंश, मच्छर आदि परीषहों को सहता के सहारे चल देता है, वैसे ही वह भी प्रतिलेखन (पीछी) लेकर चल है, अत: उसे घोर तप भी होता है। देता है। पुनः वे अचेलकत्व की प्रशंसा करते हुए लिखते है 9. अचेलता में चित्त-विशुद्धि प्रकट करने का गण है। लँगोटी 1. अचेलता से शुद्ध संयम का पालन होता है, पसीना, धूल आदि से ढंकने से भाव-शुद्धि का ज्ञान नहीं होता है। और मैल से युक्त वस्त्र में उसी योनि वाले और उसके आश्रय से 10. अचेलता में निर्भयता है, क्योंकि चोर आदि का भय नहीं रहने वाले त्रस जीव तथा स्थावर जीव उत्पन्न होते है। वस्त्रधारण करने से उन्हें बाधा भी उत्पन्न होती है। जीवों से संसक्त वस्त्रधारण करने 11. सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। न तो वह किसी वाले के द्वारा उठने, बैठने, सोने, वस्त्रको फाड़ने, काटने, बाँधने, पर शंका करता है और न कोई उस पर शंका करता है। धोने, कूटने, धूप में डालने से जीवों को बाधा (पीड़ा) होती है, जिससे 12. अचेलता में प्रतिलेखना का अभाव होता है। चौदह प्रकार महान् असंयम होता है। का परिग्रह रखने वालों को जैसी प्रतिलेखना करनी होती है वैसी अचेल 2. अचेलता से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। जिस प्रकार को नहीं करनी होती। सों से युक्त जंगल में व्यक्ति बहुत सावधान रहता है उसी प्रकार जो 13. सचेल को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, धोना, रँगना अचेल होता है वह इन्द्रियों (कामवासना) पर विजय प्राप्त करने में आदि परिकर्म करने होते हैं जबकि अचेल को ये परिकर्म नहीं करने पूर्णतया सावधान रहता है। क्योंकि ऐसा नहीं करने पर शरीर में विकार होते। (कामोत्तेजना) उत्पन्न होने पर लज्जित होना पड़ता है। 14. तीर्थङ्करों के अनुरूप आचरण करना (जिनकल्प का आचरण) 3. अचेलता का तीसरा गुण कषायरहित होना है, क्योंकि वस्त्र भी अचेलता का एक गुण है। क्योंकि संहनन और बल से पूर्ण सभी के सद्भाव में उसे चोरों से छिपाने के लिये मायाचार करना होता है। तीर्थङ्कर अचेल थे और भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जिनप्रतिमा वस्त्र होने पर मेरे पास सुन्दर वस्त्र, ऐसा अहंकार भी हो सकता है, और गणधर भी अचेल होते हैं और उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह वस्त्र के छीने जाने पर क्रोध तथा उसकी प्राप्ति में लोभ भी हो सकता अचेल होते हैं। जो सवस्त्र है वह जिन के अनुरूप नहीं है अर्थात् है, जबकि अचेलक में ऐसे दोष उत्पन्न नहीं होते हैं। जिनकल्प का पालन नहीं करता है। 4. सवस्त्र होने पर सुई, धागा, वस्त्र आदि की खोज में तथा 15. अचेल ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। यदि अपने शरीर उसके सीने, धोने, प्रतिलेखना आदि करने में ध्यान और स्वाध्याय को वस्त्र से वेष्टित करके भी अपने को निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है, का समय नष्ट होता है। अचेल को ध्यान-स्वाध्याय में बाधा नहीं होती। तो फिर अन्य परम्परा के साधु निर्ग्रन्थ क्यों नहीं कहे जायेंगे अर्थात् 5. जिस प्रकार बिना छिलके (आवरण) का धान्य नियम से उन्हें भी निर्ग्रन्थ मानना होगा। शुद्ध होता है, किन्तु छिलकेयुक्त धान्य की शुद्धि नियम से नहीं होती, इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय परम्परा स्पष्ट रूप से
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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 295 अचेलकत्व की समर्थक है। किन्तु उनके सामने एक समस्या यह थी कारण अंगों के ग्लानियुक्त होने पर देह के जुंगित (वीभत्स) होने पर कि वे श्वेताम्बर-परम्परा में स्वीकृत उन आगमों की माथुरी वाचना को अथवा परीषह (शीतपरीषह) सहन करने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण मान्य करते थे, जिनमें वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने के स्पष्ट उल्लेख थे। करे। पुनः आचारांग" में यह भी कहा गया है, यदि ऐसा जाने की अत: उनके समक्ष दो प्रश्न थे-एक ओर अचेलकत्व का समर्थन शीतऋतु (हेमन्त) समाप्त हो गयी है तो जीर्ण वस्त्र प्रतिस्थापित कर करना और दूसरी ओर आगमिक उल्लेखों की अचेलकत्व के सन्दर्भ दे अर्थात् उनका त्याग कर दे। इस प्रकार (आगमों में) कारण की में सम्यक् व्याख्या करना। अपराजित सूरि ने इस सम्बन्ध में अपेक्षा से वस्त्र का ग्रहण कहा है। जो उपकरण कारण की अपेक्षा भगवतीआराधना की विजयोदया टीका में जो सम्यक् दृष्टिकोण प्रस्तुत से ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण करने की विधि और गृहीत किया है वह अचेलकत्व के आदर्श के सम्बन्ध में यापनीयों की यथार्थ- उपकरण का त्याग अवश्य कहा जाता है। अत: आगम में वस्त्र-पात्र दृष्टि का परिचायक है। की जो चर्या बतायी गयी है वह कारण की अपेक्षा से अर्थात् ___ अपराजित ने सर्वप्रथम आगमों के उन सन्दर्भो को प्रस्तुत किया आपवादिक है। है, जिनमें वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेख हैं, फिर उनका समाधान प्रस्तुत इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय संघ मात्र आपवादिक स्थिति किया है। वे लिखते हैं-'आचारप्रणिधि' अर्थात् दशवैकालिक के में वस्त्र-ग्रहण को स्वीकार करता था और उत्सर्ग मार्ग अचेलता को आठवें अध्याय में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना ही मानता था। आचारांग के 'भावना' नामक अध्ययन में महावीर के करनी चाहिए। यदि पात्रादि नहीं होते तो उनकी प्रतिलेखना का कथन एक वर्ष तक वस्त्रयुक्त होने के उल्लेख को वह विवादास्पद मानता क्यों किया जाता? पुन: आचारांग५ के 'लोक-विचय' नामक दूसरे था। अपराजित ने इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रवादों का उल्लेख भी किया अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में कहा गया है कि प्रतिलेखन (पडिलेहण), है- जैसे कुछ कहते हैं कि वह छ: मास में काँटे, शाखा आदि पादपोंछन (पायपुच्छन), अवग्रह (उग्गह), कटासन (कडासण), चटाई से छिन्न हो गया। कुछ कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक होने आदि की याचना करे। पुन: उसके 'वस्त्रैषणा'३६ अध्ययन में कहा गया पर उस वस्त्र को खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया। कुछ कहते है कि जो लज्जाशील है वह एक वस्त्र धारण करे, दूसरा वस्त्र प्रतिलेखना है कि वह वस्त्र वायु से गिर गया और भगवान् ने उसकी उपेक्षा कर हेतु रखे। जुंगित (देश-विशेष) में दो वस्त्र धारण करे और तीसरा दी। कोई कहते हैं कि विलम्बनकारी ने उसे जिन के कन्धे पर रख प्रतिलेखना हेतु रखे, यदि शीत परीषह सहन नहीं हो तो तीन वस्त्र दिया आदि। इस प्रकार अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण अपराजित की धारण करे और चौथा प्रतिलेखना हेतु रखे। पुन: उसके पात्रैषणारे७ दृष्टि में इस कथन में कोई तथ्य नहीं है। पुन: अपराजित ने आगम में कहा गया है कि लज्जाशील, जुंगित अर्थात् जिसके लिंग आदि से अचेलता के समर्थक अनेक सूत्र भी उद्धृत किये हैं.६, यथाहीनाधिक हो तथा पात्रादि रखता हो उसे वस्त्र रखना कल्पता है। पुनः “वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र-ग्रहण नहीं करता तथा उसमें कहा गया है तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र अथवा मिट्टी का अचेल होकर जिन-रूप धारण करता है। भिक्षु यह नहीं सोचे कि सचेलक पात्र यदि जीव, बीजादि से रहित हो तो ग्राह्य है। यदि वस्त्र-पात्र ग्राह्य सुखी होता है और अचेलक दुःखी होता है, अत: मैं सचेलक हो नहीं होते तो फिर ये सूत्र आगम में क्यों आते? पुन: आचारांग८ जाऊँ। अचेल को कभी शीत बहुत सताती है, फिर भी वह धूप का के 'भावना' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भगवान् एक वर्ष विचार न करे। मुझ निरावरण के पास कोई छादन नहीं है, अत: मैं तक चीवरधारी रहे, उसके बाद अचेल हो गये। साथ ही सूत्रकृतांग९ अग्नि का सेवन कर लूँ, ऐसा भी नहीं सोचे।" इसी प्रकार उन्होंने के 'पुण्डरीक' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भिक्षु, वस्त्र और उत्तराध्ययन के 23 वें अध्ययन की गाथायें उद्धृत करके यह बताया पात्र के लिये धर्मकथा न कहे। निशीथ deg में कहा गया है कि जो भिक्षु कि पार्श्व का धर्म सान्तरुत्तर था। महावीर का धर्म तो अचेलक ही अखण्ड-वस्त्र और कम्बल धारण करता है उसे मास-लघु (प्रायश्चित्त था। पुन: दशवैकालिक में मुनि को नग्न और मुण्डित कहा गया है। का एक प्रकार) प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार आगम में वस्त्र-ग्रहण इससे भी आगम में अचेलता ही प्रतिपाद्य है, यह सिद्ध होता है। की अनुज्ञा होने पर भी अचेलता का कथन क्यों किया जाता है? इस समग्र चर्चा के आधार पर यापनीय संघ का वस्त्र-सम्बन्धी इसका समाधान करते हुए स्वयं अपराजितसूरि कहते है कि आगम दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। उनके इस दृष्टिकोण को संक्षेप में निम्न मैं कारण की अपेक्षा से आर्यिकाओं को वस्त्र की अनुज्ञा है, यदि रूप में प्रस्तुत किया जा सकता हैभिक्षु लज्जालु हैं अथवा उसकी जननेन्द्रिय त्वचारहित हो या अण्डकोष 1. श्वेताम्बर परम्परा, जो जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा के लम्बे हों अथवा वह परीषह (शीत) सहन करने में अक्षम हो तो उसे द्वारा वस्त्र आदि के सम्बन्ध में महावीर की वैकल्पिक व्यवस्था को वस्त्रधारण करने की अनुज्ञा है। आचारांग 2 में ही कहा गया है कि समाप्त करके सचेलकत्व को ही एक मात्र विकल्प बना रही थी, यह संयमाभिमुख स्त्री-पुरुष दो प्रकार के होते हैं-सर्वश्रमणागत और बात यापनीयों को मान्य नहीं थी। नो-सर्वश्रमणागता। उनमें सर्वश्रमणागत स्थिरांग वाले पाणि-पात्र भिक्षु 2. यापनीय यह मानते थे कि जिनकल्प का विच्छेद सुविधावादियों को प्रतिलेखन के अतिरिक्त एक भी वस्त्र धारण करना या छोड़ना की अपनी कल्पना है। समर्थ साधक इन परिस्थितियों में या इस युग नहीं कल्पता है। बृहत्कल्पसूत्र४३ में भी कहा गया है कि लज्जा के में भी अचेल रह सकता है। उनके अनुसार अचेलता (नग्नता) ही
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________________ 296 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ जिन का आदर्श मार्ग है, अत: मुनि को अचेल या नग्न ही रहना गृहस्थ नहीं। यद्यपि यापनीय और दिगम्बर दोनों ही अचेलकत्व के चाहिये। समर्थक हैं, फिर भी वस्त्र के सम्बन्ध में यापनीयों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत 3. यापनीय आपवादिक स्थितियों में ही मुनि के लिये वस्त्र की उदार एवं यर्थाथवादी रहा है। आपवादिक स्थिति में वस्त्र-ग्रहण, सचेल ग्राह्यता को स्वीकार करते थे, उनकी दृष्टि में ये आपवादिक स्थितियाँ की मुक्ति की सम्भावना, सचेल स्त्री और पुरुष दोनों में श्रमणत्व या निम्नलिखित थीं मुनित्व का सद्भाव-उन्हें अचेलता के प्रश्न पर दिगम्बर परम्परा से (क) राज-परिवार आदि अतिकुलीन घराने के व्यक्ति जन-साधारण भिन्न करता है, जबकि आगमों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख मात्र आपवादिक के समक्ष नग्नता छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं। स्थिति के सूचक हैं और जिनकल्प का विच्छेद नहीं हैं, यह बात उन्हें. (ख) इसी प्रकार वे व्यक्ति भी जो अधिक लज्जाशील हैं अपनी श्वेताम्बरों से अलग करती है। नग्नता को छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं। (ग) वे नवयुवक मुनि जो अभी अपनी काम-वासना को पूर्णत: जिनकल्प एवं स्थविरकल्प विजित नहीं कर पाये हैं और जिन्हें लिंगोत्तेजना आदि के कारण निर्ग्रन्थ अचेलकत्व एवं सचेलकत्व सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में संघ में और जनसाधारण में प्रवाद का पात्र बनना पड़े, अपवाद रूप जिनकल्प और स्थाविरकल्प की चर्चा भी अप्रासंगिक नहीं होगी। श्वेताम्बर में वस्त्र रख सकते हैं। मान्य आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में जिनकल्प और स्थविरकल्प (घ) वे व्यक्ति जिनके लिंग और अण्डकोष विद्रूप हैं, वे संलेखना की जो चर्चा मिलती है, उससे यह फलित होता है कि प्रारम्भ में के अवसर को छोड़कर यावज्जीवन वस्त्रधारण करके ही रहें। अचेलता अर्थात् नग्नता को जिनकल्प का प्रमुख लक्षण माना गया (ङ) वे व्यक्ति जो शीतादि परीषह-सहन करने में सर्वथा असमर्थ था, किन्तु कालान्तर में जिनकल्प शब्द की व्याख्या में क्रमश: परिवर्तन हैं, अपवाद रूप में वस्त्र रख सकते हैं। हुआ है। जिनकल्पी की कम से कम दो उपधि (मुखवस्त्रिका और (च) वे मुनि जो अर्श, भगन्दर आदि की व्याधि से ग्रस्त हों, रजोहरण) मानी गई किन्तु ओघनियुक्ति के लिये जिनकल्प शब्द का बीमारी की स्थिति में वस्त्र रख सकते हैं। सामान्य अर्थ तो जिन के अनुसार आचरण करना है। जिनकल्प की 4. जहाँ तक साध्वियों का प्रश्न था यापनीय संघ में स्पष्ट रूप बारह उपधियों का भी उललेख है। कालान्तर में श्वेताम्बर आचार्यों से उन्हें वस्त्र रखने की अनुज्ञा थी। यद्यपि साध्वियाँ भी एकान्त में ने उन साधुओं को जिनकल्पी कहा जो गच्छ का परित्याग करके एकाकी संलेखना के समय जिन-मुद्रा अर्थात् अचेलता धारण कर सकती थीं। विहार करते थे तथा उत्सर्ग मार्ग के ही अनुगामी होते थे। वस्तुत: इस प्रकार यापनीयों का आदर्श अचेलकत्व ही रहा, किन्तु अपवाद जब श्वेताम्बर परम्परा में अचेलता का पोषण किया जाने लगा तो जिनकल्प मार्ग में उन्होंने वस्त्र-पात्र की ग्राह्यता भी स्वीकार की। वे यह मानते की परिभाषा में भी अन्तर हुआ। निशीथचूर्णि में जिनकल्प और हैं कि कषायत्याग और रागात्मकता को समाप्त करने के लिये सम्पूर्ण स्थविरकल्प की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिनकल्प में मात्र उत्सा परिग्रह का त्याग, जिसमें वस्त्र-त्याग भी समाहित है, आवश्यक है, मार्ग का ही अनुसरण किया जाता है। अत: उसमें कल्पप्रतिसेवना किन्तु वे दिगम्बर परम्परा के समान एकान्त रूप से यह घोषणा नहीं और दर्पप्रतिसेवना दोनों का अर्थात् किसी भी प्रकार के अपवाद के करते हैं कि वस्त्रधारी चाहे वह तीर्थकर ही क्यों नहीं हो, मुक्त नहीं अवलम्बन का ही निषेध है जबकि स्थविरकल्प में उत्सर्ग और अपवाद हो सकता। वे सवस्त्र में भी आध्यात्मिक विशुद्धि और मुक्ति की दोनों ही मार्ग स्वीकार किये गए हैं। यद्यपि अपवाद मार्ग में भी मात्र भजनीयता अर्थात् सम्भावना को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार वे कल्पप्रतिसेवना को ही मान्य किया गया है। दर्पप्रतिसेवना को किसी अचेलकत्व सम्बन्धी मान्यता के सन्दर्भ में दिगम्बर परम्परा के निकट भी स्थिति में मान्य नहीं किया गया है। खड़े होकर भी अपना भिन्न मत रखते हैं। वे अचेलकत्व के आदर्श श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में प्रारम्भ में तो भगवान् महावीर को स्वीकार करके भी सवस्त्र मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते के समान नग्नता को ग्रहण कर, कर-पात्र में भोजन ग्रहण करते हुए हैं। पुनः मुनि के लिये अचेलकत्व का पुरजोर समर्थन करके भी वे अपवादरहित जो मुनिधर्म की कठिन साधना की जाती है, उसे ही यह नहीं कहते हैं कि जो आपवादिक स्थिति में वस्त्र धारण कर रहा जिनकल्प कहा गया है किन्तु कालान्तर में इस परिभाषा में परिवर्तन हुआ। है, वह मुनि नहीं है। जहाँ हमारी वर्तमान दिगम्बर परम्परा मात्र लँगोटधारी यापनीय परम्परा में जिनकल्प का उल्लेख हमें भगवतीआराधना ऐलक, एक चेलक या दो वस्त्रधारी, क्षुल्लक को मुनि न मानकर उत्कृष्ट और उसकी विजयोदया टीका में मिलता है। उसमें कहा गया है कि श्रावक ही मानती है, वहाँ यापनीय परम्परा ऐसे व्यक्तियों की गणना "जो राग-द्वेष और मोह को जीत चुके हैं, उपसर्ग को सहन करने मुनिवर्ग के अन्तर्गत ही करती है। अपराजित आचारांग का एक सन्दर्भ में समर्थ हैं, जिन के समान एकाकी विहार करते हैं, वे जिनकल्पी देकर, जो वर्तमान आचारांग में नहीं पाया जाता है, कहते हैं कि ऐसे कहलाते हैं" क्षेत्र आदि की अपेक्षा से विवेचन करते हुए उसमें आगे व्यक्ति नो-सर्वश्रमणागत हैं। तात्पर्य यह है कि सवस्त्र मुनि अंशतः कहा गया है कि जिनकल्पी सभी कर्मभूमियों और सभी कालों में होते श्रमणभाव को प्राप्त हैं। इस प्रकार यापनीय आपवादिक स्थितियों में हैं। इसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से वे सामायिक और छेदोपस्थापनीय परिस्थितिवश वस्त्र-ग्रहण करने वाले श्रमणों को श्रमण ही मानते हैं, चारित्र वाले होते हैं। वे सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में पाए जाते हैं और
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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 297 जन्म की अपेक्षा से 30 वर्ष की वय और मुनि-जीवन की अपेक्षा किया गया है उनमें मात्रक और चूलपट्टक ये दो उपधि जिनकल्पी से 19 वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले होते हैं। ज्ञान की दृष्टि से नव-दस नहीं रखते हैं।४९ पूर्व-ज्ञान के धारी होते हैं। वे तीनों शुभ लेश्याओं से युक्त होते हैं यापनीयों की दूसरी विशेषता यह है कि वे श्वेताम्बरों के समान और वज्रऋषभ नाराच-संहनन के धारक होते हैं। जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानते। उनके अनुसार समर्थ साधक सभी अपराजित के अतिरिक्त जिनकल्प और स्थाविरकल्प का कालों में जिनकल्प को धारण कर सकते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार उल्लेख यापनीय आचार्य शाकटायन के स्त्रीमुक्तिप्रकरण में भी है।४८ जिनकल्पी केवल तीर्थङ्कर की उपस्थिति में ही होते हैं। यद्यपि यापनीयों इससे यह प्रतीत होता है कि जिनकल्प की अवधारण श्वेताम्बर एवं की इस मान्यता में उनकी ही व्याख्यानुसार एक अन्तर्विरोध आता यापनीय दोनों परम्पराओं में लगभग समान ही थी। मुख्य अन्तर यह है, क्योंकि उन्होंने अपनी जिनकल्पी की व्याख्या में यह माना है कि है कि यापनीय परम्परा में जिनकल्पी के द्वारा वस्त्र-ग्रहण का कोई जिनकल्पी नौ-दस पूर्वधारी और प्रथम संहनन के धारक होते हैं। चूँकि उल्लेख नहीं है, क्योंकि उसमें मुनि के लिये वस्त्र-पात्र की स्वीकृति उनके अनुसार भी वर्तमान में पूर्वो का ज्ञान और प्रथम संहनन केवल अपवाद मार्ग में है, उत्सर्ग मार्ग में नहीं और जिनकल्पी उत्सर्ग (वज्र-ऋषभ- नाराच-संहनन) का अभाव है, अत: जिनकल्प सर्वकालों मार्ग का अनुसारण करता है। अत: यापनीय परम्परा के अनुसार वह में कैसे सम्भव होगा? इन दो-तीन बातों को छोड़कर यापनीय और किसी भी स्थिति में वस्त्र-पात्र नहीं रख सकता। वह अचेल ही रहता श्वेताम्बर परम्परा में जिनकल्प के सम्बन्ध में विशेष अन्तर नहीं है। है और पाणि-पात्री होता है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों विशेष जानकारी के लिये भगवती-आराधना की टीका और बरकला के अनुसार जिनकल्पी अचेल भी होता है और सचेल भी। वे पाणि-पात्री के तत्सम्बन्धी विवरणों को देखा जा सकता है। भी होते हैं और सपात्र भी होते हैं। ओघनियुक्ति (गाथा 78-79) ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-ग्रन्थ गोम्मटसार और यापनीय ग्रन्थ में उपधि (सामग्री) के आधार पर जिनकल्प के भी अनेक भेद किये भगवतीआराधना की टीका में जिनकल्प को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अन्तर परिलक्षित होता है, वह यह कि जहाँ गोम्मटसार में जिनकल्पी मुनि इसी प्रकार निशीथभाष्य में भी जिनकल्पी की उपधि को लेकर को मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, वहाँ भगवतीआराधना में उनमें विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्र माने गए हैं। वस्तुतः है कि पात्र की अपेक्षा से जिनकल्पी दो प्रकार के होते हैं—पाणिपात्र यह अन्तर इसलिये आया कि जब दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीय अर्थात् बिना पात्र वाले और पात्रधारी। इसी प्रकार वस्त्र की अपेक्षा चारित्र का अर्थ महाव्रतारोपण से भिन्न होकर प्रायश्चित रूप पूर्व-दीक्षा से भी उसमें जिनकल्पियों के दो प्रकार बताए गए हैं—अचेलक और पर्याय के छेद के अर्थ में लिया गया, तो जिनकल्पी में प्रायश्चित्त रूप सचेलक। पुनः इनकी उपधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि छेदोपस्थापनीय चारित्र का निषेध मानना आवश्यक हो गया, क्योंकि अचेलक और पाणिपात्रभोजी जिनकल्पी होते हैं वे रजोहरण और जिनकल्पी की साधना निरपवाद होती है। हमें जिनकल्प और स्थविरकल्प मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण रखते हैं। जो सपात्र और सवस्त्र होते हैं का उल्लेख प्राय: श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा में ही देखने को मिला उनकी उपधि की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक है। दिगम्बर परम्परा में यापनीय प्रभावित ग्रन्थों को छोड़कर प्राय: इस बारह होती है। स्थाविरकल्पी की जिन चौदह उपधियों का उल्लेख चर्चा का अभाव ही है। सन्दर्भ 1. णिच्चेलपाणिपत्तं उवइ8 परमजिण वरिंदेहि। एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे।। - सूत्रप्राभृत,१०। 2. एगयाऽ चेलए होइ सचेले यावि एगया। - उत्तराध्ययन, 2/13 / 3. उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव। अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंग।। - भगवतीआराधना, 76 / 4. णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।। - सूत्रप्राभृत, 23 / (अ) से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहता भगवंतो जे य पव्वयंति जे उन पव्वइस्संति सव्वे ते सोवही धम्मो देसिअव्वोत्ति कट्ट तित्थधम्मत्थाए एसाएणुधम्मिग ति एवं देवदूसमायाए पव्वइंसु वा पव्वयंति वा पव्वइसंति वा। - आचारांग 1/9/1-1 (शीलांक टीका), भाग, पृ० 273, सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, 1935. (ब) सव्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिनवरा चउव्वीसं। - आवश्यकनियुक्ति 227, हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल, शांतिपुरी (सौराष्ट्र), 1989 / 6. (अ) आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1258 / (ब) वही, 1260 / 7. अचेलगो य जो धम्मो जो इमोसंतरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा।। - उत्तराध्यययन, 23/29 8. वही, 23/24 / मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मला:। वातस्यानु धाजिम यंति यद्देवासो अविक्षत।। - ऋग्वेद, 10/136/2 / 10. ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचाएँ : एक अध्ययन, डॉ० सागरमल जैन, संधान, अंक 7, राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध
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________________ 298 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ संस्थान, वाराणसी, 1993, पृ० 22 / / अपरे वदन्ति विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति। 11. श्रीमद्भागवत, 2/7/10 / / - भगवतीआराधना, गाथा 423 की विजयोदया टीका, सम्पादक 12. (अ) उत्तराध्ययनसूत्र, 23/26 / पं० कैलाशचन्द्रजी, भाग 1, पृ० 325-326. (ब) यथोक्तम्-पुरिमं पच्छिमाणं अरहताणं भगवंताणं अचेलये पसत्थे (ब) तच्च सुवर्णवालुकानदीपूराहतकण्टकावलग्नं धिग्जातिना गृहीतमिति। भवइ। उत्तराध्ययन- नेमिचन्द की टीका, आत्मवल्लभ, ग्रन्थांक - आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/९/१/४-की वृत्ति। 22, बालापुर, 1937, 2/13, पृ० 22 पर उद्धृत। (स) तहावि सुवण्णबालुगानदीपूरे अवहिते कंटराएग्गं...। किमिति वच्चति 13. उत्तराध्ययन, 22/33-34 / चिरधरियत्ता सहसा व लज्जता थंडिले चुतं णवित्ति विप्पेण केणति 14. वही, 23/29 / दिट्ठ..। 15. 'जो इमो ति यश्चायं सान्तराणि वर्धमानस्वामियत्यपेक्षयामानवर्णविशेषतः - आचारांगचूर्णि ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, पृ०३००। सविशेषाणि उत्तराणि- महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद् वस्त्राणि (द) सामी दक्खिणवाचालाओ उत्तरवाचालं वच्चति, तत्थ सुव्वण्णकुलाए यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो धर्मः पावेन देशित इतीहाऽप्यपेक्ष्यते। वुलिणे तं वत्थं कंटियाए लग्गं ताहे तं थितं सामी गतो पुणो य - उत्तराध्ययन, नेमिचन्दकृत सुखबोधावृत्ति सहित, पृ० 295, अवलोइतं, किं निमित्तं? केती भणंति - जहा ममत्तीए अन्ने भणंति बालापुर, 23/12, वीर नि० सं० 2463 मा अत्थंडिले पडितं, अवलोइतं सुलभ वत्थं पत्तं सिस्साणं परिसुद्धं जुण्णं कुच्छितं थोवाणियत ऽण्ण भोगभोगेहि मणयो भविस्सति? तं च भगवता य तेरसमासे अहाभावेणं धारियं ततो मुच्छारहिता संतेहि अचेलया होति।। वोसरियं पच्छा अचेलते। तं एतेण पितुवंतस धिज्जातितेण गहितं। विशेषावश्यकभाष्य, पं० दलसुख मालवणिया, लालभाई दलपतभाई -आवश्यकचूर्णि, भाग 1, ऋषभदेव केसरीमल संस्थान, रतलाम, भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद, गाथा 3082, 1966 / पृ० 277 / अहपुण एवं जाणिज्जा-उवाइक्कंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने इससे यह फलित होता है कि उनके वस्त्रत्याग के सम्बन्ध में जो विभिन्न अहापरिजुनाई वत्थाई परिट्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले प्रवाद प्रचलित थे---उनका उल्लेख न केवल यापनीय अपितु श्वेताम्बर अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले। अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि आचार्य भी कर रहे थे। अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थ 24. आचारांग, शीलांकवृत्ति, 1/9/1/1-4, पृ० 273 / शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् सान्तरमुत्तरं - प्रावरणीयं यस्य स 25. (अ) सव्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिणवरा चउव्वीसं। तथा, क्वचित्पावृणोति क्वचित्पार्श्ववर्ति बिभर्ति, शीताशङ्कया नाद्यापि न य नाम अण्णलिंगे, नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा।। परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात्, द्विकल्पधारीत्यर्थः -आवश्यकनियुक्ति, 227. अथवा शनैः-शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् (ब) बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवइसंति। तत् एकशाटकः संवृत्तः अथवा ऽऽत्यन्तिके शीताभावे तदपि छेओवट्ठावणयं पुण वयंति उसभो य वीरो य।। परित्यजेदतोऽचेलो भवति। -आवश्यकनियुक्ति, 1260. - आचारांग (शीलांकवृत्ति), सं० जम्बूविजय, 1/8/4, सूत्र 26. (अ) एवमेगे उ पासत्था। सूत्रकृतांग, 1/3/4/9 212, पृ० 277 / (ब) पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे। 18. देखें, उपरोक्त। हंदि हु मेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्भयदा।। 19. देखें, उपरोक्त। -~-भगवतीआराधना, गाथा 341. 20. देखें, उपरोक्त। 27. छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं 21. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास (पूर्वपीठिका), जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणेवि।। गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, वी०नि० सं० 2489, -ओघनियुक्ति, 691. पृ० 399 / 28. निग्गंथा एक साटका। मज्झिमनिकाय-महासिंहनादसुत्त, 1/1/2 / 22. णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते। 29. देखें-दीघनिकाय, अनु० भिक्षु राहुल सांकृत्यायन एवं भिक्षु से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स।। जगदीश कश्यप, महाबोधि सभा, बनारस 1936, पासादिकसुत्त 3/ संवच्छरं साहियं मासं जंण रिक्कासि वत्थगं भगवं। 6, पृ० 252 / अचेलए ततो चाई तं वोसज्ज वत्थमणगारे।। 30. भगवई, पन्नरसं सतं, 101-152, सं० मुनि नथमल, जैन -आयारो, 1/9/1/2 एवं 3 विश्वभारती लाडनूं, वि० सं० 2131, पृ० 677-694 / 23. (अ) यच्च भावनायामुक्तं- वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो 31. देखें- दीघनिकाय, पासादिकसुत्तं, 3/6, पृ० 252 / जिणोत्ति- तदुक्तं विप्रतिपत्तिबहुलत्वात्। कथं केचिद्वदन्ति तस्मिन्नेव 32. धम्मपद, अट्टकथा, तृतीय भाग, गाथा 489 / / दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति। अन्ये षण्मासाच्छिन्नं 33. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा 423, सं० कैलाशचन्द्र तत्कण्टकशाखादिभिरिति। साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्रं खण्डलकब्राह्मणेन सिद्धान्तशास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, 1938, गृहीतमिति केचित्कथयन्ति। केचिद्वातेन पतितमपेक्षितं जिनेनेति। पृ०३२४।
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________________ जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 299 34. धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पायकंबलं। निशीसूित्र, 2/23, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, सेज्जमुच्चारभूमिं च संथारं अदुवासणं।। गाथा 423, पृ० 324. दशवैकालिक, 8/17, नवसुत्ताणि, सं० युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन 41. भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, गाथा 423, पृ० 324. विश्वभारती, लाडनूं, 1967, पृ० 68. 42. भगवती-आराधना में उल्लिखित प्रस्तुत सन्दर्भ वर्तमान आचारांग में 35. आचारांग, 1/5/89, सं० युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन अनुपलब्ध है। उसमें मात्र स्थिरांग मुनि के लिये एक वस्त्र और एक समिति, व्यावर। पात्र से अधिक रखने की अनुज्ञा नहीं है। सम्भवतः यह परिवर्तन 36. (अ) एसेहिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं तत्थ एसे परवर्ती -काल में हुआ है। जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं। 43. (अ) हिरिहेतुकं व होइ देहदुगुंछंति देहे जुग्गिदगे। आचारांग, वस्त्रैषणा-उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, धारेज्ज सिया वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासीति।। गाथा 423, पृ० 324. कल्पसूत्र से उद्धृत- भगवती आराधना, विजयोदया टीका. गाथा जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके विरसंघयणे, से एगं वत्थं 423, पृ० 324. . धारेज्जा, णो बितियं। (ब) प्रस्तुत सन्दर्भ उपलब्ध बृहत्कल्पसूत्र में प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि -आचारचूला, द्वितीयश्रुतस्कन्ध, 2/5/1/2, पृ० 161 / वस्त्र धारण करने के इन कारणों का उल्लेख स्थानांगसूत्र, स्थान 3 37. (अ) हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं में निम्न रूप में मिलता है- कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पादचारित्तए इति। तओ वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तंजहा- जंगिए, भंगिए, - वही, गाथा 423, पृ० 324 / खोमिए। (ब) जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं -ठाणांग, 3/345 / धारेज्जा, णो बीयं। 44. आचारांग, शीलांकवृत्ति, 1/7/4, सूत्र, 209, पृ० 251 / -आचारांगसूत्र, आचारचूला, 2/6/1/2 / 45. (अ) भगवती आराधना, विजयोदया टीका, पृ० 325-326. 38. संवच्छरं साहियं मासं, जंण रिक्कासि वत्थगं भगवं। तुलनीय आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ० 276. अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे।। (ब) आवश्यकसूत्रं (उत्तरभाग) चूर्णि सहित, ऋषभदेव, केशरीमल -आचारांग, 1/9/1/4 / श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, 1929. 39. (अ) ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति। 46. भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, पृ० 326-327, पालित्रिपिटक, - सूत्रकृतांग, पुंडरीक अध्ययन, उद्धृत भगवती आराधना, कन्कोडेंन्स, पृ० 345. विजयोदया टीका, गाथा 423, पृ० 324. 47. भगवती-आराधना, भाग 1 (विजयोदया टीका), गाथा 157 की (ब) णो पाणस्स (पायस्स) हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। णो वत्थस्स हेर्ड टीका, पृ० 205. . धम्माइक्खेज्जा। - सूत्रकृताङ्ग, 2/1/68, पृ० 366. 48. (अ) शाकटायन व्याकरणम्, स्त्री-मुक्तिप्रकरणम् 7, सम्पादक 40. (अ) कसिणाई वत्थकंबलाइं जो भिक्खू पडिग्गहिदि आपज्जदि पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, मासिगं लहुगं। 1971, पृ० 1 / ... - निशीथसूत्र, 2/23, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया (ब) बृहत्कल्पसूत्र 6/9, सम्पादक मधुकर मुनि, ब्यावर, 1992 // टीका, गाथा 423, पृ० 324. 49. (अ) बृहत्कल्पसूत्र 6/20. (ब) जे भिक्खू कसिणाई वत्थाई धरति, धरेतं वा सातिज्जति। (ब) पञ्चकल्पभाष्य (आगमसुधासिन्धु), 816-822 / Jain Education Interational