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________________ 292 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दूसरे की निन्दा न करें। ज्ञातव्य है कि संघ-भेद का कारण यह मिली-जुली मिलती है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के अनेक आचार्यों ने व्यवस्था नहीं थी, अपितु इसमें अपनी-अपनी श्रेष्ठता का मिथ्या अहंकार समय-समय पर वस्त्र-ग्रहण की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के विरोध में अपने ही आगे चलकर संघ-भेद का कारण बना है। जब सचेलकों ने अचेलकों स्वर मुखरित किये थे। आर्य भद्रबाहु के पश्चात् भी उत्तर-भारत के की साधना सम्बन्धी विशिष्टता को अस्वीकार किया और अचेलकों निर्ग्रन्थ संघ में आर्य महागिरि, आर्य शिवभूति, आर्य रक्षित आदि ने सचेलक को मुनि मानने से इन्कार किया तो संघ-भेद होना स्वाभाविक ने वस्त्रवाद का विरोध किया था। ज्ञातव्य है कि इन सभी को श्वेताम्बर ही था। परम्परा अपने पूर्वाचार्यों के रूप में ही स्वीकार करती है। मात्र यही ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् नहीं, इनके द्वारा वस्त्रवाद के विरोध का उल्लेख भी करती है। इस जो निम्रन्थ मुनि दक्षिण बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के रास्ते सबसे यही फलित होता है कि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में आगे से तमिलनाडु और कर्नाटक में पहुँचे, वे वहाँ की जलवायुगत चलकर वस्त्र को जो अपरिहार्य मान लिया गया और वस्त्रों की संख्या परिस्थितियों के कारण अपनी अचेलता को यथावत कायम रख सके, में जो वृद्धि हुई वह एक परवर्ती घटना है और वही संघ-भेद का क्योंकि वहाँ सर्दी पड़ती ही नहीं है। यद्यपि उनमें भी क्षुल्लक और मुख्य कारण भी है। ऐलक दीक्षाएँ होती रही होंगी, किन्तु अचेलक मुनि को सर्वोपरि मानने जैन साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ के कारण उनमें कोई विवाद नहीं हआ। दक्षिण भारत में अचेल रहना मुनियों के द्वारा वस्त्र-ग्रहण करने के सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति का ज्ञान सम्भव था, इसलिये उसके प्रति आदरभाव बना रहा। फिर भी लगभग जैनेतर साक्ष्यों से भी उपलब्ध होता है, जो अति महत्त्वपूर्ण है। इनमें पाँचवीं-छठी शती के पश्चात् वहाँ भी हिन्दू-मठाधीशों के प्रभाव से सबसे प्राचीन सन्दर्भ पालित्रिपिटक का है। पालित्रिपिटक में प्रमुख रूप सवस्त्र भट्टारक परम्परा का क्रमिक विकास हुआ और धीरे-धीरे से दो ऐसे सन्दर्भ हैं जहाँ निर्ग्रन्थ की वस्त्र-सम्बन्धी स्थिति का संकेत दसवीं-ग्यारहवीं शती से व्यवहार में अचेलता समाप्त हो गयी। केवल मिलता है। प्रथम सन्दर्भ तो निर्ग्रन्थ का विवरण देते हुए स्पष्टतया अचेलता के प्रति सैद्धान्तिक आदर भाव बना रहा। आज वहाँ जो यह कहता है कि निर्ग्रन्थ एकशाटक थे२८, इससे यह स्पष्ट हो जाता दिगम्बर हैं, वे इस कारण दिगम्बर नहीं हैं कि वे नग्न रहते हैं अपितु है कि बुद्ध के समय या कम से कम पालित्रिपिटक के रचनाकाल इस कारण हैं कि अचेलता/दिगम्बरत्व के प्रति उनमें आदर भाव है। अर्थात् ई० पू० तृतीय-चतुर्थ शती में निर्ग्रन्थों में एक वस्त्र का प्रयोग महावीर का जो निर्ग्रन्थ संघ बिहार से पश्चिमोत्तर भारत की ओर होता था, अन्यथा उन्हें एकशाटक कभी नहीं कहा जाता। जहाँ आजीवक आगे बढ़ा, उसमें जलवायु तथा मुनियों की बढ़ती संख्या के कारण सर्वथा नग्न रहते थे, वहाँ निर्ग्रन्थ एक वस्त्र रखते थे। इससे यही वस्त्र-पात्र का विकास हुआ। प्रथम शक, हूण आदि विदेशी संस्कृति सूचित होता है कि वस्त्र ग्रहण की परम्परा अति प्राचीन है। पुनः निर्ग्रन्थ के प्रभाव से तथा दूसरे जलवायु के कारण से इस क्षेत्र में नग्नता के एकशाटक होने का यह उल्लेख पालित्रिपिटक में ज्ञातपुत्र महावीर को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा, जबकि दक्षिण भारत में नग्नता के की चर्चा के प्रसंग में हुआ है। अत: सामान्य रूप से इसे पार्श्व की प्रति हेय भाव नहीं था। लोक-लज्जा और शीत-निवारण के लिये एक परम्परा कही देना भी ठीक नहीं होगा। फिर भी यदि इसमें चातुर्याम वस्त्र रखा जाने लगा। प्रारम्भ में तो उत्तर भारत का यह निम्रन्थ संघ की अवधारणा के उल्लेख के आधार पर इसे पार्श्व की परम्परा से रहता तो अचेल ही था, किन्तु अपने पास एक वस्त्र रखता था जिसका सम्बन्धित माने तो भी इतना अवश्य है कि महावीर के संघ में पापित्यों उपयोग नगरादि में प्रवेश करते समय लोक-लज्जा के निवारण के के प्रवेश के साथ-साथ वस्त्र का प्रवेश हो गया था। चाहे निम्रन्थ परम्परा लिये और शीत ऋतु में सर्दी सहन न होने की स्थिति में ओढ़ने के पार्श्व की रही हो या महावीर की। यह निर्विवाद है कि निर्ग्रन्थ संघ लिये किया करता था। मथुरा से अनेक ऐसे अचेल जैन मुनियों की में प्राचीनकाल से ही वस्त्र के सम्बन्ध में वैकल्पिक व्यवस्था मान्य प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनके हाथ में यह वस्त्र (कम्बल) इस प्रकार रही है, फिर चाहे वह अपवाद मार्ग के रूप में हो या स्थविर कल्प प्रदर्शित है कि उनकी नग्नता छिप जाती है। उत्तर भारत में निर्ग्रन्थों, के रूप में ही क्यों न हो। मुनियों की इस स्थिति को ही ध्यान में रखकर सम्भवत: पालित्रिपिटक पालित्रिपिटकर के एक अन्य प्रसंग में महावीर के स्वर्गवास में निर्ग्रन्थों को एकशाटक कहा गया है। हमें प्राचीन अर्थात् ईसा की के पश्चात् निम्रन्थ संघ के पारस्परिक कलह और उसके दो भागों में पहली-दूसरी शती के जो भी साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाण मिलते विभाजित होने का निम्न उल्लेख मिलता है- वे एक-दूसरे की हैं उनसे यही सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में शीत आलोचना करते हुए कहते थे, "तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता। और लोक-लज्जा के लिये वस्त्र-ग्रहण किया जाता था। श्वेताम्बर मान्य मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। तू क्या इस धर्म-विनय को जानेगा? आगमिक व्याख्याओं से जो सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं, उनसे भी यह आदि-आदि।" इस विवाद के सम्बन्ध में विद्वानों में दो प्रकार के मत ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र का प्रवेश होते हैं। मुनि कल्याणविजय जी आदि कुछ विद्वानों के अनुसार यह विवरण हुए भी महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग छ: सौ वर्षों तक अचेलकत्व महावीर के जीवन-काल में ही उनके और गोशालक के बीच हुए उस उत्सर्ग या श्रेष्ठमार्ग के रूप में मान्य रहा है। विवाद का सूचक है, जिसके कारण महावीर के निर्वाण का प्रवाद श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य से ही हमें यह भी सूचना भी प्रचलित हो गया था। भगवतीसूत्र में हमें इस विवाद का विस्तृत म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210586
Book TitleJain Achar me Achelakatva aur Sachalekatva ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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