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________________ 298 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ संस्थान, वाराणसी, 1993, पृ० 22 / / अपरे वदन्ति विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति। 11. श्रीमद्भागवत, 2/7/10 / / - भगवतीआराधना, गाथा 423 की विजयोदया टीका, सम्पादक 12. (अ) उत्तराध्ययनसूत्र, 23/26 / पं० कैलाशचन्द्रजी, भाग 1, पृ० 325-326. (ब) यथोक्तम्-पुरिमं पच्छिमाणं अरहताणं भगवंताणं अचेलये पसत्थे (ब) तच्च सुवर्णवालुकानदीपूराहतकण्टकावलग्नं धिग्जातिना गृहीतमिति। भवइ। उत्तराध्ययन- नेमिचन्द की टीका, आत्मवल्लभ, ग्रन्थांक - आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/९/१/४-की वृत्ति। 22, बालापुर, 1937, 2/13, पृ० 22 पर उद्धृत। (स) तहावि सुवण्णबालुगानदीपूरे अवहिते कंटराएग्गं...। किमिति वच्चति 13. उत्तराध्ययन, 22/33-34 / चिरधरियत्ता सहसा व लज्जता थंडिले चुतं णवित्ति विप्पेण केणति 14. वही, 23/29 / दिट्ठ..। 15. 'जो इमो ति यश्चायं सान्तराणि वर्धमानस्वामियत्यपेक्षयामानवर्णविशेषतः - आचारांगचूर्णि ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, पृ०३००। सविशेषाणि उत्तराणि- महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद् वस्त्राणि (द) सामी दक्खिणवाचालाओ उत्तरवाचालं वच्चति, तत्थ सुव्वण्णकुलाए यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो धर्मः पावेन देशित इतीहाऽप्यपेक्ष्यते। वुलिणे तं वत्थं कंटियाए लग्गं ताहे तं थितं सामी गतो पुणो य - उत्तराध्ययन, नेमिचन्दकृत सुखबोधावृत्ति सहित, पृ० 295, अवलोइतं, किं निमित्तं? केती भणंति - जहा ममत्तीए अन्ने भणंति बालापुर, 23/12, वीर नि० सं० 2463 मा अत्थंडिले पडितं, अवलोइतं सुलभ वत्थं पत्तं सिस्साणं परिसुद्धं जुण्णं कुच्छितं थोवाणियत ऽण्ण भोगभोगेहि मणयो भविस्सति? तं च भगवता य तेरसमासे अहाभावेणं धारियं ततो मुच्छारहिता संतेहि अचेलया होति।। वोसरियं पच्छा अचेलते। तं एतेण पितुवंतस धिज्जातितेण गहितं। विशेषावश्यकभाष्य, पं० दलसुख मालवणिया, लालभाई दलपतभाई -आवश्यकचूर्णि, भाग 1, ऋषभदेव केसरीमल संस्थान, रतलाम, भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद, गाथा 3082, 1966 / पृ० 277 / अहपुण एवं जाणिज्जा-उवाइक्कंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने इससे यह फलित होता है कि उनके वस्त्रत्याग के सम्बन्ध में जो विभिन्न अहापरिजुनाई वत्थाई परिट्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले प्रवाद प्रचलित थे---उनका उल्लेख न केवल यापनीय अपितु श्वेताम्बर अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले। अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि आचार्य भी कर रहे थे। अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थ 24. आचारांग, शीलांकवृत्ति, 1/9/1/1-4, पृ० 273 / शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् सान्तरमुत्तरं - प्रावरणीयं यस्य स 25. (अ) सव्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिणवरा चउव्वीसं। तथा, क्वचित्पावृणोति क्वचित्पार्श्ववर्ति बिभर्ति, शीताशङ्कया नाद्यापि न य नाम अण्णलिंगे, नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा।। परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात्, द्विकल्पधारीत्यर्थः -आवश्यकनियुक्ति, 227. अथवा शनैः-शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् (ब) बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवइसंति। तत् एकशाटकः संवृत्तः अथवा ऽऽत्यन्तिके शीताभावे तदपि छेओवट्ठावणयं पुण वयंति उसभो य वीरो य।। परित्यजेदतोऽचेलो भवति। -आवश्यकनियुक्ति, 1260. - आचारांग (शीलांकवृत्ति), सं० जम्बूविजय, 1/8/4, सूत्र 26. (अ) एवमेगे उ पासत्था। सूत्रकृतांग, 1/3/4/9 212, पृ० 277 / (ब) पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे। 18. देखें, उपरोक्त। हंदि हु मेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्भयदा।। 19. देखें, उपरोक्त। -~-भगवतीआराधना, गाथा 341. 20. देखें, उपरोक्त। 27. छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं 21. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास (पूर्वपीठिका), जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणेवि।। गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, वी०नि० सं० 2489, -ओघनियुक्ति, 691. पृ० 399 / 28. निग्गंथा एक साटका। मज्झिमनिकाय-महासिंहनादसुत्त, 1/1/2 / 22. णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते। 29. देखें-दीघनिकाय, अनु० भिक्षु राहुल सांकृत्यायन एवं भिक्षु से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स।। जगदीश कश्यप, महाबोधि सभा, बनारस 1936, पासादिकसुत्त 3/ संवच्छरं साहियं मासं जंण रिक्कासि वत्थगं भगवं। 6, पृ० 252 / अचेलए ततो चाई तं वोसज्ज वत्थमणगारे।। 30. भगवई, पन्नरसं सतं, 101-152, सं० मुनि नथमल, जैन -आयारो, 1/9/1/2 एवं 3 विश्वभारती लाडनूं, वि० सं० 2131, पृ० 677-694 / 23. (अ) यच्च भावनायामुक्तं- वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो 31. देखें- दीघनिकाय, पासादिकसुत्तं, 3/6, पृ० 252 / जिणोत्ति- तदुक्तं विप्रतिपत्तिबहुलत्वात्। कथं केचिद्वदन्ति तस्मिन्नेव 32. धम्मपद, अट्टकथा, तृतीय भाग, गाथा 489 / / दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति। अन्ये षण्मासाच्छिन्नं 33. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा 423, सं० कैलाशचन्द्र तत्कण्टकशाखादिभिरिति। साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्रं खण्डलकब्राह्मणेन सिद्धान्तशास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, 1938, गृहीतमिति केचित्कथयन्ति। केचिद्वातेन पतितमपेक्षितं जिनेनेति। पृ०३२४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210586
Book TitleJain Achar me Achelakatva aur Sachalekatva ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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