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________________ 288 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ परवर्ती आगम ग्रन्थों में एवं उनकी व्याख्याओं में महावीर के एक को 'अनुधर्म' कहा गया है, अर्थात् यह परम्परा का अनुपालन मात्र वर्ष पश्चात् वस्त्र-त्याग करने के सन्दर्भ में अनेक प्रवाद या मान्यतायें था। हो सकता है कि उन्होंने मात्र अपनी कुल-परम्परा अर्थात् पापित्यप्रचलित हैं। यापनीय ग्रन्थ भगवती-आराधना और श्वेताम्बर आगमिक परम्परा का अनुसरण किया हो। श्वेताम्बर आचार्य उसकी व्याख्या में व्याख्याओं में इन प्रवादों या मान्यताओं का उल्लेख है। 23 यहाँ हम इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करने की बात कहते हैं। यह मात्र उन प्रवादों में न जाकर केवल इतना ही बता देना पर्याप्त समझते परम्परागत विश्वास है, इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन उल्लेख नहीं है। हैं कि प्रारम्भ में महावीर ने वस्त्र लिया था और बाद में वस्त्र का परित्याग आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपधानश्रुत मात्र वस्त्र-ग्रहण की बात कर दिया। वह वस्त्र-त्याग किस रूप में हुआ यह अधिक महत्त्वपूर्ण कहता है। वह वस्त्र इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदुष्य था, ऐसा उल्लेख नहीं। नहीं है। करता। मेरी दृष्टि में इस 'अनुधर्म' में 'अन्' शब्द का अर्थ वही यदि हम महावीर के समकालीन अन्य श्रमण-परम्पराओं की जो अणुव्रत में 'अणु' शब्द का है अर्थात् आंशिक न्यासग। वस्तुत: वस्त्र-ग्रहण सम्बन्धी अवधारणाओं पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता महावीर का लक्ष्य तो पूर्ण अचेलता का था, किन्तु प्रारम्भ में उन्होंने है कि उस युग में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की श्रमण-परम्पराएँ वस्त्र का आंशिक त्याग ही किया था। जब एक वर्ष की साधा से प्रचलित थीं। उनमें से पार्श्व के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन और उसके उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया कि वे अपनी काम-वासना पर पूर्ण परवर्ती साहित्य में जो कुछ सूचनाएँ उपलब्ध हैं, उन सबसे एक मत विजय प्राप्त कर चुके हैं और दो शीतकालों के व्यतीत हो जाने से से पार्श्व की परम्परा, सवस्त्र परम्परा सिद्ध होती है। स्वयं उत्तराध्ययन उन्हें यह अनुभव हो गया कि उनका शरीर उस शीत को सहने में का तेईसवाँ अध्ययन इस बात का साक्षी है कि पार्श्व की परम्परा सचेल पूर्ण समर्थ है, तो उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया।२४ ज्ञातव्य परम्परा थी। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी सचेल थी। दूसरी ओर आजीवक है कि महावीर ने दीक्षित होते समय मात्र सामायिक चारित्र ही लिया सम्प्रदाय पूर्णत: अचेलता का प्रतिपादक था। यह सम्भव है कि महावीर था, महाव्रतों का ग्रहण नहीं किया था। श्वेताम्बर आगमों का कथन ने अपने वंशानुगत पापित्यीय परम्परा के प्रभाव से एक वस्त्र ग्रहण है कि सभी तीर्थङ्कर एक देवदृष्य लेकर सामायिक चारित्र की प्रतिज्ञा करके अपनी साधना-यात्रा प्रारम्भ की हो। कल्पसूत्र में उनके दीक्षित से ही दीक्षित होते हैं।२५ यह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि सामायिक होते समय आभूषण-त्याग का उल्लेख हैं वस्त्र-त्याग का नहीं। यहाँ चारित्र से दीक्षित होते समय एक वस्त्र ग्रहण करने की परम्परा रही यह भी ज्ञातव्य है कि महावीर उत्तर-बिहार के वैशाली जनपद में शीत होगी। ऋतु के प्रथम मास (मार्गशीर्ष) में दीक्षित हुए थे। उस क्षेत्र की भयंकर निष्कर्ष यह है कि महावीर की साधना का प्रारम्भ सचेलता से सर्दी को ध्यान में रखकर परिवार के लोगों के अति आग्रह के कारण हुआ किन्तु उसकी परिनिष्पत्ति अचेलता में हुई। महावीर की दृष्टि में सम्भवत: महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र स्वीकार किया हो। सचेलता अणुधर्म था और अचेलता मुख्य धर्म था। महावीर द्वारा मेरी दृष्टि में इसमें भी पारिवारिक आग्रह ही प्रमुख कारण रहा होगा। वस्त्र-ग्रहण करने में उनके कुलधर्म अर्थात् पार्थापत्य परम्परा का प्रभाव महावीर ने सदैव ही परिवार के वरिष्ठजनों को सम्मान दिया था। यही हो सकता है किन्तु पूर्ण अचेलता का निर्णय या तो उनका स्वतःस्फूर्त कारण रहा कि माता-पिता के जीवित रहते उन्होंने प्रव्रज्या नहीं ली। था या फिर आजीवक परम्परा का प्रभाव। यह सत्य है कि महावीर पुन: बड़े भाई के आग्रह से दो वर्ष और गृहस्थावस्था में रहे। सम्भवतः पार्थापत्य परम्परा से प्रभावित रहे हैं और उन्होंने पार्थापत्य परम्परा शीत ऋतु में दीक्षित होते समय भाई या परिजनों के आग्रह से उन्होंने के दार्शनिक सिद्धान्तों को ग्रहण भी किया है, किन्तु वैचारिक दृष्टि वह एक वस्त्र लिया हो। सम्भव है कि विदाई की उस बेला में परिजनों से पार्थापत्यों के निकट होते हुए भी आचार की दृष्टि से वे उनसे के इस छोटे से आग्रह को ठुकराना उन्हें उचित न लगा हो। किन्तु सन्तुष्ट नहीं थे। पार्थापत्यों के शिथिलाचार के उल्लेख और उसकी उसके बाद उन्होंने कठोर साधना का निर्णय लेकर उस वस्त्र का उपयोग समालोचना जैनधर्म की सचेल और अचेल दोनों परम्पराओं के साहित्य शरीरादि ढकने के लिये नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय किया और दूसरे में मिलती है।२६ यही कारण था कि महावीर ने पार्थापत्यों की वर्ष के शीतकाल की समाप्ति पर उन्होंने उस वस्त्र का भी परित्याग आचार-व्यवस्था में व्यापक सुधार किये। सम्भव है कि अचेलता के कर दिया। आचारांग से इन सभी तथ्यों की पुष्टि होती है। उसके सम्बन्ध में वे आजीवकों से प्रभावित हुए हों। हर्मन जैकोबी आदि पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे, इस तथ्य को स्वीकार करने में पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस सन्दर्भ में महावीर पर आजीवकों के प्रभाव श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर तीनों में से किसी को भी कोई विप्रतिपत्ति होने की सम्भावना को स्वीकार किया है। नहीं है। तीनों ही परम्पराएँ एक मत से यह स्वीकार करती हैं कि हमारे कुछ दिगम्बर विद्वान् यह मत रखते हैं कि महावीर की महावीर अचेल धर्म के ही प्रतिपालक और प्रवक्ता थे। महावीर का अचेलता से प्रभावित होकर आजीवकों ने अचेलता (नग्नता) को स्वीकार सचेल दीक्षित होना भी स्वैच्छिक नहीं था, वस्त्र उन्होंने लिया नहीं, किया, किन्तु यह उनकी भ्रान्ति है और ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य भी अपितु उनके कन्धे पर डाल दिया गया था। यापनीय आचार्य नहीं है। चाहे गोशालक महावीर के शिष्य के रूप में उनके साथ लगभग अपराजितसूरि ने इस प्रवाद का उल्लेख किया है- वे कहते हैं कि छ: वर्ष तक रहा हो, किन्तु न तो गोशालक से प्रभावित होकर महावीर यह तो उपसर्ग हुआ, सिद्धान्त नहीं। आचारांग में उनके वस्त्र-ग्रहण नग्न हए और न महावीर की नग्नता का प्रभाव गोशालक के माध्यम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210586
Book TitleJain Achar me Achelakatva aur Sachalekatva ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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