Book Title: Hath yoga Ek Vyashti Samashti Vishleshan
Author(s): Shyamsundar Nigam
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूद हठयोग अर्चनार्चन [एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण] 0 डॉ० श्यामसुन्दर निगम 'ह' से प्राशय इड़ा नाड़ी तथा '8' से पिंगला नाड़ी से होता है। ये दोनों नाड़ियां हमारे नासा-रंध्रों से जुड़ी हैं। इनके माध्यम से श्वासक्रिया होती है। आध्यात्मिक-जागरण अथवा तांत्रिक-साधना के जिज्ञासु साधक अथवा योगारूढ़ जन इनके माध्यम से प्राणायाम साधने हेतु पूरक, कुंभक एवं रेचक नामक श्वास-क्रियाएँ करते हैं । इन यौगिक क्रियानों के माध्यम से कुंडलिनी के रूप में मानव-शरीर के अधोभाग में स्थित जीवात्मा का जागरण संभव होता है, परिणामस्वरूप कुंडलिनी ऊर्ध्वमुखी होकर, इड़ा और पिंगला के मध्य में, मेरुदण्ड कोष में विद्यमान सुषुम्ना नाड़ी के रास्ते सहस्रार की ओर परम तत्त्व से मिलने प्रस्थान कर देती है, ताकि जीव एवं ब्रह्म के योग द्वारा उनमें एकात्म्य हो सके । योग की इस पद्धति को 'हठयोग' अथवा 'कुण्डलिनी योग' के नाम से अभिहित किया गया है। वैदिक वाङ्मय में यह योग सूत्र रूप में उल्लिखित है किन्तु कालान्तर में पुराणों, शैव एवं शाक्त प्रागमों, सिद्ध एवं नाथ तंत्र-ग्रन्थों एवं दसियों स्वतंत्र ग्रन्थों में इसकी विशद चर्चा एवं सूक्ष्म अनुशीलन हुा । भारतीय चिन्तन पर इसका इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि महायान मत को कुछ शाखाएँ, जैनमत के तांत्रिक विधान, अद्वैत-वेदान्त के गुह्य-साधक, सूफी सम्प्रदाय के कुछ प्रचारक तथा संत एवं रहस्यशील कवि भी अनेक प्रकार तथा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से इससे प्रभावित हुए। आधुनिक काल में भी भारत में एवं अन्यत्र इस पर गंभीरतम अध्ययन, अनुसंधान एवं विश्लेषण हुआ । परिणामस्वरूप अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे गये जिनके कारण भारत की यौगिक एवं तांत्रिक पद्धतियों की मारे विश्व के दार्शनिक जगत में धूम मच गई। कुण्डलिनी योग को भली प्रकार आत्मसात् करने के लिए तद्विषयक सूक्ष्म शरीर-विज्ञान को जानना समीचीन होगा। मानव-शरीर नाड़ियों का एक अद्भुत अन्तर्जाल है। ये नाडियाँ ७२,००० मानी गयी हैं। इनके दो प्रकार हैं प्रथम प्रकार की नाड़ियों का सम्बन्ध मन और प्राण की क्रियाओं से होता है। इनमें सुषुम्ना का विशेष महत्त्व है। यह मेरुदण्ड के मध्य में स्थित रहती है और आज्ञा-चक्र से निकलकर ग्रीवा, वक्षस्थल, कटि प्रदेश होतो हुई जननेन्द्रिय तक पहुँचती है। शरीर का समस्त स्नायविक जाल इसी सुषुम्ना से सम्बधित होता है। इस प्रकार सुषुम्ना, मस्तिष्क एवं शरीर के विभिन्न अवयवों के मध्य सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक अत्यंत जटिल एवं त्वरिततम सूक्ष्म माध्यम है। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १६७ दुसरे प्रकार की नाड़ियाँ भकुटि के पास स्थित मनश्चक्र से निकलती हैं और श्रोत्र, नेत्र, मुख तथा जिह्वा तक फैल जाती हैं। इनमें एक कर्म नामक नाड़ी भी है जो शरीर के अधोभाग में गुदा तक जाती है । इन नाड़ियों की क्रियाएँ मन के प्राधीन नहीं होती। इन समस्त नाड़ियों में इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना का अत्यधिक महत्त्व है। [चित्र क्र. १ (अ) एवं (ब) में इन नाड़ियों एवं विभिन्न चक्रों की स्थिति प्रदर्शित की गयी M है।] इस कारण इड़ा, इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाड़ियों के मध्य की स्थिति पिंगला एवं सुषुम्ना पर कुछ सामने की ओर से : चित्र १-(अ) और प्रकाश डालना आवश्यक है। सुषुम्ना के दक्षिण पार्श्व में इड़ा नाड़ी होती है। इसका सम्बन्ध चन्द्र से है। वामपार्श्व में पिंगला होती है जिसका सम्बन्ध सूर्य से होता है। इस कारण इड़ा और पिंगला को क्रम से चन्द्रनाड़ी एवं सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। जैसा कि प्रारम्भ में देखा गया है, इन नाड़ियों द्वारा कंडलिनी शक्ति को जाग्रत किया जाता है। सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड में मस्तिष्क से लेकर जननेन्द्रिय तक फैली हुई है। इसकी तीन परतें होती हैं। ऊपर की परत वन इड़ा, पिंगला एवं सुषम्ना नाड़ियों के मध्य की स्थिति (वचिनी), मध्य की चित्रा पीछे की ओर से : चित्र-१ (ब) आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम wjainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनार्चन पंचम खण्ड / १६८ (चित्रिनी), सबसे भीतर की ब्रह्मनाड़ी कही गई है। ब्रह्मनाड़ी अत्यंत बारीक तन्तु की भाँति होती है जो विभिन्न चक्रों को पुष्पनालिका की भाँति जोड़ती है । सुषुम्ना में जो ६ चक्र होते हैं वे चित्रा नामक परत में होते हैं। इन चक्र-स्थानों पर नाड़ियों के पुष्पाकार गुच्छ होते हैं। ये स्थान सावयुक्त संवेदनशील ग्रन्थियों के रूप में होते हैं तथा शक्ति व चेतना के महत्त्वपूर्ण केन्द्र माने गये हैं । इनके जागरण एवं साक्षात्कार के लिये केवल योगाभ्यास ही नहीं अपितु ध्यान एवं एकाग्रता भी आवश्यक है। इस प्रकार से चक्र कुण्डलिनी को सूक्ष्म अंतर्यात्रा के अत्यंत मार्मिक पड़ाव हैं जो केवल साधकों को ही प्रत्यक्ष हो सकते हैं । आधुनिक शरीर विज्ञानी इन चक्र स्थानों का महत्त्व तो जानते हैं किन्तु इन चक्रों को भौतिक रूप में प्रत्यक्ष कर पाने में सफल रहे हैं । कुण्डलिनी का स्वरूपकुंडलिनी शक्ति को जीवात्मा के रूप माना गया है। इसका रूप सर्पिणी की भाँति होता है । वह साढ़े तीन प्रांटों वाली बताई गई है। गुदा के पीछे एक मांसपेशी होती है जो सामान्यतः ९ अंगुल लम्बी तथा ४ अंगुल मोटी होती है । इसे कन्द कहते हैं। कन्द के मध्य में विषु चक नामक एक नाभिवत् केन्द्र होता है इस केन्द्र पर शक्ति निष्क्रिय रहती है। सर्पाकार कुंडलिनी इसी स्थान पर मधोमुखी होकर विश्राम करती है। विषु चक्र को धारण करने वाली एक मांसपेशी धौर होती है, इसे कहते हैं । चूंकि कुंडलिनी की यात्रा के पूर्व साधकों के समस्त प्राण समष्टि रूप सर्वप्रथम यहाँ एकत्रित होते हैं, इस कारण इस केन्द्र का महत्त्व अन्य चक्रों की नहीं है। अधः सहस्रार धारण कर अपेक्षा कम - तन्द्रिलावस्था से जब कुंडलिनी जाग्रत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊर्ध्वमुख यात्रा प्रारम्भ कर सहस्रार चक्र में विराजमान अपने अनन्त काल से बिछुड़े प्रियतम से मिलने चल पड़ती है। यह मार्ग भवियावस्तता एवं माया के प्रावरणों के कारण अवरुद्ध हुधा रहता है किन्तु इड़ा एवं पिंगला द्वारा जब प्राणायाम क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं तो प्राण एवं अपान के मिल जाने से यह मार्ग खुल जाता है । प्राण वायु द्वारा सुषुम्ना मार्ग जैसे ही स्वच्छ किया जाता है, कुण्डलिनी की यात्रा की प्रारंभिक तैयारी पूर्ण हो जाती है । वस्तुतः ये चन्द्र और सूर्य नाड़ियाँ, प्राण पोर म्रपान वायु के माध्यम से जगत् के धनात्मक समन्वित कर जैसे (ह) और ऋणात्मक (ठ) तत्वों को हो गतिशील करती हैं, अनन्त काल से कुण्डली बांधे सोयी अधोमुखी श्रधः स्थित जीवात्मा प्राणायामयुक्त साधना द्वारा प्रधमित अग्नि से आकुलित हो अपना अलसायापन त्याग कर सुषुम्ना के इस खुले, स्वच्छ एवं शीतल मार्ग पर ऊपर की ओर बढ़ने लगती है इस ऊर्ध्वमुखी यात्रा के निमित्त वह ब्रह्मनादी का सूत्र ग्रहण करती है तथा चित्रिनी (चित्रा) स्थित चक्रों को पार करती हुई सहस्रार की घोर बढ़ जाती है। इन चक्रों के नाम क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध एवं श्राज्ञा हैं। ये चक्र विभिन्न लोकों से सम्बन्धित होते हैं । इन तांत्रिक सूक्ष्म चक्रों के विभिन्न बीज, तत्त्व, देवता, शक्ति, वर्ण श्रादि होते हैं । इन चक्रों का स्वरूप पुष्पवत् होता है। विभिन्न वनों की विभिन्न पंखुड़ियाँ होती हैं। जब कुंडलिनी इन चक्रों चक्रों । का बेध करती है तो साधक को विशेष प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है। यदि साधक इन सिद्धियों का लौकिक लाभ लेने लगता है तो उसका पतन व है किन्तु यदि अपने आध्यात्मिक उद्देश्यों के प्रति तीव्र प्रभीप्सा, निष्ठा एवं दृढ़ता को वह बनाये रखता है तो Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १६९ मणिपूरक चक्र बं स्वाधिष्ठान चक्र (अ) कुण्डलिनी अपनी ऊर्ध्वमुखी यात्रा अविश्रान्त एवं अबाध पूर्ण करती जाती है । इस यात्रा में सबसे बड़ी साधना, धैर्य एवं एक-लक्ष्यता उसे भकुटिस्थ आज्ञाचक्र को पार करने पर करनी होती है। आज्ञाचक्र से सहस्रार तक का मार्ग इसीलिये बंक-नाल कहलाता है। कुंडलिनी की इस यात्रा को एक अन्य प्रकार से भी जानना उत्तम होगा। जैसेजैसे यह दिव्य-शक्ति चक्रों को बेधती जाती है, वह ऊर्जावान होकर विभिन्न कलाओं से युक्त होती जाती है। यह एक दिव्य मिलन ही होता है । महामाया कुंडलिनी अपनी १०० कलाओं, जैसा कि तांत्रिक ग्रन्थों में उल्लेख है, से शृगारित होकर विद्युत की भांति चकाचौंध पैदा करती, सहस्रार से सुषुम्ना में झरते अमृत का पान कर पुष्ट होती, अनाहर नाद से ॥ मूलाधार चक्र (ब) चित्र २-(अ) आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम www.jainelibrary.on Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड / १७० , अर्चनार्चम प्राज्ञा चक्र आ अभिनन्दित होती, शरीर के अणु-अणु को अपनी दिव्यचेतना के स्फुरण से रूपान्तरित करती ब्रह्मनाड़ी की पालकी में बैठ चित्रिनी का झिलमिलाता चूंघट डाल, वज्रिनी के उत्तरीय को धारण कर सुषुम्ना के रास्ते चक्रों के बन्दनवारों के मध्य होती हुई अपने संरक्षक देवी देवताओं की छत्रछाया में बीज-मंत्रों की स्तुतियों के बीच, अपनी अक्षरात्रों के लोक-गीतों से उल्लसित हो बंक-नाल स्थित भ्रमर-गुहा के गुह्य मार्ग से अनन्तकाल से बिछुड़े अपने दिव्य प्रियतम से चिर-मिलन हेतु सहस्रार की ओर बढ़ जाती है। . 4 विशुद्धारव्य चक्र चक्रों का विशद परिचय निम्न सारिणी द्वारा स्पष्ट हो सकता है अनाहत चक्र चित्र २-(ब) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १७१ ___ महाबिन्दु (परमशिव) उन्मनी (पराचेतना शिवतत्व) नेवाण (समनी) शक्ति तत्व व्यापिनी (व्यामिका) (+000000 कलाशक्ति नादान्त (महानाद) नाद रोधिनी रोधिनी अर्धचन्द्र (सूक्ष्म ऊर्जा -४) बिन्दु (अनंत ऊर्जा) ( चेतना के ऊर्ध्व-स्तर) चित्र-३ निम्न लोकों से ऊर्ध्वलोकों की ओर आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम , Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनार्चन पृथ्वी वाराह अनंत कूर्म आधार देवता मूल प्रकृति कालानिरूद्र मत्स्य देवता कुरु वर्ष रम्यक वर्ण केतुमाल वर्ष इलावर्त किन्नर वर्ष हरिवर्ष किं पुरुष वर्ष भारतवर्षे चित्र-४ लोक-लोकान्तरी भद्राश्व वर्ष हिरण्यवान वर्ष पुरुष पाताल पंचम खण्ड / १७२ महातल रसातल तलातल सुतल वितल अंतल लोक अधः लोक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १७३ क्र. चक्र स्थान चक्रों का विवरण चक्र-पुष्प की लोक तत्त्व पंखुडियाँ (दल) देवता अक्षर शक्ति बीज मंत्र १. मूलाधार लिंग भूः पृथ्वी ब्रह्मा डाकिनी लं व से स २. स्वाधिष्ठान पेड़ भुवः जल स्वः अग्नि विष्णु चाकिनी वं ब रुद्र लाकिनी रं ड ३. मणिपूर नाभि ४. अनाहत हृदय महः वायु ईश्वर काकिनी यं क सेठ ५. विशुद्ध कण्ठ जनः आकाश महेश्वर शाकिनी हं प्र से प्रः (सदाशिव) ६. आज्ञा भ्रू मध्य २ तपः महत् परशिव हाकिनी . ह, क्ष ७. सहस्रार मस्तिष्क १,००० सत्यम् शुन्य परब्रह्म महाशक्ति (:) विसर्ग [चक्रों के चित्रों का अवलोकन की जिये] चित्र क्र. २ (अ) एवं (ब) व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण उपर्युक्त सारिणी के अवलोकन से यह स्पष्ट होगा कि इन चक्रों का सम्बन्ध विभिन्न लोकों से है। मुलाधार चक्र भोक, स्वाधिष्ठान भवर्लोक, मणिपूर स्वर्लोक, अनाहत महर्लोक, विशुद्ध जनःलोक, प्राज्ञा तपःलोक तथा सहस्रार सत्यलोक से सम्बन्धित हैं । प्रश्न यह उठता है कि क्या ये चक्र व्यष्टि में समष्टि-स्थित विभिन्न लोकों का प्रतिनिधित्व तो नहीं करते हैं ? प्रश्न का उत्तर निश्चित ही सकारात्मक है। भारतीय दार्शनिक विचारधारा व्यष्टि में समष्टि को, तथा समष्टि में व्यष्टि को देखती रही है। इस कारण इन चक्रों के माध्यम से कुंडलिनी की यह अन्तर्यात्रा अनुभूति के व्यापक स्तर पर विभिन्न लोकों की, सूक्ष्म चेतना के अदृष्ट आधार पर यात्रा होती है । केवल इन लोकों तक ही क्यों ? पुराणों ने सात अधःलोकों यथा अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल की परिकल्पना की है। उनके ऊपर भूर्लोक अथवा पृथिवी-मंडल है जो सूक्ष्मरूप में मूलाधार में स्थित है। हठयोग सम्बन्धी कुछ चित्र एवं तत्सम्बन्धी विवरण इन दिनों उपलब्ध हैं । इनमें अधोलोक में इन विभिन्न स्तरों तथा उनकी शरीर में स्थिति तथा उनके दिव्य-प्रतीकों का अंकन हुअा है। चित्र क्र.-३ में इन्हें प्रदर्शित किया गया है। इन्हें विश्लेषित करने पर मत्स्य, कर्म, अनन्त, वराह आदि अवतारों की कल्पना का गढ़ तत्त्व भी समझ में आ जावेगा। यह भी स्पष्ट हो जावेगा कि कुंडलिनी और कोई नहीं, पुराण-वणित शेषनाग है, जिस पर वराहरूपी वे विष्णु विराजमान हैं जिन्होंने पृथ्वी अर्थात् लक्ष्मी को धारण कर रखा है। यहाँ जो मूलाधार है उसकी नाभि में ब्रह्मा, जो उसका देवता है, ब्रह्मनाड़ी की कमल-नाल पर बैठा है। पुराणों ने कुंडलिनी की इस व्यष्टि-गत अंतर्यात्रा से जुड़े तत्त्वों को समष्टिगत रूपक से पाश्चर्यजनक रूप से बांधा है। आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड / 174 . अर्चनार्चन शैव तंत्र से सम्बन्धित ग्रन्थों ने प्राज्ञा-चक्र से ऊपर के अनेक सूक्ष्म चेतना-स्तरों की बात कही है। इन स्तरों, जैसा कि चित्र क्र.-४ में प्रदशित किया गया है, के नाम नीचे से उपर की ओर क्रमशः बिन्दु, अर्धेन्दु, निरोधिका, नाद, नादान्त (महानाद), कलाशक्ति, व्यापिनी (व्यापिका), निर्वाण (या समनी), उन्मनी तथा महाबिन्दु (परमशिव) है। शैव-तंत्र के अनुसार कुंडलिनी की लय-स्थली सहस्रार न होकर महाबिन्दु है। प्रथम तीन स्तर पार करने पर रूपात्मक सत्ता का निरोध हो जाता है। नाद में वाचक या शब्दात्मक सत्ता रहती है किन्तु महानाद में यह वाच्य-वाचक भेद समाप्त हो जाता है। शक्ति के स्तर पर अनन्त प्रानन्द का अनुभव होता है। व्यापिनी का स्तर दिव्यत्व की विशिष्ट प्रक्रियाओं द्वारा जैसे ही बेधित किया जाता है, निर्वाण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। महर्षि पतंजलि के अनुसार निरोधिका पर निर्वितर्क, नादान्त पर निविचार, व्यापिका पर सानन्द एवं समनी पर सस्मिता समाधि होती है। उसके बाद उन्मनी अवस्था आती है जहाँ परा-चेतना अनुभूत होती है / अन्तिम अवस्था में परमशिव में लय होना अपरिहार्य है। उपसंहार-हठयोग का उद्देश्य होता है-धैर्य, शक्ति, ऊर्जा एवं लोच से युक्त उच्च स्वास्थ्य की उपलब्धि; मानसिक उदात्तीकरण एवं स्थिरकरण; तथा कुण्डलिनी-जागरण / जब साधना प्रिपनी परिपक्वानस्था में पहुँचती है तो अणिमा, गरिमा, महिमा, लधिमा ईशित्व बशित्व. एवं प्राप्ति नामक अष्टसिद्धियों की सहज प्राप्ति हो जाती है किन्तु सच्चा साधक इनमें न रमकर उस परमतत्त्व से अभेद हो जाता है। इस प्रकार हठयोग का चरम उद्देश्यक परिपूर्ण हो जाता है। व्यष्टि-जागरण के आधार पर समष्टि-चेतना के सूक्ष्म रूपान्तर की जो योजना हठयोग ने प्रस्तुत की है वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। समर्पण; 34 केशव नगर हरि फाटक, उज्जैन (म. प्र.) 10