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हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १६७
दुसरे प्रकार की नाड़ियाँ भकुटि के पास स्थित मनश्चक्र से निकलती हैं और श्रोत्र, नेत्र, मुख तथा जिह्वा तक फैल जाती हैं। इनमें एक कर्म नामक नाड़ी भी है जो शरीर के अधोभाग में गुदा तक जाती है । इन नाड़ियों की क्रियाएँ मन के प्राधीन नहीं होती।
इन समस्त नाड़ियों में इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना का अत्यधिक महत्त्व है। [चित्र क्र. १ (अ) एवं (ब) में इन नाड़ियों एवं विभिन्न चक्रों की स्थिति प्रदर्शित की गयी M है।] इस कारण इड़ा,
इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाड़ियों के मध्य की स्थिति पिंगला एवं सुषुम्ना पर कुछ
सामने की ओर से : चित्र १-(अ) और प्रकाश डालना आवश्यक है। सुषुम्ना के दक्षिण पार्श्व में इड़ा नाड़ी होती है। इसका सम्बन्ध चन्द्र से है। वामपार्श्व में पिंगला होती है जिसका सम्बन्ध सूर्य से होता है। इस कारण इड़ा और पिंगला को क्रम से चन्द्रनाड़ी एवं सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। जैसा कि प्रारम्भ में देखा गया है, इन नाड़ियों द्वारा कंडलिनी शक्ति को जाग्रत किया जाता है।
सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड में मस्तिष्क से लेकर जननेन्द्रिय तक फैली हुई है। इसकी तीन परतें होती हैं। ऊपर की परत वन
इड़ा, पिंगला एवं सुषम्ना नाड़ियों के मध्य की स्थिति (वचिनी), मध्य की चित्रा
पीछे की ओर से : चित्र-१ (ब)
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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