________________ पंचम खण्ड / 174 . अर्चनार्चन शैव तंत्र से सम्बन्धित ग्रन्थों ने प्राज्ञा-चक्र से ऊपर के अनेक सूक्ष्म चेतना-स्तरों की बात कही है। इन स्तरों, जैसा कि चित्र क्र.-४ में प्रदशित किया गया है, के नाम नीचे से उपर की ओर क्रमशः बिन्दु, अर्धेन्दु, निरोधिका, नाद, नादान्त (महानाद), कलाशक्ति, व्यापिनी (व्यापिका), निर्वाण (या समनी), उन्मनी तथा महाबिन्दु (परमशिव) है। शैव-तंत्र के अनुसार कुंडलिनी की लय-स्थली सहस्रार न होकर महाबिन्दु है। प्रथम तीन स्तर पार करने पर रूपात्मक सत्ता का निरोध हो जाता है। नाद में वाचक या शब्दात्मक सत्ता रहती है किन्तु महानाद में यह वाच्य-वाचक भेद समाप्त हो जाता है। शक्ति के स्तर पर अनन्त प्रानन्द का अनुभव होता है। व्यापिनी का स्तर दिव्यत्व की विशिष्ट प्रक्रियाओं द्वारा जैसे ही बेधित किया जाता है, निर्वाण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। महर्षि पतंजलि के अनुसार निरोधिका पर निर्वितर्क, नादान्त पर निविचार, व्यापिका पर सानन्द एवं समनी पर सस्मिता समाधि होती है। उसके बाद उन्मनी अवस्था आती है जहाँ परा-चेतना अनुभूत होती है / अन्तिम अवस्था में परमशिव में लय होना अपरिहार्य है। उपसंहार-हठयोग का उद्देश्य होता है-धैर्य, शक्ति, ऊर्जा एवं लोच से युक्त उच्च स्वास्थ्य की उपलब्धि; मानसिक उदात्तीकरण एवं स्थिरकरण; तथा कुण्डलिनी-जागरण / जब साधना प्रिपनी परिपक्वानस्था में पहुँचती है तो अणिमा, गरिमा, महिमा, लधिमा ईशित्व बशित्व. एवं प्राप्ति नामक अष्टसिद्धियों की सहज प्राप्ति हो जाती है किन्तु सच्चा साधक इनमें न रमकर उस परमतत्त्व से अभेद हो जाता है। इस प्रकार हठयोग का चरम उद्देश्यक परिपूर्ण हो जाता है। व्यष्टि-जागरण के आधार पर समष्टि-चेतना के सूक्ष्म रूपान्तर की जो योजना हठयोग ने प्रस्तुत की है वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। समर्पण; 34 केशव नगर हरि फाटक, उज्जैन (म. प्र.) 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org