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________________ हठयोग : एक व्यष्टि-समष्टि विश्लेषण | १६९ मणिपूरक चक्र बं स्वाधिष्ठान चक्र (अ) कुण्डलिनी अपनी ऊर्ध्वमुखी यात्रा अविश्रान्त एवं अबाध पूर्ण करती जाती है । इस यात्रा में सबसे बड़ी साधना, धैर्य एवं एक-लक्ष्यता उसे भकुटिस्थ आज्ञाचक्र को पार करने पर करनी होती है। आज्ञाचक्र से सहस्रार तक का मार्ग इसीलिये बंक-नाल कहलाता है। कुंडलिनी की इस यात्रा को एक अन्य प्रकार से भी जानना उत्तम होगा। जैसेजैसे यह दिव्य-शक्ति चक्रों को बेधती जाती है, वह ऊर्जावान होकर विभिन्न कलाओं से युक्त होती जाती है। यह एक दिव्य मिलन ही होता है । महामाया कुंडलिनी अपनी १०० कलाओं, जैसा कि तांत्रिक ग्रन्थों में उल्लेख है, से शृगारित होकर विद्युत की भांति चकाचौंध पैदा करती, सहस्रार से सुषुम्ना में झरते अमृत का पान कर पुष्ट होती, अनाहर नाद से ॥ मूलाधार चक्र (ब) चित्र २-(अ) आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.on
SR No.212262
Book TitleHath yoga Ek Vyashti Samashti Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundar Nigam
PublisherZ_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
Publication Year1988
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size649 KB
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