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इति स्वाध्यायः ॥ श्री रयणसेहरसूरि कृत
श्री गौतमस्वामी रास : परिचयात्मक भूमिका
-सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणि मध्यकालीन राससाहित्यमां तेमज सांप्रत जैन जगत्मां उपाध्याय श्री विनयप्रभ - रचित " गौतमरास" (र. स. १४१२) अतिविख्यात छे. आम तो, गुरु गौतम स्वामीना गुणकीर्तननी नानी मोटी असंख्य रचनाओ (मध्यकालीन) प्राप्त छे. परंतु ते सर्वमां प्रमुख स्थाने तो आ रास ज बिराजे छे, आ प्रकारना बीजा रास अद्यावधि जाणमां के प्रकाशमां नथी आव्या.
थोडा वखत अगा प्रस्तुत "श्रीरत्नशेखरसूरि-रचित गौतम रास" नी एक हस्तप्रतिनी झेरोक्ष नकल मारा हाथमां आवी. ए जोतां एक विशिष्ट वस्तुनी प्राप्तिनो आनन्द तथा अचंबो अनुभव्या. श्री विनयप्रभवाचक - कृत गौतम रास करतां फक्त सात ज वर्ष पूर्वे, वि. सं. १४०५मां, रचायेलो आ रास आजपर्यंत अज्ञात ज रह्यो छे. केम के आ रासनुं चलण जैन संघमां परंपराथी जळवायुं नथी. जो आवुं चलण होत तो, विनयप्रभ - कृत रासनी, विविध भंडारोमांथी, विभिन्न समये लखाएली अनेक प्रतिओ मळी आवे छे, तेम आ रासनी प्रतिओ पण मळती ज होत. ज्यारे अत्यारे तो आनी मात्र एक ज प्रति प्राप्त थाय छे, थई छे. जेनी नकल मारा सामे पडी छे. अन्यान्य भंडारोनां सूचिपत्रो जोयां, परंतु क्यांय आनी प्रति होय तेवुं ध्यानमां नथी आव्युं. कोई अभ्यासीना ध्यानमां होय / आवे, तो तेनी विगत जणाववा कष्ट उठावे.
मने मळेली नकल मारा मित्र कविवर्य मुनिराज श्री धुरंधरविजयजी द्वारा मळी छे. तेमणे पोताना परिभ्रमण दरमियान वल्लभीपुरता संग्रहमां आ प्रति जोवा मळतां तुरत तेनी झेरोक्स नकल करावी लीधेली, ते तेमणे मने आपी छे. तेमनो ऋणस्वीकार करवो ज जोईए के आवी उत्तम कृतिनी एमणे आपणने भाळ मेळवी आपी.
प्रति बे पानांनी छे बन्ने पानांनो एक हिस्सो दरादि कारणे कपाई गयेलो छे, तेथी थोडोक अंश त्रूटे छे. प्रतिनी लखावट शुद्ध प्राय छे पुष्पिका आदि
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कांई छे नहि. अनुमानतः १५मा शतकनी होवा कल्पी शकाय.
७५मी अंतिम गाथामां निर्देश छे ते प्रमाणे, रासना कर्ता रत्नशेखरसूरि छे, अने थिरपुर-थरादमां, सं. १४०५मां तेमणे रास रच्यो छे. पोताना गच्छ के गुरुनो नामोल्लेख कर्ताए नथी कर्यो. अनुमानतः "सिरिसिरिवालकहा"ना प्रणेता रत्नशेखरसूरि ते ज आ रासना पण कर्ता होय, तो शक्य छे. ___ आ रचनाने विनयप्रभवाचकना गौतमरास साथे सरखावी जोतां आ रचनानी छाया ए रचना पर केटलेक अंशे पड़ी होवानुं अनायास जणाई आवे छे. बनेनी विगतवार तुलना करवी रसप्रद बनी रहे.
भाषा, ढाल वगेरे विशे तो डो. भायाणी जेवा तज्ज्ञ ज प्रकाश पाडी शके. अत्यारे तो आ कृति, अने तेमांना केटलांक कठिन तथा पारिभाषिक जणाता शब्दोनी एक नानी सूचि- आटलुं ज अहीं प्रस्तुत थाय छे.
॥१॥
श्री रत्नशेखरसूरिविरचित श्री गौतमस्वामिरासः ॥ ...तुम माइबीउ सिरिवन्न म(स?)हुत्त । . हिययकमलि झाएवि वीरु जिणवर अरिहंत ॥ पभणिसु गोयमसामितणुउ गुणसंथव-रासो । जि... इ होइ भवियलोय मणि धरि उल्लासो प(पु)हवि-पसिद्धइ मगहदेसि वर गुब्बर नामु । सार सरोवर कूव वावि धणि कणि अभि [रामु] । [इ] ह निवसइ वसुभूइनामि दियराउ पसिद्धउ ... ... ... ... ... ... ...वंसु बहुरिद्धि समिद्धउ ___॥२॥
॥२॥ तेह तणइ घर घरणि पुहविनामिइ सुपहाणी निम्मलसील पवित्त गुत्त... ...सीताराणी । तासु कुच्छि सिरिण्यहंसु पहिलउ इंद्रभूइ नंदण बीजउ अगनिभूइ तीजउ वाउभूइ
॥३॥ तेजि सहोयर कण[यव]न्न पडिवन्न सरीरा
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॥४॥
॥५॥
॥६॥
विणय विवेक विचार सार गुणवंत गंभीरा । चउदह विद्या निपुण भणी गुणगउरव पावहिं वेय वरवा[ण]हिं पांच पांच सय छात्र पढावहिं ते तिनइ उवज्झाय राय-राणिहिं संमाणिय भगति करी विप्र सोमल वधि पावापुरि आणिय । जन्न करावण रिसि देसि देसंतर केरा तेडिय आवहिं तित्थ साढ(आठ) उवज्झाय अनेरा ते स (तेम)वियत्तु सुहंमु बेवि पण पण सयजुत्ता मंडिय मोरियपुत्त सड्ढ ति ति सयसंजुत्ता । तह य अकंपिय अचलभाय मेयज्ज पभासू तिहुं तिहुँ सयसडं आवि करहि नियविज्जविकासू इम मिलिया विप्र सहससंख तिहं वेद वखाणहिं मंडहिं जन्न करंति होम परमत्थ न जाणहिं । इणि अवसरि जिण वद्धमाण केवल पावेई लाभ जाणि जगनाह तिहां तक्खणि आवेई वस्तुः गाम गुब्बरि गाम गुब्बरि विप्र वसुभूइ तासु पुत्त पुहविं गरुया इंद्र-अगनि-वायभूइ भणियइ । वर वेयविद्यागुणहं जन्नकाजि धरि ते जि गणियइ ॥ पावापुरि सोमलतणइ मिलिया बंभण लोय ।। वीरजिणेसरु आवियउ आणंदिउ सहु कोय ..
प्रथम भाषा ॥ वीरजिणेसर आगम जाणी तक्खणि आवहिं देव विमाणी । पुर पर सिरि जोयण विसथारो समवसरण मंडहिं जगि सारो ॥९॥ रुप्प-कणय-रयणुत्तम सालो कणय-रयण-मणिसिहर विसालो । छत्त चमर किंकिल्लि पहाणू जाणीजइ किरि अमरविमाणू ॥१०॥ तहिं रू णझुण किं महाधज लहकइ धूपघटी घण गंध महक्कइ । देवकुसुम-परिमल महमहए सुरदुंदुहिं सुणि जणु गहगहए ॥११॥ तहिं बइसी जिणवर वधमाणू करइ अमियमइ वाणि वषाणू ।
॥७॥
॥
॥८॥
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॥१२॥
आवहिं देवी देव तुरंता दीसहिं गयणि विमाण फुरंता एकि भणहिं विप्र - आहुति लेवा अरिरे ! पेखहु आवहि देवा । जाव सु सुरगणु जिणदिसि जाए, तउ सर्वज्ञ भणी जणु धाए ||१३|| तउ इंद्रभूति भणइ मुझ टाले सर्वज्ञ कोई नहीं इणि काले । मूरष लोक भणी जणु धाए, अहवा करिसु निरंतर ( निरुत्तर) जाए ॥१४॥ एम भणी आविउ इंद्रभूइ, चित्ति चमक्किउ देषि विभूइ । किं इहु साचउ सर्वज्ञ होइ, किं वा इंद्रजाल इहु कोइ तउ जिणवरि आवतउ बुलायउ हो इंद्रभूति ! भलइ तुं आयउ । सो चित किमु नामु वियाणइ, अहवा कवणु जु मुझु न जाणइ || १६ | पुण जर चित्ततणउ संदेहो, कहइ तु मानउ सर्वज्ञ एहो । तउ जिणि तसु मनि संसउ जाणी, तक्खणि भंजइ वेद वखाणी ॥ १७॥ तं सुणि गोयम छ ( ख ) त्रसहित्तो, वरिसि पंचासा लेइ चरित्तो । सेस उवज्झाय इणई क्रमि आवर,
॥१५॥
(१/२) गयसंसय सवि संजमु पावइ ॥ १८ ॥ वस्तु : वीर जिणवर वीर जिणवर करइ वक्खाणु
देवासुर मिलिय सवे मणुयसंख नवि कोइ पामइ || इंद्रभूति अभिमानि चडी वादकरण जिणपासि आवइ ॥ वीरवयण सुणि लेइ व्रतो, आराहइ जिणपाय । इणि परि बीजा ही लियइ,
द्वितीय भाषा ॥
ते गोयम- पामुक्खो, मुणिवर जिण- पासइ ।
पूछइ कर जोडेवी, प्रभु तत्तु पयासइ
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तउ जिणु त्रिहुं पय तत्तु कहेवी, गणहर- बुद्धि विकासु लहेवी । एग महूरति रचइ दिठिवाउ, चउविह संघ रचइ जिणराउ वासवि आणीय वास, लेईय जगनाह ।
॥२१॥
संजम सवि उवज्झाय ॥ १९ ॥
गणहर ठविय इग्यार, सुर करइ उच्छाह
जिम गहगण - तारा धुरि चंदो, जिम गिरिवरि धुरि मेरुगिरिंदो ।
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॥२२॥
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॥२४॥
॥२८॥
जिम दीवहं धुरि जंबूनामि, तिम गणहर-धुरि गोयम सामि ॥२३॥ बीजी पोरिसि बइसी, जिणवर-पयठाणी । गोयम करइ वखाणू, अमृतोपम वाणी जिम जिम मुणिवर तत्तु पयासइ, संखातीत भवंतर भासइ । तिम तिम लोयहं मनु इम डोलइ, इहु छदमत्थु कि केवलि बोलइ ॥२५॥ सुयकेवलि भगवंतो, सो साहु मुणेई । तहवि जिणेसर वयणू, आदरि निसुणेई
॥२६॥ जाणंतेवि ण गणहरराय, वीर जिणेसर आगलि थाय । परहित-हेतु जि पृच्छा कीधी, गोतमपृच्छा ते सि(सु)प्रसिद्धी ॥२७॥ मुनिपति अति-अप्रमत्तो, छट्ठि तपु पारइ । बहुविह लबधिसमिद्धो, जगि जसु विसथारइ गुपिहिं न गोयम को तुडि पावइ, पुण मुझ मनि एहु कउतिगु भावइ । इसी भगति जिणवर जु वहेइ, सो जि किम केवल न लहेई ॥२९॥ सालपमुह जे सीस, देषी सुणी राए । ते सवि केवल(लि) हूवा, गोयम सुपसाए चंपापुरि जिणवर पणमेवी, सीसहं केवलनाणि मुणेवी ।। गोयमु चिंतइ किसउ विनाणू, एकु जि हडं न लहउं वरनाणू ॥३१॥ वस्तुः चरमजिणवर चरमजिणवर पढमवरसीसु निसिदीस जिणपयकमला-रायहंससम सरिसु सोहइ । सुहज्झाण-सुयनाण-गुणि अमियवाणि जणचित्त मोहइ ॥ जे जे दिखइ सीस तर्हि, पावइ केवलनाणु । [ब]पुरे ! गोयमगुरु सकति, अणहूंतउ दे दाणु
॥३२॥ त्रितीय भाषा ॥ जो नियसकति प्रमाणू ए अष्टापद तीरथ नामू ए । सो नस... [के]वलनाणू ए. निच्छइ होस्यइ एणि भवे इसउ अरथु वखाणी ए, देसण करि जं रहिय जिणु । सुरहं वयण तं जाणी ए, गोय[म]...त कंठि...ए अष्टापदि तिणि ताली ए, क्रमि क्रमि त्रिहुं पावडिय लगे ।
॥३०॥
||३३||
||३४||
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॥३५।।
॥३६॥
॥३७॥
॥३८।।
॥३९॥
॥४०॥
॥४१॥
कोडिन्न-दिन-सेवाली ए, पण पण सय तावस चडि[ए] [गो]यम जिण आएसी ए, चडतां तावस देषि करे । चिंतहिं किम चडेसी ए, एहु ज दीसइ थूलतणु चारण लवधि प्रमाणू ए, मुणि(वर चडि)उ गिरिसिहरे । तावस तिणिही ठाणू ए, टगमग जोवंता रहिय दाहिण दिसि पयसेवी ए, भरहेसर कारणि भवणि ।। जिण च[वीस] [ठठेवी ए?]...चारि अट्ठ दस दुन्नि क्रमि तर्हि वेसमणु करेवी ए, गोयम पुंडरियज्झयणु । तं पुण चित्त धरेवी ए, जंभग सुर वयरसामि-जिउ
२।१)वलि वलतउ गणहारू ए, तावस देषी इम भणए । मनवंछि जाहारू ए, कहउ किसउ तुम्ह दीजिसिए ति मुणि भणइ अम्ह सामी ए, निगुरउ आगलि तप कियउ हिव पुणि तुम्हि गुरू पामी ए, षीर पांडु घृत परि गमए इकु पडिघउ गणधारी ए, षीर आणि आषीणि किय ।। मुनिमंडलि बइसारी ए, पूरी पात्रा पनर सय पंच सयह सुहज्झाणू ए, जिमतह जिमतह अम्रितरसो । साचउ सुगुरू प्रमाणू ए, कवल काटि (?) केवलि हूवए पंचसयहं पुण नाणू ए, समवसरण पेषतयहं । सेस सुणंत वषाणू ए, केवलसिरि सयंवर किय अधृति धरंतु मुणिंदू ए, केवलकारणि अतिघणउ । देइ उलंभउ जिणंदू ए, कणयदिटुंतु परीच्छवइ गोयम ! म करि प्रमादू ए, सुणि दुमपत्तय अज्झयणु । चित्ति म धरिसि विषादू ए, अंते तुल्य होइसहं वस्तुः नायनंदण नायनंदण पढम गणधार अष्टापदिहिं जिण नमवि दिक्ख देवि तापस जिमाडिय । सुहज्झाण उवएस करे खवगसेणि केवल पमाडिय ॥ अप्पण केवलकारणिहिं चित्ति धरंतउ खेउ । वीरि भणिउ म म अधृति धरि, होस्यइ तुल्ला बेउ
॥४२॥
॥४३॥
॥४४॥
॥४५||
॥४६॥
॥४७॥
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चतुर्थ भाषा ॥
मगहेसर सेणियपमुह सयल नरेसर बंदि पाउ । भवियलोय - आणंद करो, महिमंडलि विहरइ मुणिराउ नाणगुणिहिं केवल तुलए, सरलपणइ पुण बाल विसेषई । गोयमगुरु गुरुसमरसभरिउ, राय रंक समद्रेठिं पेखइ
पंचमी भाषा ॥
कत्तिय अमावस वीरू जिणु, पुर परिसरट्ठिय गामि ते । बोहेवा दिवसरम दिउ, पेसिउ गोयमसामि ते तं प्रतिबोधि करेवि तहिं निसि रहियउ गणधारु ते । जां जोवइ तां गयणियले सुरगण मिलिय अपारु ते
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॥५१॥
॥५३॥
बालक छह वरिसहंतणड अइमुत्तउ गुरु गोयम रासे । देषी प्रतिबोधिउ लियए संजम वीर जिणेसर पासे त्रिविद्धि वियारिय सीहजिउ, विप्र जुउ जिणवर दीठइ नासइ । गोयमगुरु करुणानिलङ, तेहइ मनि आणंद उल्लस वीरवयणि नियदोसलवो जाणि जि आणंदु जाइ खमावइ । तिहं मुणि अज्जवगुणतणउ, केवल विणु कोई पार न पावइ ॥५२॥ सावत्थिय पुरवर मिलिय बिहु परियरिय गुरुगोयम - केसी । धरम विचारु करंति तहिं सीसहं संसय-भंजण - रेसी केसी जि जि पृच्छ करइ गोयभु तिहं तिहं अ[थु ] कहेइ । तउ केसी सीसिहिं सहिउ वीरि कहिउ व्रत - वेस गामागरपुरपट्टणिहिं खेडमडबहिं कर विहारू । पावापुरि पावस रहिउ वीर जिणेसरसिउं गणधारू वस्तु: गुणिहिं गरुवउ गुणिहिं गरुवउ प्रथम गणधारू सुविचार घणसार सम विमल चित्त चारित्तसुंदरु । बहुलोय - संसय - तिमरु पूरु- सुरु पणमियपुरंदरु || गामागरपुरपट्टणिहिं विहरंतर गुणरासि । वीरजिणेसरसउं रहिय पावापुरि चउमासि
वहेइ
॥५४॥
+
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।।४८।।
॥४९॥
॥५५॥
॥५६॥
॥५७॥
॥५८॥
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तउ जा...ण [जाणे जिण ? ] खिव समउ चिंतउ गोयमसामि ते । जिणवरि किणि अवसरि अहह ! हउ पेसिउ इणि गामि ते ॥५९॥ तीस वरिस मइ सेवियर के [ वलना]णि ईम ते । जोवहु मुझ टउलावि हिव आपण चालिउ कीम ते सामिय ! अम्ह बंभण भणिय मागेवा हेवाउ ते । sssy... लसिरि सई धणिय, तुम्ह नासिवा न ठाउ ते जो इणिही परि सेवियए, देई न कांई लागु ते । तसु ऊपरि इमहीं घणउ, हिय [ डइ कां] ई रागु ते अरे मन ! कांइ तूं टलवलहि, नेहिं न लीजइ एह ते । इम चिर्तितहं गणहरहं तुटउ ज्झबकि सनेह ते (२/२)... [ राति विहाती ] वीरजिणु, जं पाविउ निरवाणु ते । तक्खणि ज्झाणंतरि हूवड, गोयम केवलनाणु ते वस्तुः वीर आइसि वीर आइसि गामि वर विप्पु ... जिणसमए जाव जंतु सुरगण निहालिउ । तं गोयमु मनि चितवइ, अहह नाह ! हउं केम यलिउ ।. राति विहाती जिण समए वीर हू [ उनि) ] व्वाणु । उप्पन्नउ तिणिहीं समझ, गोयम केवलनाणु
॥६३॥
षष्टा( ष्ठी) भाषां ॥
गोयम - केवलमहिम करेवा, मिलिय सुरासुर खेयर [देवा ] । रचइ अट्ठोत्तरसहसदलो । कणयकमल जणमण - उल्हासणु रयणरचिय कन्निय उवरे । जगमगंतु मणिमय सिंघासणु ॥ ६६ ॥ जिम महिमंडलि मेरु सुसंठिउ, जिम कप्पतरु पीढि बइठउ । तिम तिण कंचणकमल पहो !
करि पउमाणि बं[वंदि ? ] बईठउ, देसण करतउ गुहिर सरे । धन्न ति नरवर जिहिं नयणि दीठउ
एकि सुरासुर खेयरराया, कलि वलि वंदहिं गोयमपाया । इकि मनि ऊलट गुण थुणहिं ।
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६०ना
॥६९॥
||६२॥
॥६४॥
एकि सुताल सुसरि सरि गायहिं, एकि नाचहि तं रंग करे । इकिं वादित्र सुछंदिहिं वायहिं
॥६८॥
||६५॥
॥६७॥
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॥६९॥
॥७०11
देखि अचंभ मु मनि आणंदिय, सिरि धुणंत भणहिं सुर वंदिय वपु रि ! निरूपम रूपि पहो ! । कटर ! कियउ आसणु किणि यपि, किसउ समुज्जल रूपममा(ममापी?) । अरिरि ! किसीअ अमृतोपम वाणी ! इम केवलसिरि सयंवर वरियउ, सहस पचासा मुणि परिवरियउ । तिहुयणभवण उज्जोयकरो । मंगलदीवउ भणि मुणिराओ आराहीजइ भविय जणि । सहस पंचासा तव विक्खाउ सुर-तरु-घेणु भणी जगि सारो, जणमणवंछिय सुहदातारो । तेय जि जिनिउ अवयरिय (?) । जसु मुणितणइ तियक्खर नामी, न्योयि (?पावि?)सु मणवंछिय दियए । गुणि गरुवउ गुरुगोयमु सामी
७१॥ जाणे पंचपरमिट्टी तूठा, जाणे सात अमिय-घण वूठा । जाणे नवनिधि करि चडिय । जाणे कोडिमहारस सीधउ, जइ उठतहं प्रहसमए । गोयम नामु गहण छुड कीधउ
॥७२॥ गोयम केवलि महि विहरंतउ, जणमणसंसयतिम(मि)रं हरंतो (तउ) । तेयवंतु दिणि दिणि उदवं(य)तउ । कुग्रह कुमय विहंडणउ, भविय लोयपडिबोहकरो । सहसकिरण जिम जगि जयवंतउ जयवंतउ जिणसासणराजो, परम महोच्छव मंगलकाजो । पहिलउ वृद्धि वधावणउ ए ।। पढहिं गुणहिं जे गोयमरासो, अष्ट महासिद्धि नवह निधि । तहिं घरि निश्चल करहिं निवासो चउदह सय पंचोत्तर वरिसे, थिरउरपुरि गरुवइ मण हरसे । रासु एहु गोयमतणउ । रयणसिहरसूरिदिहिं कीयउ, पढत गुणंतहं भवियणहं । रिद्धि वृद्धि मंगल सुह दियउ
।।७५॥ इति श्रीगौतमस्वामिरास समाप्तः ॥
॥७३॥
॥७४।।
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८.
'गौतमरास' गत -कठिन-शब्दकोश गाथा शब्द
अर्थ १. माइबीउ
मातृका-बीज-हींकार सिरिवत्र
'श्री' वर्ण सहुत्त
सहित-सहउक्त जन्न
यज्ञ ६. पण पण
पांच पांच सङ्घतितिसय०
साडा त्रण-त्रण सो० तिहुं तिहुं
त्रण-त्रण नियविज्जविकासू निज-विद्या-विकास ७. केवल
केवलज्ञान पुढविं गरुया
पृथ्वीमां वडा, गौरववाळा, आगम
आगमन देव विमाणी
वैमानिक देव विसथारो
विस्तार समवसरण
तीर्थकरनी धर्मसभा सालो
शाल-कोट किकिल्लि
अशोक वृक्ष किरि
किल-खरे (अव्यय) पामुक्खो
प्रमुख-वगेरे तत्तु २१. दिठिवाउ
दृष्टिवाद-द्वादशांगीरू प जैन आगम वास
चंदनादि द्रव्यो, चूर्ण २४. पोरिसि
पौरुषी-जैनप्रसिद्ध पुरषप्रमाण
छाया प्राप्त कालविशेष पयठाणी
पादपीठ पर २५. संखातीत
संख्यातीत-असंख्य भवंतर
भवांतरो - पूर्वभवो
तत्त्व
२२.
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जसु
तुडि
छदमत्थु
छद्मस्थ-केवलज्ञान पूर्वेनी अवस्था केवलि
केवलज्ञानी २६. सुयकेवलि
श्रुतकेवली-दृष्टिवादना ज्ञाता २८. छट्टि तपु पारइ बे उपवासना पारणे बे उपवास करे. लबधिसमिद्धो विशिष्ट सिद्धिओथी समृद्ध
মহা
होड, स्पर्धा कउतिगु
कौतुक सुहज्झाण
शुभ ध्यान तिणि ताली
त्रण पंक्ति पावडिय
पावडीए - पगथिये तावस
तापस थूलतणु
स्थूलकाय चारणलबधि
विद्याचारण-जंघाचारणनामे लब्धि ४, ८, १०, २,ए क्रमे २४ तिर्थंकरनी प्रतिमाओ ते मंदिरमा स्थापित छे.
वैश्रमण-कुबेर पुंडरियज्झयणु 'पुंडरीक' नामे अध्ययन जंभग सुर
'तिर्यग् जुंभक' नामनी देवजाति जिउ
जीव निगुरउ
नगुरं-गुरु वगरनुं ४२. पडिघउ
पडघो-गोचरीनुं पात्र, प्रतिग्रह आषीणी
अक्षीण -अक्षय उलंभउ
ओलंभो - उपालंभ - ठपको परीच्छवइ
प्रीछवे - परख करावे ४६. दुमपत्तय
'द्रुमपत्रक', उत्तराध्ययनसूचना १० मा
अध्ययननुं नाम खवगसेणि
क्षपकश्रेणि, आत्माना ऊर्ध्वगमननी जैन संमत विशिष्ट प्रक्रिया
वेसमणु
४१.
५७. खवासा
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________________ 51. पत्रावा 48. सेणियपमुह 49. समद्रेठिं 50. अइमुत्तउ त्रिविट्ठि वियारिय सीहजिउ 52. आणंदु अज्जव० 53. सावत्थिय केसी रेसी 55. खेड,-मडंब पावस तिमरू पूरु सूरु बोहेवा दिवसरम दिउ 59. खिवसमर 61. हेवाउ 62. लागु 66. कनिय 71. सुरुतरु-धेणु 72. सात अमियघण प्रहसमए छुड 'श्रेणिक' (राजा) प्रमुख समदृष्टिथी अतिमुक्तक (कुमार) त्रिपृष्ठ (महावीर स्वामीनो 18 मो पूर्वभव) विदारित - फाडेलो सिंहनो जीव आणंद श्रावकने आर्जव० श्रावस्ती (नगरी) केशीगणधर (पार्श्वनाथ-शिष्य) माटे बन्ने विशिष्ट ग्राम-प्रकार वर्षावास - चोमासु तिमिरने पूरा करनार सूर्य बोध आपवा देवशर्मा द्विज अन्तिम समय (?) हेवाक - टेव लागो-वळतर कणिका कल्पवृक्ष - कामधेनु सुख अमृतनो मेघ प्रभात-समये फुड-स्फुट - प्रगट (?) 56. 57. [67]