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॥१२॥
आवहिं देवी देव तुरंता दीसहिं गयणि विमाण फुरंता एकि भणहिं विप्र - आहुति लेवा अरिरे ! पेखहु आवहि देवा । जाव सु सुरगणु जिणदिसि जाए, तउ सर्वज्ञ भणी जणु धाए ||१३|| तउ इंद्रभूति भणइ मुझ टाले सर्वज्ञ कोई नहीं इणि काले । मूरष लोक भणी जणु धाए, अहवा करिसु निरंतर ( निरुत्तर) जाए ॥१४॥ एम भणी आविउ इंद्रभूइ, चित्ति चमक्किउ देषि विभूइ । किं इहु साचउ सर्वज्ञ होइ, किं वा इंद्रजाल इहु कोइ तउ जिणवरि आवतउ बुलायउ हो इंद्रभूति ! भलइ तुं आयउ । सो चित किमु नामु वियाणइ, अहवा कवणु जु मुझु न जाणइ || १६ | पुण जर चित्ततणउ संदेहो, कहइ तु मानउ सर्वज्ञ एहो । तउ जिणि तसु मनि संसउ जाणी, तक्खणि भंजइ वेद वखाणी ॥ १७॥ तं सुणि गोयम छ ( ख ) त्रसहित्तो, वरिसि पंचासा लेइ चरित्तो । सेस उवज्झाय इणई क्रमि आवर,
॥१५॥
(१/२) गयसंसय सवि संजमु पावइ ॥ १८ ॥ वस्तु : वीर जिणवर वीर जिणवर करइ वक्खाणु
देवासुर मिलिय सवे मणुयसंख नवि कोइ पामइ || इंद्रभूति अभिमानि चडी वादकरण जिणपासि आवइ ॥ वीरवयण सुणि लेइ व्रतो, आराहइ जिणपाय । इणि परि बीजा ही लियइ,
द्वितीय भाषा ॥
ते गोयम- पामुक्खो, मुणिवर जिण- पासइ ।
पूछइ कर जोडेवी, प्रभु तत्तु पयासइ
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तउ जिणु त्रिहुं पय तत्तु कहेवी, गणहर- बुद्धि विकासु लहेवी । एग महूरति रचइ दिठिवाउ, चउविह संघ रचइ जिणराउ वासवि आणीय वास, लेईय जगनाह ।
॥२१॥
संजम सवि उवज्झाय ॥ १९ ॥
गणहर ठविय इग्यार, सुर करइ उच्छाह
जिम गहगण - तारा धुरि चंदो, जिम गिरिवरि धुरि मेरुगिरिंदो ।
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॥२२॥
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