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देखि अचंभ मु मनि आणंदिय, सिरि धुणंत भणहिं सुर वंदिय वपु रि ! निरूपम रूपि पहो ! । कटर ! कियउ आसणु किणि यपि, किसउ समुज्जल रूपममा(ममापी?) । अरिरि ! किसीअ अमृतोपम वाणी ! इम केवलसिरि सयंवर वरियउ, सहस पचासा मुणि परिवरियउ । तिहुयणभवण उज्जोयकरो । मंगलदीवउ भणि मुणिराओ आराहीजइ भविय जणि । सहस पंचासा तव विक्खाउ सुर-तरु-घेणु भणी जगि सारो, जणमणवंछिय सुहदातारो । तेय जि जिनिउ अवयरिय (?) । जसु मुणितणइ तियक्खर नामी, न्योयि (?पावि?)सु मणवंछिय दियए । गुणि गरुवउ गुरुगोयमु सामी
७१॥ जाणे पंचपरमिट्टी तूठा, जाणे सात अमिय-घण वूठा । जाणे नवनिधि करि चडिय । जाणे कोडिमहारस सीधउ, जइ उठतहं प्रहसमए । गोयम नामु गहण छुड कीधउ
॥७२॥ गोयम केवलि महि विहरंतउ, जणमणसंसयतिम(मि)रं हरंतो (तउ) । तेयवंतु दिणि दिणि उदवं(य)तउ । कुग्रह कुमय विहंडणउ, भविय लोयपडिबोहकरो । सहसकिरण जिम जगि जयवंतउ जयवंतउ जिणसासणराजो, परम महोच्छव मंगलकाजो । पहिलउ वृद्धि वधावणउ ए ।। पढहिं गुणहिं जे गोयमरासो, अष्ट महासिद्धि नवह निधि । तहिं घरि निश्चल करहिं निवासो चउदह सय पंचोत्तर वरिसे, थिरउरपुरि गरुवइ मण हरसे । रासु एहु गोयमतणउ । रयणसिहरसूरिदिहिं कीयउ, पढत गुणंतहं भवियणहं । रिद्धि वृद्धि मंगल सुह दियउ
।।७५॥ इति श्रीगौतमस्वामिरास समाप्तः ॥
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॥७४।।
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