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________________ भी रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला. पुष्प नं. 92. एक प्रसिद्ध वक्ता कि तस्करवृत्तिका नमना" स्थानकवासी पूज श्रीलालजीने जिनको दोषित समज अपने टोलासे निकाल दीये उस्मे ढूंढक साधु चोथमलजी भी एक है वह स्वच्छन्दचारी हो आजकाल कितनेक अज्ञ भक्तोंद्वारा अपने नामके साथ प्रसिद्ध वक्तापने कि उपाधि को प्राप्त कर उसको अपने सिरपर लदा हुवा फीरता है / इतना ही नही बल्के अपना जीवन और उदयपुर के चतुर्मास का हाल भी जनता को धोखा में डालने को छपवाया है पर उसमें सत्यता कितनी है ? वह हम नही कह सक्ते है पर खास उदयपुर कि ढूंढक समाजने एक " निवेदन पत्रिका" नामका ट्रेक्ट छपवाया जिस्मे चोथमलजी कि कितनी धूल उडाईथी फिर भी प्रशंसा पिपासुओं को शरम क्यों नही आती है ? स्यात् कलिकाल का प्रभाव इस कों ही तो नहीं कहते होंगे / एक मनुष्य पेट पूजा के लिये तांम उमर भर नाटक में नोकरी करी हो वह वेश धारण करनेपर गायन के लटकों से मुग्ध लोगों को अपने इष्ट से भ्रष्ट कर अनंत संसारी बना देने में भी अपना गौरव समजता हो तो इसके सिवाय मूर्खता ही क्या हो सकी है। अगर देखा जावे तो चोथमलजी के व्याख्यान में कीस्सा कहानियों व राग रागनियों के सिवाय आत्मज्ञान तत्त्वज्ञान अध्यात्मज्ञान और ऐतिहासिक ज्ञान कितना है ? विद्वानों से यही उत्तर मिलेगा कि जितना पान में घृत /
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________________ उदयपुर कि पब्लिक सभा मे चोथमलजीने कहा कि जैनधर्म सब धर्मों से प्राचीन है ? इसके उत्तर मे एक वेदान्तिकने कहा कि जैनधर्म वेदधर्म से निकला हुवा नूतन धर्म है ? इसका जवाब में ढूँढकजीने एक शब्दतक भी नहीं निकाला. एसे ही आप के जीवन में कपोलकल्पित बातें लिख एक ढांचा खडा किया है उसकि समालोचना एक ढुंढकभाइ लिख ही रहा है यह तो आपकी विद्वत्ता का एक नमूना है। कारण कुँजडे विचारे रत्नोंका व्यापार कब किया था. एसे अज्ञ-अपठित लोग अपनी आत्मा को तो क्या पर अनेक भद्रिक जीवों को दीर्घ संसार के पात्र बना दे इस्में आश्चर्य ही क्या है। चोथमलजी में मायावृत्ति व कायरताके साथ तस्कर वृत्ति का भी दुर्गुण पाया जाता है कारण अनेक कवियों कि कविताओं को तोडफोड के उसके साथ अपना नाम लिख के भद्रिक ढूंढक ढूँढणियों से अपने गुणानुगीत गवाया करता है उन कि समालोचना लिखी जावे तो इसके जीवन पोथीसे पचास गुणा पूराण बन जाये ! पर इस समय हम चोथमल कि तस्करवृत्ति का एक नमूना जनता के सन्मुख रख देना चहाते है नमूना से वस्तु कि परिक्षा विद्वान स्वयं कर सक्ते है। जैन सिद्धान्तों में श्रीपाल राजा इतना तो प्रख्यात है कि जिसके पवित्र गुणों से जैन व जैनेतर जनता स्यात् ही अपरिचित हो / जैनशास्त्रोमें श्रीपाल नरेशने श्री सिद्धचक्रजीमहाराज कि भक्ति-महोत्सव नौ दिन तक आबिल कि तपश्चर्या और त्रिकाल पूजा करी है जिस्का अनुकरण आज भी जैन संसार कर रहा है ओर उसका फल भी शास्त्रकारोंने अक्षयसुख बतलाया है।
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________________ मूर्तिपूजा का विरोधि लुका बनाया को आज करीबन 450 वर्ष और मुहबन्धे ढूंढकों को 275 वर्ष हो चुके है जिसमें धर्मदास व जेठा जैसे मूर्ति पूजा के कहर शत्रु पैदा हो के मर भी गये पर उन निंदकोंने भी, पवित्र श्रीपालचरित्र कि तरफ हस्तक्षेप करनेका साहस नहीं किया इतना ही नहीं पर कितनेक ढूंढक ढूंढणीयां सिद्धचक्र कि भक्ति सेवा पूजा पूर्वक ओलियां करते थे उनको मना तक भी नहीं किया था तब आजकल कर्त्तव्य ऐक्यता की पुकार करनेवाला ढूंढक साधु चोथमलजीने एक श्रीपाल चरित्र के नामसे बिल्कूल अशुद्ध कविता रची जिसको सादडी ढूंढक समाजने वि. स. 1981 में मुद्रित करवाई है जिस किताब के पृष्ट 69 गाथा 720 में ढूँढक चोथमलजी लिखते है कि श्रीपालका चरित्र बनाया / लेइ ग्रन्थ आधार। विपरीतका मिथ्यादुष्कृत / हो जो वारम्वार // 720 // इस गाथासे यह पाया जाता है कि ढूँढकजीने किसी ग्रन्थ का आधार ले यह श्रीपाल चरित्र बनाया है पर ग्रन्थ का नाम लिखने में ढूँढकजीको जहार गर्भ कि माफिक सरम आई हो ? आगे विपरीतका मिथ्यादुष्कृत दे उत्सूत्र के बन पापसे छूटनेका जनताको धोखा दीया है पर जानबुज इरादापूर्वक चौरी कर चौरीका माल न दे कर केवल मिथ्यादुष्कृत दे छुटना चाहाता हो वह छुट नहीं सक्ता है पर एसा धोखाबाजीसे डबल गुन्हगार समजा जाता है / चौरों कि निष्पत् पागी लोगोंमें ताक्त अधिक हुवा करती है कि वह चोरों के कितने ही प्रयत्न करने पर भी उसके पग खोज
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________________ निकालते है ढूँढकजीने ग्रन्थका आधार लेने पर भी ग्रन्थ का नाम लिखनेमें क्यों सरमाये होंगे ? ढूंढकोंने जैनोंके हजारों लाखों शास्त्रको छोड केवल 32 सूत्र मूल मानना रखा और 32 सूत्रोंमें श्रीपालजीका नाम निशांन तक भी नहीं है शेष ग्रन्थ मानने में ढूँढक इन्कार करते है दूसरा जैनेत्तर पुराणोमें श्रीपालजीका बयान नहीं है इस लिये ही ढूँढकजीको मायावृत्तिका सरणा लेना पडा / होगा ? पर आज शोधखोलका जमाना में ढूंढकोंकी तस्करवृत्ति बीपी नहीं रह सक्ती है कारण जैन शास्त्रोमें श्रीपालजीका प्राचीन प्रबन्ध प्राकृत और संस्कृतमें है उनको पढनेके लिये तो ज्ञानके अभाव ढूंढक अयोग्य है। उन प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थोंपरसे श्रीमान् उपाध्यायजी विनयविजयजी व यशोविजयजी महाराजने श्रीपाल रास बनाया उसपरसे ढूंढक चोथमलजीने श्रीपाल चरित्र बनाया है इसकि साबुतिके लिये उपाध्यायजी का रास और ढूंढकजी का चारित्रही प्रमाणभूत है। श्रीमान् उपाध्यायजी का रास पृष्ट ढूंढकजीका बनाया चरित्र पृष्ट 50 103 पण्डितोवाच समस्या पण्डिता की ओरसे . मनवंछित फल होई मनवांछित फल होई विचक्षणोवाच समस्या विचक्षणा की ओरसे __ अवर म झंखो आल. - + ओर न देखो कोय प्रगुणोवाच समस्या प्रगुणा की ओरसे कर सफलो अप्पाण कर सफलो अप्पण निपुणोवाच समस्या निपुणा कि ओरसे - जेतो लिख्खो निलाड जितना लिखा लिलाड़ + उपाध्यायजी के शब्दों को पलटा के लिखा है।
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________________ दक्षोवाच समस्या दक्षा की ओरसे . तस तिहुअण जणदास तब सब जगजनदास शृंगारसुन्दयूँवाच समस्या शृंगरसुन्दरी की ओरसे रवि पहला ऊगंत | रवि पहला उगंत ' जो समस्या श्रीमान् उपाध्यायजी के रासमें थी वह वैसी कि तैसी ढूँढकजीने अपने बनाये चरित्रमें उतार लि है इससे यह सिद्ध होता है कि ढूँढक चौथमलजीने जो श्रीपाल चरित्र बनाया है वह श्रीमान् उपाध्यायजी के रासपरसेही बनाया है जिस ग्रन्थकों नहीं मानना उस ग्रन्थका आधारसे अलग खिचडी पकाना उस्मेंभी मूल प्रन्थकर्ताके मूल पाठ के पाठको उडा देना ढूंढकोंको क्या अधिकार है ! याद रखिये ढूंढको ? वैपारी लोग अपने वही चोपड़ोसे कलमें निकाल देनेपर उनको कैदकी सजा होती है राजके दफतरोंसे बयान निकाल देनेसे फांसीकि सजा भुक्तनी पडती है परधर्म शास्त्रोंसे पाठ उडा देनेसे सिवाय नरक के दूसरी कोइ सजा नहीं है अरे ! चोथमलजी वगरह भाव तस्करों ! तुमारे तो महामिथ्या मोहनियकर्मका प्रवलोदय है वास्ते तुमने यह अनंत संसार बढानेका प्रयत्न किया मगर बिचारे भोले भद्रिक जीवोंकों इस उत्सूत्र के अनुमोदक बनाके क्यो इबाते हो ? क्या चोथमल का बनाया श्रीपाल चरित्र विगर ढूंढकोंका काम नहीं चलता था ? अगर एसाही था तो जैसा प्राचीन शास्त्रमें था वह ही भाव अपना चरित्रमें लाना था ढूँढकजी याद रखिये अब जनताके हृदयकमलमें दीनकर प्रकाशित हो गया है दूसरेतों क्या ? पर आज ढूंढक समाजमें अगर कुच्छ लिखा पढा है वह आपका
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________________ उत्सूत्र रूप मिथ्या प्रयत्नकि तरफ घृणाकी दृष्टि से देखे वगर न रहेगा फिरभी किसीके नैत्रोंमे अज्ञान छा गया हो उनके लिये हम यहाँ पर यह बतला देना चाहते है कि ढूँढक चौथमलजी ने किनकिन स्थानोंसे मूल पाठ उडा दिये है देखो श्रीपाल चरित्रप्राकृत-'मयणाए वयणेणं सोउंबरराणओ पभायंमि / ' .. तीए समं तुरंतो पत्तो सिरि रिसह भवणंमि / 171 संस्कृत-ततो मदन सुन्दर्या वचनेन स उम्बरराजः प्रभाते-प्रातःकाले तया स्वस्त्रिया समं सह त्वरमाणः उत्ताल सन् श्री ऋषभदेवस्य-जिनराजस्य भवने-मन्दिरे प्राप्ताः रास-श्रावो देव जुहारियेरे लो / ऋषभदेव प्रासाद रे वाले० / आदीसर मुख देखतारेलो / नासे दुःख विषवादरे वाले० / मयणा वयणे आवियारेलो / ऊंबर जिन प्रासादरे वाले० / श्रादीश्वर अवलोकतोरेलो / उपनो मन आल्हादरे वाले० / जिनमन्दिरमें भगवान्की शान्तमुद्राके सन्मुख चैत्यवन्दन स्तुतिकर गुरु महाराजके पास मयणा और श्रीपाल ( उम्बरराणा) जाते है प्राकृत-ततो मयणा पइणा सहिआ / मुणिचंद गुरु समीयमि / पत्ता पमुइअ चित / भत्तीए नमइ तस्सपाए / 182 / संस्कृत-ततस्तदनन्तर मदनसुन्दरी पत्य स्व भ; सहित मुनि 1 प्राचीन प्राकृतमें श्रीपाल प्रबन्ध 2 संस्कृतावचूरी 3 श्रीमान् उपाध्यायश्रीका बनाया श्रीपालरास--
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________________ चन्द्राख्यगुरुणं समीपे प्राप्ता-तद प्रमुदितं-हृष्टंचितं यस्याः सा तथा विधा सती भक्तया तस्य गुरोः पादो-चरणौ नमति-- रास-पासे पोसहसालमें / बेठा गुरु गुणवंत / . कहे मयणा दिये देशना / आवो सुणिये कन्त / नरनारी बेहु जिणा / आव्या गुरुने पाय / विधि पूर्वक वन्दन करी / बेठा बेसण ठाय / अब ढूँढकजी कि तस्कर वृतिको देखिये / बहुतसे शब्दों और भावार्थ में तो फारफेर किया है पर मूल पाठ किस चालाकिसे उछाया है। ढूंढक चोथमलजीका बनाया हुआ श्रीपाल चरित्रके पृष्ट 8 में मन्दिरका अधिकार निकाल केवल मुनिकाढूँढक-प्रातः हुई दीनकर प्रगटायो / भाग्य उदय मुनि आया श्रीपाल निज पत्नी संगजी / चरणे शिश नमाया / 65 - देह देशना मुनिवर बोले / मैना सुन्दर ताइ.. पुरुषरत्न यह कोन संग / तू किस विपताके माई / 66 उपर जो प्राकृत संस्कृत और रास में भगवान् शुषभदेवके मन्दिरमें मयणा सुन्दरी अपने पतिदेव के साथ प्रवेशकर भक्तिपूर्वक सरस वचनोंसे जिनेन्द्रदेव का चैत्यवन्दन स्तुति करी थी उन सब मूलपाठको तस्कर चौथमलजीने उडा दीया है तो मन्दिरजीमें पाठ दिन अठाई महोत्सव नौवे दिन वडी भारी पूजाके लिये तो कहना ही क्या 1 देखिये मूलका पाठ-- प्राकृत-आसोअसे अठुमि दिणाश्रो / श्रारंभि अणमेयस्स / भट्टविह पूय पूव्वं / आयामें कुणह अदिणे / 217
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________________ नवमामि दिणे पंचाभएण एहवणं इमस्सकाउणं पूर्यच वित्थारेणं आयंबिलमेव कायव्वा / 218 / संस्कृत--आश्विन श्वेताष्टमिदिनात् आश्विनसुद्याष्टमिदिवसात् प्रारभ्य एतस्य श्रीसिद्धचक्रस्य अष्टविधपूजापूर्व अष्टप्रकारां पूजां विधाय इत्यर्थः अष्टदिनानि यावदहो भव्या आचाम्लानि तपांसि यूयं कुरुत यद्यपि मूलविधिनाऽष्टमी दिनादारभ्यैतत्तपः प्रोक्तमखि परं साम्प्रतं तु पूर्वाचार्या चरणातः सप्तमीदिनात् क्रियमाण मस्तीति शेयम् / 217 / नवमे दिनेऽस्य श्रीसिद्धचक्रस्यपञ्चामृतेन-दधिदुग्ध घृतजलशर्करा स्वरूपेण स्नपनं कृत्वा च पुनः विस्तरेणपूजां कृत्वा माचाम्लमेव कर्तव्यम् / 218 / रास-तिहां सघलो विधि साचवे / पामि गुरु उपदेश / सिद्धचक्र पूजा करे / आंबिल तप सुविशेष / पासो शुदि सातम सुविचार | ओली मांडि स्त्री भरतार अष्टप्रकारी पूजा करी / आंबिल किधा मनसंवरी इस पूजाका अधिकारको भी तस्करजीने निकालदीया है भागे और देखिये- प्राकृत-तम्मन्ज कय निवेसा / अत्थि पुरी रयण संचयानाम तंपालइ विजाहरराय / सिरि कणय केउत्ति / 487 / तस्सत्थि कणय मालानाम / पियातीइ कुच्छि संभूया कणयपह कणयसेहर कणयमय कणयरुइ पुत्ता / 488 / वेसिंच उवरि एगापुत्ती / नामेण मयण मंजूसा सयल कला पारीणा, अइ रइ रुवा मुणिय तत्ता | 486 /
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________________ तत्थ पुरीइ एगो जिणदेवो नाम सावगो तस्स पुत्तोऽहं जिणदासो कहेमि चुजं पुणो सुणसु // 490 // सिरि कणयकेउरन्नो पिया पिया महेणित्थ कारियं अत्थि गिरि सिहर सिरो रयणं / भवणं सिरि रिसहनाहस्स // 491 // संत मणोरहतुंगं उत्तम नर, चारिय निम्मल विसालं / दायार सुजस धवलं, रविमंडल दलिय तम पडलं // 492 // तम्मज रिसहसर पडिमा, कणय मणि निम्मिश्रा अत्थि / तिहुअण जण मण जणियऽऽणंद तव चंदलेहव्व / / 493 // तंसो खेयर राया, निचं अच्चेइ भत्ती संजुत्तो / लोओऽविसप्पमोओ, नमइ पूएइ माएई // 494 // सा नरवरस्स धूया विसेसओ, तत्थ भत्ती संजुत्तो। अठ्ठ पयारं पूर्व करेइ निच्चं ति संझासु // 495 // .. संस्कृत-तन्मध्ये तस्यगिरेमध्यभागे कृतो निवेशो-रचनायस्याः सा एवं विधा रत्नसञ्चया नाम पुरी-नगरी, अस्ति, तां पुरी श्रीकनककेतुरिति नाम्ना विद्याधराणां राजा पालयति // 48 // तस्स राक्षः कनकमाला नाम प्रियाऽस्ति तस्याः कुक्षौ सम्भूत्ताउत्पन्नाः कनकप्रभ 1 कनकशेखर 2 कनकध्वज 3 कनकरूचि 4 नामनाश्चत्वारः पुत्राः सन्ति // 488 // च पुनस्तेषां चतुर्णा पुत्राणां उपरि नाम्ना मदनमञ्जुषा एका पुत्री अस्ति, सा च कीशी ? सकलकलासु पारीणा-पारं प्राप्तवती पुनः अतिक्रान्तं रतेः कामस्त्रिया रूपं सौन्दर्य यया सा तथा मुणितं ज्ञातं तत्त्व यया सा // 486 // तस्यां च पुर्या एको जिनदेवो नाम श्रावकोऽस्ति तस्य
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________________ जिनदेवस्य पुत्रोऽहं जिनदासोऽस्मि चोद्य-आश्चर्य पुनः अहं कथयामि त्वं शृणु // 490 // श्री कनककेतु राजस्य पितामहेन पितुः पित्र अत्र गिरिशिखर शिरोरत्नं श्री ऋषभनाथस्य भवनं-मन्दिरं तत्र कारितमस्ति // 491 // तच्च कीदृशमित्याह-ततां सत्पुरुषाणं ये मनोरथास्तद्वत्तुगं-उच्चं पुनरुत्तमनराणां यच्चरितं आचरस्तद्वन्निर्मलं विशालं च-विस्तीर्णं तथा दातुर्यत् सुष्टु-शोभनं यशस्तद्वद्धवलं, पुनः रविमंडलं-सूर्यमण्डलं तद्वत् दलितं-खण्डितं तमः पडलं अन्धकारवृन्दम् येन तत् // 462 // तन्मध्ये तस्य मन्दिरस्य मध्ये कनकमणिभिः स्वर्णरत्नैर्निर्मिता-रचिता ऋषभेश्वरस्य प्रतिमा-मूर्तिरस्ति कीदृशी ? इत्याह नवा नविना चन्द्रस्यालेखा इव त्रिभुवन जनानां त्रैलोक्यं लोकानां मनस्सु जनित उत्पादित आनन्दो-हर्षो यया सा ईदृशी अस्ति // 493 // स खेचराणां-विद्याधराणां राजा खेचरराजो भक्त्या संयुक्तः सन् तां जिनप्रतिमां नित्यं अर्चयति पूजयति लोकोऽपि नगरवासिजनोऽपि सह प्रमोदेन हर्षेण वर्तते इति स प्रमोदः सन् तां नमति पूजयति ध्यायति च // 464 // सा प्रागुक्त मदनमञ्जुषा नाम्नी नरवरस्य राज्ञः पुत्री विशेषतो भक्ति संयुक्ता सती तत्र जिनगृह त्रिसन्ध्यासु नित्यं भष्टप्रकारअष्टविधां पूजां करोति / / 495 // रास-तेह पुरुष हिवे विनवेजी रतन ए द्विप सुरंग / रतन सानु पर्वत इहां जी, वलीयाकार उत्तंग // 1 // रतन संचिया तिहां बसेजी, नयरी पर्वत माह / / कनककेतु राजा तिहां जी, विद्याधर नरनाह // 2 //
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________________ रतन जिसी रलियामणिजी, रतनमाला तस नार / सुरसुन्दर सोहामाणिजी, नंदन छै तस चार // 3 / / ते उपर एक इच्छतांजी, पुत्री हुई गुणधाम / . . रूप कला रति आगली जी, मदनमंजुषा नाम // 4 // परवत सिर सोहामणोजी, तिहाँ एक जिनप्रासाद / रायपिताये करावियोजी, मेरूसे मांडे वाद // 5 // सोवनमय सोहामणांजी, तिहाँ रिसहेसर देव / कनककेतु राजा तिहाँजी, अहिनिश सारे सेव // 6 // भक्ते भलि पूजा करेजी, रायकुंवरी त्रिण काल | अगर उखेवे गुण स्तवेजी, गाये गीत रसाल // 7 // प्राकृत-संस्कृत और रास इन तीनोमें रत्नसंचय पर्वतपर श्री रिषभदेव भगवानका मन्दिर है नागरिक लोग व राजा और राजकन्या त्रिकाल पूजन कर रहे है एसा मूलपाठमें लिखा है आगे उस मन्दिरमें राजकन्या लाखीणि आंगी रची, उसे देख राजा बडी भावनासे अनुमोदन, के पश्चात् कन्याके वर कि चिंता करी, जिसमेंमूल मन्दिर के दरवाजा बन्ध हुवा, राजाने अष्टम तप कीया, चक्रेवरी देवी आई, जिस्के दृष्टिपात हो तें ही कमाड खुल जावेगा, वह ही तुमारी कन्याका वर होगा, बाद जिनदास श्रीपालजी को वहाँ ले गया, उनके दृष्टिपात होते ही कमाड खुल गये भगवान की पूजा करी इत्यादि अधिकार मूलपाठ-टीका व रासमें है उसको उडाके चोधमलजी क्या तस्करवृति करी है उसके लिये चोथमलजी के बनाया श्रीपाल चरित्र पृष्ट 24 पर क्या लिखता है / उसी समय उस रत्नद्विपमे, रत्नगिरी परधान / रत्नसंचय एक नगरी भारी, कनककेतु नृप जान हो // 232 //
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________________ विद्याधर को नाथ आप, तस वेणमाला पटनार / चार पुत्र पुनवंता भूपके, इन्द्रतणे उन्हियार हो // 233 // इच्छीत पुत्री हुई एक पुनि, रैन मंजूषा नाम / रूपकला अधिक है जिसमें, अंग उपांग अभिराम हो॥२३४॥ वर योग नृप कन्या जानी, वर कि करे तलास / घर बर दोनों मिले दीपता, पूर्ण पुन्य हो तास हो // 335 // एक दिन नृप श्री मुनिराजसे, पुच्छाकर नमस्कार / रैनमैंजूषा मुझ पुत्रीका, बने कौन भरतार // 236 // मुनि कहे तुझ पट्ट हस्ति जब, विकल होय भग जावे / पति बनेगा वही सुत्ताका, जो गजमद हटावे हो // 237 // मुनि वचन सुन राजाके तब, हुवाचित विश्वास / रखो निग्गह अनुचर हाथीकी, हुकम दीया प्रकश हो // 23 // अल्पदिनो में वह पट हाथी, छक्यो मदनके भाई। हुवा कोलाहल शहेर बिचमें, एसी धूम मचाई हो // 239 // चला समुद्र तटगज आया, श्रीपाल उसवार | नवपद स्मर तुरत उस गजको, दिनों मदन उतार // 24 // खबर पाय भूपति आया, श्रीपालके पास / पुर जन सब देख इम बोले, देव पुरुष थे खास // 241 // कहे नृपति सुनो कुमरजी, मुझे कहा मुनिराज / कन्या का वर बने वहीजो, बस लावे गजराज // 242 // सो आप कृपा कर पुत्री, मेरीको वरलीजे; विलम्ब करें नहीं शीघ्र चलो मुझ, घरको पावन कीजे // 243 //
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________________ महाराज इसके योग नहीं हु, में प्रदेशी चलता। विने जान पहचान व्याह वह, कैसे होवे भलता // 244 // मुनिवचनसे जाना हमने, तुम हो राजकुमार | लिजे मान वचन अब मेरा, नहीं किजे इन्कार // 245 // इत्यादि आगे श्रीपाल और रैनमंजुषाका विवाहा करवा दीया है देखिये उन्मत्त हस्तीकी माफीक पागलोंकि तस्करवृति। जिस रासपरसे यह श्रीपाल चरित्र बनाया है उस रासमें मन्दिर मूर्ति प्रभुपूजादिका अधिकार निकालके उन्मत्त हाथी की कथा लिख कैसा अनंत संसार बढाया है ? अरे ! भद्रिक ढूंढक ढूँढणीयें ! अगर तुमारी सर्व बुद्धि नष्ट नहीं हुई हो तो इस तस्कर वृत्तिकी तरफ लक्ष दिजिये कि एसे भृष्टाचरणवालेको अतिशय ज्ञान तो हो ही नहीं सक्ता है फिर पूर्व महर्षियोंके ग्रंथोसे कविता बनाना और उनसे मूलपाठ निकाल देना वह सब तुम अज्ञ लोगोंको गहरी खाडमें गीरानेका उपाय है अगर तुमारे अन्दर कुच्छ भी सद्ज्ञान होतो जैसे उत्सूत्रवादी अमोलष ढूँढकके छपाये हुवे 32 सूत्रोंका हिन्दी अनुबाद को ढूंढक समाजने / बहिष्कार किया था उसी माफीक ढूँढकजीके बनाया श्रीपाल चरित्रका शीघ्रतासे बहिष्कार करदो। ... जहाँ राजा कनककेतु और श्रीपाल ऋषभदेवके मन्दिरमें बैठे थे और कोटवाल धवल शेठको पकड लाया लिखा है वहाँ पर ढूँढकजीने मुनिके स्थान लाना लिख मारा है पर ढूँढकजीकी यह हिम्मत नहीं हुई कि ढूंढक स्थानक लिखदे एसेही मन्दिरके बहार चारण मुनिने श्रीपालजीका परिचय राजा और नागरिकोकों कराया था उसकों उलटाके रैनमंजूषा के सामने श्रीपालजीके मुंहसे कहलाया है
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________________ इत्यादि अनेक स्थान मूलपाठ और अर्थको पलटा दीया है आखिर में श्रीपालजी राजऋद्धि लेके चम्पानगरी आये आनंद में राज भोगवते हुवे जो सुकृत कार्य किया जिस विषय मूल पाठमें एसा लिखा है ? प्राकृत-अठ्ठाहियाउ चेईहरेसु / कारावि ऊरण विहि पूव्वं / सिरि सिद्धचक्कं पूअंच / कारए परम भत्तीए // 1068 // ठाणे ठाणे चेईहराई, कारइं तुंग सिहराई . घोसावेई अमारिं दाणं दीणणं दावई // 1069 // - संस्कृत-तथा श्रीपाल चैत्यगृहेषु-जिनमन्दिरेषु अष्टाह्निका महोत्सवान् कारयित्वा विधिपूर्वक परमभक्त्या श्री सिद्धचक्रपूजां च कारयति / 1068 / स्थाने स्थाने तुङ्गानि उच्चानि शिखराणि येषां तानि तुङ्ग शिखराणि-चैत्य गृहाणि कारयति तथाऽमारि-सर्व जन्तुभ्योऽभयदानं पोषयति पुनः दीनेभ्योदानं दापयति इत्थं पुण्य कृत्यानि करोतीत्यर्थःरास-उत्सव चैत्य अठ्ठाइयारे लाल / विरचावेविधि साररे / सो० / सिद्धचक्रनी पूजा उदाररे / सो। करे जाणि तस उपकाररे। सो०। तेनुं धर्मी सहु परिवाररे / सो। धर्मे उल्लसे तस दाररे / सो। चैत्यकरावे तेहवारे / सो / जे स्वर्ग, मांडे वादरे / सो / अब ढूँढकजीकि चालाकबाजी को भी देखिये / निज देश हिंसा बन्ध कीनी / दीनो दान अनेक / देवगुरु धर्म शुद्ध समकितकी / राखी पुरी टेक हो / 634 / ___ गाथाका पूर्वार्द्ध में स्थान स्थान मन्दिर करवाया इसको तो उडादीया है ओर उत्तरार्द्ध में जो जीवहिंसा बन्ध करवाई ओर दान दीया था वह ले लिया, क्या यह तस्करवृत्ति नहीं है ? अगर
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________________ कोई निर्पक्ष होकर एक तरफ श्रीमान् उपाध्यायजीका बनाया रास और दूसरी तरफ ढूंढकजीका बनाया श्रीपाल चरित्र रख दोनोंका मिलान करेंगे तो यह ही ज्ञात होगा कि रासपरसे श्रीपाल चरित्र बनाया है जिस्में जहाँ मन्दिर मूर्ति और प्रभुपूजाका पाठ आया वहाँ तस्करवृत्ति करी है साथमें श्रीपालजीने इस और परभवमें उज्जमनाकर प्रभुपूजा करी थी वह भी उडादी है और केइ केइ शब्दोंका फारफेर भी कीया है जिसको सम्पूर्ण न लिख यह केवल तस्करवृत्तिका नमुनाही बताया है। ___ इस तस्करवृत्तिका नमूनामें हमने जो प्रचलीत ढूँढक शब्दका प्रयोग किया है इस्मे अगर ढूँढकोंको कुच्छ कटूक लगे तो वह अपना कोई दूसरा नाम प्रगट करे कि भविष्य के लिये दुसरा नाम लिखा जावे / और श्रीपाल चरित्र के विषय में हमने जो मूल ग्रन्थ के प्रमाण से समालोचना करी है जो कि हमारा खास कर्त्तव्य था उसपरभी हमारे ढूँढक भाइयोंको नाराजी हो तो उसका कारण ढूँढक चौथमल को ही समजना चाहिये कि उसने हमारे दीलको आघात पहुँचानेके लिये हमारे शास्त्रोंसे पाठ के पाठ उडा देने का तस्करपना किया है। . जैनियोंकि गांभिर्यताकि तरफ जरा ख्याल करिये कि “पथ प्रदर्शक" नामक आगरासे निकलनेवाला ढुंढकपत्रमें आज 1 वर्षसे जैनाचार्यों और जैन मुनियोंकि असभ्य शब्दोंमें निंदा छप रहा है जिस्मे आचार्य विजयनेमिसूरि कृपाचंद्रसूरि मुनि मणिसागरजी रामविजयजी, ज्ञानसुन्दरजी आदिके विषयमें तो न जाने लेखक पागलखानाके पिंजरासे ही नहीं छूट आया हो ? पर ढूंढकोको यह ख्याल
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________________ नहीं है कि जब तक दूसरे पक्षवाले लेखिनी हाथमें नहीं ली वहां तक ही अच्छा है अगर तुमारे शब्दोंका ही प्रयोग तुमारे जावराके जालम -मदसोरकी नंदलिला-चीतोडकी गणेशचौथ सादडीकी देवमायादिके लिये किया जावेगा तो आपकी कूटनीति का क्या फल होगा वह नैत्रबन्धकर क्षणभर सोच लिजिये / जैन पथ प्रदर्शक के लेखक के लिये “पागल ढुंढकोंके लिये रामबाण दवा" की पहली गोली तय्यार हो चुकी है वह गोली एक वर्षकी बैमारी को रफे करदेगा. _ ढुंढक लोग एक तरफतो आपसमें प्रेम-ऐक्य बढानेका उपदेश कर रहे है और दूसरी तरफ हमारे परमपूज्य धर्म धुरंधर आचार्यों की निंदा और हमारे पवित्र शास्त्रों में पाठ के पाठ निकालनेकी तस्करवृत्ति कर रहै है पर याद रखिये ढुंढकों! तुमारी इस मायावृत्तिसे न तो आपसमें प्रेम-ऐक्य बढेगा और न समाजकी उन्नति होगा बल्के दोनो तरफकी शक्तियोंका दुरुपयोग होने से क्लेश कदागृहके सिवाय कुच्छ भी फल न होगा वास्ते पहले के उत्सूत्र रूपी श्रीपालचरित्र बनानेका प्रायश्चित ले भविष्यके लिये इस तस्करवृतिको बिलकुल बन्ध कर देना ही आप लोगोंके लिये कल्याणका कारण होगा / अगर इतने पर भी आपकी बैमारी दूर न होगी ओर आप अपनी आदत से लाचर हो आगे कदम रखेंगे तो आपके लिये हमारे पास भी मशाला कम नहीं है पुरांणासे पुरांणा नयासे नया और एक इनाममें दीया जावेगा इस बातको ठीक ध्यानमें रख लिजिये इत्यलम् / ... आपकी आत्माका सञ्चा हितैषी ... मुनि गुणसुन्दर.