________________ निकालते है ढूँढकजीने ग्रन्थका आधार लेने पर भी ग्रन्थ का नाम लिखनेमें क्यों सरमाये होंगे ? ढूंढकोंने जैनोंके हजारों लाखों शास्त्रको छोड केवल 32 सूत्र मूल मानना रखा और 32 सूत्रोंमें श्रीपालजीका नाम निशांन तक भी नहीं है शेष ग्रन्थ मानने में ढूँढक इन्कार करते है दूसरा जैनेत्तर पुराणोमें श्रीपालजीका बयान नहीं है इस लिये ही ढूँढकजीको मायावृत्तिका सरणा लेना पडा / होगा ? पर आज शोधखोलका जमाना में ढूंढकोंकी तस्करवृत्ति बीपी नहीं रह सक्ती है कारण जैन शास्त्रोमें श्रीपालजीका प्राचीन प्रबन्ध प्राकृत और संस्कृतमें है उनको पढनेके लिये तो ज्ञानके अभाव ढूंढक अयोग्य है। उन प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थोंपरसे श्रीमान् उपाध्यायजी विनयविजयजी व यशोविजयजी महाराजने श्रीपाल रास बनाया उसपरसे ढूंढक चोथमलजीने श्रीपाल चरित्र बनाया है इसकि साबुतिके लिये उपाध्यायजी का रास और ढूंढकजी का चारित्रही प्रमाणभूत है। श्रीमान् उपाध्यायजी का रास पृष्ट ढूंढकजीका बनाया चरित्र पृष्ट 50 103 पण्डितोवाच समस्या पण्डिता की ओरसे . मनवंछित फल होई मनवांछित फल होई विचक्षणोवाच समस्या विचक्षणा की ओरसे __ अवर म झंखो आल. - + ओर न देखो कोय प्रगुणोवाच समस्या प्रगुणा की ओरसे कर सफलो अप्पाण कर सफलो अप्पण निपुणोवाच समस्या निपुणा कि ओरसे - जेतो लिख्खो निलाड जितना लिखा लिलाड़ + उपाध्यायजी के शब्दों को पलटा के लिखा है।