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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
धर्म शब्द जिसे अंग्रेजी में Religion (रिलीजन) कहा जाता है, किसी कवि ने कहा हैउसकी व्युत्पत्ति हमें यह बताती है कि धर्म एक योजक तत्त्व है, वह
न हिन्दू बुरा है न मुसलमां बुरा है। जोड़ता है। रिलीजन शब्द री+लीजेर से बना है। जिसका अर्थ होता
बुरा वह है जिसका दिल बुरा है ।। है- पुन: जोड़ने वाला। जबकि सम्प्रदाय या School शब्द विभाजन सम्प्रदाय वह रंगीन चश्मा है जो सबको अपने ही रङ्ग में देखना का सूचक है। इस प्रकार जहाँ धर्म का कार्य जोड़ना है, वहाँ सम्प्रदाय चाहता है और जो भी उसे अपने से भिन्न रङ्ग में दिखायी देता है का कार्य विभाजित करना है। यदि हम इस आधार पर ही कोई निष्कर्ष उसे वह गलत मान लेता है। जबकि धर्म खुली आँखों से उस सारभूत निकालें तो हमें कहना होगा कि साम्प्रदायिकता में धर्म नहीं (रहा हुआ) तत्त्व को देखता है, जो सभी के मूल में समान रूप से समाया हुआ है। धर्म में रहकर तो सम्प्रदाय में रहा जा सकता है, किन्तु सम्प्रदाय है। इसीलिए धार्मिक होकर तो सम्प्रदाय में हुआ जा सकता है, किन्तु में रहकर कोई धर्म में नहीं रह सकता है। यदि इसे और अधिक स्पष्ट सम्प्रदाय में होकर कोई व्यक्ति धर्म में नहीं हो सकता। सम्प्रदाय धर्म करें तो इसका तात्पर्य होगा कि यदि व्यक्ति धार्मिक है और वह किसी साधना की एक विशिष्ट प्रक्रिया को अपनाने वाले लोगों का एक समूह सम्प्रदाय से जुड़ा है तो वह बुरा नहीं, किन्तु यदि व्यक्ति सम्प्रदाय है, किन्तु जब यही लोग धर्म के मूल उत्स को छोड़कर मात्र बाह्य में ही जीता है और धर्म में नहीं, तो वह निश्चय ही समाज के लिए क्रियाकाण्डों को ही सब कुछ समझ लेते हैं तो वे धार्मिक न रहकर एक चिन्ता का विषय है। आज स्थिति यह है कि हम सब सम्प्रदायों साम्प्रदायिक बन जाते हैं और यही साम्प्रदायिकता बुरी है। पूर्व में में जीते हैं, धर्म में नहीं। इसीलिए आज साम्प्रदायिकता मानव मात्र जो यह कहा गया है कि सम्प्रदायों में धर्म नहीं, उसका तात्पर्य यही के लिए खतरा बन रही है।
है कि साम्प्रदायिक आग्रहों के साथ कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म स्वभाव है, वह आन्तरिक है। सम्प्रदाय का सम्बन्ध आचार धर्म को यदि हम केन्द्र-बिन्दु मानें तो सम्प्रदाय व्यक्ति रूपी परिधि-बिन्दु की बाह्य रुढ़ियों तक सीमित है इसलिए वह बाहरी है। सम्प्रदाय यदि को केन्द्र से जोड़ने वाली त्रिज्या रेखा के समान है। एक केन्द्र-बिन्दु धर्म से रहित है तो वह ठीक वैसा ही है जैसा आत्मा से रहित शरीर। से परिधि-बिन्दुओं को जोड़ने वाली अनेक रेखायें खींची जा सकती सम्प्रदाय धर्म का शरीर है और शरीर का होना बुरा भी नहीं, किन्तु हैं। यदि वे सभी रेखायें परिधि-बिन्दु को केन्द्र से जोड़ती हैं तब तो जिस प्रकार शरीर में से आत्मा के निकल जाने के बाद वह शव हो वे एक-दूसरे को नहीं काटती अपितु एक-दूसरे से मिलती हैं किन्तु जाता है और परिवेश में सड़ांध व दुर्गन्ध फैलाता है उसी प्रकार धर्म कोई भी रेखा जब केन्द्र का परित्याग कर चलती है तो वह दूसरे से रहित सम्प्रदाय भी समाज में घृणा और अराजकता उत्पन्न करते को काटने लगती है, यही स्थिति सम्प्रदाय की है। सम्प्रदाय जब तक हैं, सामाजिक जीवन को गलित व सड़ांधयुक्त बनाते हैं। शायद यहाँ धर्म की ओर उन्मुख है तब तक वे एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं पूछा जा सकता है कि धर्म और सम्प्रदाय में अन्तर का आधार क्या होते, किन्तु जब सम्प्रदाय धर्म से विमुख हो जाते हैं तो वे एक दूसरे है? वस्तुत: धर्म आस्था/निष्ठा के साथ मानवीय सद्गुणों को जीवन को काटने लगते हैं। यदि विभिन्न सम्प्रदाय परस्पर सौजन्य एवं सहिष्णुता में जीने के प्रयास से भी जुड़ा है, जबकि सम्प्रदाय केवल कुछ रुढ़ के साथ जीवित हैं तो वे वस्तुतः धर्म ही हैं, क्योंकि उनके मूल में क्रियाओं को ही पकड़कर चलता है। नैतिक सद्गुण कालिक सत्य धार्मिकता का उत्स समाया हुआ है, किन्तु जब वे सम्प्रदाय एक-दूसरे हैं, वे सदैव शुभ हैं। जबकि साम्प्रदायिक रुढ़ियों का मूल्य युग विशेष के विरोध में खड़े होते हैं तो वे 'सम्प्रदाय' होते हैं, 'धर्म' नहीं; और
और समाज विशेष में ही होता है अत: वे सापेक्ष हैं। जब इन सापेक्षिक ऐसे धर्मरहित सम्प्रदाय ही सामाजिक जीवन में असद्भाव और वैमनस्य सत्यों को ही एक सार्वभौम सत्य मान लिया जाता है तो इसी से को जन्म देते हैं। सम्प्रदायवाद का जन्म होता है। यह सम्प्रदायवाद वैमनस्य और घृणा धर्म के दो पक्ष होते हैं- एक उसका शाश्वत और सार्वभौम के बीज बोता है। अतः कहा जा सकता है कि जहाँ धर्म आपस में पक्ष होता है तथा दूसरा दैशिक और कालिक पक्ष। धर्म का शाश्वत प्रेम करना सिखाता है वहीं सम्प्रदाय आपस में घृणा के बीज बोता और सार्वभौम पक्ष उसका सारतत्त्व कहा जा सकता है, जबकि दैशिक है। यदि हम धर्मों के मूल सारतत्त्व को देखें तो उनमें कोई बहुत और कालिक पक्ष उसका बाह्यरूप कहा जा सकता है, जो कि समय-समय बड़ा अन्तर नजर नहीं आता, क्योंकि सभी धर्मों की मूलभूत शिक्षाएँ पर परिवर्तित होता रहता है। धार्मिक असहिष्णुता का जन्म तब होता समान ही हैं। न केवल मूलभूत शिक्षायें ही समान हैं अपितु सभी है जब हम धर्म के इस रुढ़िगत बाह्य रूप को ही उसका सर्वस्व मान का व्यावहारिक लक्षण भी समान है। वे मनुष्य को एक ऐसी जीवन लेते हैं और धर्म के मूल उत्स को भुला देते हैं। मनुष्य ने धर्म के शैली प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों ही शान्ति व सारतत्त्व के आचरण पर बल न देकर रुढ़ियों और कर्मकाण्डों को सुख का अनुभव कर सकें।
ही धर्म का सर्वस्व मान लिया। परिणामतः धर्मों की मूलभूत एकता
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
विस्मृत हो गयी और उनके भेद ही प्रमुख बन गये। इसकी फलश्रुति कहा हैधार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षों के रूप में प्रकट हुई। यदि तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना। हम धर्म के मूल उत्स और शिक्षाओं को देखें तो मूसा की दस आज्ञायें, बरकत जो नहीं होती, नीयत की खराबी है।। ईसा के पर्वत पर के उपदेश, बुद्ध के पञ्चशील, महावरी के पञ्चमहाव्रत, आज मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित
और पतञ्जलि के पञ्चयम एक-दूसरे से अधिक भिन्न नहीं हैं। वस्तुत: सभ्यता के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक सहज, सरल ये धर्म की मूलभूत शिक्षायें हैं और इन्हें जीवन में जीकर व्यक्ति न एवं स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे छिन गई है, आज जीवन के केवल एक अच्छा ईसाई, जैन, बौद्ध या हिन्दू बनता है अपितु वह हर क्षेत्र में कृत्रिमता और छयों का बाहुल्य है। मनुष्य आज न तो सच्चे अर्थ में धार्मिक भी बनता है।
अपनी मूलप्रवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया दुर्भाग्य से आज धार्मिक साम्प्रदायिकता ने पुनः मानव समाज है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाये रखने के को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और धर्म के कुछ तथाकथित ठेकेदार लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके भीतर उसका अपनी शूद्र ऐषणाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्म के नाम ‘पशुत्व' कुलाँचें भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को 'सभ्य' दिखाना पर मानव समाज में न केवल बिखराव पैदा कर रहे हैं, अपितु वे चाहता है। अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालाएँ और बाहर सच्चरित्रता एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध उभाड़ रहे हैं।
और सदाशयता का छद्म जीवन, यही आज के मानस की त्रासदी है,
पीड़ा है। आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की मनुष्य की दुविधा-अध्यात्मवाद । भौतिकवाद
दमित मूलप्रवृत्तियाँ और उनसे जन्य दोषों के कारण मानवता आज आज मनुष्य अंशात, विक्षुब्ध एवं तनावपूर्ण स्थिति में है। बौद्धिक भी अभिशिप्त है, आज वह दोहरे संघर्ष से गुजर रही है- एक आन्तरिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान-राशि और वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त और दूसरा बाह्य। आन्तरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानस भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, तनावयुक्त है, विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों के कारण मानव-जीवन अशान्त मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पायी है। ज्ञान-विज्ञान और अस्त-व्यस्त। आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सांवेगिक की शिक्षा देने वाले सहस्राधिक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के असन्तुलनों और मूल्य संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किन्तु एक सार्थक भोग-लोलुपता पर विवेक एवं संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। सामञ्जस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति उसका उपेक्षाभाव भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मन की माँग है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके हैं और नये को सन्तुष्ट नहीं कर सका है। आवागमन के सुलभ साधनों ने विश्व मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। आज हम मूल्यरिक्तता की की दूरी को कम कर दिया है, किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नये मूल्यों की प्रसव-पीड़ा से गुजर की दूरी आज ज्यादा हो गयी है। यह कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं रही है। आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है; उसके सामने जाति एवं वर्ण के नाम एक-दूसरे से कटते चले जा रहे हैं। सुरक्षा दो ही विकल्प हैं- या तो पुन: अपने प्रकृत आदिम जीवन की ओर के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके मन में अभय का विकास लौट जाये या फिर एक नये मानव का सृजन करे, किन्तु पहला विकल्प नहीं कर पायी है, आज भी वह उतना ही आशंकित, आतंकित और अब न तो सम्भव है और न वरेण्य। अत: आज एक ही विकल्प आक्रामक है, जितना आदिम युग में रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, शेष है- एक नये आध्यात्मिक मानव का निर्माण, अन्यथा आज आज विध्वंसकारी शस्त्रों के निर्माण के साथ उसकी यह आक्रामक हम उस कगार पर खड़े हैं, जहाँ मानव जाति का सर्वनाश हमें पुकार वृत्ति अधिक विनाशकारी बन गयी है और वह शस्त्र-निर्माण की इस रहा है। यहाँ जोश का यह कथन कितना मौजूं हैदौड़ में सम्पूर्ण मानव जाति की अन्त्येष्टि की सामग्री तैयार कर रहा सफाइयाँ हो रही हैं जितनी, दिल उतने ही हो रहे हैं मैले। है। आर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य उतना ही अधिक अन्धेरा छा जायेगा जहाँ में, अगर यही रोशनी रहेगी।। अर्थलोलुप है, जितना कि वह पहले कभी रहा होगा। आज मनुष्य इस निर्णायक स्थिति में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है की इस अर्थलोलुपता ने मानव जाति को शोषक और शोषित ऐसे कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों में से कौन उसे दो वर्गों में बाँट दिया है, जो एक दूसरे को पूरी तरह निगल जाने वर्तमान संकट से उबार सकता है? जैन धर्म कहता है कि भौतिकवादी की तैयारी कर रहे हैं। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा तद्जनित स्वार्थ एवं शोषण है तो दूसरा पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए व्यग्र और विक्षुब्ध। की पाशविक प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, क्योंकि आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीक और आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से भौतिकवादी दृष्टि में मनुष्य मूलत: पशु ही है। वह मनुष्य को एक सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू०एस०ए०, मानसिक तनावों एवं आध्यात्मिक (Spiritual being) न मानकर एक विकसित सामाजिक आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान है, इससे पशु (Developed social animal) ही मानती है। जबकि जैन धर्म सम्बन्धित आँकड़े चौंकाने वाले हैं। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही मानव को विवेक और संयम की शक्ति से युक्त मानता है। भौतिकवाद
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के अनुसार मनुष्य का निःश्रेयस् उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख वस्तुगत लक्ष्य हैं। अत: माँगों की सन्तुष्टि में ही है। वह मानव की भोग-लिप्सा की सन्तुष्टि भौतिकवादी मानव सुख की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है को ही उसका चरम लक्ष्य घोषित कर देता है। यद्यपि वह एक आरोपित और उनके संग्रह हेतु स्तेय, शोषण एवं संघर्ष जैसी सामाजिक बुराइयों सामाजिकता के द्वारा मनुष्य की स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक वृत्तियों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन धर्म या अध्यात्म हमें यह सिखाता का नियमन करना अवश्य चाहता है, किन्तु इस आरोपित सामाजिकता है कि सुख-दुःख आत्मकृत हैं। बाहर न कोई शत्रु है और न कोई का परिणाम मात्र इतना ही होता है कि मनुष्य प्रत्यक्ष में शान्त और मित्र। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है सभ्य होकर भी परोक्ष में अशान्त एवं उद्दीप्त बना रहता है और उन और दुःप्रस्थित आत्मा शत्रु है। अत: सुख-दुःख की खोज पदार्थों में अवसरों की खोज करता है जब समाज की आँख बचाकर अथवा न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते हैं कि यह ज्ञान-दर्शन सामाजिक आदर्शों के नाम पर उसकी पाशविक वृत्तियों को छद्म रूप स्वरूप शाश्वत आत्म तत्त्व ही अपना है, शेष सभी संयोगजन्य पदार्थ में खुलकर खेलने का अवसर मिले। भौतिकवाद मानव की पाशविक आत्मा से भिन्न हैं, अपने नहीं हैं। इन सांयोगिक उपलब्धियों में वृत्तियों के नियन्त्रण का प्रयास तो करता है, किन्तु वह उस दृष्टि का ममत्वबुद्धि दुःख-परम्परा का कारण है, अत: आनन्द की प्राप्ति हेतु उन्मूलन नहीं करता है, जो कि इस पाशविक वृत्तियों का मूल उद्गम इनके प्रति ममत्वबुद्धि का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है। संक्षेप में है। उसका प्रयास जड़ों को सींचकर शाखाओं के काटने का प्रयास देहादि आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग और भौतिक है। वह रोग के कारणों को खोजकर उन्हें समाप्त नहीं करता है, अपितु उपलब्धियों के स्थान पर आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि मात्र रोग के लक्षणों को दबाने का प्रयास करता है। यदि जीवन की को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना अध्यात्मविद्या और जैनधर्म मूल दृष्टि भौतिक उपलब्धि और दैहिक वासनाओं की सन्तुष्टि हो तो का मूलतत्त्व है और यही मानव जाति के मङ्गल का मार्ग है, क्योंकि स्वार्थ और शोषण का चक्र भी समाप्त नहीं होगा। उसके लिए हमें इसी के द्वारा आधुनिक मानव को आन्तरिक एवं बाह्य तनावों से मुक्त जीवन के उच्च मूल्यों या आदर्शों को स्वीकार करना होगा। जब तक कर निराकुल बनाया जा सकता है। एक आध्यात्मिक दृष्टि के आधार पर सामाजिकता को विकसित नहीं किया जाता है, तब तक आरोपित सामाजिकता से मानव की स्वार्थ ममता का विसर्जन / दुःख का निराकरण एवं शोषण की वृत्तियों का वास्तविक रूप में निराकरण असम्भव है। आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि
शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जाये। जैन धर्म दुःख का मूल ममता
के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। भगवान् महावीर ने इस तथ्य को गहराई से समझा था कि निशीथभाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का भौतिकवाद मानवीय दुःखों की मुक्ति का सम्यक्-मार्ग नहीं है, क्योंकि साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। शरीर शाश्वत आनन्द वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता जिससे दुःख-परम्परा की के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी यह धारा प्रस्फुटित होती है। वे उत्तराध्ययन सूत्र में कहते हैं कि है, महत्त्व भी है और उसका सार-सम्भाल भी करना है। किन्तु ध्यान "कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि” अर्थात् रहे, दृष्टि नौका पर नहीं, कूल पर होना है, नौका साधन है, साध्य समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल कारण कामासक्ति है। नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप भौतिकवाद के पास इस कामासक्ति या ममत्वबुद्धि को समाप्त करने में स्वीकृति जैन धर्म और सम्पूर्ण अध्यात्मविद्या का हार्द है। यह वह का कोई उपाय नहीं है। न केवल जैन धर्म ने अपितु लगभग सभी विभाजक रेखा है, जो अध्यात्म. और भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती धर्मों ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों है। भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धियाँ या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्वबुद्धि है। यदि हम मानव हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तद्जनित दुःखों से हैं। जैन धर्म की भाषा में कहें तो साधक का वस्तुओं का त्याग और मुक्त करना चाहते हैं तो हमें भौतिकावादी दृष्टि का परित्याग कर उस वस्तुओं का ग्रहण दोनों ही संयम (समत्व) की साधना के लिए हैं। आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा जिसके अनुसार भौतिक जैन धर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है, जो कि हमें यह मानना होगा कि दैहिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे अन्य कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति उच्च मूल्य भी हैं। आध्यात्म-दृष्टि अन्य कुछ नहीं, अपितु इन उच्च या अस्वीकृति का नहीं है; अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन मूल्यों की स्वीकृति है। जैन-धर्म के अनुसार अध्यात्म का अर्थ है- में समत्व के संस्थापन का है। अत: जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक परार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्म को परम मूल्य मानना। पदार्थवादी और भौतिक उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती हैं, वहाँ तक वे दृष्टि मानवीय दु:खों और सुखों का आधार 'वस्तु' या बाह्य परिस्थिति स्वीकार्य हैं और जहाँ तक वे उसमें बाधक हैं वहाँ तक त्याज्य हैं।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
भगवान् महावीर ने आचाराङ्गसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र में इस बात को या विश्वास। अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं। जबकि बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरुढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है, न जैन, न बौद्ध, न सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं ईसाई, न इस्लाम। ये सब नाम आरोपित हैं। हमारा सच्चा धर्म तो है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण वही है जो हमारा निज-स्वभाव है। इसीलिये जैन आचार्यों ने 'वत्थु सुखद या दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं सहावो धम्मो' के रूप में धर्म को पारिभाषित किया है। प्रत्येक के अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, लिये जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है, स्व-स्वभाव क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिये धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या इसीलिये गीता में कहा गया है 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' वीतराग के लिए नहीं। अत: जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन (गीता, ३/३५)। परधर्म अर्थात् दूसरे के स्वभाव को इसलिये भयावह की है, जीवन के निषेध की नहीं, क्योकि उसकी दृष्टि में ममत्व या कहा गया, क्योंकि वह हमारे लिये स्वभाव न होकर विभाव होगा और आसक्ति ही वैयक्तिक और समाजिक जीवन की समस्त विषमताओं जो विभाव है, वह धर्म न होकर अधर्म ही होगा। अत: आपका धर्म का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दुःखों वही है जो आपका निज-स्वभाव है। किन्तु आप सोचते होंगे कि बात का निराकरण सम्भव है।
अधिक स्पष्ट नहीं हुई। इससे हम कैसे जान लें कि हमारा धर्म क्या धर्म साधना का उद्देश्य है- व्यक्ति को शान्ति प्रदान करना, है? वस्तुत: हमें अपने धर्म को समझने के लिए अपने स्वभाव या किन्तु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे अपनी प्रकृति को जानना होगा। किन्तु यहाँ यह बात भी समझ लेनी हैं- एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा होगी कि अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना है। शान्तिप्रदाता धर्म ही आज अशान्ति का कारण बन गया है। वस्तुतः स्वभाव या प्रकृति मान लेते हैं। अत: हमें स्वभाव और विभाव में इसका कारण धर्म नहीं, अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। अन्तर को समझ लेना है। स्वभाव वह है, जो स्वत: (अपने आप) हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमने 'धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे होता है और विभाव वह है, जो दूसरे के कारण होता है, जैसे पानी क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गये हैं। में शीतलता स्वाभाविक है, किन्तु उष्णता वैभाविक है, क्योंकि उसके आयें देखें धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है?
लिये उसे आग के संयोग की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में,
जिसे होने के लिये किसी बाहरी तत्त्व की अपेक्षा है वह सब विभाव धर्म का स्वरूप
है, पर-धर्म है। शीतलता पानी का धर्म है और जलाना आग का धर्म - धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई है। पुनः जिस गुण को छोड़ा जा सकता है वह उस वस्तु का धर्म जाती है। धर्म क्या है? इस प्रश्न के आजतक अनेक उत्तर दिये गये नहीं हो सकता है। किन्तु जो गुण पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता हैं, किन्तु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा है वही उस वस्तु का स्व-धर्म होता है। आग चाहे किसी भी रूप गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करता है। वे कहते हैं -
में हो वह जलायेगी ही, पानी चाहे आग के संयोग से कितना ही धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । गरम क्यों न हो यदि उसे आग पर डालेंगे तो वह आग को शीतल रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। ही करेगा। आप सोचते होंगे कि आग और पानी की धर्म की इस
वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह चर्चा से मनुष्य के धर्म को हम कैसे जान पायेंगे? यहाँ इस चर्चा दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) की उपयोगिता यही है कि हम स्वभाव और विभाव का अन्तर समझ भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव लें, क्योंकि अनेक बार हम आरोपित गुणों को ही स्वभाव मानने की को धर्म कहा गया है, आयें जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। भूल कर बैठते हैं, अक्सर हम कहते हैं उसका स्वभाव क्रोधी है। सामान्यतया धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध स्वभाव है या हो भी सकता है? में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता बात ऐसी नहीं है। इस कसौटी पर क्रोध और शान्ति के दो गुणों है तो यहाँ धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता को कसिये और देखिये, इनमें से मनुष्य का स्वधर्म क्या है? पहली है। किन्तु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा बात तो यह है कि क्रोध कभी स्वत: नहीं होता, बिना किसी बाहरी करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य का कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं। गुस्से या क्रोध का कोई न कोई धर्म है तो यहाँ धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्व। इसी प्रकार बाह्य कारण अवश्य होता है, गुस्सा कभी अकारण नहीं होता है। साथ जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाई है, ही गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरुरी है, गुस्सा या क्रोध तो हम एक तीसरी ही बात कहते हैं। यहाँ धर्म का मतलब है किसी बिना किसी प्रतिपक्षी के स्वत: नहीं होता है, अकेले में नहीं होता दिव्य-सत्ता, सिद्धान्त या साधना-पद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा, आस्था है। किसी गुस्से से भरे आदमी को अकेले में ले जाइये, आप देखेंगे
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उसका गुस्सा धीरे-धीरे शान्त हो रहा है- गुस्से के बाह्य कारणों करते हैं अर्थात् चेतना के सन्तुलन को भंग करते हैं, विभाव के सूचक एवं प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा ठहर नहीं सकता है। पुनः हैं, इसीलिये अधर्म हैं। अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्व, गुस्सा आरोपित है, वह छोड़ा जा सका है, कोई भी व्यक्ति चौबीसों तृष्णा, काम, क्रोध, अहङ्कार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और घण्टे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता, किन्तु शान्त रह सकता क्षमा, शान्ति, अनासक्ति, निर्वैरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता है। अत: मनुष्य के लिये क्रोध विधर्म है, अधर्म है और शान्ति स्वधर्म आदि को धर्म कहते हैं, ऐसा क्यों है? बात स्पष्ट है। प्रथम वर्ग के है, निजगुण है। क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका निर्णय इसी तथ्य जहाँ हमारी आकुलता को बढ़ाते हैं, हमारे मन में विक्षोभ और पद्धति से सम्भव है।
चेतना में तनाव (Tension) उत्पन्न करते हैं वहीं दूसरे वर्ग के तथ्य ___हमारे सामने मूल प्रश्न तो यह है कि मनुष्य का धर्म क्या है? उस आकुलता, विक्षेभि या तनाव को कम करते हैं, मिटाते हैं। इस प्रश्न के उत्तर के लिये हमें मानव-प्रकृति या मानव-स्वभाव को पूर्वोक्त गाथा में क्षमादि भावों को जो धर्म कहा गया है, उसका आधार जानना होगा। जो मनुष्य का स्वभाव होगा वही मनुष्य के लिये धर्म यही है। होगा। हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या मानसिक विक्षोभ या तनाव हमारा स्वभाव या स्वलक्षण इसलिये हैं? मानव अस्तित्व द्विआयामी (Two Dimensional) है। मनुष्य नहीं माना जा सकता है क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते हैं, उसका विवेकात्मक चेतना से युक्त एक शरीर है। शरीर और चेतना यह हमारे निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना चाहते हैं, मिटाना अस्तित्व के दो पक्ष हैं, किन्तु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता। पुन: राग, आसक्ति, जीवन एवं चेतना ही है, चेतन-जीवन के अभाव में शरीर का कोई ममत्व, अहङ्कार, क्रोध आदि सभी 'पर' की अपेक्षा करते हैं, उनके मूल्य नहीं है। शरीर का महत्त्व तो है, किन्तु वह उसकी चेतन-जीवन विषय 'पर' हैं। उनकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। राग, आसक्ति से युति पर निर्भर है। चेतन-जीवन स्वतः मूल्यवान् है और शरीर या ममत्व किसी पर होगा। इसी प्रकार क्रोध या अहङ्कार की अभिव्यक्ति परत: मूल्यावान् है। जिस प्रकार कागजी मुद्रा का स्वयं में कोई मूल्य भी दूसरे के लिये है। इन सबके कारण सदैव ही बाह्य जगत् में होते नहीं होता उसका मूल्य सरकार की साख पर निर्भर करता है, उसी हैं, ये स्वत: नहीं होते, परत: होते हैं। इसीलिये ये आत्मा के विभाव प्रकार शरीर का मूल्य चेतन-जीवन की शक्ति पर निर्भर करता है। कहे जाते हैं और जो भी विभाव हैं, वे सब अधर्म हैं। जबकि जो हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना है। चेतन-जीवन ही वास्तविक स्वभाव है या विभाव से स्वभाव की ओर लौटने के प्रयास हैं वे सब जीवन है। चेतना के अभाव में शरीर को 'शव' कहा जाता है। चेतना धर्म हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है जिसका ही एक ऐसा तत्त्व है जो 'शव' को 'शिव' बना देता है। अत: जो अर्थ होता है- धारण करना। सामान्यतया जो प्रजा को धारण करता चेतना का स्वभाव होगा वही हमारा वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने है, वह धर्म है, 'धर्मो धारयते प्रजा'। इस रूप में धर्म को परिभाषित 'धर्म' को समझने के लिये 'चेतना' के स्वलक्षण को जानना होगा। किया जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि में जो हमारे अस्तित्व या सत्ता के चेतना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान् महावीर और गौतम द्वारा धारित है अथवा जिसके आधार, अस्तित्व या सत्ता रही हुई है के बीच हुए एक सम्वाद में मिलता है। गौतम पूछते हैं- भगवन्! वही 'धर्म' है। किसी भी वस्तु का धर्म वही है जिसके कारण वह आत्मा क्या है? और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है? महावीर वस्तु उस वस्तु के रूप में अपना अस्तित्व रखती है और जिसके उत्तर देते हैं- गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' अभाव में उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाती है। उदाहरण के लिये को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है (भगवतीसूत्र)। यह बात विवेक और संयम के गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में कोई न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है अपितु जीवशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अन्तर नहीं रहेगा, यदि विवेक और संयम के गुण हैं तो ही मनुष्य, दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology) के अनुसार चेतन जीव मनुष्य है। का लक्षण आन्तरिक और बाह्य संतुलन को बनाये रखना है। फ्रायड यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है- चैत्त जीवन और को 'धर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोप और तनाव को मिटाकर का अर्थ होगा- जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाये रखता है, वही समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्वों धर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती से ऊपर उठकर शान्त, निर्द्वन्द्व मन: स्थिति को प्राप्त करना यह हमारी हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है।
करती हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशान्ति में कारणभूत विश्व के लगभग सभी धर्मों ने समाधि, समभाव या समता को होती हैं, अधर्म हैं। इसीलिये तृष्णा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता धार्मिक जीवन का मूलभूत लक्षण माना है। आचाराङ्गसूत्र में 'समियाए आदि को अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि को धर्म धम्मे आरियेहिं पवेइए' (१/८/३) कहकर धर्म को 'समता' के रूप कहा गया है, क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभाविक में परिभाषित किया गया है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। वस्तुतः वृत्ति का रक्षण करते हैं, वे धर्म हैं और उसे जो खण्डित करते हैं, वे सभी तत्त्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न वे अधर्म हैं। यद्यपि धर्म की यह व्याख्या दूसरों के सन्दर्भ में है,
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इसे समाज धर्म कह सकते हैं।
स्वभाव या आत्मधर्म ऐसा तत्त्व है जो बाहर से लाया नहीं जाता है, वह तो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है जैसे आग के संयोग के हटते ही पानी स्वतः शीतल हो जाता है, वैसे ही धर्म के लिये कुछ करना नहीं होता, केवल अधर्म को छोड़ना होता है, विभावदशा को दूर करना होता है, क्योंकि उसे ही छोड़ा या त्यागा जा सकता है जो आरोपित होता है और वह विभाव होगा, स्वभाव नहीं। धर्म साधना के नाम पर जो भी प्रयास हैं, वे सब अधर्म को त्यागने के लिये है, विभाव- दशा को मिटाने के लिये हैं धर्म तो आत्मा की शुद्धता है, उसे लाना नहीं है, क्योंकि वह बाहरी नहीं है, केवल विषय कषाय रूप मल को हटाना है। जैसे बादल के हटते प्रकाश स्वतः प्रकट हो जाता है वैसे ही अधर्म या विभाव के हटते धर्म या स्वभाव प्रकट हो जाता है। इसीलिये धर्म ओढ़ा नहीं जाता है, धर्म जिया जाता है। अधर्म आरोपित होता है, वह एक दोहरा जीवन प्रस्तुत करता है, क्योंकि उसके पापखण्ड भी दोहरे होते हैं। अधार्मिकजन दूसरों से अपने प्रति जिस व्यवहार की अपेक्षा करता है, दूसरों के प्रति उसके ठीक विपरीत व्यवहार करना चाहता है। इसीलिये धर्म की कसौटी आत्मवत् व्यवहार माना गया 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार हैनिश्छलता, सरलता, स्पष्टता; जहाँ भी इनका अभाव होगा, वहाँ धर्म को जिया नहीं जायेगा अपितु ओढ़ा जायेगा वहाँ धर्म नहीं, धर्म का दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि वह धर्म का दम्भ अधार्मिकता से अधिक खतरनाक है क्योंकि इसमें अधर्म, धर्म की पोषाक को ओढ़ लेता है, वह दीखता धर्म है, किन्तु होता है अधर्म । मानव जाति का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिये धर्म के नाम पर अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्याण कर्मकाण्डों से जोड़ दिया गया है, क्या पहनें और क्या नहीं पहनें, क्या खायें और क्या नहीं खायें, प्रार्थना के लिये मुँह किस दिशा में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो, पूजा के द्रव्य क्या हो? आदि आदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किन्तु निश्चय ही ये धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है— समाधि, शान्ति, निराकुलता । धर्म तो सहज और स्वाभाविक है। दुर्भाय यही है कि आज लोग धर्म के नाम पर बहुत कुछ कर रहे हैं परन्तु अधर्म या विभावदशा को छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है, इसीलिये आज का धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे किसी दुर्गन्ध के ढेर को स्वच्छ सुगन्धित आवरण से ढक दिया गया हो। यह बाह्य प्रतीति से सुन्दर होती है किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है। यह तथाकथित धर्म ही धर्म के लिये सबसे बड़ा खतरा है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिये धर्म किया जाता है। आज धर्म के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसे ही है जैसे कोई रोगी दवा तो
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
ले किन्तु कुपत्य को छोड़े नहीं। धर्म के नाम पर आत्म- प्रवंचना एवं छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्त्व के बारे में हमारा गहरा अज्ञान। हम धर्म के बारे में जानते हैं किन्तु धर्म को नहीं जानते हैं।
आज हम आत्म-धर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या है, इसे समझा ही नहीं है और निष्माण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों को ही धर्म मान बैठे हैं। आज हमारे धर्म चौके-चूल्हे में, मन्दिरों-मस्जिदों और उपासना गृहों में सीमित हो गये हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क नहीं है। इसीलिये वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है किसी शायर ने ठीक ही कहा है
मस्जिद तो बना दी पल भर में इमां की हरारत वालों ने । मन वही पुराना पापी रहा, वरसों में नमाजी न हो सका ।।
आज धर्म के नाम पर जो भी किया जाता है उसका सम्बन्ध परलोक से जोड़ा जाता है। आज धर्म उधार सौदा बन गया है और इसीलिए आज धर्म से आस्था उठती जा रही है। किन्तु याद रखिये वास्तविक धर्म उधार सौदा नहीं, नकद सौदा है। उसका फल तत्काल है। भगवान् बुद्ध से किसी ने पूछा कि धर्म का फल इस लोक में मिलता है या परलोक में? उन्होंने कहा था— धर्म का फल तो उसी समय मिलता है। जैसे ही मोह टूटता है, तृष्णा छूटती है, चाह और चिन्ता कम हो जाती है, मन शान्ति और आनन्द से भर जाता है, यही तो धर्म का फल है। हम यदि अपनी अन्तरात्मा से पूछें कि हम क्या चाहते हैं? उत्तर स्पष्ट है हमें सुख चाहिये, शान्ति चाहिये, समाधि या निराकुलता चाहिये और जो कुछ आपकी अन्तरात्मा आपसे माँगती है वही तो आपका स्वभाव है, आपका धर्म है। जहाँ मोह होगा, राग होगा, तृष्णा होगी, आसक्ति होगी, वहाँ चाह बढ़ेगी, जहाँ चाह बढ़ेगी, वहाँ चिन्ता बढ़ेगी और जहाँ चिन्ता होगी वहाँ मानसिक असमाधि या तनाव होगा और जहाँ मानसिक तनाव या विक्षोभ है वहीं तो 'दुःख है, पीड़ा है। जिस दुःख को मिटाने की हमारी ललक है उसकी जड़े हमारे अन्दर हैं, किन्तु दुर्भाग्य यही है कि हम उसे बाहर के भौतिक साधनों से मिटाने का प्रयास करते रहे हैं। यह तो ठीक वैसा ही हुआ जैसे घाव कहीं और हो और मलहम कहीं और लगायें अपरिग्रहवृत्त या अनासक्ति को जो धर्म कहा गया, उसका आधार यही है कि वह ठीक उस जड़ पर प्रहार करता है, जहाँ से दुःख की विषवेल फूटती है, आकुलता पैदा होती है। वह धर्म इसीलिये है कि वह हमें आकुलता से निराकुलता की दिशा में, विभाव से स्वभाव की दिशा में ले जाती है। किसी कवि ने कहा है
चाह गई, चिन्ता मिटी मनुआ भया बेपरवाह। जिसको कुछ न चाहिये, वह शहंशाहों का शहंशाह ।।
निराकुलता एवं आकुलता ही धर्म और अधर्म की सीधी और साफ कसौटी है। जहाँ आकुलता है, तनाव है, असमाधि है वहाँ अधर्म है और जहाँ निराकुलता है, शान्ति है, समाधि है, वहाँ धर्म है। जिन बातों से व्यक्ति में अथवा उनके सामाजिक परिवेश में आकुलता बढ़ती है, तनाव पैदा होता है, अशान्ति बढ़ती है, विषमता बढ़ती है, वे
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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
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सब बातें अधर्म हैं, पाप हैं। इसके विपरीत जिन बातों से व्यक्ति में ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योकि मनुष्य के लिये यह सम्भव और उसके सामाजिक परिवेश में निराकुलता आये, शान्ति आये, तनाव नहीं है कि उसके जीवन में उतार और चढ़ाव नहीं आये। सुख-दु:ख, घटे, विषमता समाप्त हो, वे सब धर्म हैं। धार्मिकता के आदर्श के लाभ-अलाभ, मान-अपमान आदि ये जीवन-चक्र के दुर्निवार पहलू रूप में जिस वीतराग, वीततृष्णा और अनासक्त जीवन की कल्पना हैं, कोई भी इनसे बच नहीं सकता। जीवन-यात्रा का रास्ता सीधा और की गई है, उसका अर्थ यही है कि जीवन में निराकुलता, शान्ति और सपाट नहीं है, उसमें उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। बाह्य परिस्थितियों समाधि आए। धर्म का सार यही है, फिर चाहे हम इसे कुछ भी नाम पर आपका अधिकार नहीं है, आपके अधिकार में केवल एक ही बात क्यों न दें। श्री सत्यनारायणजी गोयनका कहते हैं -
है, वह यह कि आप इन अनुकूल और प्रतिकूल स्थितियों में अपने धर्म न हिन्दू बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम जैन ।
मन को, अपनी चेतना को निराकुल और अनुद्विग्न बनाये रखें; मानसिक धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शान्ति सुख चैन ।।
समता और शांति को भंग नहीं होने दें। यही धर्म है। श्री गोयनका कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय ।
जी के शब्दों मेंविकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय ।।
सुख दुःख आते ही रहें, ज्यों आवे दिन रैन । यही धर्म की परख है, यही धर्म का माप ।
तू क्यों खोवे बावला, अपने मन की चैन ।। जन-मन का मंगल करे, दूर करे सन्ताप ।।
अत: मन की चैन नहीं खोना ही धर्म और धार्मिकता है। जो जिस प्रकार मलेरिया, मलेरिया है, वह न जैन है, न बौद्ध है व्यक्ति जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी न हिन्दू और न मुसलमान, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चित्त की शान्ति नहीं खोता है, वही धार्मिक है उसी के जीवन में आध्यात्मिक विकृतियाँ हैं, वे भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं, हम धर्म का अवतरण हुआ है। कौन धार्मिक है और कौन अधार्मिक है, ऐसा नहीं कहते हैं कि यह हिन्दू क्रोध है यह जैन या बौद्ध क्रोध इसकी पहचान यही है कि किसका चित्त शान्त है और किसका अशान्त। है। यदि क्रोध हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं है तो फिर उसका उपशमन जिसका चित्त या मन अशान्त है वह अधर्म में जी रहा है, विभाव भी हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं कहा जा सकता है। विकार, विकार है में जी रहा है और जिसका मन या चित्त शांत है वह धर्म में जी रहा
और स्वास्थ्य, स्वास्थ्य है, वे हिन्दू, बौद्ध या जैन नहीं हैं। जिन्हें है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि हम हिन्दू, जैन, बौद्ध या अन्य किसी धर्म के नाम से पुकारते हैं, अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुन्दर चित्रण वह विकारों के उचार की शैली विशेष है जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक, उर्दू शायर ने किया है, वह कहता है - यूनानी, होम्योपैथी आदि शारीरिक रोगों के उपचार की पद्धति है। लायी हयात आ गये, कजा ले चली चले चले।
न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये।। समता धर्म/ममता अधर्म
जिन्दगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुलता और धर्म क्या है? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही शान्त बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन है कि वह सब धर्म है, जिसमें मन की आकुलता समाप्त हो, चाह में हुआ है। धार्मिकता की कसौटी पर नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ और चिन्ता मिटे तथा मन निर्मलता, शांति, समभाव और आनन्द किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं, अपितु यही है कि तुम्हारा से भर जाये। इसीलिये महावीर ने धर्म को समता या समभाव के मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह रूप में परिभाषित किया था। समता ही धर्म है और ममता अधर्म और चिन्ता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह है। वीतराग, अनासक्त और वीततृष्णा होने में जो धार्मिक आदर्श की चाह और चिन्ता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और परिपूर्णता देखी गई, उसका कारण भी यही है कि यह आत्मा की दुकान की हो, मठ और मन्दिर की, धन-सम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा निराकुलता या शान्ति की अवस्था है। आत्मा की इसी निराकुल दशा की, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। को हिन्दू और बौद्ध परम्परा में समाधि तथा जैन परम्परा में सामायिक जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन या समता कहा गया है। हमारे जीवन में धर्म है, या नहीं है इसको की भट्टी सुलग रही है, धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का जानने की एकमात्र कसौटी यह है कि सुख-दुःख, मान-अपमान, मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की अनुकूल एवं प्रतिकूल अवस्थाओं विद्वेष और तृष्णा की आग शान्त हो। इसीलिये गीता कहती हैमें हमारा मन कितना अनुद्विग्न और शान्त बना रहता है। यदि अनुकूल दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृहः । परिस्थितियों में मन में सन्तोष न हो चाह और चिन्ता बनी रहे तथा वीतराग भयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ।। गीता २/५६। प्रतिकूल स्थितियों में मन दुःख और पीड़ा से भर जावे तो हमें समझ जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख लेना चाहिये कि जीवन में अभी धर्म नहीं आया है। धर्म का सीधा की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन में ममता, सम्बन्ध हमारी जीवनदृष्टि और जीवनशैली से है। बाह्य परिस्थितियों भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्ति धार्मिक है, स्थिर बुद्धि से हमारी चेतना जितनी अधिक अप्रभावित और अलिप्त रहेगी उतना है, मुनि है। वस्तुतः चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन
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में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा निज-धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकुलता का मतलब है आत्मा की 'पर' (पदार्थों) में उन्मुखता और निराकुलता का मतलब है 'पर' से विमुख होकर स्व में स्थिति इसीलिए जैन परम्परा में पर परिणति को अधर्म और आत्म परिणति को धर्म कहा गया है।
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मानव धर्म
धर्म क्या है? इस प्रश्न पर अभी तक हमने इस दृष्टिकोण से विचार किया था कि एक चेतन सत्ता के रूप में हमारा धर्म क्या है? अब हम इस दृष्टि से विचार करेंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? दूसरे प्राणियों से मनुष्य को जिन मनोवैज्ञानिक आधारों से अलग कर सकते हैं, वे हैं- आत्मचेतनता, विवेकशीलता और आत्मसंयम । मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों में इन गुणों का अभाव देखा जाता हैं। मनुष्य न केवल चेतन है, अपितु आत्मचेतन है। उसकी विशेषता यह है कि उसे अपने ज्ञान की, अपनी अनुभूति की अथवा अपने भावावेशों की भी चेतना होती है। मनुष्य जब क्रोध या काम की भाव- दशा में होता है तब भी वह यह जानता है कि मुझे क्रोध हो रहा है या काम सता रहा है। पशु को क्रोध होता है किन्तु वह यह नहीं जानता कि मैं क्रोध में हूँ। उसका व्यवहार काम से प्रेरित होता है किन्तु वह यह नहीं जानता है कि काम मेरे व्यवहार को प्रेरित कर रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से पशु का व्यवहार मात्र मूलप्रवृत्यात्मक (Instinctive) है; जो अंध प्रेरणा मात्र है, किन्तु मनुष्य का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता है। उसमें आत्मचेतनता है।
चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज-धर्म या स्व-स्वभाव इसीलिए है कि यह हमारी स्वाभाविक माँग है, स्वाश्रित है अर्थात् अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिन्ता, आपके मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता ) स्वाश्रित है इसीलिए स्वधर्म है, जबकि ममता और तज्जनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए विधर्म है, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वही आनन्द को प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनन्द और शान्ति कहाँ? यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिये कि पदार्थों के प्रति ममत्वभाव और उनके उपभोग में अन्तर है। धर्म उनके उपभोग का विरोध नहीं करता है अपितु उनके प्रति ममत्वं- बुद्धि या ममता के भाव का विरोध करता है जो पराया है उसे अपना समझ लेना, मान लेना अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते हैं इसे भी शास्त्रों में अनात्म में आत्म-बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली नहीं है, उसी प्रकार उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना ही दुःख का कारण है और जो दुःख का कारण है वही अधर्म है, पाप है। आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुन्दर बात कही है
सुख-दुःख दोनों एक से, मान और अपमान । चित्त विचलित होये नहीं, तो सच्चा कल्याण ।। जीवन में आते रहें, पतझड़ और बसन्त । मन की समता न छूटे, तो सुख-शान्ति अनन्त ॥ विषम जगत में चित्त की, समता रहे अटूट । तो उत्तम मंगल जगे, होय दुःखों में छूट ॥
समता स्वभाव है और ममता विभाव है। ममता छूटेगी तो समता अपने आप आ जायेगी। स्वभाव बाहरी नहीं है, अतः उसे लाना भी नहीं है, मात्र विभाव को छोड़ना है। रोग या बिमारी हटेगी तो स्वस्थता तो आयेगी ही। इसलिए प्रयत्न बिमारी को हटाने के लिए करना है। जिस प्रकार बिमारी बनी रहे और आप पुष्टिकारक पथ्य लेते रहे तो वह लाभकारी नहीं होता है, उसी प्रकार जब तक मोह और ममता बनी रहेगी, समता जीवन में प्रकट नहीं होगी। जब मोह और ममता के बादल छटेंगे तो समता का सूर्य स्वतः ही प्रकट हो जायेगा। जब मोह और ममता की चट्टानें टूटेंगी तो समता के शीतल जल का झरना स्वतः ही प्रकट होगा। जिसमें स्नान करके युग-युग का ताप शीतल हो जायेगा।
मनुष्य और पशु में सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर आत्मचेतनता के सम्बन्ध में है। जहाँ भी व्यवहार और आचरण मात्र मूल प्रवृत्ति या अन्ध प्रेरणा से चालित होता है वहाँ मनुष्यत्व नहीं, पशुत्व ही प्रधान होता है, ऐसा मानना चाहिये। मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि अपने व्यवहार और आचरण के प्रति उसमें आत्मचेतनता या सजगता हो । यही सजगता उसे पशुत्व से पृथक् करती है। मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने व्यवहार का द्रष्टा या साक्षी है। उसमें ही यह क्षमता है कि कर्ता और दृष्टा दोनों की भूमिकाओं में अपने को रख सकता है। वह अभिनेता और दर्शक दोनों ही है । उसका हित इसी में है कि वह अभिनय करके भी अपने दर्शक होने की भूमिका को नहीं भूले। यदि उसमें यह आत्मचेतनता अथवा द्रष्टा भाव या साक्षी भाव नहीं रहता है तो हम यह कह सकते हैं कि उसमें मनुष्यता की अपेक्षा पशुता ही अधिक है। मनुष्य में परमात्मा और पशु दोनों ही उपस्थित है वह जितना आत्मचेतन या अपने प्रति सजग बनता है, उसमें उतना ही परमात्मा का प्रकटन होता है और जितना असावधान रहता है, भावना और वासनाओं के अन्ध प्रवाह में बहता है, उतना ही पशुता के निकट होता है। जो हमें परमात्मा के निकट ले जाता है वही धर्म है और जो पशुता के निकट ले जाता है वही अधर्म है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि एक मनुष्य के रूप में आत्मचेतनता मनुष्य का वास्तविक धर्म है। इसी आत्मचेतनता को ही शास्त्रों में अप्रमाद कहा गया है। मनुष्य जिस सीमा तक आत्मचेतन है, अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का दर्शक है उसी सीमा तक वह मनुष्य है, धार्मिक है, क्योंकि वह आत्मचेतन होना या आत्मद्रष्टा होना ऐसा आधार है जिससे मानवीय विवेक और सदाचरण का विकास सम्भव है बीमारी से छुटकारा पाने
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धर्म का मर्म : जैन दृष्टि
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के लिये पहले उसी बीमारी के रूप में देखना और जानना जरुरी है। है, अपने प्रति सजग बनता है, वह भावावेशों से ऊपर उठता जाता यही आत्मचेतनता अथवा साक्षी-भाव या द्रष्टा-भाव ही एक ऐसा तत्त्व है। पूर्ण आत्मचेतना की स्थिति में आवेश या आवेग नहीं रह पायेंगे, है जिस पर धर्म की आधारशिला खड़ी हुई है। जैन आगमों में अप्रमाद और आवेश के अभाव में हिंसा सम्भव नहीं है। अत: आत्मचेतनता को धर्म (अकर्म) और प्रमाद को अधर्म (कर्म) कहा गया है। प्रमाद के साथ हिंसा का कर्म सम्भव ही नहीं होगा। अनुभव और आधुनिक का सीधा और साफ अर्थ है आत्मचेतनता या आत्मजागृति का अभाव। मनोविज्ञान दोनों ही इस बात का समर्थन करते हैं कि दुष्कर्म जितना अप्रमत्त वही है जो मनोभावों और प्रवृत्तियों का द्रष्टा है। मनुष्य की बड़ा होगा, उसे करते समय व्यक्ति उतने ही भावावेश में होगा। हत्याएँ, मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में है कि वह सदैव अपने आचार बलात्कार आदि सभी दुष्कर्म भावावेशों में ही सम्भव होते हैं। वासना
और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना का आवेग जितना तीव्र है, आत्मचेतना उतनी ही धूमिल होती है, सजग होनी चाहिये। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय कुण्ठित होती है और उसी स्थिति में पाप का या बुराइयों का उद्भव चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की होता है। रागाभाव, ममत्व, आसक्ति, तृष्णा आदि को इसीलिए पाप चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति और अधर्म के मूल माने गये हैं, क्योंकि ये आवेगों को उत्पन्न कर यदि आप पूरी तरह से आत्मचेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हमारी सजगता को कम करते हैं। जब भी व्यक्ति काम में होता है, हैं। जिसे हम सम्यक्-दर्शन कहते हैं मेरी धारणा में उसका अर्थ यही क्रोध में होता है लोभ में होता है अपने आप को भूल जाता है, उसके आत्मदर्शन या आत्मजागृति अथवा द्रष्टा एवं साक्षी-भाव की स्थिति आवेग इतने तीव्र बनते जाते हैं कि वह आत्मविस्तृत होता जाता है, है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मद्रष्टा होने का मतलब है खुद के । अपना आपा खो बैठता है, अत: वे सब बातें जो आत्म-विस्मृति लाती अन्दर झांकना; अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं हैं पाप मानी गई हैं, अधर्म मानी गयी हैं। वस्तुत: धर्म और अधर्म को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता की एक कसौटी यह है कि जहाँ आत्म-विस्मृति है वहाँ अधर्म है और है वही आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने जहाँ आत्म-स्मृति है, आत्म चेतना है, सजगता है, वहाँ धर्म है। विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं दूसरी बात, जिस आधार पर हम मनुष्य और पशु में कोई अन्तर बन सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसी आत्मचेतनता को स्मृति के रूप कर सकते हैं और जिसे मानव की विशेषता या स्वभाव कहा जा सकता में पारिभाषित किया है। सम्यक्-स्मृति बौद्ध धर्म के साधनामार्ग का है वह है, विवेकशीलता। अक्सर मनुष्य की परिभाषा हम एक बौद्धिक एक महत्त्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह प्राणी के रूप में करते हैं और मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है तो निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाये रखो। धम्मपद यह विवेक या ज्ञान का तत्त्व ही एक ऐसा तत्त्व है जो इसे पशु से में वे कहते हैं- अपमादो अमत पदं पमादो मच्चुनो पदं' अर्थात् पृथक् कर सकता है। कहा भी गया हैअप्रमाद ही अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। आहारनिद्राभयमैथुनश्च सामान्यमेतद् पशुभिः नाराणाम् । स्मृतिवान होना, सजग, अप्रमत्त होना यह धर्म और धार्मिकता की ज्ञानो ही तेषां अधिको विशेषो, ज्ञानेन हीना नर: पशुभिः समाना।। आवश्यक कसौटी है। आचाराङ्ग में भगवान् महावीर ने एक बहुत ही हम से यह पूछा जा सकता है कि यह विवेकशीलता क्या है? सुन्दर बात कही है- 'सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् वस्तुत: यदि हम सरल भाषा में कहें तो किसी भी क्रिया के करने जो सोया हुआ है, सजग या आत्मचेतन नहीं है वह अमुनि है और के पूर्व उसके सम्भावित अच्छे और बुरे परिणामों पर विचार कर लेना जो सजग है, जागृत है, आत्मचेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह ही विवेक है। हम जो कुछ करने जा रहे हैं या कर रहे हैं उसका विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, परिणाम हमारे लिये या समाज के लिए हितकर है या अहितकर इस अपने अन्दर झाँक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी बात का विचार कर लेना ही विवेक है। यदि आप अपने प्रत्येक आचरण गन्दगी को देख सकता है। आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब को सम्पादित करने के पहले उसके परिणामों पर पूरी सावधानी के यही है कि हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, साथ विचार करते हैं तो आप विवेकशील माने जा सकते हैं। जिसमें भावावेशों, विषय-विकारों, राग-द्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया, अपने हिताहित या दूसरों के हिताहित को समझने की शक्ति है वही लोभादि कषायों के प्रति सजग रहें, सावधान रहें, उन्हें देखते रहें। विवेकशील या धार्मिक हो सकता है। जो व्यक्ति अपने और दूसरों समकालीन मानवतावादी विचारकों में वारनर फिटे ऐसे विचारक हैं, के हिताहितों पर पूर्व में विचार नहीं करता है वह कभी भी धार्मिक जो यह मानते हैं कि आत्मचेतनता (Selfawarenessही एक ऐसी नहीं कहला सकता। यह बात बहुत स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने प्रत्येक स्थिति है जिसे किसी कर्म की नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी आचरण को करने के पहले तौलेगा, उसके हिताहित का विचार करेगा माना जा सकता है। यद्यपि यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि वह कभी भी दुराचरण, अधर्म और अनैतिकता की ओर अग्रसर नहीं क्या आत्मचेतना के साथ या पूरी सजगता के साथ किया जाने वाला हो सकेगा। इसलिए हम कह सकते हैं कि विवेकशील होना मनुष्य हिंसादि कर्म धार्मिक या नैतिक होगा? वस्तुत: इस सम्बन्ध में हमें का एक महत्त्वपूर्ण गुण है और जिस सीमा तक उसमें इस गुण का एक भ्रांति को दूर कर लेना चाहिए। व्यक्ति जितना आत्म-चेतन बनता विकास हुआ है उसी सीमा तक उसमें धार्मिकता है। वस्तुत: जहाँ
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जीवन में विवेकशीलता होगी वहाँ धर्म के नाम पर पनपने वाले छलछ अंधश्रद्धा तथा ढोंग और आडम्बर अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे । यदि हमें धार्मिक होना है तो हमें सबसे पहले विवेकी बनना होगा। जो व्यक्ति सजग नहीं है, जो अपने आचरण और व्यवहार के हिताहित का विचार नहीं करता है वह कदापि धार्मिक नहीं कहा जा सकता। जहाँ भी व्यक्ति में सजगता और विचारशीलता का अभाव है वहीं अधर्म की सम्भावनाएं है। यदि हम आत्मचेतनता को सम्यक् दर्शन कहें तो विवेकशीलता को सम्यक् ज्ञान कहा जा सकता है। जब हमारे आचरण के साथ आत्मचेतनता और विवेकशीलता जुड़ेगी तभी हमारा आचरण धार्मिक बनेगा।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो प्रत्येक आचार और व्यवहार का देश, काल और परिस्थिति के सन्दर्भ में सम्यक् मूल्याङ्कन करता है। विवेक व्यक्ति के मूल्याङ्कन की क्षमता का परिचायक है। विवेक एक ऐसी क्षमता है जो सम्पूर्ण परिस्थिति को दृष्टि में रखकर आचरण के परिणामों का निष्पक्ष मूल्याङ्कन करती है। जीवन में जब विवेक का विकास होता है, तो दूसरों के दुःख और पीड़ा का आत्मवत् दृष्टि से मूल्याङ्कन होता है स्वार्थवृत्ति क्षीण होने लगती है, समता का विकास होता है और जीवन में धर्म का प्रकटन होता है। इस प्रकार विवेक धर्म और धार्मिकता का आवश्यक लक्षण है। धर्म और धार्मिकता का विकास विवेक की भूमि पर ही सम्भव है, अतः विवेक धर्म है।
आप धार्मिक है या नहीं? इसकी सीधी और साफ पहचान यही है कि आप किसी क्रिया को करने के पूर्व उसके परिणामों पर सम्यक् रूप से विचार करते हैं। क्या आप अपने हितों और दूसरों के हितों का समान रूप से मूल्याङ्कन करते हैं? यदि इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो निश्चय ही आप धार्मिक हैं। विवेक के आलोक में विकसित आत्मवत्-दृष्टि ही धर्म और धार्मिकता का आधार है।
मनुष्य और पशु में तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर इस बात को लेकर है कि मनुष्य में संयम की शक्ति है, वह अपने आचार और व्यवहार को नियन्त्रित कर सकता है यदि हम पशु का जीवन देखें तो हमें लगेगा कि वे एक प्राकृतिक जीवन जीते हैं। पशु तभी खाता है जब भूखा होता है। पशु के लिए यह सम्भव नहीं है कि भूखा होने पर खाद्य सामग्री की उपस्थिति में वह उसे न खाये । किन्तु मनुष्य के आचरण की एक विशेषता है, वह भूखा होते हुए भी और खाद्य सामग्री के उपलब्ध होते हुए भी भोजन करने से इन्कार कर देगा दूसरी ओर मनुष्य के लिए यह भी सम्भव है कि भरपेट भोजन के बाद भी वह सुस्वादु पदार्थ उपलब्ध होने पर उन्हें खा लेता है। इस प्रकार मनुष्य में एक ओर आत्मसंयम की सम्भावनाएँ हैं तो दूसरी ओर वासनाओं से प्रेरित हो कर वह एक अप्राकृतिक जीवन भी जी सकता है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि यदि कोई मनुष्य की विशेषता हो सकती है तो वह उसमें निहित आत्म नियन्त्रण या संयम का सामर्थ्य है इसीलिये कहा गया है कि मनुष्य में जैविक आवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता इस बात की है कि उसके आवेगों को कैसे नियन्त्रित
किया जाय? जैविक आवेगों के अनियन्त्रण का जीवन अधर्म का जीवन है। मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ अपनी वासनाओं को संयमित करे यदि वह इतना कर पाता है तो ही उसे हम धार्मिक कह सकते हैं। मनुष्य के धार्मिक होने का मतलब है उसकी चेतना सजग रहे और उसका विवेक वासनाओं को नियन्त्रित करता रहे।
मनुष्य का सामाजिक धर्म
धर्म को जब हम वस्तु स्वभाव के रूप में ग्रहण करते हैं तो हमारे सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि एक मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? मनुष्य का मूल स्वभाव मनुष्यता ही हो सकता है, लेकिन प्रश्न है कि मनुष्यता से हमारा क्या तात्पर्य है? वह कौन सा तत्त्व है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करता है। इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए हमने देखा था कि आत्मचेतना (Self Awareness), विवेक और संयम ये तीन ऐसे तत्त्व हैं जो मनुष्य को अपनी उपस्थिति के कारण पशु से ऊपर उठा देते हैं।
इन सबके साथ ही एक और विशिष्ट गुण मनुष्य का है जो उसे महनीयता प्रदान करता है, वह है उसकी सामाजिक चेतना पाश्चात्य विचारकों ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक प्राणी के रूप में की है सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a social animal) वैसे तो सामूहिक जीवन पशुओं में भी पाया जाता है, किन्तु मनुष्य की यह सामूहिक जीवन शैली उनसे कुछ भिन्न है। पशुओं में पारस्परिक सम्बन्ध तो होते हैं किन्तु उन्हें उन सम्बन्धों की चेतना नहीं होती है। मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन पारस्परिक सम्बन्धों की चेतना होती है और उसी चेतना के कारण उसमें एक-दूसरे के प्रति दायित्व बोध और कर्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की प्रवृत्ति तो होती है, किन्तु वह एक अन्ध मूलप्रवृत्ति है। उस अन्ध-प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में पशु विवश होता है। उसके सामने यह विकल्प नहीं होता है कि वह वैसा आचरण करे या नहीं करे। किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय चेतना स्वतन्त्र होती है उसमें अपने दायित्व बोध की चेतना होती है। किसी उर्दू शायर ने कहा भी है
वह आदमी ही क्या है जो दर्द आशना न हो ! पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं । जैनाचार्य उमास्वाति ने भी न केवल मनुष्य का, अपितु समस्त जीवन का लक्षण पारस्परिक हित साधन को माना है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा है — "परस्परोपग्रहोजीवानाम्।" एक दूसरे के कल्याण में सहयोगी बनना यही जीवन की विशिष्टता है। इसी अर्थ में हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों का हित साधन उसका धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी बनें दूसरे के दुःख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें तथा उसके निराकरण का प्रयत्न करें। जैन आगम आचाराङ्गसूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है।
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"सवे सत्ता ण हंतब्बा,
एस धम् सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए" "अर्थात भूतकाल में जो अर्हतु हुए हैं, वर्तमानकाल में जो अर्हत् और भविष्यकाल में जो अर्हत होंगे, वे सभी एक ही सन्देश देते हैं कि किसी वाणी की, किसी सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उसका घात करना चाहिए, उसे पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए. यही एकमात्र शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है।" इस धर्म की लोक-कल्याणकारी चेतना का कुटन लोक की पीड़ा के निवारण के लिए ही हुआ है और यही का सारतत्त्व है। कहा है-
यही है इबादत, यही है दीनो इमाँ' कि काम आये दुनिया में, इंसां के इंसां ।
दूसरों की पीड़ा को समझकर उसके निवारण का प्रयत्न करना, यही धर्म की मूल आत्मा हो सकती है। सन्त तुलसीदास जी ने भी
कहा है
धर्म का मर्म जैन दृष्टि
:
परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
अहिंसा की चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब मनुष्य में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना का विकास होगा। जब हम दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझेंगे तभी हम लोकमङ्गल की दिशा में अथवा परपीड़ा के निवारण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। परपीड़ा की यह आत्मानुभूति भी वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होनी चाहिए। हम दूसरों की पीड़ा के मूक दर्शक न रहें। ऐसा धर्म और ऐसी अहिंसा, जो दूसरों की पीड़ा की मूक दर्शन बनी रहती है, वस्तुतः वह न धर्म है और न अहिंसा । अहिंसा केवल दूसरों को पीड़ा न देने तक सीमित नाई है, उसमें लोकमङ्गल और लोककल्याण का अजस्र स्रोत भी जाहित है जब लोक पीड़ा अपनी पीड़ा बन जाती है, तभी धार्मिकता का स्रोत अन्दर से प्रवाहित होता है। तीर्थङ्करों अहंतों और बुद्धों ने जब लोक पीड़ा की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे लोककल्याण के लिए सक्रिय बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें अपनी लगती है तब लोककल्याण भी दूसरों के लिए न होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दू शायर अमीर ने कहा हैखजर चले किसी पे, तड़फते हैं हम मीर । सारे जहाँ का दर्द, हमारे जिगर में है ।।
जब सारे जहाँ का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है तो वह लोककल्याण के मङ्गलमयमार्ग पर चल पड़ता है उसका यह चलना बाहरी नहीं होता है उसके सारे व्यवहार में अन्तक्षेतना काम करती है और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) है, इसे ही दायित्व बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है। जब यह दायित्व बोध की सामाजिक चेतना जाग्रत होती है, तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट होती है। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जाग्रत होना ही धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है।
यहि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिए कि हममें धर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों की पीड़ा की आत्मनिष्ठ अनुभूति से जागृत दायित्व बोध की अन्तश्चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रिया-काण्ड, पाखण्ड या ढोंग है उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म के सम्यक् दर्शन, जो कि धार्मिकता की आधारभूमि है— के जो पाँच अङ्ग माने गये हैं, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ है— दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उदभव इसी आधार पर होता है। आचाराङ्गसूत्र में कहा गया है कि "जिस प्रकार में जीना चाहता हूँ, मरना नहीं चाहता हूँ उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत है, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति चाहता हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ उसी प्रकार विश्व के सभी प्राणी सुख के इच्छुक है और दुःख से दूर रहना चाहते हैं।" यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का धर्म का और नैतिकता का विकास होता है।
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जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव अर्थात् समानता का भाव जागृत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक् दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजूं है
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ईमां गलत उसूल गलत, उद्दुआ गलत। इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके ।।
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