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________________ ३५४ जीवन में विवेकशीलता होगी वहाँ धर्म के नाम पर पनपने वाले छलछ अंधश्रद्धा तथा ढोंग और आडम्बर अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे । यदि हमें धार्मिक होना है तो हमें सबसे पहले विवेकी बनना होगा। जो व्यक्ति सजग नहीं है, जो अपने आचरण और व्यवहार के हिताहित का विचार नहीं करता है वह कदापि धार्मिक नहीं कहा जा सकता। जहाँ भी व्यक्ति में सजगता और विचारशीलता का अभाव है वहीं अधर्म की सम्भावनाएं है। यदि हम आत्मचेतनता को सम्यक् दर्शन कहें तो विवेकशीलता को सम्यक् ज्ञान कहा जा सकता है। जब हमारे आचरण के साथ आत्मचेतनता और विवेकशीलता जुड़ेगी तभी हमारा आचरण धार्मिक बनेगा। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो प्रत्येक आचार और व्यवहार का देश, काल और परिस्थिति के सन्दर्भ में सम्यक् मूल्याङ्कन करता है। विवेक व्यक्ति के मूल्याङ्कन की क्षमता का परिचायक है। विवेक एक ऐसी क्षमता है जो सम्पूर्ण परिस्थिति को दृष्टि में रखकर आचरण के परिणामों का निष्पक्ष मूल्याङ्कन करती है। जीवन में जब विवेक का विकास होता है, तो दूसरों के दुःख और पीड़ा का आत्मवत् दृष्टि से मूल्याङ्कन होता है स्वार्थवृत्ति क्षीण होने लगती है, समता का विकास होता है और जीवन में धर्म का प्रकटन होता है। इस प्रकार विवेक धर्म और धार्मिकता का आवश्यक लक्षण है। धर्म और धार्मिकता का विकास विवेक की भूमि पर ही सम्भव है, अतः विवेक धर्म है। आप धार्मिक है या नहीं? इसकी सीधी और साफ पहचान यही है कि आप किसी क्रिया को करने के पूर्व उसके परिणामों पर सम्यक् रूप से विचार करते हैं। क्या आप अपने हितों और दूसरों के हितों का समान रूप से मूल्याङ्कन करते हैं? यदि इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो निश्चय ही आप धार्मिक हैं। विवेक के आलोक में विकसित आत्मवत्-दृष्टि ही धर्म और धार्मिकता का आधार है। मनुष्य और पशु में तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर इस बात को लेकर है कि मनुष्य में संयम की शक्ति है, वह अपने आचार और व्यवहार को नियन्त्रित कर सकता है यदि हम पशु का जीवन देखें तो हमें लगेगा कि वे एक प्राकृतिक जीवन जीते हैं। पशु तभी खाता है जब भूखा होता है। पशु के लिए यह सम्भव नहीं है कि भूखा होने पर खाद्य सामग्री की उपस्थिति में वह उसे न खाये । किन्तु मनुष्य के आचरण की एक विशेषता है, वह भूखा होते हुए भी और खाद्य सामग्री के उपलब्ध होते हुए भी भोजन करने से इन्कार कर देगा दूसरी ओर मनुष्य के लिए यह भी सम्भव है कि भरपेट भोजन के बाद भी वह सुस्वादु पदार्थ उपलब्ध होने पर उन्हें खा लेता है। इस प्रकार मनुष्य में एक ओर आत्मसंयम की सम्भावनाएँ हैं तो दूसरी ओर वासनाओं से प्रेरित हो कर वह एक अप्राकृतिक जीवन भी जी सकता है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि यदि कोई मनुष्य की विशेषता हो सकती है तो वह उसमें निहित आत्म नियन्त्रण या संयम का सामर्थ्य है इसीलिये कहा गया है कि मनुष्य में जैविक आवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता इस बात की है कि उसके आवेगों को कैसे नियन्त्रित Jain Education International किया जाय? जैविक आवेगों के अनियन्त्रण का जीवन अधर्म का जीवन है। मनुष्य का धर्म और धार्मिकता इसी में है कि वह आत्मचेतन होकर विवेकशीलता के साथ अपनी वासनाओं को संयमित करे यदि वह इतना कर पाता है तो ही उसे हम धार्मिक कह सकते हैं। मनुष्य के धार्मिक होने का मतलब है उसकी चेतना सजग रहे और उसका विवेक वासनाओं को नियन्त्रित करता रहे। मनुष्य का सामाजिक धर्म धर्म को जब हम वस्तु स्वभाव के रूप में ग्रहण करते हैं तो हमारे सामने प्रश्न उपस्थित होता है कि एक मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है? मनुष्य का मूल स्वभाव मनुष्यता ही हो सकता है, लेकिन प्रश्न है कि मनुष्यता से हमारा क्या तात्पर्य है? वह कौन सा तत्त्व है जो मनुष्य को पशु से भिन्न करता है। इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए हमने देखा था कि आत्मचेतना (Self Awareness), विवेक और संयम ये तीन ऐसे तत्त्व हैं जो मनुष्य को अपनी उपस्थिति के कारण पशु से ऊपर उठा देते हैं। इन सबके साथ ही एक और विशिष्ट गुण मनुष्य का है जो उसे महनीयता प्रदान करता है, वह है उसकी सामाजिक चेतना पाश्चात्य विचारकों ने मनुष्य की परिभाषा एक सामाजिक प्राणी के रूप में की है सामाजिकता मनुष्य का एक विशिष्ट गुण है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है (Man is a social animal) वैसे तो सामूहिक जीवन पशुओं में भी पाया जाता है, किन्तु मनुष्य की यह सामूहिक जीवन शैली उनसे कुछ भिन्न है। पशुओं में पारस्परिक सम्बन्ध तो होते हैं किन्तु उन्हें उन सम्बन्धों की चेतना नहीं होती है। मनुष्य जीवन की विशेषता यह है कि उसे उन पारस्परिक सम्बन्धों की चेतना होती है और उसी चेतना के कारण उसमें एक-दूसरे के प्रति दायित्व बोध और कर्तव्य-बोध होता है। पशुओं में भी पारस्परिक हित साधन की प्रवृत्ति तो होती है, किन्तु वह एक अन्ध मूलप्रवृत्ति है। उस अन्ध-प्रवृत्ति के अनुसार ही आचरण करने में पशु विवश होता है। उसके सामने यह विकल्प नहीं होता है कि वह वैसा आचरण करे या नहीं करे। किन्तु इस सम्बन्ध में मानवीय चेतना स्वतन्त्र होती है उसमें अपने दायित्व बोध की चेतना होती है। किसी उर्दू शायर ने कहा भी है वह आदमी ही क्या है जो दर्द आशना न हो ! पत्थर से कम है, दिल शरर गर निहा नहीं । जैनाचार्य उमास्वाति ने भी न केवल मनुष्य का, अपितु समस्त जीवन का लक्षण पारस्परिक हित साधन को माना है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा है — "परस्परोपग्रहोजीवानाम्।" एक दूसरे के कल्याण में सहयोगी बनना यही जीवन की विशिष्टता है। इसी अर्थ में हम कह सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और दूसरे मनुष्यों एवं प्राणियों का हित साधन उसका धर्म है। धार्मिक होने का एक अर्थ यह है कि हम एक-दूसरे के सहयोगी बनें दूसरे के दुःख और पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें तथा उसके निराकरण का प्रयत्न करें। जैन आगम आचाराङ्गसूत्र में धर्म की परिभाषा करते हुए बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है। - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211194
Book TitleDharm ka Marm Jain Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size2 MB
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