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________________ धर्म का मर्म : जैन दृष्टि ३४९ उसका गुस्सा धीरे-धीरे शान्त हो रहा है- गुस्से के बाह्य कारणों करते हैं अर्थात् चेतना के सन्तुलन को भंग करते हैं, विभाव के सूचक एवं प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा ठहर नहीं सकता है। पुनः हैं, इसीलिये अधर्म हैं। अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्व, गुस्सा आरोपित है, वह छोड़ा जा सका है, कोई भी व्यक्ति चौबीसों तृष्णा, काम, क्रोध, अहङ्कार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और घण्टे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता, किन्तु शान्त रह सकता क्षमा, शान्ति, अनासक्ति, निर्वैरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता है। अत: मनुष्य के लिये क्रोध विधर्म है, अधर्म है और शान्ति स्वधर्म आदि को धर्म कहते हैं, ऐसा क्यों है? बात स्पष्ट है। प्रथम वर्ग के है, निजगुण है। क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका निर्णय इसी तथ्य जहाँ हमारी आकुलता को बढ़ाते हैं, हमारे मन में विक्षोभ और पद्धति से सम्भव है। चेतना में तनाव (Tension) उत्पन्न करते हैं वहीं दूसरे वर्ग के तथ्य ___हमारे सामने मूल प्रश्न तो यह है कि मनुष्य का धर्म क्या है? उस आकुलता, विक्षेभि या तनाव को कम करते हैं, मिटाते हैं। इस प्रश्न के उत्तर के लिये हमें मानव-प्रकृति या मानव-स्वभाव को पूर्वोक्त गाथा में क्षमादि भावों को जो धर्म कहा गया है, उसका आधार जानना होगा। जो मनुष्य का स्वभाव होगा वही मनुष्य के लिये धर्म यही है। होगा। हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या मानसिक विक्षोभ या तनाव हमारा स्वभाव या स्वलक्षण इसलिये हैं? मानव अस्तित्व द्विआयामी (Two Dimensional) है। मनुष्य नहीं माना जा सकता है क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते हैं, उसका विवेकात्मक चेतना से युक्त एक शरीर है। शरीर और चेतना यह हमारे निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना चाहते हैं, मिटाना अस्तित्व के दो पक्ष हैं, किन्तु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता। पुन: राग, आसक्ति, जीवन एवं चेतना ही है, चेतन-जीवन के अभाव में शरीर का कोई ममत्व, अहङ्कार, क्रोध आदि सभी 'पर' की अपेक्षा करते हैं, उनके मूल्य नहीं है। शरीर का महत्त्व तो है, किन्तु वह उसकी चेतन-जीवन विषय 'पर' हैं। उनकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। राग, आसक्ति से युति पर निर्भर है। चेतन-जीवन स्वतः मूल्यवान् है और शरीर या ममत्व किसी पर होगा। इसी प्रकार क्रोध या अहङ्कार की अभिव्यक्ति परत: मूल्यावान् है। जिस प्रकार कागजी मुद्रा का स्वयं में कोई मूल्य भी दूसरे के लिये है। इन सबके कारण सदैव ही बाह्य जगत् में होते नहीं होता उसका मूल्य सरकार की साख पर निर्भर करता है, उसी हैं, ये स्वत: नहीं होते, परत: होते हैं। इसीलिये ये आत्मा के विभाव प्रकार शरीर का मूल्य चेतन-जीवन की शक्ति पर निर्भर करता है। कहे जाते हैं और जो भी विभाव हैं, वे सब अधर्म हैं। जबकि जो हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना है। चेतन-जीवन ही वास्तविक स्वभाव है या विभाव से स्वभाव की ओर लौटने के प्रयास हैं वे सब जीवन है। चेतना के अभाव में शरीर को 'शव' कहा जाता है। चेतना धर्म हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है जिसका ही एक ऐसा तत्त्व है जो 'शव' को 'शिव' बना देता है। अत: जो अर्थ होता है- धारण करना। सामान्यतया जो प्रजा को धारण करता चेतना का स्वभाव होगा वही हमारा वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने है, वह धर्म है, 'धर्मो धारयते प्रजा'। इस रूप में धर्म को परिभाषित 'धर्म' को समझने के लिये 'चेतना' के स्वलक्षण को जानना होगा। किया जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि में जो हमारे अस्तित्व या सत्ता के चेतना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान् महावीर और गौतम द्वारा धारित है अथवा जिसके आधार, अस्तित्व या सत्ता रही हुई है के बीच हुए एक सम्वाद में मिलता है। गौतम पूछते हैं- भगवन्! वही 'धर्म' है। किसी भी वस्तु का धर्म वही है जिसके कारण वह आत्मा क्या है? और आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है? महावीर वस्तु उस वस्तु के रूप में अपना अस्तित्व रखती है और जिसके उत्तर देते हैं- गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' अभाव में उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाती है। उदाहरण के लिये को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है (भगवतीसूत्र)। यह बात विवेक और संयम के गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में कोई न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है अपितु जीवशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अन्तर नहीं रहेगा, यदि विवेक और संयम के गुण हैं तो ही मनुष्य, दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology) के अनुसार चेतन जीव मनुष्य है। का लक्षण आन्तरिक और बाह्य संतुलन को बनाये रखना है। फ्रायड यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है- चैत्त जीवन और को 'धर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोप और तनाव को मिटाकर का अर्थ होगा- जो हमारी समाज-व्यवस्था को बनाये रखता है, वही समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्वों धर्म है। वे सब बातें जो सामाजिक जीवन में बाधा उपस्थित करती से ऊपर उठकर शान्त, निर्द्वन्द्व मन: स्थिति को प्राप्त करना यह हमारी हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है। करती हैं, सामाजिक जीवन में अव्यवस्था और अशान्ति में कारणभूत विश्व के लगभग सभी धर्मों ने समाधि, समभाव या समता को होती हैं, अधर्म हैं। इसीलिये तृष्णा, विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता धार्मिक जीवन का मूलभूत लक्षण माना है। आचाराङ्गसूत्र में 'समियाए आदि को अधर्म और परोपकार, करुणा, दया, सेवा आदि को धर्म धम्मे आरियेहिं पवेइए' (१/८/३) कहकर धर्म को 'समता' के रूप कहा गया है, क्योंकि जो मूल्य हमारी सामाजिकता की स्वाभाविक में परिभाषित किया गया है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। वस्तुतः वृत्ति का रक्षण करते हैं, वे धर्म हैं और उसे जो खण्डित करते हैं, वे सभी तत्त्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न वे अधर्म हैं। यद्यपि धर्म की यह व्याख्या दूसरों के सन्दर्भ में है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211194
Book TitleDharm ka Marm Jain Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size2 MB
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