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भक्तामर स्तोत्र
Q.1: भक्तामर स्तोत्र की रचना किसने की थी तथा इस स्तोत्र का दूसरा नाम क्या है!, इस स्तोत्र का नाम "भक्तामर" क्यों पड़ा ? यह कौन सी भाषा में लिखा गया है ? A.1:भक्तामर स्तोत्र के रचना मानतुंग आचार्य जी ने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम आदिनाथ स्रोत्र भी है, यह संस्कृत में लिखा गया है, प्रथम अक्षर भक्तामर होने के कारन ही इस स्तोत्र का नाम भक्तामर स्तोत्र पढ़ गया !!!
Q.2: भक्तामर स्तोत्र में कितने शलोक है तथा हर शलोक में कौन सी शक्ति निहित है, ऐसे कौन से 4 अक्षर है जो की 48 के 48 काव्यो में पाए जाते है ? A.2: भक्तामर स्तोत्र में ४८ शलोक है , हर शलोक में मंत्र शक्ति निहित है, इसके 48 के 48 शलोको में MNT R यह चार अक्षर पाए जाते है
Q.3: भक्तामर स्तोत्र की रचना कौन से काल में हुई.? 11वी शताब्दी में राजा भोज के काल में या 7वी शताब्दी में राजा हर्षवर्धन के काल में ? A.3: वैसे तो जो इस स्तोत्र के बारे में सामान्य ये है की आचार्य मानतुंगको जब राजा हर्षवर्धन ने जेल में बंद करवा दिया था तब उन्होंने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा 48 शलोको पर 48 ताले टूट गए! अब आते है इसके बारे में दुसरे तथा ज्यादा रोचक तथा पर,जिसके अनुसार आचार्य मान तुंग जी ने जेल में रहकर में ताले तोड़ने के लिए नहीं अपितु सामान्य स्तुति की है भगवन आदिनाथ की तथा अभी 10 प्रसिद्ध विद्वानों ने ये सिद्ध भी किया प्रमाण देकर की आचार्य श्री जी राजा हर्षवर्धन के काल ११वी शताब्दी में न होकर वरन 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है तो इस तथा अनुसार तो आचार्य श्री 400 वर्ष पूर्व होचुके है राजा हर्षवर्धन के समय से !
Q.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग कितनी बार पदानुवाद हो चूका है ! तथा इतनी ज्यादा बार इस स्तोत्र का अनुवाद क्यों हुआ तथा यह इतना प्रसिद्ध क्यों हुआ जबकि संसार में और भी स्तोत्र है ! A.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग १३० बार अनुवाद हो चूका है बड़े बड़े धार्मिक गुरु चाहे वो हिन्दू धर्म के हो वो भी भक्तामर स्तोत्र की शक्ति को मानते है तथा मानते है भक्तामर स्तोत्र जैसे कोई स्तोत्र नहीं है । अपने आप में बहुत शक्तिशाली होने के कारन यह स्तोत्र बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुआ। यह स्तोत्र संसार का इकलोता स्तोत्र है जिसका इतने बार अनुवाद हुआ जो की इस स्तोत्र की प्रसिद्ध होने को दर्शाता है
Q.5: क्या आप संस्कृत का भक्तामर स्तोत्र पढ़ते है तथा सही उच्चारण करते है ? यहाँ तक की अनुराधा पौडवाल ने जो भक्तामर स्तोत्र को गया है उस में भी कुछ संस्कृत सम्बन्धी गलतिया है !
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भक्तामर प्रणत- मौलि-मणि-प्रभाणामुघोतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् । सम्यक्-प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादावालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ||1||
यः संस्तुतः सकल-वाड्मय - तत्व बोधादुद् भूत - बुद्धि- पटुभिः सुर-लोक-नाथेः । स्तोत्रैर्जगत् त्रितय-चित - हरैरुदारेः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रनम् ||2||
बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद- पीठ स्तोतुं समुधत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् | बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-विम्बमन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहितुम् ||3||
वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशाक - कान्तान् कस्ते क्षमः सुर-गुरु- प्रतिमोऽपि बुद्धया | कल्पान्त-काल-पवनोद्ध-नक्र-चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ||4||
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश कतुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः| प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् ||5||
अल्प- श्रुतं श्रुतंवतां परिहास -धाम त्वद् भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् | यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतुः||6||
त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति- सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् | आक्रान्त-लोकमति-नीलमशेषमाशु
सूर्याशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ||7||
मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी - दलेषु मुक्ता-फलधुतिमुपैति ननूद-बिन्दुः ||8||
आस्तां तव स्तवनमस्त समस्त दोषं त्वत्सकतथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति | दूरे सहस्र किरणः कुरुते प्रभैव
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पध्माकरेषु जलजानि विकासभाज्जि|9||
नात्यद् भुतं भुवन-भूषण भूत-नाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति||10||
द्रष्ट वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः। पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धोः क्षारं जलं जल-निधे रसितुं कः इच्छेत् ||11||
यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्व निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललाम-भूत तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रुपमस्ति|12|
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि निःशेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम् बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाशकल्पम्|13|
सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला-कलापशुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लगंधयन्ति ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् 14|
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशागंगनाभिनीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् 15|
निर्धूम-वर्तिरपवर्जित-तैल-पूरः क्रत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः|16|
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति नाम्भोधरोदर निरुद्ध-महा-प्रभावः सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके 17|
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नित्योदयं दलित- मोह-महान्धकारं गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम्| विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति विद्योतयज्जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम्|18|
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमःसु नाथ निष्पन्न - शालि-वन-शालिनि जीव-लोके कार्यं कियज्जलधरैर्जल - भार नम्रैः | 19 |
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु |
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं तु काच-शकले किरणाकुलेsपि | 20 |
नैवं
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु ह्रदयं त्मयि तोषमेति | किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरित नाथ! भवान्तरेऽपि | 21 |
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र - रश्मिं प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् |22|
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांसमादित्य-वर्णममलं तमसः पुरस्तात् त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः |23|
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यामाद्यं
ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनगंकेतुम्
योगीश्वरं विदितयोगनेकमेकं ज्ञानस्वरुपममलं प्रवदन्ति सन्तः | 24 |
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुध्दि-बोधात् त्वं शकंरोऽसि भुवन-त्रय- शकंरत्वात् धातासि धीर! शिव-मार्ग-विधेर्विधानात् व्यक्तं त्वमेव भगवन्तुरुषोत्तमोऽसि | 25 |
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ! तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय |
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तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय|26|
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश दोषैरुपात्तविविधाशश्रय जात- गर्वैः स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि | 27 |
उच्चैरशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूखमाभाति रुपममलं भवतो नितान्तम् स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितानं बिम्बं रवेरिव पयोधर पाश्र्ववर्ति |28|
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा - विचित्रे विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् बिम्बं वियद् विलसदंशुलता-वितानं गोंदयाद्रिशिरसीव सहस्र - रश्मेः | 29|
कुन्दावदात - चल - चामर-चारु - शोभं विभ्राजते तव वपुः कलधोत-कान्तम्| उद्यच्छशागं- शुचि-निर्झर-वारि-धार मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शांतकोम्भम् |30|
छत्र त्रयं तव विभाति शशागं-कान्तमुच्चैः स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम्| मुक्ता-फल- प्रकर-जाल - विवृद्धशोभं प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् | 31 |
गम्भीर - तार-रव- पूरित-दिग्विभागस्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-सगंमभूतिदक्षः। सद्धर्मराज जय घोषण-घोषकः सन् खेदुन्दुभिध्वनति ते यशसः प्रवादी | 32 |
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजातसन्तानकदि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा | गन्धोद-बिन्दु-शुभ- मन्द-मरुत्प्रपाता दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा | 33 |
शुम्भत्प्रभा- वलय-भूरि-विभा विभोस्ते लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ति| प्रोद्यद्दिवाकर-निरन्तर - भूरि- संख्या दीया जयत्यपि निशामपि सोम- सौम्याम् | 34 |
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स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्टः सद्धर्म-तत्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्याः । दिव्यःध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्वभाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैःप्रायोज्यः|35
उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुञ्ज-कान्ती पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखाभिरामौ| पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति|36|
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र धर्मोपदेशन-विधौ-न तथा परस्य यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि371
शच्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूलमत-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम्। एरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम|38|
भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्तमुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमि-भागः। बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणाधिsपोपि नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते 39|
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्रि-कल्पं दावानलं ज्वलितमुज्ज्वमुत्स्फुलिगम् विश्व जिघित्सुमिव संमुखमापतन्तं त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम 40|
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शखंस्त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंसः|41|
वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीमनादमाजौ बलं बलवतामपिभूपतीनाम् उद्यद्दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति 42|
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाहवेगावतार - तरणातुर - योध - भीमे
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________________ युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते |43| अम्भोनिधौक्षुभित-भीषण-नक्र-चक्रपाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ रंगतरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्वासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति |44| उद् भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः शोच्यां दशामुपगताच्युत-जीविताशाः त्वत्पाद-पंकज-रजोऽमृत-दिग्ध-देहा आपाद-कण्ठमुरु-श्रंखल-वेष्टितागंगा गाढं बृहन्निगड-कोटि-निधृष्ट-जंगघाः। त्वन्नाम-मन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति|46| मत्तद्विपेन्द्र-मगराज-दवानलाहिसंग्राम वारिधि-मनोदर-बन्धनोत्थम्। तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते|47| स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजसं तं 'मानतुंगमवशा' समुपैति लक्ष्मीः / 48| इति श्री मानतुंगाचार्य विरचित आदिनाथ स्तोत्रं समाप्तम् Freely Download Now Rare Preaching's by Various Monks like Acharya Shantisagar ji, Acharya Vidyasagar Ji, Sudhasagar ji, Kshamasagar Ji, Dhyansagar Ji & So on: www.jinvaani.org Download Freely Treasures of Online Jainism Music Resource's Bhaktamar Stotra, Puja, Stavan, Stotra, Ravindra Jain's Spiritual MP3: www.wuistudio.com [still downloaded 10,000 Times within 9 months]