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अवधिज्ञान
जैन धर्म में ज्ञान के पांच प्रकार बतलाये गये है- (१) मार्गज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनः पर्यवज्ञान और (५) केबल ज्ञान ।
दर्शन-दिग्दर्शन
जीव अपने मन और इन्द्रियों की सहायता से जो जानता और देखता है ऐसे विषय मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में आ जाते है । इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना, आत्मा की शुद्धि और निर्मलता से, संयम की आराधना से स्वयमेव प्रगट हो ऐसे अतीन्द्रिय और मनोतीत ज्ञान में अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान माने जाते है । ज्ञानावर्ती कर्मों के क्षयोपशम से अवधिज्ञान और मनःपद्येव उत्पन्न होता है और ज्ञानावर्ती कर्मों के सम्पूर्ण क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। जीव को जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब केवल यह एक ही ज्ञान रहता है, बाकी के चारों ज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्त्व नहीं रहता । केवलज्ञान मे ये चारों ज्ञान विलीन हो जाते हैं। जिस जीव के केवलज्ञान प्रगट हो जाय वह जीव इसी भव में मोक्षगति पाता है। केवलज्ञान के बाद पुनर्जन्म नहीं ।
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- भंवरलाल नाहटा
' अवधि' शब्द का प्राकृत - अर्द्धमागधी रूप 'ओहि' है । अवधिज्ञान के लिए प्राकृत में 'ओहिणाण' शब्द व्यवहृत होता है ।
अवधि शब्द का एक अर्थ होता है मर्यादा, सीमा । इस मे कुंदकुंदाचार्य ने अवधिज्ञान का सीमा ज्ञान रूप में उल्लेख किया है।
।
अव अर्थात नीचे
क्षेत्र की दृष्टि से
व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'अबधि' शब्द अव + धा से बना है और धा अर्थात बढते जाना, अधो विस्तार भविन धावतीत्यवधिः । अवधिज्ञान जितना ऊपर की दिशामे जितना विस्तार पाता है उससे अधिक नीचे की दिशा मे विस्तार पाता है । इसलिए यह अवधिज्ञान कहलाता है। अवधि शब्द का मात्र मर्यादा ही अर्थ ले तो मति श्रुत, अवधि और मनः पर्यव ये चारों ज्ञान मर्यादा वाले हैं, सावधि है एक केवलज्ञान ही अमर्यादा, निरर्वाध है । इस लिए अवधिशब्द के दोनो अर्थ लेना अधिक उचित है ।
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स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
अवधिज्ञान की व्यारव्या इस प्रकार है - इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना अमुक मर्यादा पर्यन्त रूपी द्रव्यों-पदार्थों का जिसके द्वारा ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहा
जाता है ।
द्रव्याणि मूर्ति मन्त्येव विषयो यस्य सर्वतः । नैयन्य रहितं ज्ञानं तत्स्या अवधि लक्षणम ।।
अवधिज्ञान की व्याख्या निम्नोक्त प्रकार से दी गई है ।
(१) अवशब्दोधः शब्दार्थ अव अर्धे विस्मृत वस्तु धीयते परिच्छिद्यते ऊने नेत्यवधिः। (२) अवधिमर्यादा रूपष्वेव द्रव्येषु परिचते दकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञान मायवधिः । (३) अवधानमात्मानोड र्थः साक्षात्कारण व्यापारो अवधिः
ज्ञान के दो प्रकार बतलाये गये है । (१) प्रत्यक्ष ज्ञान और ( २ ) परोक्ष ज्ञान । मन और इन्द्रियों के आलंबन बिना, आत्मा अपने उपयोग से द्रव्यों को पदार्थों को साक्षात देखे और जाने उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है। मन और इन्द्रियों की सहायता से जो ज्ञान हो उसे परोक्ष ज्ञान कहा जाता है । अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केबलज्ञान- ये प्रत्यक्ष ज्ञान हैं । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं ।
केवली भगवत छः द्रव्य प्रत्यक्ष रूप में जानते है और देखते है अर्थात केवलज्ञान सब से प्रत्यक्ष ज्ञान है । मनः पर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के परमाणुओ को प्रत्यक्ष जानते है और देखते है तथा अवधिज्ञानी पुदगल द्रव्य को प्रत्यक्ष जानते है और देखते हैं । अर्थात मनः पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान देश प्रत्यक्ष ज्ञान है । वर्त्तमान समय में टेलीविजन की शोध ने दुनिया में बहुत अधिक क्रान्ति की है । उसी प्रकार कम्प्युटर की शोध ने भी किया है। इस से व्यापार उद्योग में बहुत सा परिवर्त्तन आगये हैं । जीवन शैली पर इसका बड़ा भारी प्रभाव पड़ा है जोकि टेलीविजन और अवधिज्ञान में लाख योजन का अंतर है तो भी अवधिज्ञान को समझने में टेलीविजन का उदाहरण कई अंशो में सहायक हो सकता है। अलबत्ता आध्यात्मिक दृष्टि से टी. वी. के माध्यम की उपयोगिता का किसी भी प्रकार से समर्थन या अनुमोदन नहीं हो सकता ।
मनुष्य की दृष्टि मर्यादित है । अपने ही घर के दूसरे खण्ड में होने वाली घटना को वह नजरोनजर नहीं देख सकता उसीप्रकार हजारो मील दूर बननेवाली घटना को नही देख सकता । किन्तु अब टी. वी . केमेरा की सहायता से मनुष्य अपने खण्ड मे बैठे बैठे घर
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के दूसरे खण्ड मे क्या हो रहा है, दरवाजे पर कौन आया पह प्रत्यक्ष देख सकता है । टी.वी. कैमेरा की मदद से पन्द्रह - पचीस तल्ले के बड़े स्टोर मे उसका संचालक प्रत्येक विभाग मे क्या हो रहा है देख सकता है। स्कूल या कोलेज के आचार्य प्रत्येक कक्षा मे शिक्षक क्या पढाता है और विद्यार्थी क्या करते हैं वह देख सकता है। मनुष्य अपने खण्ड में बैठे बैठे टी. वी. सेट पर हजारो मील दूर खेलाजाता मैच क्रिकेट तत्क्षण नजरों से देख सकता है । एक देश में खेली जाती मैच न जचे तो बटान दबाकर दूसरे देश की अन्य मैच आती हो तो वह देख सकता है। वीडीयो की सहायता से जब चाहे रेकर्ड किए पुराने प्रसंग को देख सकता है। टी.वी. और वीडियो की जितनी सुविधा बढावे उसी के अनुसार क्षेत्र और काल का अवकाश भी बढ़ता है ।
दर्शन-दिग्दर्शन
यह सब होने पर भी वैज्ञानिक साधनों पर अवलंवित टी. वी., टी. वी . है और अवधिज्ञान, अवधिज्ञान है । मन और इन्द्रियो की मदद से टी. वी. के दृश्य देखे जा सकते है। अवधिज्ञान मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना, रूपी द्रव्यों को आत्म भाव से साक्षात देख सकता है। अंधामनुष्य टी. वी. दृश्य नहीं देख सकता किन्तु मनुष्य इन्द्रियों की सहायता के विना अवधिज्ञान द्वारा उपयोग देकर अपने ज्ञानयेत्त्वर विषय को देख सकता है। टी. वी. और वीडियों द्वारा वर्त्तमान में बनती और भुतकाल की केवल रेकर्ड की हुई घटना देख सकते हैं, भविष्यकाल की अनागत घटनाएं नहीं देखी जा सकती अवधिज्ञान द्वारा अनागत काल के द्रव्यों पदार्थों को भी देखा जा सकता है। टी. वी. के दृष्य परदे पर आते हैं अवधिज्ञान द्वारा साक्षात देख सकते है। इस प्रकार टी. वी . अवधिज्ञान का किंचित दृश्य हो सकता है किन्तु अवधिज्ञान का स्थान वह कभी भी नहीं ले सकता ।
अवधिज्ञान जन्म से और गुणसे उभय प्रकार से प्राप्त होता है । जो जन्म से प्राप्त होता है वह भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहलाता है। गुणसे प्रगट होने वाला अवधिज्ञान गुण प्रत्ययिक अवधिज्ञान कहलाता है।
(१) भव प्रत्ययिक अवधिज्ञान - तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है - भवप्रत्यो यो नरक देवानी देवलोक से देवताओं को और नरक से नारकी जीवों को जन्म से अवधिज्ञान होता है । प्रत्येकगति का कोई वैशिष्टय होता है । मनुष्य गति श्रेष्ठ होने पर भी सारी शक्तियों मनुष्य की जन्म से प्राप्त हो जाय ऐसी बात नहीं है। पक्षीरूप मे जीव को जन्म मिलता है तो उसके लिए उड़ जाना सहज है, मनुष्य तो उड़ नहीं सकता कुत्ते की प्राण-र -सूंघने की शक्ति, उल्लु के अंधेरे में देखने की शक्ति - ये योनि के कारण है, योनि प्रत्यय है । उसी प्रकार
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। स्वः मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ ।
देवगति या नरक गति में उत्पन्न होते सभी जीवों को अपनी अपनी गति और पूर्व कर्म के क्षयोपशभ के अनुसार अल्पाधिक अवधिज्ञान प्राप्त होता है। मनुष्य गति मे केवल तीर्थकर के जीव की च्यवन जन्म से अवधिज्ञान होता है। अन्य सभी मनुष्यों के लिए अवधिज्ञान जन्म से प्राप्त नहीं होता। सब प्रत्ययिक अवधिज्ञान में भी क्षयोशम का तत्त्व आता ही हैं। यदि वैसा न हो तो देवगति और नरक गति में हर एक का अवधिज्ञान एक समान ही हो परन्तु एक समान नहीं होता इस से ज्ञात होता है कि वह क्षयोपशम के अनुसार है।
(२) गुण प्रत्ययिक अवधिज्ञान - मनुष्य और तिर्यच गति के जीवों को यह अवधिज्ञान होता है। यह हरेक को हो ऐसी बात नहीं, जिसमें तदनुयोग्य गुण का विकास हो उसे यहज्ञान होता है। वस्तुतः . : उस प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोप शम से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान प्रगट होता है। कर्म के संपूर्ण क्षय से (चारों घातीकों के क्षय से) केवलज्ञान प्रगट होता है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान प्रगट होता है। पाप अठारह प्रकार से बंधते है: और बयासी प्रकार से भोगे जाते है। उस में जिस पाप कर्म के उदय से अवधिज्ञान का आच्छादन होता है उसे अवधिज्ञान वरणीय पाप कर्म कहा जाता है।
गुण प्रत्यय अवधिज्ञान के छः प्रकार है - १. अनुगामी, २. अतनूगामी, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. प्रतिपाती, ६. अप्रतिपाती।
(१) अनुगामी - जिस स्थानक मे जीव को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो उस स्थानक से जीव अन्यत्र जावे तो साथ साथ अवधिज्ञान भी जाता है। इसके लिए लोचन का उदाहरण दिया जाता है। मनुष्य के लोचन (आंखे) जहां जहां मनुष्य जाता है वहां साथ ही होते है। अथवा सूर्य और सूर्यप्रकाश का उदाहरण भी दिया जाय। जहा सूर्य जावे वहां उसका प्रकाश भी जाता है ऐसा यह अवधिज्ञान है।
(२) अतनुगामी - जिस स्थानक में जीव को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो उस स्थानक में वह जीव हो वहां तक वह ज्ञान रहता है किन्तु जीव अन्यत्र जावे तब उसकेसाथ अवधिज्ञान नहीं जाता। इसके लिए श्रृंखला से बंधे दीपक का उदाहरण दिया जाता है मनुष्य बाहर जाता है तबघर में बंधा दीपक साथ में बाहर नही जाता।
(३) वर्धमान - संयम की जैसे जैसे शुद्वि बढती जाय, चित्त में प्रशस्त और अध्वसाय होते जाएं वैसे वैसे अवधिज्ञान बढता जाय। अवधिज्ञान जब उत्पन्न हुआ ही तब
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दर्शन-दिग्दर्शन
अंगुल के असंख्यातवें भाग में क्षेत्र को जानता देखना हो, बाद में अवधिज्ञान बढता चले वह वहांतक पहुंच सके कि अलोक के अन्दर भी लोक जैसे असंख्यात खण्ड देखे। इस वर्धमान अवधिज्ञान के लिए ईधन और अग्नि का अथवा दावानल का उदाहरण दिया जाता है । अग्नि में जैसे जैसे ईधन डाला जाय वैसे वैसे अग्नि बढती जाय, उसी प्रकार का अवधिज्ञान उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त होता जाय।
(४) हीयमान - पहले शुभ अध्यवसाय और संयम की शुद्धि के साथ वृद्धिगत अवधिज्ञान बाद में अशुभ अध्यवसायों के कारण और संयम की शिथिलता के कारण घटने यह हीयमान अवधिज्ञान धीरे धीरे घटता जाय। इसके लिए अग्नि शिखा का उदाहरण दिया जाता है। दीपक की ज्योति क्रमशः छोटी हो कर अन्त में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी रह जाय।
(५) प्रतिपाती - प्रतिपाति अर्थात वापस गिर जाना। जो अवधिज्ञान संरव्यता या असंख्याता योजन पर्यन्त जानता देखता है, यावत ठेठ समग्र लोकतक देख सकता हो किन्तु बाद में वह अचानक पतित होकर चला जाय, इसके लिए पवन के झपाटेसे बुझते दीपक का उदाहरण दिया जाता है। हीयमान अवधिज्ञान और प्रतिपाती अवधिज्ञान के बीच अन्तर यही है कि हीयमान अवधिज्ञान धीरे धीरे घटता जाता है, जव कि प्रतिपाति अवधिज्ञान एक झपाटे में ही संपूर्ण चला जाता है।
(६) अप्रतिपाति - अप्रतिपाति अर्थात वापस न गिरे वह। यह अवधिज्ञान समग्र लोकों को देखने के उपरान्त अलोक काभी कम से कम एक प्रदेश देखता है । अप्रतिपाति अवधिज्ञान अन्तर्मुहूर्त मे केवलज्ञान में समाहित हो जाता है । अर्थात अप्रतिपाति अवधिज्ञान जिसे हो जाय उसे बाद में उसी भव में केवलज्ञान अवश्य होता ही
यों अप्रतिपाति अवधिज्ञान केवलज्ञान होने के अन्तर्मुहूर्त पहले प्रगट होता है। इस अप्रतिपाति अवधिज्ञान को परमावधि ज्ञान भी कहा जाता है। परमावधिज्ञान होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान अवश्य होता है। इसलिए उपमा दी जाती है कि परमावधि उषाकाल जैसा है और केवलज्ञान सूर्य प्रकाश जैसा है। केवलज्ञान रूपी सूर्यप्रकाश का उदय होने से पहले उषा की प्रभा स्फुटित होने जैसा परमावधि ज्ञान है।
___ तत्त्वार्थसूत्र मे वाचक उमास्वाति ने (अध्य. १ सूत्र २३ में ) अवधिज्ञान के ये छह भेद बतलाये है - (१) अनुगामी, (२) अननुगामी, (३) हीयमान, (४) वर्धमान,
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। स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ ।
(५) अनवस्थित और (६) अवस्थित ।
पहले चार भेद कर्मग्रंथ के अनुसार हैं। अनवस्थित अर्थात उत्पन्न हो, बढ़े, घटे, उत्पन्न हुआ चला भी जाय। अवस्थित अर्थात जितना अवधिज्ञान हो उतना केवलज्ञान पर्यन्त कायम रहे। अनवस्थित में प्रतिपाति का समावेश हो जाता है। और अवस्थित में अप्रतिपाति का समावेश हो जाता है। अनवस्थित के लिए वायु से पानी मे उठती तरंगों की घट-बढ़ का उदाहरण दिया जाता है। और अवस्थित के लिए शरीर पर हुए और एक सरीखे रहे मसे का उदाहरण दिया जाता है।
(१) अवधिज्ञान द्रव्य से जघन्यता मे अनन्त रूपी द्रव्य देखता और जानता है एवं उत्कृष्टता मे सर्व रूपी द्रव्यों को जान सकता और देख सकता है।
(२) क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग तक देख व जानता है तथा उत्कृष्टता से अलोक में लोक जैसे असंख्यता खंडक देखता व जानता है।
(३) काल की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य से आवलिका का असंख्यातवें भाग देखता व जानता है। उत्कृष्ट असंख्य उत्सर्पिणी व अचसर्पिणी तक, अतीतकाल और अनागत काल देखता व जानता है।
(४) भाव की दृष्टि से अवधि ज्ञानी जघन्य से अनन्ता भाव देखता व जानता है तथा उत्कृष्टतः भी अनंता भाव देखता व जानता है। (सर्व भाव का अनंत वा भाग भी देखता व जानता है)।
इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा से जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त जितना जितना देखता जानता है वह प्रत्येक का भिन्न भिन्न एक एक भेद गिनें तो , अवधि) ज्ञान के असंख्य भेद है, ऐसा कहा जाता है। इसी लिए आवश्यक नियुक्तिमें कहा है कि -
असंख्या इयाओ खलु ओहि न्नाणस्य सव्व पयडीओ।
काई भव पच्चइया खओव सभियाओ काओ अवि ।।
अवधिज्ञान की सभी प्रकृति या (सर्व भेद) संख्यातीत अर्थात असंख्य है । कितने ही भेद प्रत्ययिक है और कितने ही क्षयोपशम प्रत्ययिक है।
__ यों भव प्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक दोनों मुख्य प्रकारों के अवान्तर प्रकारो का विचार करते ठेठ असंख्याता भेद या प्रकारों तक पहुंचा जा सकता है।
यदि अवधिज्ञान के इस तरह असंख्याते प्रकार हो तो इन सब का वर्णन किस
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प्रकार हो सकता है ? नहीं ही हो सकता। इस लिए नियुक्तिकार कहते है कत्तो मे वणे सत्ती ओहिस्स सव्व पयडीओ ?
( अवधिज्ञान की सर्ब प्रकृतियों का वर्णन करने की शक्ति मेरे में कहां से हो ?)
क्षेत्र और काल की दृष्टि से किसी का अवधिज्ञान स्थिर रहता है और किसी के अवधिज्ञान में अपने अपने क्षयोपशम के अनुसार घट बढ़ भी होती है। विशेषतः सर्वविरति धर साधुओं के अवधिज्ञान को क्षेत्रादि की दृष्टि से अधिक अवकाश रहता है। फिर भी किसी गृहस्थ श्रावक को किसी साधु से अधिक अवधिज्ञान संभव न हो ऐसी बात नहीं । गौतम स्वामी और आनंद श्रावक का प्रसंग इसके किए प्रसिद्ध है। आनंद श्रावक ने दीक्षा नहीं ली थी किन्तु धर्माराधना की ओर उनका जीवन संलग्न हो गया था। परिवार का उत्तर दायित्व पुत्र को सौपकर स्वयं पौषघ शाला में धर्मध्यान करते समय व्यतीत करते थे। ऐसी चर्या में रहते उन्होने आमरण अनशन व्रत स्वीकार किया। उस समय भगवान महावीर अपने गणधरोंव शिष्यों के साथ वाणिज्य ग्राम पधारे । गौतमस्वामी छह तप के पारणे के लिए मध्यान्ह मे गोचरी के लिए निकले। रास्ते मे उन्हें लगा कि आनंद श्रावक की शाता पूछने के लिए पौषधशाला में जा आऊं । वे वहां गए। आनंद श्रावक अनशन के कारण अशक्त हो गए थे । गौतम स्वामी पधारे देख कर वे अत्यंत हर्षित हो गए और वन्दना करने के अंनंतर अपने को हुए अवधिज्ञान की बात कही। गौतम स्वामी ने कहा- “ आनंद ! ग्रहस्थ को अवधिज्ञान अवश्य होता है किन्तु तुम जैसा कहते हो उतने व्यापक क्षेत्र का नहीं होता । " आनंद श्रावक ने कहा- मैंने जो कहा वह सत्य है । गौतमस्वामी ने कहा आनंद ! तुम असत्य वचन बोलते हो, अतः मिच्छामि दुक्कड़म लेना चाहिए। आनंद ने कहा- मेरी सच्ची बात को आप ·असत्य कहते है तो मिच्छामि दुक्कड़म आप को लेना चाहिए । गौतम स्वामी को लगा हम दोनो में कौन सच्चा है यह तो भगवान महावीर ही कह सकेंगे। वे भगवान के पास पहुंचे और सारी बात कही। भगवान ने कहा- गौतम ! आनंद श्रावक की बात सच्ची है, ग्रहस्थ को इतना व्यापक अवधिज्ञान हो सकता है अतः मिच्छामि दुक्कड़म तुम्हे ही लेना चाहिए। यह सुनकर गौतम स्वामी पारणा करने के लिए न बैठ कर आनंद श्रावक के पास गऐ और अपनी भूल के लिए मिच्छामि दुक्कड़म कर आनंद श्रावक से क्षमा याचना की।
वर्धमान और हीयमान प्रकार के अवधिज्ञान में द्रव्य, क्षेत्र, भाव आदि में घट
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sssssssssss
स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
बढ़ होती है। यहां प्रश्न यह होता है कि ये सब एक साथ ही घटती बढ़ती होती है या इसमे कोई नियम है ? नियुक्तिकार कहते है :
“कालो चउण्ह वुड़ढी, कालो भइयव्वो खेत्र वुडढीए।
वुडढीय द्रव्य पज्जव्व, भहयव्वा क्षेत्रकाल।। (काल की वृद्धि में क्षेत्रादि चारों की वृद्धि होती है । क्षेत्र की वृद्धि होने से काल की भजता जानता द्रव्य पर्याए की वृद्धि भजनाएं जानना।)
"सहमो य होइ कालो तत्तो सहभ तरयं हवइ खेत्रं ।
अंगुल सेढी मेत्ते ओसप्पिणीओ असंखेज्जा।। (काल सूक्ष्म है, और उसमे क्षेत्र अधिक सूक्ष्म है क्यो कि अंगुल प्रमाण श्रेणी मात्र में असंरव्यात अवसर्पिणी के समय जितने प्रदेश हैं। )
___ काल स्वयं सूक्ष्म है और उस से क्षेत्र अधिक सूक्ष्म है। क्षेत्र से द्रव्य अधिक सूक्ष्म है और द्रव्य पर्याय उससे अधिक सूक्ष्म है। क्षयोपशम के कारण अवधिज्ञानी के काल का मात्र एक ही 'समय' बढे तो क्षेत्र के बहुत से प्रदेश बढ़ते है और क्षेत्र की वृद्धि होते द्रव्य की वृद्धि अवश्य होती है क्योंकि प्रत्येक आकाश प्रदेश में द्रव्य की प्रचुरता होती है और द्रव्य की वृद्धि होने से पर्यायों की वृद्धि होती है, क्योकि हरेक द्रव्य की वृद्धि होने से पर्यायों की वृद्धि होती है क्योकि हरेक द्रव्य मे पर्यायों की बहुलता होती है।
दूसरी और अवधिज्ञानी के अवधि गोचरक्षेत्र की यदि वृद्धि हो तो काल की भजना जानना अर्थात काल की वृद्धि हो अथवा न भी हो। यदि क्षेत्र की बहुत अधिक वृद्धि हो ती काल की वृद्धि हो जाय, किन्तु यदि क्षेत्र की वृद्धि जरा सी भी जितनी भी वृद्धि हो तो काल की वृद्धि नहीं होती क्यों कि अंगुल जितना क्षेत्र यदि बढ़े और उसी प्रकार काल की वृद्धि हो तो असंख्यात उत्सर्पिणी जितना काल बढ़ जाय। अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जितने प्रदेश है उनमें से हरेक समय में एक प्रदेश अपहृत करे तो असंख्यात अवसर्पिणी जितना काल व्यतीत हो जाय। अवधि गोचर क्षेत्र वृद्धि होतो द्रव्य पर्याय अवश्य बढ़ते हैं परन्तु द्रव्य पर्याय बढ़े तब क्षेत्र की वृद्धि हो या न भी हो।
___अवधिज्ञान के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन प्रकार बतलाये जाते है। क्षेत्र की दृष्टि से प्रत्येक का अवधिज्ञान एक सरीखे माप का नहीं होता। फिर जितने क्षेत्र का
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दर्शन-दिग्दर्शन
अवधिज्ञान हो उस क्षेत्र का आकार हरेक के लिए एक जैसा नही होता। जघन्य अवधिज्ञान स्तिबुक (बिन्दु) आकार सा गोल होता है।
मध्यम अवधिज्ञान के क्षेत्र के अनेक आकार होते है। वे कैसे कैसे आकार होते हैं, उनके कितने ही उदाहरण देते हुए आवश्यक नियुक्ति में कहा है :
___ “तप्पागारे पल्लग पडहग झल्लरी मुइंग पुष्प जवे।
तिरिय मजयाण ओही नाणा हिव संटिसी भणिओ।।"
त्राप, पल्य, पडह, झल्वरी, मृदंग, पुष्प चंगेरी और यवनालक के आकार में तथा मनुष्य और त्रियंच के विविध आकार में अवधिज्ञान होता है।
नारकी का अवधिज्ञान पानी पर तिरने का त्रापा तरापा जैसे आकार जैसा होता
(२) भुवनपति देवों का अवघिज्ञान पल्य (प्याले) के आकार का होता है। (३) व्यंतरदेवों का अवधिज्ञान पडह (ढोल) के आकार वाला होता है। (४) ज्योतिषी देवों का अवघिज्ञान झल्लरी (झालर) के आकार जैसा होता है।
बारह देवलोक के वैमानिक देवों का अवधिज्ञान मृदंग के आकार का होता है। (६) नौ ग्रेवेयक के देवों का अवधिज्ञान पुष्पचंगेरी (पुष्पक भरी चंगेरी) के आकार
जैसा होता है। (७) अनुत्तर देवों का अवधिज्ञान यवनाल के आकार का होता है। यवनालक
अर्थात सरकंचुआ अथवा गलकंचुआ। इसका आकार तुरकणी जो पहरेण परिधान पहनती है वैसा होता है। देव और नारकी के अवधिज्ञान के क्षेत्रका
आकार हमेशा ऐसा का ऐसा ही रहता है, वह आकार दूसरे आकार मे
परिणमत नहीं होता। (८) तिर्यच और मनुष्य का अवधिज्ञान, क्षेत्र की दृष्टि से विविधप्रकार के संस्थान
वाला आकार वाला होता है। और जो आकार हो वह दूसरे आकार में भी परिणत हो सकता है। किसी मे वह आकार जीवन पर्यंत अपरिवर्तित भी रह सकता है।
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स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
क्षेत्र में कौन किस दिशा में अधिक देख सकता है ? इस विषय में बतलाया गया है कि भुवनपति और व्यंतर देवों के उर्ध्व दिशा में अवधिज्ञान अधिक होता है। वैमानिक देवों के अवधिज्ञान अधो दिशा में तथा नारकी और ज्योतिषी देवों के तिरछी दिशा में अवधिज्ञान अधिक होता है । औदारिक शरीर वाले तिर्यंच और मनुष्यों के विविध प्रकार मे विविध दिशा में अवधिज्ञान अधिक होता है । जैसे कि किसी के उद्ध दिशा मे अधिक होता है तो किसी के अधोदिशा में तिरछी दिशा में अधिक होता है मनुष्य और तिर्यच के अवधिज्ञान वलयाकार भी होता है ।
।
देवलोक के देव अपने अवधिज्ञान द्वारा कितना क्षेत्र देख सकते है ? यह निम्नोक्त देखे :
(१) सौधर्म और ईशान देवलोक के देव रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक के निम्न भाग तक अवधिज्ञान द्वारा देख सकते हैं।
(२) सनत्कुमार और महेन्द्र देवलोक के देव शर्करा प्रभा नामक दूसरी नरक तक देख सकते है ।
(३) ब्रह्म देवलोक और लातंक देवलोक के देव तीसरी वालुका प्रभा नामक नरक तक देख सकते है ।
(४) शुक्ल और सहसर देवलोक के देव चौथी पंकप्रभा नरक तक देख सकते हैं । (५) आनंत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार देवलोक के देव पांचवी धूम प्रभा नामक नरक तक देख सकते है।
(६) तीन नीचे के और तीन मध्य के छह ग्रैवेपक के देव तमः प्रभा नामक नरक तक देख सकते है।
(७) ऊपर के तीन ग्रैवेयक के देव तमस्तम प्रभा नामक सातवीं नरक तक देख सकते है ।
(८) पांच अनुत्तर विमान के देव अपने अवधिज्ञान द्वारा सम्पूर्ण लोक नाडी देख सकते है
सभी देवलोक में जैसे जैसे ऊपर के देवलोक विचार करे वैसे वैसे देव नीचे की और तिरछी दिशा में उत्तरोत्तर अधिक और अधिक क्षेत्र अवधिज्ञान द्वारा देख सकते है ।
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दर्शन-दिग्दर्शन
अलबत्ता उर्द्ध दिशा में सभी देव स्वकल्पना स्तूपादि-ध्वजादि पर्यन्त अवधिज्ञान द्वारा देख सकते हैं, उससे ऊपर नहीं देख सकते।
___द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से उत्कृष्ट अवधिज्ञान मनुष्यों को ही होता है। देव, नारकी या तिर्यच के वह नहीं होता। जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यच के होता है। देव और नारकी के वह नहीं होता।
उत्कृष्ट अवधिज्ञान के दो प्रकार है। (१) सम्पूर्ण लोक को और लोक मात्र को देखने वाला अवधिज्ञान । (२) सम्पूर्ण लोक उपरान्त अलोक मे भी देखने वाला अवधिज्ञान। इस में संपूर्ण लोक मात्र को देखने वाला अवधिज्ञान प्रतिपाति होता है और संपूर्ण लोक उपरान्त अलोक में एक प्रदेश जितना अधिक देखने वाला अवधिज्ञान अप्रतिपाती होता है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा है कि :
उक्कासो मणुएसुं मणुस्स-तेरि च्छिएसु य जहण्णी।
उक्कोस लोग मेत्तो पडिवाइ परं अपडिवाइ।। ।
अलवत्ता, अलोक मे आकाश सिवाय अन्य कोई द्रव्य नही है अतः देखने जैसा नही रहता है तो भी अवधिज्ञान के इस सामर्थ्य को दर्शाने के लिए ऐसा कहा जाता है।
नारकी के जीव, क्षेत्र की दृष्टि से अपने अपने अवधिज्ञान द्वारा कितना उत्कृष्ट और कितना जघन्य देख सकता है यह इस प्रकार देखिए - नरक का नाम उत्कृष्ट क्षेत्र प्रमाण
जघन्य क्षेत्र प्रमाण १ रत्न प्रभा
एक योजन (४ कोश) पर्यन्त साढे तीन कांश पर्यन्त २ शर्कराप्रभा साढे तीन कोश पर्यन्त तीन कोश पर्यन्त ३ बालुकाप्रभा तीन कोश पर्यन्त
ढाई कोश पर्यन्त ४ पंक प्रभा ढाई कोश पर्यन्त
दो कोश पर्यन्त ५ धूम प्रभा दो कोश पर्यन्त
१॥कोश पर्यन्त ६ तभः प्रभा १॥ कोश पर्यन्त
एक कोश पर्यन्त ७ तमस्तमः प्रभा एक कोश पर्यन्त
अर्द्ध कोश पर्यन्त ___मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान सम्यक्त्व सहित हो सकते है और सम्यक्त्व रहित भी हो सकते है। मिथ्या दृष्टि जीव को भी मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और
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स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
अवधिज्ञान हो सकते है। वैसे ही ये तीनों ज्ञानके प्रति पक्षी ज्ञान भी हो सकते है। अर्थात मिथ्या मतिज्ञान, मिथ्या श्रुतज्ञान और मिथ्या अवधि ज्ञान भी होता है । जिसे विभंग ज्ञान 1 कहते है । मनः पर्यवज्ञान मिथ्यात्वी को नहीं हो सकता । केवलज्ञान मेंतो मिथ्यात्वी का प्रश्न ही नहीं होता । केवल सम्यत्वी जीव को ही मनः पर्यवज्ञान हो सकता है।
मिथ्या दृष्टि जीव को अवधिज्ञान होता ही नहीं ऐसा कहना यथार्थ नहीं । मिथ्या दृष्टि जीव को अवधिज्ञान अवश्य हो सकता है किन्तु वह मलिन होता है, धुंधला होता है, अस्पष्ट होता है । कभी तो उलटा सीधा भी देखता है। इसी लिए अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहा जाता है । अर्थात विभंगज्ञान अवधिज्ञान का ही एक प्रकार है।
मनः पर्यवज्ञान को क्रम में अवधिज्ञान के बाद रखा गया है क्योंकि अवधिज्ञान से मनः पर्यक ज्ञान ऊंचा है। अवधिज्ञान का विषय सर्व रूपी पदार्थों का है । इस दृष्टि से सर्व चौदह राजलोक के पदार्थों द्रव्यो अवधिज्ञान का विषय बनते हैं तथा शक्ति की दृष्टि से तो अलोक भी अवधिज्ञानी का विषय बन सकता है। इस प्रकार समग्र लोकालोक अवधिज्ञान का विषय है । मनः पर्यव ज्ञान का विषय केवल मनोवर्गणा के पुदगल परमाणु तक सीमित है । चौदह राजलोक में मनोवर्गणा के पुदगल परमाणुओ का प्रमाण इतना अत्यल्प है कि सर्वावधिज्ञान के अनन्तवे भाग जितना विषय मनः पर्यवज्ञान का है। इस प्रकार विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान बड़ा है परन्तु स्वरूप की दृष्टि से मनः पर्यवज्ञान ऊंचा है, क्योकि मनः पर्यवज्ञान अपने विषय के अनेक गुण पर्यायों को जानता है । इसलिए मनः पर्यवज्ञान का विषय बहुत छोटा होने परभी अधिक सूक्ष्म है और अधिक शुद्ध है अतः मन पर्यवज्ञान ऊंचा है । फिर विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की दृष्टि से भी अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में भेद है ।
अवधिज्ञान जन्म से भी हो सकता है, अर्थात भव प्रत्यय या योनिप्रत्यय भी हो सकता है । देव और नरक के जीव तथा तीर्थंकर भगवान को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है, फिर अवधिज्ञान संयम की विशुद्धि से या उस प्रकार के क्षयोपशम की प्रबलता से भी प्रगट होता है । मनः पर्यवज्ञान जन्म से नहीं होता, विशिष्टसंयम की आराधना से अर्थात संयम की विशुद्धि से ही वह उत्पन्न होता है। तीर्थंकर भगवान को भी जन्म से मतः पर्यवज्ञान नहीं होता। वे जब दीक्षित होते है तभी उन्हे मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है । इस दृष्टि से भी अवधिज्ञान से मनः पर्यवज्ञान ऊंचा है ।
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दर्शन-दिग्दर्शन
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से अवधिज्ञान और मतःपर्यवज्ञान को विशेष शक्ति के कारण क्रम में ऊंचा बताया जाता है, तो भी एक अपेक्षा से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का जितना महत्त्व है उतना अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान का महत्त्वन हीं। केवलज्ञान के लिए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की जितनी आवश्यकता है, उतनी अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान की नहीं। कोई जीव कभी भी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के बिना केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। केवलज्ञान की उत्पत्ति पूर्ववत्ती श्रुतज्ञान रूपी कारण से होना माना जाता है। किन्ही एक जीवो को सीधा ही केवल ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। शास्त्रों में ऐसे कितने ही उदाहरण है। यों मोक्षमार्ग में अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान की कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं। प्रत्युत अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान से जीव को अपनी आत्मा की विशुद्धि की प्रतीति हो सकती है। अवधिज्ञान और विशेषण मनःपर्यवज्ञान आत्मा की विशुद्धि की प्रतीति हो सकती है। अवधिज्ञान और विशेषतः मनः पर्यवज्ञान आत्मा की विशुद्धितर स्थिति का द्योतक है।
क्या पंचमकाल में अवधिज्ञान नहीं हो सकता? इस विषय में कितने ही मतांतर हैं। कइयों के मत से दाल में भी अवधिज्ञान की अत्यन्त अल्प परिमाण में शक्यता है । कइयों का मत है ऐसी कोई शक्यता नहीं। इतना तो निश्चित है कि इस काल में इस क्षेत्र में केवलज्ञान नहीं। यदि ऐसा है तो परमावधिज्ञान जो अंत मे केवलज्ञान में परिणित हो जाता है वह कहां से हो सकेगा? अतः इतना तो निश्चित है कि इस काल में परमावधि ज्ञान नहीं है। मनःपर्यवज्ञान तो इस काल में विच्छेद हो चुका है, इस विषय में सर्व शास्त्रकार सम्मत है। क्योंकि उसे प्राप्त करने के लिए संयम की उतनी विशुद्धि और वैसी आत्म-शक्ति इस काल में ज्ञात नहीं होती।
दिगम्वर ग्रंथ महापुराण में ऐसा वर्णन आता है कि भरत चक्रवर्ती को स्वप्न में चन्द्रमा परिमण्डल में घेरा हुआ दिखाई दिया। उसकी फलश्रुति में भगवान ऋषमदेव कहते है कि पंचमकाल में अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान किसी को नहीं होगा। ऐसा उल्लेख है। दूसरी और तिलोयपन्नति ग्रन्थ में कहा है कि दूःषमकाल में अमुक हजार वर्ष बाद जब जब साधुओं की गोचरी पर कर लगेगा और साधुलोग गोचरी /आहार किये बिना वह प्रदेश छोड़कर चले जाएंगे तब उनमें से किसी साधु को अवधिज्ञान होगा। अतः हजारो वर्ष बाद किसी विरल आत्मा को अवधि ज्ञान हो तो हो।
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________________ स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ वर्तमान में किन्हीं महात्माओ को अवधिज्ञान हुआ है ऐसी बात सुनते हैं किन्तु यह मानने मे शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। कितने वचन सिद्ध महात्माओं के वचन सत्य होते है किन्तु वचन सिद्धि और अवधिज्ञान को एक मानने की भूल नहीं होनी चाहिए / अवधिज्ञानी के ज्ञानो पयोग द्वारा कथित वचन अवश्य सत्य होते है किन्तु वचन सिद्धि हो तो यही अवधिज्ञान हो ही ऐसा नहीं मान लेना चाहिए। कितने ही महात्माओं की भविष्यवाणी आदि सत्य साबित होती है वह अनुमान व अनुभव जन्य होती है। अनुमान चित्त का व्यापार है। जो निर्मल हृदय तीव्र अवलोकन शक्ति तथा तर्क आदि के कारण सरस होती है और तदनुसार सत्य प्रतीत होती है। कितने ही व्यक्तियों की आंतर स्फुरणा के आधार पर कथित बातों को अवधिज्ञान मानने की भूल नहीं करना चाहिए। कितने ही व्यक्ति भूत, भविष्य, वर्तमान को घटित बातो को स्व कल्पना से वर्णन करें और घटना सत्य भी प्रभाणित हो जाय ये सब अवधिज्ञान नहीं अनुमान शक्ति, मनोवैज्ञानिक कल्पना व्यापार आदि मतिज्ञान के विषय है, अवधिज्ञान के नहीं। कितने ही महात्माओं को चमत्कार शक्ति को उनके शिष्यों द्वारा उभार कर अवधिज्ञान के प्रचार के भुलावे में नहीं पड़ना उचित है। अवधिज्ञान के स्वरूप की कसौटी पर कसे बिना मानने की शीघ्रता न करना उचित है। तत्वज्ञ श्रद्धालु को किसीका भी अनादर किये बिना यथा तथ्य प्राप्त करना चाहिए। 2010_03