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________________ स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ अवधिज्ञान हो सकते है। वैसे ही ये तीनों ज्ञानके प्रति पक्षी ज्ञान भी हो सकते है। अर्थात मिथ्या मतिज्ञान, मिथ्या श्रुतज्ञान और मिथ्या अवधि ज्ञान भी होता है । जिसे विभंग ज्ञान 1 कहते है । मनः पर्यवज्ञान मिथ्यात्वी को नहीं हो सकता । केवलज्ञान मेंतो मिथ्यात्वी का प्रश्न ही नहीं होता । केवल सम्यत्वी जीव को ही मनः पर्यवज्ञान हो सकता है। मिथ्या दृष्टि जीव को अवधिज्ञान होता ही नहीं ऐसा कहना यथार्थ नहीं । मिथ्या दृष्टि जीव को अवधिज्ञान अवश्य हो सकता है किन्तु वह मलिन होता है, धुंधला होता है, अस्पष्ट होता है । कभी तो उलटा सीधा भी देखता है। इसी लिए अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहा जाता है । अर्थात विभंगज्ञान अवधिज्ञान का ही एक प्रकार है। मनः पर्यवज्ञान को क्रम में अवधिज्ञान के बाद रखा गया है क्योंकि अवधिज्ञान से मनः पर्यक ज्ञान ऊंचा है। अवधिज्ञान का विषय सर्व रूपी पदार्थों का है । इस दृष्टि से सर्व चौदह राजलोक के पदार्थों द्रव्यो अवधिज्ञान का विषय बनते हैं तथा शक्ति की दृष्टि से तो अलोक भी अवधिज्ञानी का विषय बन सकता है। इस प्रकार समग्र लोकालोक अवधिज्ञान का विषय है । मनः पर्यव ज्ञान का विषय केवल मनोवर्गणा के पुदगल परमाणु तक सीमित है । चौदह राजलोक में मनोवर्गणा के पुदगल परमाणुओ का प्रमाण इतना अत्यल्प है कि सर्वावधिज्ञान के अनन्तवे भाग जितना विषय मनः पर्यवज्ञान का है। इस प्रकार विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान बड़ा है परन्तु स्वरूप की दृष्टि से मनः पर्यवज्ञान ऊंचा है, क्योकि मनः पर्यवज्ञान अपने विषय के अनेक गुण पर्यायों को जानता है । इसलिए मनः पर्यवज्ञान का विषय बहुत छोटा होने परभी अधिक सूक्ष्म है और अधिक शुद्ध है अतः मन पर्यवज्ञान ऊंचा है । फिर विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की दृष्टि से भी अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में भेद है । अवधिज्ञान जन्म से भी हो सकता है, अर्थात भव प्रत्यय या योनिप्रत्यय भी हो सकता है । देव और नरक के जीव तथा तीर्थंकर भगवान को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है, फिर अवधिज्ञान संयम की विशुद्धि से या उस प्रकार के क्षयोपशम की प्रबलता से भी प्रगट होता है । मनः पर्यवज्ञान जन्म से नहीं होता, विशिष्टसंयम की आराधना से अर्थात संयम की विशुद्धि से ही वह उत्पन्न होता है। तीर्थंकर भगवान को भी जन्म से मतः पर्यवज्ञान नहीं होता। वे जब दीक्षित होते है तभी उन्हे मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है । इस दृष्टि से भी अवधिज्ञान से मनः पर्यवज्ञान ऊंचा है । Jain Education International 2010_03 ६ ६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210127
Book TitleAvadhi Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherZ_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf
Publication Year1998
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size791 KB
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