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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन
डॉ० एन० एल० जैन
रीवा, म० प्र०
वर्तमान वैज्ञानिक युग की यह विशेषता है कि इसमें विभिन्न मौतिक व आध्यात्मिक तथ्यों और घटनाओं को बौद्धिक परीक्षा के साथ प्रायोगिक साक्ष्य के आधार पर भी व्याख्या करने का प्रयत्न होता है। दोनों प्रकार के संपोषण से आस्था बलवती होती है । वैज्ञानिक मस्तिष्क दार्शनिक या सन्त को स्वानुभूति, दिव्यदृष्टि या मात्र बौद्धिक व्याख्या से 'सन्तुष्ट नहीं होता। इसी लिये वह प्राचीन शास्त्रों, शब्द या वेद की प्रमाणता की धारणा की भी परीक्षा करता है । जैन शास्त्रों में प्राचीन श्रुत की प्रमाणता के दो कारण दिये हैं: (१) सर्वज्ञ, गणधर, उनके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा रचना और (२) शास्त्र वर्णित तथ्यों के लिये बाधक प्रमाणों का अभाव। इस आधार पर जब अनेक शास्त्रीय विवरणों का आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है, तब मुनिश्री नन्दिघोष विजय के अनुसार भी स्पष्ट भिन्नतायें दिखाई पड़ती हैं। अनेक साधु, विद्वान्, परम्परापोषक और प्रबुद्धजन इन भिन्नताओं के समाधान में दो प्रकार के दृष्टिकोण अपनाते हैं :
(अ) वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार ज्ञान का प्रवाह वर्धमान होता है । फलतः प्राचीन वर्णनों में भिन्नता ज्ञान के विकास पथ को निरूपित करती है। वे प्राचीन शास्त्रों को इस विकासपथ के एक मील का पत्थर मानकर इन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में स्वीकृत करते हैं। इससे वे अपनी बौद्धिक प्रगति का मूल्यांकन भी करते हैं ।
(ब) परम्परापोषक दृष्टिकोण के अनुसार समस्त ज्ञान सर्वज्ञ, गणधरों एवं आरातीय आचार्यों के शास्त्रों में निरूपित है । वह शाश्वत माना जाता है । इस दृष्टिकोण में ज्ञान की प्रवाहरूपता एवं विकास प्रक्रिया को स्थान प्राप्त नहीं है । इसलिये जब विभिन्न विवरणों तथ्यों और उनको व्याख्याओं में आधुनिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में भिन्नता परिलक्षित होती है, तब इस कोटि के अनुसर्ता विज्ञान की निरन्तर परिवर्तनीयता एवं शास्त्रीय अपरिवर्तनीयता की चर्चा उठाकर परम्परा -पोषण को ही महत्व देते हैं । यह प्रयत्न अवश्य किया जाता है कि इन व्याख्याओं से अधिकाधिक संगतता आवे चाहे इसके लिये कुछ खींचतान ही क्यों न करनी पड़े। अनेक विद्वानों को यह धारणा संभवतः उन्हें अरुचिकर प्रतीत होगी कि अंग साहित्य का विजय युगानुसार परिवर्तित होता रहता है । सत्य हो, पोषण का अर्थ केवल संरक्षण ही नहीं, संवर्धन भी होता है। जैन शास्त्रों के काकदृष्टीय अध्ययन से ज्ञात होता है कि शास्त्रीय आचारविचार की मान्यतायें नवमी-दशमी सदी तक विकसित होती रही हैं। इसके बाद इन्हें स्थिर एवं अपरिवर्तनीय क्यों मानलिया गया, यह शोधनीय है। शास्त्री का मत है कि परम्परापोषक वृत्ति का कारण संभवतः प्रतिमा की कमी तथा राजनीतिक अस्थिरता माना जा सकता है। पापचीरुता भी इसका एक संभावित कारण हो सकती है । इस स्थिति ने समग्र भारतीय परिवेश को प्रभावित किया है ।
शास्त्री ने आरातीय आचार्यों को श्रुतधर, सारस्वत, प्रबुद्ध परम्परापोषक एवं आचार्यतुल्य कोटियों में वर्गीकृत किया है । इनमें प्रथम तीन कोटियों के प्रमुख आचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि प्रत्येक आचार्य
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९६ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[खण्ड
ने अपने युग में परम्परागत मान्यताओं में युगानुरूप नाम, भेद, अर्थ और व्याख्याओं में परिवर्धन, संशोधन तथा विलोपन कर स्वतंत्र चिन्तन का परिचय दिया है। इनके समय में ज्ञानप्रवाह गतिमान् रहा है। इस गतिमत्ता ने ही हमें आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राजनीतिक दृष्टि से गरिमा प्रदान की है। हम चाहते हैं कि इसो का आलंबन लेकर नया युग और भी गरिमा प्राप्त करे। इसके लिये मात्र परंपरापोषण की दृष्टि से हमें ऊपर उठना होगा। आचार्यों की प्रथम तीन कोटियों की प्रवृत्ति का अनुसरण करना होगा। उपाध्याय अमर मुनि ने भी इस समस्या पर मन्थन कर ऐसी ही धारणा प्रस्तुत की है। हम इस लेख में कुछ शास्त्रीय मन्तव्य प्रकाशित कर रहे हैं जिनसे यही मन्तव्य सिद्ध होता है।
आचार्यों और प्रन्थों की प्रामाणिकता
हमने जिनसेन के 'सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः' के रूप में आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों की प्रामाणिकता की धारणा स्थिर की है। पर जब विद्वज्जन इनका समुचित और सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, तो इस धारणा में सन्देह उत्पन्न होता है एवं सन्देह निवारक धारणाओं के लिये प्रेरणा मिलती है।
सर्वप्रथम हम महावीर को आचार्य परम्परा पर ही विचार करें। हमें विभिन्न स्रोतों से महावीर निर्वाण के पश्चात् ६८३ वर्षों की आचार्य परम्परा प्राप्त होती है। इसमें कम-से-कम चार विसंगतियां पाई जाती हैं। दो का समाधान जंबूद्वीप प्रप्ति से होता है, पर अन्य दो यथावत् बनी हुई हैं : (i) महावीर के प्रमुख उत्तराधिकारी गौतम गणधर हुए। उसके बाद और जंबू स्वामी के बीच में लोहार्य और
सुधर्मा स्वामी के नाम भी आते हैं । यह तो अच्छा रहा कि जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में स्पष्ट रूप से सुधर्मा स्वामी और लोहार्य को अभिन्न बनाकर यह विसंगति दूर की और तीन ही केवली रहे ।
(ii) पांच श्रुतकेवलियों के नामों में भी अन्तर है। पहले ही श्रुतकेवलो कहीं 'नन्दी' हैं तो कहीं 'विष्णु' कहे गये
हैं। इन्हें विष्णुनंदि मानकर समाधान किया गया है । (iii) धवला में सुभद्र, यशोभद्र, मद्रबाहु एवं लोहाचार्य को केवल एक आचारांगधारी माना है जबकि प्राकृत
पद्रावली में इन्हें क्रमशः १०, ९,८ अंगधारी माना है। इस प्रकार इन चार आचायों की योग्यता विवादग्रस्त है।
(iv) ६८३ वर्ष की महावीर परम्परा में एकांगधारी पुष्पदंत-भूतबलि सहित पांच आचायों ( ११८ वर्ष ) को
समाहित किया गया है और कहीं उन्हें छोड़कर ही ६८३ वर्ष की परम्परा दी गई है जैसा सारणी। से स्पष्ट है । एक सूची में १०, ९, ८ अंगधारियों के नाम ही नहीं हैं।
फलतः आचार्यों की परम्परा में ही नाम, योग्यता और कार्यकाल में भिन्नता है। यह परम्परा महावीर-उत्तर कालीन है। महावीर ने विभिन्न युग के आचार्यों के लिये भिन्न-भिन्न परम्परा के लेखन की दिव्यध्वनि विकीर्ण न की होगी। आधुनिक दृष्टि से इन विसंगतियों के दो कारण संभव हैं :
(अ) प्राचीन समय के विभिन्न आचार्यों और उनके साहित्य के समुचित संचरण एवं प्रसारण की व्यवस्था
और प्रक्रिया का अभाव ।
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२ ]
( ब ) उपलब्ध प्रत्यक्ष, अपूर्णं या परोक्ष सूचनाओं के आधार पर परम्परापोषण का प्रयत्न ।
में ये ही कारण प्रामाणिकता में प्रश्नचिह्न लगाते हैं। फिर यह प्रश्न तो रह ही जाता है कि कौन-सी
नये युग सूची प्रमाण है ?
३. केवली
५. भुतकेवली
११. दशपूर्वधारी
५. एकादशांगधारी
४. १०, ९, ८ अंगधारों ४. एकांगधारी
१. गुणधर २. धरसेन
३. पुष्पदंत
४. भूतबलि
सारणी १. धवला और प्राकृत पट्टावली की ६८३ वर्ष-परम्परा
धवला परम्परा
६२ वर्ष
९. कुंदकुंद
६. उमास्वाति
७. वर
८. शिवार्य
९. स्वामिकुमार ( कार्तिकेय )
१००,
१८३ "
२२० "
-
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११८
६८३
६८३
मूलाचार' के अनुसार, आचार्य शिष्यानुग्रह, धर्म एवं मर्यादाओं का उपदेश, संघ- प्रवर्तन एवं गण-परिरक्षण का कार्य करते हैं । अन्तिम दो कार्यों के लिये एतिहासिक एवं जीवन परम्परा का ग्रथन आवश्यक है । पर प्रारम्भ के प्रायः सभी प्रमुख आचार्यों का जीवनवृत्त अनुमानतः ही निष्कर्षित है । आत्म- हितैषियों के लिये इसका महत्व न भी माना जावे, तो भी परम्परा या ज्ञानविकास की क्रमिकधारा और उसके तुलनात्मक अध्ययन के लिये यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है । प्राचीन भारतीय संस्कृति की इस इतिहास - निरपेक्षता की वृति को गुण माना जाय या दोष यह विचारणीय है। एक ओर हमें 'अज्ञातकुलशीलस्य, वासो देयो न कस्यचित्' की सूक्ति पढाई जाती है, दूनरी ओर हमें ऐसे ही सभी आचार्यों को प्रमाण मानने की धारणा दी जाती है । यह और ऐसी ही अन्य परस्पर विरोधी मान्यताओं ने हमारी बहुत हानि की है । उदाहरणार्थ, शास्त्री द्वारा समीक्षित विभिन्न आचार्यों के काल-विचार के आधार पर प्राय: समी प्राचीन आचार्य समसामयिक सिद्ध होते हैं :
११४ ई० पू० ५०-१०० ई०
६० - १०६ ई०
७६-१३६ ई०
८१ - १६५ ई०
१००-१८० ई०
प्राकृत पट्टावली परम्परा
६२ वर्ष
१००
१८३,
१२३ "
९७
११८
प्रथम सदी
12
( पांच एकांगधारी )
"
31
१-२ सदी
१-२ सदी
२ सदी
प्रथम सदी
प्रथम सदी
२-३ री सदी
सौराष्ट्र, महाराष्ट्र
आंध्र, महाराष्ट्र
आंध्र तामिलनाडु
""
इनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबलि का पूर्वापर्यं और समय तो पर्याप्त यथार्थता से अनुमानित होता है । कुंदकुंद और उमास्वाति के समय पर पर्याप्त चर्चायें मिलती हैं। यदि इन्हें महावीर के ६८३ वर्ष बाद ही मानें, १३
,,
मथुरा
गुजरात
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[ खण्ड
९८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
तो इनमें से कोई भी आचार्य दूसरी सदों का पूर्ववर्ती नहीं हो सकता ( ६८३-५२७ = १५६ ई० ) । इन्हें गुरु-शिष्य मानने में भी अनेक बाधक तर्क हैं :
(i) उमास्वाति की बारह भावनाओं के नाम व क्रम कुंदकुंद से भिन्न हैं । पंचाचार और शिवार्य के चतुराचार को सम्यक् रत्नत्रय में परिवर्धित किया । उन्होंने तप और वीर्य को चारित्र में ही अन्तर्भूत माना ।
(ii) उमास्वाति ने वट्टकेर के
(iii) कुंदकुंद के एकार्थी पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्व और नो पदार्थों की विविधा को दूर कर उन्होंने सात तत्वों की मान्यता को प्रतिष्ठित किया ।
(iv) उमास्वाति ने अद्वैतवाद या निश्चय व्यवहार दृष्टियों की वरीयता पर माध्यस्थ भाव रखा ।
(v) उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण बताकर जैन विद्याओं में सर्वप्रथम प्रमाणवाद का समावेश किया ।
(vi) उमास्वाति ने श्रावकाचार के अन्तर्गत ग्यारह प्रतिमाओं पर मौन रखा। संभवतः इसमें उन्हें पुनरावृत्ति लगी हो ।
( vii ) उन्होंने सल्लेखना को श्रावक के द्वादश व्रतों से पृथक माना ।
(viii) उन्होंने सप्त तत्वों में बंध मोक्ष का कुंद-कुंद स्वीकृत क्रम अमात्य कर बंध को चौथा और मोक्ष को सातवां स्थान दिया ।
शिष्यता से मार्गानुसारिता अपेक्षित है । परन्तु लगता है कि उमास्वाति प्रतिभा के धनी थे । उन्होंने तत्कालीन समग्र साहित्य में व्याप्त चर्चाओं की विविधता देखकर अपना स्वयं का मत बनाया था। यही दृष्टिकोण वर्तमान में अपेक्षित है ।
उमास्वाति के समान अन्य आचार्यों ने भी सामयिक समस्याओं के समाधान की दृष्टि से परंपरागत मान्यताओं में संयोजन एवं परिवर्धन आदि किये हैं । इसलिये धार्मिक ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्त, चर्चायें या मान्यतायें अपरिवर्तनी हैं, ऐसी मान्यता तर्कसंगत नहीं लगती । विभिन्न युगों के ग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि अहिंसादि पाँच नीतिगत सिद्धान्तों की परंपरा भी महावीर युग से ही चली है । इसके पूर्व भगवान् रिषभ की त्रियाम ( समत्व, सत्य, स्वायत्तता ) एवं पार्श्वनाथ की चतुर्याय परंपरा थी ।" महावीर ने ही अचेलकत्व को प्रतिष्ठित किया। महावीर ने युग के अनुरूप अनेक परिवर्धन कर परंपरा को व्यापक बनाया । व्यापकीकरण की प्रक्रिया को भी परंपरापोषण ही माना जाना चाहिये । यद्यपि आज के अनेक विद्वान इस निष्कर्ष से सहमत नहीं प्रतीत होते पर परंपरायें तो परिवर्धित और विकसित होकर ही जीवन्त रहती हैं। वस्तुतः देखा जाय, तो जो लोग मूल आम्नाय जैसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, उसका विद्वत् जगत के लिए कोई अर्थ ही नहीं है । बीसवीं सदी में इस शब्द की सही परिभाषा देना ही कठिन है । म० रिषभ को मूल माना जाय या भ० महावीर को ? इस शब्द की व्युत्पत्ति स्वयं यह प्रदर्शित करती है कि यह व्यापकीकरण की प्रक्रिया के प्रति अनुदार है। हाँ, बीसवीं सदी के कुछ लेखक " समन्वय की थोड़ी-बहुत संभावना को अवश्य स्वीकार करने लगे हैं ।
सैद्धान्तिक मान्यताओं में संशोधन और उनकी स्वीकृति
उपरोक्त तथा अन्य अनेक तथ्यों से यह पता चलता है कि समय-समय पर हमने अपनी पूर्वगत अनेक सैद्धान्तिक मान्यताओं के संशोधनों को स्वीकृत किया है जिनमें कुछ निम्न हैं :
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(i) हमने विभिन्न तीर्थंकरों के युग में प्रचलित त्रियाम, चतुर्याम और पंचयाम धर्म के परिवर्धन को स्वीकृत किया।
(ii) हमने विभिन्न आचार्यों के पंचाचार, चतुराचार एवं रत्नत्रय के क्रमशः न्यूनीकरण को स्वीकृत किया । (iii) हमने प्रवाहमान ( परंपरागत ) और अप्रवाह्यमान ( संवर्धित ) उपदेशों को भी मान्यता दी।'२
(iv) अकलंक और अनुयोग द्वार सत्र ने लोकिक संगति बैठाने के लिये प्रत्यक्ष के दो भेद कर दिये जिनके विरोधी अर्थ हैं : लौकिक और पारमार्थिक । इन्हें भी हमने स्वीकृत किया और यह अब सिद्धान्त है । १3
(v) न्याय विद्या में प्रमाण शब्द महत्वपूर्ण है। इसकी चर्चा के बदले उमास्वातिपूर्व साहित्य में ज्ञान और उसके सम्यक्त्व या मिथ्यात्व की ही चर्चा है। प्रमाण शब्द की परिभाषा भी 'ज्ञानं प्रमाणं' से लेकर अनेक बार परिवधित हुई है । इसका विवरण द्विवेदी ने दिया है ।१४
(vi) हमने अर्धपालक और यापनीय आचार्यों को अपने गर्भ में समाहित किया जिनके सिद्धान्त तथाकथित मूल परंपरा से अनेक बातों में भिन्न पाये जाते हैं।
ये तो सैद्धान्तिक परिवर्धनों की सूचनायें हैं। ये हमारे धर्म के आधारभूत तथ्य रहे हैं। इन परिवर्धनों के परिप्रेक्ष्य में हमारी शास्त्रीय मान्यताओं की अपरिवर्तनीयता का तर्क कितना संगत है, यह विचारणीय है । मुनिश्री ने इस समस्या के समाधान के लिये शास्त्र और ग्रन्थ की स्पष्ट परिभाषा बताई है। उनके अनुसार केवल अध्यात्म विद्या ही शास्त्र है जो अपरिवर्तनीय है, उनमें विद्यमान अन्य वर्णन ग्रन्थ की सीमा में आते हैं और वे परिवर्धनीय हो सकते हैं।
शास्त्रों में पूर्वापर विरोध
शास्त्रों की प्रमाणता के लिये पूर्वापर-विरोध का अभाव भी एक प्रमुख बौद्धिक कारण माना जाता है। पर यह देखा गया है कि अनेक शास्त्रों के अनेक संद्धान्तिक विवरणों में परस्पर विरोध तो है ही, एक ही शास्त्र के विवरणों में भी विसंगतियां पाई जाती हैं। परंपरापोषी टीकाकारों ने ऐसे विरोधी उपदेशों को भी ग्राह्य बताया है। यह तो उन्होंने स्वीकृत किया है कि विरोधी या भिन्न मतों में से एक ही सत्य होगा, पर वीरसेन, वसुनन्दि जैसे टीकाकार और छद्मस्थों में सत्यासत्य निर्णय की विवेक क्षमता कहाँ ?१५ इन विरोधी विवरणों की ओर अनेक विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ है।
सबसे पहले हम मूल ग्रन्थों के विषय में ही सोंचें। सारणी २ से ज्ञात होता है कि कषाय प्राभूत, मूलाचार एवं कुंदकुंद साहित्य के भिन्न-भिन्न टीकाकारों ने तत्तत् ग्रन्थों में सूत्र या गाथा की संख्याओं में एकरूपता ही नहीं पाई। इसके अनेक रूप में समाधान दिये जाते हैं। इस भिन्नता का सद्भाव ही इनकी प्रामाणिकता की जांच के लिये प्रेरित करता है। ये अतिरिक्त गाथायें कैसे आई? क्यों हमने इनको भी प्रामाणिक मान लिया ? यही नहीं, इन ग्रन्थों में अनेक गाथाओं का पुनरावर्तन है जो ग्रन्थ निर्माण प्रक्रिया से पूर्व परंपरागत मानी जाती हैं। ये संघभेद से पूर्व की होने के कारण अनेक श्वेतांबर ग्रन्थों में भी पाई जाती हैं। गाथाओं का यह अन्तर अन्योन्य विरोध तो माना ही जावेगा। कूदकुंद-साहित्य के विपत्र में तो यह और भी अचरजकारी है कि दोनों टीकाकार लगभग १०० वर्ष के अन्तराल में ही उत्पन्न हुए।
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१०० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
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ग्रन्थ
१. कषाय पाहुड़ २. कषाय पाहुडचूणि ३. सत्प्ररूपणा सूत्र ४. मूलाचार ५. समयसार ६. पंचास्तिकाय ७. प्रवचनसार ८. रयणसार
सारणी : २ : कुछ मूल ग्रन्थों की गाथा। सूत्र संख्या गाथा संख्या,
गाथा संख्या, प्रथम टीकाकार
द्वितीय टीकाकार १८०
२३३ ( जय धवला) ८००० श्लोक ( ति०५०)
७००० " १७७ १२५२ ( वसुनंदि)
१४०९ ( मेधचंद्र) ४१५ ( अमृतचंद्र )
४४५ ( जयसेन) १७३
१९१ २७५ १५५
१६७ -
शास्त्रों में सैद्धान्तिक चर्चाओं के विरोधो विवरण
यह विवरण दो शीर्षकों में दिया जा रहा है : (i) एक ही प्रन्थ में असंगत चर्चा-मूलाचार के पर्याप्ति अधिकार की गाथा ७९-८० परस्पर असंगत हैं.५:
गाथा ७९ गाथा ८० सौधर्म स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु
५ पल्य ५प. ईशान स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु
७ पल्य ५प. सानत्कुमार स्वर्ग में देवियों को उत्कृष्ट आयु
९ प. १७५. घवखा के दो प्रकरण१६-(i) खुद्दक बन्धके अल्प बहुत्व अनुयोग द्वार में वनस्पति कायिक जीवों का प्रमाण सूत्र ७४ के अनुसार सूक्ष्म वनस्पति कायिक जीवों से विशेष अधिक होता है जब कि सूत्र ७५ के अनुसार सक्ष्म वनस्पति कायिक जीवों का प्रमाण वनस्पति कायिक जीवों से विशेष अधिक होता है। दोनों कथन परस्पर बिरोधी हैं । यही नहीं, सूक्ष्म वनस्पति कायिक जीव और सूक्ष्म निगोद जीव वस्तुतः एक ही हैं, पर इनका निर्देश पृथक्-पृथक् है।
(i) भागाभागानुगम अनुयोग द्वार के सूत्र ३४ को व्याख्या में विसगतियों के लिये वीरसेन ने सुझाया है कि सत्यासत्य का निर्णय आगम निपुण लोग ही कर सकते हैं ।
(ii) भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में असंगत चर्चायें-(i) तीन वातवलयों का विस्तार यतिवृषम और सिंह सूर्य ने अलग-अलग दिया है:
( अ ) त्रिलोक प्रज्ञप्ति में क्रमशः ११, ११ व ११३ कोश विस्तार है। ( ब ) लोक विभाग में क्रमशः २, १ कोश, एवं १५७५ धनुष विस्तार है ।
इसी प्रकार सासाइन गुणस्थानवर्ती जीव के पुनर्जन्म के प्रकरण में यतिवृषम नियम से उसे देवगति ही प्रदान करते हैं जब कि कुछ आचार्य उसे एकेन्द्रियादि जीवों की तिथंच गति प्रदान करते हैं। उच्चारणाचार्य और यतिवृषम के
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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन १०१
विषय के निरूपण के अन्तरों को वीरसेन ने जयधवला में नयविवक्षा के आधार पर सुलझाने का प्रयत्न किया है । इसी प्रकार, उच्चारणाचार्य का यह मत कि बाईस प्राकृतिक विभक्ति के स्वामी चतुर्गतिक जीव होते हैं-यतिवृषम के केवल मनुष्य-स्वामित्व से मेल नहीं खाता । भगवती आराधना में साधुओं के २८ व ३६ मूलगुणों की चर्चा के समय कहा है, "प्राकृत टीकायां तु अष्टाविंशति गुणाः। आचारवत्वायश्चाष्टी-इति षट्त्रिंशत् ।" इसी ग्रन्थ में १७ मरण बताये है पर अन्य ग्रन्थों में इतनी संख्या नहीं बताई गई है।८
शास्त्री ने बताया है कि 'षट्खंडागम' और कषायप्राभूत' में अनेक तथ्यों में मतभेद पाया जाता है। इसका उल्लेख 'तन्त्रान्तर' शब्द से किया गया है। उन्होंने धवला, जयधवला एवं त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनेक मान्यता भेदों का भी संकेत दिया है। इन मान्यता भेदों के रहते इनकी प्रामाणिकता का आधार केवल इनका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ही माना जावेगा।
आचार-विवरण संबंधी विसंबतियाँ
शास्त्रों में सैद्धान्तिक चर्चाओं के समान आचार-विवरण में भी विसंगतियां पाई जाती हैं। इनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है ।
श्रावक के आठ मूलगुण--श्रावकों के मूलगुणों की वरंपरा बारह ब्रतों से अर्वाचीन है। फिर भी, इसे समन्तभद्र से तो प्रारम्भ माना ही जा सकता है। इनकी आठ की संख्या में किस प्रकार समय-समय पर परिवर्धन एवं समाहरण हआ है; यह देखिये :१९
१. समन्तभद्र २. आशाधर ३. अन्य
तीन मकार त्याग तीन मकार त्याग तीन मकार त्याग
पंचाणु ब्रत पालन पंचोदुम्बर त्याग पंचोदुम्बर त्याग, रात्रि भोजन त्याग, देवपूजा, जीवदया, छना जलपान
समयानुकूल स्वैच्छिक परिवर्तनों को तेरहवीं सदी के पण्डित आशाधर तक ने मान्य किया है। यहाँ शास्त्री • समन्तभद्र की मूलगुण-गाथा को प्रक्षिप्त मानते हैं ।
बाईस अभक्ष्य-सामान्य जैन श्रावक तथा साधुओं के आहार से सम्बन्धित भक्ष्यामक्ष्य विवरण में दसवी सदी तक बाईस अभक्ष्यों का उल्लेख नहीं मिलता। मलाचार एवं आचारांग के अनुसार, अचित किये गये कन्दमूल, बहुवीजक ( निर्वीजित ) आदि की भक्ष्यता साधुओं के लिये वर्णित है ।२१ पर उन्हें गृहस्थों के लिये भक्ष्य नहीं माना जाता। वस्तुतः गृहस्थ ही अपनी विशिष्ट चर्या से साधुपद की ओर बढ़ता है, इस दृष्टि से यह विरोधाभास ही कहना चाहिये । सोमदेव आदि ने भी गृहस्थों के लिये प्रासुक-अप्रासुक की सीमा नहीं रखी। संभवतः नेमिचंद्र सूरि के प्रवचन सारोदार२७ में और बाद में मान विजय गणि के धर्मसंग्रह २८ में दसवीं सदी और उसके बाद सर्वप्रथम वाइस अमक्ष्यों का उल्लेख मिलता है। दिगंबर ग्रन्थों में दौलतराम के समय ही ५३ क्रियाओं में अभक्ष्यों की संख्या बाईस बताई गई है। फलतः भक्ष्याभक्ष्य विचार विकसित होते-होते दसवीं सदी के बाद ही रूढ़ हो सका है।
आहार के घटक--मक्ष्य आहार के घटकों में भी अन्तर पाया जाता है। मूलाचार की गाथा ८२२ में आहार के छह घटक बताये गये हैं जबकि गाथा ८२६ में चार घटक ही बताये हैं। ऐसे ही अनेक तथ्यों के आधार पर मूलाचार का संग्रह ग्रन्थ मानने की बात कही जाती है।"
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१०२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्रा साधुवाद -ग्रन्थ
श्रावक के व्रत - कुन्दकुन्द और उमास्वाति के युग से श्रावक के बारह व्रतों की परम्परा कुन्दकुन्द ने सल्लेखना को इनमें स्थान दिया है पर उमास्वाति, समन्तभद्र और आशाधर इसे मानते हैं । इससे बारह व्रतों के नामों में अन्तर पड़ गया है। इनमें पाँच अणुव्रत तो सभी में सात शीलों के नामों के अन्तर है :
( अ ) गुण व्रत
कुन्दकुन्द उयास्वाति
आशाधर, समन्तचद्र
( ब ) शिक्षा व्रत
कुन्दकुन्द
सामायिक
समन्तभद्र, आशाधर सामायिक
उमास्वाति
सामायिक
सोमदेव
सामायिक
दिशा - विदिशा प्रमाण
दिग्ब्रत
दिव्रत
समन्तभद्र
पूज्यपाद
सोमदेव
प्रोषधोपवास
प्रोषधोपवास
प्रोषधोपवास
प्रोषधोवपास
अनर्थदण्ड ब्रत
अनर्थं दण्ड व्रत
अनर्थ दण्ड व्रत
एकबार सेव्य भोग उपभोग
भोग
अतिथि पूज्यता
वैयावृत्य
अतिथि संविभाग
वैयावृत्य
यहाँ कुन्दकुन्द और उमास्वाति की परम्परा स्पष्ट दृष्टव्य है । अधिकांश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उमास्वाति कामत माना है । साथ ही, मोगोपयोग परिमाण व्रत के अनेक नाम होने से उपभोग शब्द की परिभाषा भी भ्रामक हो गई है :
[ खण्ड
चली आ रही है । पृथक् कृत्य के रूप में समान हैं, पर अन्य
भोगोपभोग परिमाण देशव्रत
भोगोपभोग परिमाण
सल्लेखना
देशावका शिक
उपभोग परिभोग परिमाण
भोग - परिभोग परिमाण
श्रावक की प्रतिमायें - श्रावक से साधुत्व की ओर बढ़ने के लिये ग्यारह प्रतिमाओं की परम्परा कुन्दकुन्द युग ही है । संख्या की एकरूपता के बावजूद भी अनेक के नामों और अर्थों में अन्तर है । सबसे ज्यादा मतभेद छठी प्रतिमा के नाम को लेकर है । इसके रात्रिभुक्ति त्याग ( कुन्दकुन्द, समन्तभद्र ) एवं दिवामैथुन त्याग ( जिनसेन, आशाधर ) नाम मिलते हैं । रात्रिमुक्तित्याग तो पुनरावृत्ति लगती है, यह मूल गुण है, आलोकित पान - भोजन का दूसरा रूप है । अतः परवर्ती दूसरा नाम अधिक सार्थक है । सोमदेव ने अनेक प्रतिमाओं के नये नाम दिये हैं। उन्होंने १ मूलव्रत ( दर्शन ), अर्चा ( सामायिक ), ४ पर्व कर्म ( प्रोषध ), ५ कृषिकर्म त्याग ( सचित्त त्याग ), ८ सचित्त त्याग ( परिग्रह त्याग ) के नाम दिये हैं । हेमचन्द्र ने भी इनमें पर्वकर्म, प्रासुक आहार, समारम्भ त्याग, साधु निस्सङ्गता का समाहार किया है । सम्भवतः इन दोनों आचार्यों ने प्रतिमा, व्रत व मूल गुणों के नामों की पुनरावृत्ति दूर करने के लिये विशिष्टार्थक नामकरण किया है। यह सराहनीय है । परम्परापोषी युग की बात भी है। बीसवी सदी में मुनि क्षीरसागर ने भी पुनरावृत्ति दोष का अनुभव कर अपनी रत्नकरऽश्रावकाचार की हिन्दी टीका में ३ पूजन ४ स्वाध्याय ७ प्रतिक्रमण एवं ११ भिक्षाहार नामक प्रतिमाओं का समाहार किया है। 23 पर इन नये नामों को मान्यता नहीं मिली है ।
बारबार सेव्य उपभोग परिभोग
परिभोग
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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन १०३ व्रतों के अतीचार-श्रावकों के व्रतों के अनेक अतीचारों में भी मिन्नता पाई गई है।
जाति एवं वर्ण को मान्यता-शिद्धान्तशास्त्री ने बताया है कि आचार्य जिनसेन की जैनों के ब्राह्मणीकरण को प्रक्रिया उसके पूर्ववर्ती आगम साहित्य से समथित नहीं होती। उसके शिष्य गुणभद्र एवं वसुनन्दि आदि उत्तरवर्ती आचार्य भी उसका समर्थन नहीं करते ।२६ भौतिक जगत के वर्णन में विसंगतियाँ : वर्तमान काल
भौतिक जगत के अन्तर्गत जीवादि छह द्रव्मों का वर्णन समाहित है। उमास्वाति ने "उपयोगो लक्षणं" कहकर जीव को परिभाषित किया है। पर शास्त्रों के अनुसार, उपयोग की परिभाषा में ज्ञान, दर्शन के साथ-साथ सुख
और वीर्य का भी उत्तरकाल में समावेश किया गया। अनेक ग्रन्थों में उपयोग और चेतना शब्दों को पृथक्-पृथक भी बताया गया है। इसका समाधान क्षमता एवं क्रियात्मक रूप से किया जाता है ।२४ इसो प्रकार, जीवोत्पत्ति के विषय में भी विकलेन्द्रिय जीवों तक की सम्मूर्छनता विचारणीय है जब कि भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वपर ने कल्पसूत्र में मक्खी, मकड़ी, पिपीलिका, खटमल आदि को अण्डज बताया है। निश्चय-व्यवहार की चर्चा से यह प्रयोग-सापेक्ष प्रश्न समाधेय नहीं दिखता।
अजीव को पुद्गल शब्द से अमिलक्षणित करने की सूक्ष्मता के वावजूद भी उसके भेद-प्रभेदों का चक्षु की स्थूलग्राह्यता तथा अन्य इन्द्रियों की सूक्ष्म प्राहिता के आधार पर वर्णन आज की दृष्टि से कुछ असंगत-सा लगता है । पदार्थ के अणुस्कन्ध रूपों की या वर्गणाओं की चर्चा कुंदकुंद युग से पूर्व की है। पर कुंदकुंद ने सर्वप्रथम चक्षु-दृश्यता के आधार पर स्कंधों के छह भेद किये हैं। उन्होंने आकार की स्थूलता को दृश्य माना और चक्षुषा-अदृश्य पदार्थों को सूक्ष्म माना। इस प्रकार ऊष्मा, प्रकाश आदि ऊर्जायें तृतीय कोटि ( स्थूल-सूक्ष्म ) और वायु आदि गैस, गन्ध व रसवान् पदार्थ ( सूक्ष्म-स्थूल ) चतुर्थ कोटि ( सूक्ष्मतर ) में आ गये। दुर्भाग्य से ध्वनि ऊर्जा कर्ण-गोचर होने से प्रकाश-आदि से सुक्ष्मतर हो गई।
धवला-वणित वर्गणा-क्रम वर्धमान स्थूलता पर आधारित लगता है पर उसका क्रम अणु-आहार-तैजस-भाषा-मनकार्मण शरीर-प्रत्येक शरीर बादर निगोद-सूक्ष्म निगोद-वर्गणाओं का क्रम विसंगत लगता है। तेजस शरीर से कार्मण शरीर सूक्ष्मतर बताया गया है, तेजस ( ऊर्जायें ) एवं ध्वनि आहार-अणुओं से सूक्ष्मतर होती हैं, सूक्ष्म निगोद बादर निगोद से सूक्ष्मतर होना चाहिये तथा मन, यदि द्रव्यमन ( मस्तिष्क ) है, तो वह प्रत्येक शरीर से भी स्थूलतर होता है।
जैनों का परमाणुओं के बन्ध संबंधी नियमों का विद्युत् गुणों के आधार पर विवरण अभूतपूर्व है। पर यह विवरण अक्रिय गैसों के यौगिकों के निर्माण, उपसह-संयोजी यौगिकों तथा संकुल लवणों के संमवन से संशोधनीय हो गया है। शास्त्री२५ ने इन नियमों की शास्त्रीय व्याख्या में भी टीकाकार-कृत अन्तर बताया है । जैन, मुनि विजय आदि अनेक विद्वान् विभिन्न व्याख्याओं से इन शास्त्रीय मान्यताओं को हो सत्य प्रमाणित करने का यत्न करते हैं। परन्तु उन्हें तैजस वर्गणा और नमी वर्गणा के आकारों की स्थूलता के अन्तर को मानसिक नहीं बनाना चाहिये। उन्हें गर्भज (सलिंगी ) प्रजनन को अलिंगी-सम्मूर्छन प्रजनन के समकक्ष भी नहीं मानना चाहिये । उपसंहार
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि षट्खंडागम, कषायपाहुड़, कुंदकुंद, उमास्वाति तथा उत्तरवर्ती चूणि-टीकाकारों के ग्रन्थों के सामान्य अन्तः परीक्षण के कुछ उपरोक्त उदाहरणों से निम्न तथ्य भली भाँति स्पष्ट होते हैं :
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[ खण्ड
१०४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
(i) इन ग्रन्थों का निर्माण ईसापूर्व प्रथम सदी से तेरहवीं सदी के बीच हुआ है । इनके लेखक न सर्वज्ञ थे, न गणधर ही, वे आरातीय थे ।
(ii) इन ग्रन्थों के आगम-तुल्य अतएव प्रामाणिक माने जाने के जो दो शास्त्रीय आधार हैं, वे इन पर पूर्णतया लागू नहीं होते ।
(iii) आचार्य कुंदकुंद का अध्यात्मवादी साहित्य अमृतचन्द्र एवं जयसेन ( १०-१२ वीं सदी ) के पूर्व प्रभावशाली नहीं बन सका । फिर भी, इसकी ऐतिहासिक महत्ता मानी गई। इसी से उन्हें स्वाध्याय के मंगल में गोतम गणवर के बाद स्थान मिला। यह मंगल श्लोक कब प्रचलन में आया, इसका उल्लेख नहीं मिलता, पर इसमें भद्रबाहु जैसे अंग-पूर्व धारियों तक को अनदेखा किया गया है, यह अचरजकारी बात अवश्य है । पर इससे भी अचरज की बात यह है कि अधिकांश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उनके बदले उमास्वाति की मान्यताओं को उपयोगी माना । यही कारण है कि जब सोलहवीं सदी में पुन: बनारसीदास ने इसे प्रतिष्ठा दी, तब पंथभेद हुआ । अब बीसवीं सदी में भी ऐसी ही संभावना दिखती है ।
(iv) इन ग्रन्थों में वर्णित अनेक विचार और मान्यतायें उत्तरकाल में विकसित, संशोधित और परिवर्धित हुई हैं । (v) इनमें वर्णित अनेक आचार-परक विवरणों का भी उत्तरोत्तर विकास और संशोधन हुआ है ।
(vi) अनेक ग्रन्थों में स्वयं एवं परस्पर विसंगत वर्णन पाये जाते हैं । इनके समाधान की "द्वावपि उपदेशी ग्राह्यो" की पद्धति तर्कसंगत नहीं है ।
(vii) इनके भौतिक जगत संबंधी अनेक विवरणों में वर्तमान की दृष्टि से (viii आशावर के उत्तरवर्ती आचार्यों ने अनेक पूर्ववर्ती आचार्यों की ग्रन्थों में स्वीकृत किया है । पापभीरुता, प्रतिभा की कमी तथा मान लिया गया ।
प्रयोग-प्रमाण- बाधकता प्रतीत होती है ।
मान्यताओं को अपनी रुचि के अनुसार अपने राजनीतिक अस्थिरता ने इन्हें स्थिर और रूढ़
(ix) प्राचीन आचार्यों ने एवं टीकाकारों ने अपने अपने समय में आचार एवं विचार पक्षों की अनेक पूर्व मान्यताओं का संरक्षण, पोषण व विकास किया है। अतः सभी शास्त्रीय मान्यताओं की अपरिवर्तनीयता की धारणा ठोस तथ्यों पर आधारित नहीं है ।
(x) इस अपरिवर्तनीयता की धारणा के आधार पर प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक तथ्यों की उपेक्षा या काट की प्रवृत्ति हमारे
ज्ञान प्रवाह की गरिमा के अनुरूप नहीं है ।
अतः हमें अपने शास्त्रीय वर्णनों, विचारों की परीक्षा कर उनकी प्रामाणिकता का अंकन करना चाहिये जैसा वैज्ञानिक करते हैं । इस परीक्षण विधि का सूचपात आचार्य समंतभद्र, अकलंक आदि ने सदियों पूर्व किया था । वर्तमान बुद्धिवादी युग परीक्षण जन्य समीचीनता के आधार पर ही आस्थावान् बन सकेगा। आचार्य कुंदकुंद मी यह निर्दिष्ट करते हैं ।
संदर्भ
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________________ आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन 105 5. ज्योतिषाचार्य, नेमिचन्द्र, महावीर और उनको आचार्य परम्परा-२, पूर्वोक्त, 1974, पेज 25 / 6. उपाध्याय, अमर मुनि; पण्णा समिक्खए धम्म-२, वीरायतन, राजगिर, 1987 / 7. देखिये निर्देश 5 पेज 8, पेज 19 / 8. आचार्य वट्टकेर; मूलाचार --1, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1984, पेज 132 / 9. देखिये निर्देश 5 पेज 28-169 / 10. संन्यासी राम; 'धमण' पार्श्वनाथ विद्याश्रम, काशी, 38, 6, 1987 पेज 27; 38, 6, 1987, पेज 27 / / 11. नीरज जैन; 'जैन गजट' ( साप्ताहिक ), 92, 41-42, 1987, पेज 10 / 12. देखिये निर्देश 5 पेज 77 / 13. न्यायाचार्य, महेन्द्रकुमार; जैन दर्शन, वर्णी ग्रन्थमाला, काशी, 1966, पेज 268 / 14. द्विवेदी, आर० सी०; कन्ट्रीब्यूशन ऑव जैनिज्म दू इण्डियन कल्चर, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1975, पेज 156 / 15. देखिये निर्देश 4 पेज 17 / 16. देखिये निर्देश 5 पेज 327-28, 84-85, 87 / 17. आचार्य पुष्यदन्त; सत्प्ररूपणा सूत्र, वर्णी ग्रन्थमाला, काशी, 1971, पेज 115 / 18. शिवार्य, आचार्य; भगवती आराधना-१, जीवराज ग्रन्थमाथा, शोलापुर, 1978, पेज 126 / 19. माशाधर, पंडित; सागार धर्माभृत, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1978, पेज 43,63 / 20. देखिये निर्देश 5 पेज 193 / 21. आचार्य बट्टकेर; मूलाचार-२, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1986, पेज 66-68 / 22. देखिये निर्देश 19 पेज 33 / 23. मुनि क्षीरसागर, रत्नकरंड-श्रावकाचार, हिन्दी टोका, एस० एल० ट्रस्ट, विदिशा, 1951 / 24. जैन, एस० सी०; स्ट्रक्चर एण्ड फंक्शन ऑव सोल इन जैनिज्म, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1974 / 25. सिद्धान्तशास्त्री, फूलचन्द्र ( टीकाकार); तत्त्वार्थसूत्र, वणी ग्रन्यमाला, काशी, 1949, पेज 262 / 26. सिद्धान्तशास्त्री, फूलचन्द्र; वर्ण, जाति और धर्म, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1963, पेज 178 / 27. नेमिचंद्र सूरि; प्रवचन सारोद्धार, जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बंबई, 1922, पेज 58 / 28. मानविजय गणि; धर्मसंग्रह, अमृतलाल जयसिंह भाई, अहमदाबाद, 1955, पेज 199 /