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________________ १०२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्रा साधुवाद -ग्रन्थ श्रावक के व्रत - कुन्दकुन्द और उमास्वाति के युग से श्रावक के बारह व्रतों की परम्परा कुन्दकुन्द ने सल्लेखना को इनमें स्थान दिया है पर उमास्वाति, समन्तभद्र और आशाधर इसे मानते हैं । इससे बारह व्रतों के नामों में अन्तर पड़ गया है। इनमें पाँच अणुव्रत तो सभी में सात शीलों के नामों के अन्तर है : ( अ ) गुण व्रत कुन्दकुन्द उयास्वाति आशाधर, समन्तचद्र ( ब ) शिक्षा व्रत कुन्दकुन्द सामायिक समन्तभद्र, आशाधर सामायिक उमास्वाति सामायिक सोमदेव सामायिक दिशा - विदिशा प्रमाण दिग्ब्रत दिव्रत समन्तभद्र पूज्यपाद सोमदेव Jain Education International प्रोषधोपवास प्रोषधोपवास प्रोषधोपवास प्रोषधोवपास अनर्थदण्ड ब्रत अनर्थं दण्ड व्रत अनर्थ दण्ड व्रत एकबार सेव्य भोग उपभोग भोग अतिथि पूज्यता वैयावृत्य अतिथि संविभाग वैयावृत्य यहाँ कुन्दकुन्द और उमास्वाति की परम्परा स्पष्ट दृष्टव्य है । अधिकांश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उमास्वाति कामत माना है । साथ ही, मोगोपयोग परिमाण व्रत के अनेक नाम होने से उपभोग शब्द की परिभाषा भी भ्रामक हो गई है : [ खण्ड चली आ रही है । पृथक् कृत्य के रूप में समान हैं, पर अन्य भोगोपभोग परिमाण देशव्रत भोगोपभोग परिमाण For Private & Personal Use Only सल्लेखना देशावका शिक उपभोग परिभोग परिमाण भोग - परिभोग परिमाण श्रावक की प्रतिमायें - श्रावक से साधुत्व की ओर बढ़ने के लिये ग्यारह प्रतिमाओं की परम्परा कुन्दकुन्द युग ही है । संख्या की एकरूपता के बावजूद भी अनेक के नामों और अर्थों में अन्तर है । सबसे ज्यादा मतभेद छठी प्रतिमा के नाम को लेकर है । इसके रात्रिभुक्ति त्याग ( कुन्दकुन्द, समन्तभद्र ) एवं दिवामैथुन त्याग ( जिनसेन, आशाधर ) नाम मिलते हैं । रात्रिमुक्तित्याग तो पुनरावृत्ति लगती है, यह मूल गुण है, आलोकित पान - भोजन का दूसरा रूप है । अतः परवर्ती दूसरा नाम अधिक सार्थक है । सोमदेव ने अनेक प्रतिमाओं के नये नाम दिये हैं। उन्होंने १ मूलव्रत ( दर्शन ), अर्चा ( सामायिक ), ४ पर्व कर्म ( प्रोषध ), ५ कृषिकर्म त्याग ( सचित्त त्याग ), ८ सचित्त त्याग ( परिग्रह त्याग ) के नाम दिये हैं । हेमचन्द्र ने भी इनमें पर्वकर्म, प्रासुक आहार, समारम्भ त्याग, साधु निस्सङ्गता का समाहार किया है । सम्भवतः इन दोनों आचार्यों ने प्रतिमा, व्रत व मूल गुणों के नामों की पुनरावृत्ति दूर करने के लिये विशिष्टार्थक नामकरण किया है। यह सराहनीय है । परम्परापोषी युग की बात भी है। बीसवी सदी में मुनि क्षीरसागर ने भी पुनरावृत्ति दोष का अनुभव कर अपनी रत्नकरऽश्रावकाचार की हिन्दी टीका में ३ पूजन ४ स्वाध्याय ७ प्रतिक्रमण एवं ११ भिक्षाहार नामक प्रतिमाओं का समाहार किया है। 23 पर इन नये नामों को मान्यता नहीं मिली है । बारबार सेव्य उपभोग परिभोग परिभोग www.jainelibrary.org
SR No.210155
Book TitleAgam Tulya Granth ki Pramanikta Ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Criticism
File Size837 KB
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