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________________ २] आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन १०३ व्रतों के अतीचार-श्रावकों के व्रतों के अनेक अतीचारों में भी मिन्नता पाई गई है। जाति एवं वर्ण को मान्यता-शिद्धान्तशास्त्री ने बताया है कि आचार्य जिनसेन की जैनों के ब्राह्मणीकरण को प्रक्रिया उसके पूर्ववर्ती आगम साहित्य से समथित नहीं होती। उसके शिष्य गुणभद्र एवं वसुनन्दि आदि उत्तरवर्ती आचार्य भी उसका समर्थन नहीं करते ।२६ भौतिक जगत के वर्णन में विसंगतियाँ : वर्तमान काल भौतिक जगत के अन्तर्गत जीवादि छह द्रव्मों का वर्णन समाहित है। उमास्वाति ने "उपयोगो लक्षणं" कहकर जीव को परिभाषित किया है। पर शास्त्रों के अनुसार, उपयोग की परिभाषा में ज्ञान, दर्शन के साथ-साथ सुख और वीर्य का भी उत्तरकाल में समावेश किया गया। अनेक ग्रन्थों में उपयोग और चेतना शब्दों को पृथक्-पृथक भी बताया गया है। इसका समाधान क्षमता एवं क्रियात्मक रूप से किया जाता है ।२४ इसो प्रकार, जीवोत्पत्ति के विषय में भी विकलेन्द्रिय जीवों तक की सम्मूर्छनता विचारणीय है जब कि भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वपर ने कल्पसूत्र में मक्खी, मकड़ी, पिपीलिका, खटमल आदि को अण्डज बताया है। निश्चय-व्यवहार की चर्चा से यह प्रयोग-सापेक्ष प्रश्न समाधेय नहीं दिखता। अजीव को पुद्गल शब्द से अमिलक्षणित करने की सूक्ष्मता के वावजूद भी उसके भेद-प्रभेदों का चक्षु की स्थूलग्राह्यता तथा अन्य इन्द्रियों की सूक्ष्म प्राहिता के आधार पर वर्णन आज की दृष्टि से कुछ असंगत-सा लगता है । पदार्थ के अणुस्कन्ध रूपों की या वर्गणाओं की चर्चा कुंदकुंद युग से पूर्व की है। पर कुंदकुंद ने सर्वप्रथम चक्षु-दृश्यता के आधार पर स्कंधों के छह भेद किये हैं। उन्होंने आकार की स्थूलता को दृश्य माना और चक्षुषा-अदृश्य पदार्थों को सूक्ष्म माना। इस प्रकार ऊष्मा, प्रकाश आदि ऊर्जायें तृतीय कोटि ( स्थूल-सूक्ष्म ) और वायु आदि गैस, गन्ध व रसवान् पदार्थ ( सूक्ष्म-स्थूल ) चतुर्थ कोटि ( सूक्ष्मतर ) में आ गये। दुर्भाग्य से ध्वनि ऊर्जा कर्ण-गोचर होने से प्रकाश-आदि से सुक्ष्मतर हो गई। धवला-वणित वर्गणा-क्रम वर्धमान स्थूलता पर आधारित लगता है पर उसका क्रम अणु-आहार-तैजस-भाषा-मनकार्मण शरीर-प्रत्येक शरीर बादर निगोद-सूक्ष्म निगोद-वर्गणाओं का क्रम विसंगत लगता है। तेजस शरीर से कार्मण शरीर सूक्ष्मतर बताया गया है, तेजस ( ऊर्जायें ) एवं ध्वनि आहार-अणुओं से सूक्ष्मतर होती हैं, सूक्ष्म निगोद बादर निगोद से सूक्ष्मतर होना चाहिये तथा मन, यदि द्रव्यमन ( मस्तिष्क ) है, तो वह प्रत्येक शरीर से भी स्थूलतर होता है। जैनों का परमाणुओं के बन्ध संबंधी नियमों का विद्युत् गुणों के आधार पर विवरण अभूतपूर्व है। पर यह विवरण अक्रिय गैसों के यौगिकों के निर्माण, उपसह-संयोजी यौगिकों तथा संकुल लवणों के संमवन से संशोधनीय हो गया है। शास्त्री२५ ने इन नियमों की शास्त्रीय व्याख्या में भी टीकाकार-कृत अन्तर बताया है । जैन, मुनि विजय आदि अनेक विद्वान् विभिन्न व्याख्याओं से इन शास्त्रीय मान्यताओं को हो सत्य प्रमाणित करने का यत्न करते हैं। परन्तु उन्हें तैजस वर्गणा और नमी वर्गणा के आकारों की स्थूलता के अन्तर को मानसिक नहीं बनाना चाहिये। उन्हें गर्भज (सलिंगी ) प्रजनन को अलिंगी-सम्मूर्छन प्रजनन के समकक्ष भी नहीं मानना चाहिये । उपसंहार उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि षट्खंडागम, कषायपाहुड़, कुंदकुंद, उमास्वाति तथा उत्तरवर्ती चूणि-टीकाकारों के ग्रन्थों के सामान्य अन्तः परीक्षण के कुछ उपरोक्त उदाहरणों से निम्न तथ्य भली भाँति स्पष्ट होते हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210155
Book TitleAgam Tulya Granth ki Pramanikta Ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Criticism
File Size837 KB
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