Book Title: Agam Tulya Granth ki Pramanikta Ka Mulyankan
Author(s): N L Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 1
________________ आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन डॉ० एन० एल० जैन रीवा, म० प्र० वर्तमान वैज्ञानिक युग की यह विशेषता है कि इसमें विभिन्न मौतिक व आध्यात्मिक तथ्यों और घटनाओं को बौद्धिक परीक्षा के साथ प्रायोगिक साक्ष्य के आधार पर भी व्याख्या करने का प्रयत्न होता है। दोनों प्रकार के संपोषण से आस्था बलवती होती है । वैज्ञानिक मस्तिष्क दार्शनिक या सन्त को स्वानुभूति, दिव्यदृष्टि या मात्र बौद्धिक व्याख्या से 'सन्तुष्ट नहीं होता। इसी लिये वह प्राचीन शास्त्रों, शब्द या वेद की प्रमाणता की धारणा की भी परीक्षा करता है । जैन शास्त्रों में प्राचीन श्रुत की प्रमाणता के दो कारण दिये हैं: (१) सर्वज्ञ, गणधर, उनके शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा रचना और (२) शास्त्र वर्णित तथ्यों के लिये बाधक प्रमाणों का अभाव। इस आधार पर जब अनेक शास्त्रीय विवरणों का आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया जाता है, तब मुनिश्री नन्दिघोष विजय के अनुसार भी स्पष्ट भिन्नतायें दिखाई पड़ती हैं। अनेक साधु, विद्वान्, परम्परापोषक और प्रबुद्धजन इन भिन्नताओं के समाधान में दो प्रकार के दृष्टिकोण अपनाते हैं : (अ) वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार ज्ञान का प्रवाह वर्धमान होता है । फलतः प्राचीन वर्णनों में भिन्नता ज्ञान के विकास पथ को निरूपित करती है। वे प्राचीन शास्त्रों को इस विकासपथ के एक मील का पत्थर मानकर इन्हें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में स्वीकृत करते हैं। इससे वे अपनी बौद्धिक प्रगति का मूल्यांकन भी करते हैं । (ब) परम्परापोषक दृष्टिकोण के अनुसार समस्त ज्ञान सर्वज्ञ, गणधरों एवं आरातीय आचार्यों के शास्त्रों में निरूपित है । वह शाश्वत माना जाता है । इस दृष्टिकोण में ज्ञान की प्रवाहरूपता एवं विकास प्रक्रिया को स्थान प्राप्त नहीं है । इसलिये जब विभिन्न विवरणों तथ्यों और उनको व्याख्याओं में आधुनिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में भिन्नता परिलक्षित होती है, तब इस कोटि के अनुसर्ता विज्ञान की निरन्तर परिवर्तनीयता एवं शास्त्रीय अपरिवर्तनीयता की चर्चा उठाकर परम्परा -पोषण को ही महत्व देते हैं । यह प्रयत्न अवश्य किया जाता है कि इन व्याख्याओं से अधिकाधिक संगतता आवे चाहे इसके लिये कुछ खींचतान ही क्यों न करनी पड़े। अनेक विद्वानों को यह धारणा संभवतः उन्हें अरुचिकर प्रतीत होगी कि अंग साहित्य का विजय युगानुसार परिवर्तित होता रहता है । सत्य हो, पोषण का अर्थ केवल संरक्षण ही नहीं, संवर्धन भी होता है। जैन शास्त्रों के काकदृष्टीय अध्ययन से ज्ञात होता है कि शास्त्रीय आचारविचार की मान्यतायें नवमी-दशमी सदी तक विकसित होती रही हैं। इसके बाद इन्हें स्थिर एवं अपरिवर्तनीय क्यों मानलिया गया, यह शोधनीय है। शास्त्री का मत है कि परम्परापोषक वृत्ति का कारण संभवतः प्रतिमा की कमी तथा राजनीतिक अस्थिरता माना जा सकता है। पापचीरुता भी इसका एक संभावित कारण हो सकती है । इस स्थिति ने समग्र भारतीय परिवेश को प्रभावित किया है । शास्त्री ने आरातीय आचार्यों को श्रुतधर, सारस्वत, प्रबुद्ध परम्परापोषक एवं आचार्यतुल्य कोटियों में वर्गीकृत किया है । इनमें प्रथम तीन कोटियों के प्रमुख आचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि प्रत्येक आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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