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( ब ) उपलब्ध प्रत्यक्ष, अपूर्णं या परोक्ष सूचनाओं के आधार पर परम्परापोषण का प्रयत्न ।
में ये ही कारण प्रामाणिकता में प्रश्नचिह्न लगाते हैं। फिर यह प्रश्न तो रह ही जाता है कि कौन-सी
नये युग सूची प्रमाण है ?
३. केवली
५. भुतकेवली
११. दशपूर्वधारी
५. एकादशांगधारी
४. १०, ९, ८ अंगधारों ४. एकांगधारी
१. गुणधर २. धरसेन
३. पुष्पदंत
४. भूतबलि
सारणी १. धवला और प्राकृत पट्टावली की ६८३ वर्ष-परम्परा
धवला परम्परा
६२ वर्ष
९. कुंदकुंद
६. उमास्वाति
७. वर
८. शिवार्य
९. स्वामिकुमार ( कार्तिकेय )
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१००,
१८३ "
२२० "
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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन ९७
११८
६८३
६८३
मूलाचार' के अनुसार, आचार्य शिष्यानुग्रह, धर्म एवं मर्यादाओं का उपदेश, संघ- प्रवर्तन एवं गण-परिरक्षण का कार्य करते हैं । अन्तिम दो कार्यों के लिये एतिहासिक एवं जीवन परम्परा का ग्रथन आवश्यक है । पर प्रारम्भ के प्रायः सभी प्रमुख आचार्यों का जीवनवृत्त अनुमानतः ही निष्कर्षित है । आत्म- हितैषियों के लिये इसका महत्व न भी माना जावे, तो भी परम्परा या ज्ञानविकास की क्रमिकधारा और उसके तुलनात्मक अध्ययन के लिये यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है । प्राचीन भारतीय संस्कृति की इस इतिहास - निरपेक्षता की वृति को गुण माना जाय या दोष यह विचारणीय है। एक ओर हमें 'अज्ञातकुलशीलस्य, वासो देयो न कस्यचित्' की सूक्ति पढाई जाती है, दूनरी ओर हमें ऐसे ही सभी आचार्यों को प्रमाण मानने की धारणा दी जाती है । यह और ऐसी ही अन्य परस्पर विरोधी मान्यताओं ने हमारी बहुत हानि की है । उदाहरणार्थ, शास्त्री द्वारा समीक्षित विभिन्न आचार्यों के काल-विचार के आधार पर प्राय: समी प्राचीन आचार्य समसामयिक सिद्ध होते हैं :
११४ ई० पू० ५०-१०० ई०
६० - १०६ ई०
७६-१३६ ई०
८१ - १६५ ई०
१००-१८० ई०
प्राकृत पट्टावली परम्परा
६२ वर्ष
१००
१८३,
१२३ "
९७
११८
प्रथम सदी
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12
( पांच एकांगधारी )
"
31
१-२ सदी
१-२ सदी
२ सदी
प्रथम सदी
प्रथम सदी
२-३ री सदी
सौराष्ट्र, महाराष्ट्र
आंध्र, महाराष्ट्र
आंध्र तामिलनाडु
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इनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबलि का पूर्वापर्यं और समय तो पर्याप्त यथार्थता से अनुमानित होता है । कुंदकुंद और उमास्वाति के समय पर पर्याप्त चर्चायें मिलती हैं। यदि इन्हें महावीर के ६८३ वर्ष बाद ही मानें, १३
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मथुरा
गुजरात
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