Book Title: Agam 19 Nirayavalika Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नमः पूज्य आनन्द-क्षमा ललित - सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः आगम-१९ निरयावलिका आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद अनुवादक एवं सम्पादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] आगम हिन्दी अनुवाद-श्रेणी पुष्प- १९ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र आगमसूत्र-१९- "निरयावलिका' उपांगसूत्र-८- हिन्दी अनुवाद कहां क्या देखे? क्रम विषय पृष्ठ क्रम विषय पृष्ठ ०५ अध्ययन-१-'काल' अध्ययन-२- 'सुकाल' अध्ययन-३-से- १० १६ ३ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र ४५ आगम वर्गीकरण क्रम । आगम का नाम क्रम आगम का नाम सूत्र आचार पयन्नासूत्र-२ ०२ सूत्रकृत् ०३ | स्थान अंगसूत्र-१ अंगसूत्र-२ अंगसूत्र-३ अंगसूत्र-४ | २५ । आतुरप्रत्याख्यान २६ | महाप्रत्याख्यान भक्तपरिज्ञा तंदुलवैचारिक संस्तारक २७ पयन्नासूत्र-३ पयन्नासूत्र-४ पयन्नासूत्र-५ पयन्नासूत्र-६ ०४ समवाय ०५ अंगसूत्र-५ २९ भगवती ज्ञाताधर्मकथा ०६ । अंगसूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ ०७ उपासकदशा अंगसत्र-७ अंगसूत्र-८ ३०.१ गच्छाचार ३०.२ | चन्द्रवेध्यक | गणिविद्या देवेन्द्रस्तव वीरस्तव । ३४ निशीथ अंगसूत्र-९ ०८ अंतकृत् दशा ०९ अनुत्तरोपपातिकदशा १० | प्रश्नव्याकरणदशा ११ विपाकश्रुत १२ औपपातिक ३२ ३३ अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९ पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ छेदसूत्र-२ छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ उपांगसूत्र-१ बृहत्कल्प राजप्रश्रिय उपांगसूत्र-२ व्यवहार | जीवाजीवाभिगम उपागसूत्र-३ ३७ उपांगसूत्र-४ उपांगसूत्र-५ १५ | प्रज्ञापना | सूर्यप्रज्ञप्ति १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति १८ | जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ | निरयावलिका उपांगसूत्र-६ ४० । मूलसूत्र-१ उपांगसूत्र-७ दशाश्रुतस्कन्ध ३८ जीतकल्प ३९ । महानिशीथ आवश्यक ४१.१ ओघनियुक्ति ४१.२ | पिंडनियुक्ति ४२ दशवैकालिक उत्तराध्ययन नन्दी मूलसूत्र-२ उपागसूत्र-८ मूलसूत्र-२ | कल्पवतंसिका २१ पुष्पिका २२ पुष्पचूलिका वृष्णिदशा उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ चूलिकासूत्र-२ ४४ । अनुयोगद्वार चतुःशरण पयन्नासूत्र-१ मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र- ८, 'निरयावलिका' क्र 1 4 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य साहित्य नाम मूल आगम साहित्य: 5 - 1- आगमसुत्ताणि मूलं print -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net D 2 आगम अनुवाद साहित्य: -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) -4- આગમસૂત્ર સટીક ગુજરાતી અનુવાદ -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print 3 आगम विवेचन साहित्य: -1- આગમસૂત્ર ગુજરાતી અનુવાદ |-2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net -3- AagamSootra English Trans. - 1- आगमसूत्र सटीकं -2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार- 1 -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-2 4- आगम चूर्णि साहित्य 5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि - 1 | -6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि - 2 -7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि आगम कोष साहित्य: 1- आगम सद्दकोसो -2- आगम कहाकोसो -3- आगम-सागर-कोषः -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) आगम अनुक्रम साहित्य: - 1- खागम विषयानुभ- (भूज) -2- आगम विषयानुक्रम (सटीकं) -3- आगम सूत्र - गाथा अनुक्रम बूक्स क्रम 147 6 [49] [45] [53] 165 [47] [47] [11] [48] [12] 171 1 [46] 2 [51] 3 11 [05] 12 [04] 09 02 04 03 आगम साहित्य साहित्य नाम आगम अन्य साहित्य: अध्ययन / सूत्र - 1- खागम थानुयोग -2- आगम संबंधी साहित्य - 3 - ऋषिभाषित सूत्राणि 4- आगमिय सूक्तावली आगम साहित्य- कुल पुस्तक अन्य साहित्य: તત્ત્વાભ્યાસ સાહિત્યસૂત્રાભ્યાસ સાહિત્ય વ્યાકરણ સાહિત્ય [09] 4 વ્યાખ્યાન સાહિત્ય [09] 5 જિનભક્તિ સાહિત્ય [40] 6 વિધિ સાહિત્ય [08] 7 આરાધના સાહિત્ય [08] 14 8 પરિચય સાહિત્ય 9 પૂજન સાહિત્ય [04] 10 तीर्थं४२ संक्षिप्त हर्शन [01] प्रडीए साहित्य દીપરત્નસાગરના લઘુશોધનિબંધ આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક 1- आगम साहित्य (कुल पुस्तक) 2-आगमेतर साहित्य (कुल दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन મુનિ દીપરત્નસાગરનું સાહિત્ય मुनि हीपरत्नसागरनुं खागम साहित्य [हुल पुस्तक 516] 2 મુનિ દીપરત્નસાગરનું અન્ય સાહિત્ય [हुल पुस्तs 85] 3 मुनि हीपरत्नसागर संकलित 'तत्त्वार्थसूत्र' नी विशिष्ट DVD खभारा प्राशनो हुल 5०१ + विशिष्ट DVD मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" डुल पाना 1,35,500 बू Page 4 28866 10 06 02 01 01 516 13 06 05 04 09 04 03 04 02 25 05 05 85 तेना डुलाना [98,300] तेना हुल पाना [09, 270] तेनाल पाना [27,930] 51 08 60 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र [१९] निरयावलिका उपांगसूत्र-८-हिन्दी अनुवाद अध्ययन-१-काल सूत्र-१ श्रुतदेवता को नमस्कार । उस काल उस समयमें राजगृह नगर था । वह ऋद्धि-समृद्धि से सम्पन्न था । उस के उत्तर-पूर्व में गुणशिलक चैत्य था । वहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था और उस के नीचे एक पृथ्वीशिलापट्टक था । सूत्र-२ उस काल और समय में श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी जाति, कुल सम्पन्न आर्य सुधर्मास्वामी अनगार यावत् पाँच सौ अनगारों के साथ पूर्वानुपूर्वी के क्रम से चलते हुए जहाँ राजगृह नगर पधारे यावत् यथाप्रतिरूप अवग्रह प्राप्त करके संयम एवं तपश्चर्या से यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । दर्शनार्थ परिषद निकली, धर्मोपदेश दिया, परिषद वापिस लौटी। सूत्र -३ उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मास्वामी अनगार के शिष्य समचतुरस्र-संस्थानवाले यावत् अपने अन्तरमें विपुल तेजोलेश्या को समाहित किये हुए जम्बू अनगार आर्य सुधर्मास्वामी के थोड़ी दूरी ऊपर को घुटने किये हुए थे। सूत्र-४ ___ उस समय जम्बूस्वामी को श्रद्धा-संकल्प उत्पन्न हुआ यावत् पर्युपासना करते हुए उन्होंने कहा 'भदन्त ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त-भगवान् महावीर ने उपांगो का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उपांगों के पाँच वर्ग कहे हैं । निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा । सूत्र-५ हे भदन्त ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् ने निरयावलिका नामक प्रथम उपांगवर्ग के कितने अध्ययन कहे हैं ? हे जम्बू ! भगवान महावीर ने प्रथम उपांग निरयावलिया-के दस अध्ययन कहे हैं-काल, सुकाल, महाकाल, कृष्ण, सुकृष्ण, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्ण, पितृसेन और महासेनकृष्ण । जम्बू अनगार ने पुनः कहा -भगवान् महावीर ने निरयावलिका के दस अध्ययन कहे हैं तो प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ? __-उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में ऋद्धि आदि से सम्पन्न चम्पा नगरी थी। उसके उत्तर-पूर्व दिग्भाग में पूर्णभद्र चैत्य था । श्रेणिक राजा का पुत्र एवं चेलना देवी का अंगजात-कूणिक महामहिमाशाली राजा था । कूणिक राजा की रानी पद्मावती थी । वह अतीव सुकुमाल अंगोपांगों वाली थी। उसी चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की पत्नी और कूणिक राजा की छोटी माता काली नाम की रानी थी, जो हाथ पैर आदि सुकोमल अंग-प्रत्यगों वाली थी यावत् सुरूपा थी। सूत्र-६ उस काली देवी का पुत्र काल नामक कुमार था । वह सुकोमल यावत् रूप-सौन्दर्यशाली था । तदनन्तर किसी समय कालकुमार ३००० हाथियों, ३००० रथों, ३००० अश्वों और तीन कोटि मनुष्यों को लेकर गरुडव्यूह में, ग्यारहवें खण्ड-अंश के भागीदार कूणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ। सूत्र-७ तब एक बार अपने कुटुम्ब-परिवार की स्थिति पर विचार करते हुए काली देवी के मन में इस प्रकार का मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र संकल्प उत्पन्न हुआ-'मेरा पुत्रकुमार काल ३००० हाथियों आदि को लेकर यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है। तो क्या वह विजय प्राप्त करेगा अथवा नहीं? वह जीवित रहेगा अथवा नहीं? शत्रु को पराजित करेगा या नहीं? क्या मैं काल कुमार को जीवित देख सकूँगी ?' इत्यादि विचारों से वह उदास हो गई । निरुत्साहित-सी होती हुई यावत् आर्तध्यान में डूब गई। उसी समय में श्रमण भगवान् महावीर का चम्पा नगरी में पदार्पण हुआ । वन्दना-नमस्कार करने एवं धर्मोपदेश सूनने के लिए जन-परिषद् निकली । तब वह काली देवी भी इस संवाद को जान कर हर्षित हुई और उसे इस प्रकार का आन्तरिक यावत् संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ । तथारूप श्रमण भगवंतों का नामश्रवण ही महान् फलप्रद है तो उन के समीप पहुँच कर वन्दन-नमस्कार करने के फल के विषय में तो कहना ही क्या है ? यावत् मैं श्रमण भगवान् के समीप जाऊं, यावत् उनकी पर्युपासना करूँ और उनसे पूर्वोल्लिखित प्रश्न पूछू। काली रानी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । आज्ञा दी-'देवानुप्रियों ! शीघ्र ही धार्मिक कार्यों में प्रयोग किये जाने वाले श्रेष्ठ रथ को जोत कर लाओ। तत्पश्चात् स्नान कर एवं बलिकर्म कर काली देवी यावत् महामूल्यवान् किन्तु अल्प आभूषणों से विभूषित हो अनेक कुब्जा दासियों यावत् महत्तरकवृन्द को साथ लेकर अन्तःपुर से निकली । अपने परिजनों एवं परिवार से परिवेष्टित होकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पहुँची । तीर्थंकरों के छत्रादि अतिशयों-प्रातिहार्यों के दृष्टिगत होते ही धार्मिक श्रेष्ठ रथ को रोका । धार्मिक श्रेष्ठ रथ से नीचे उतरी और श्रमण भगवान् महावीर बिराजमान थे, वहाँ पहुँची। तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया और वहीं बैठ कर सपरिवार भगवान् की देशना सुनने के लिए उत्सुक होकर विनयपर्वक पर्यपासना करने लगी। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् ने यावत् उस काली देवी और विशाल जनपरिषद् को धर्मदेशना सुनाई इस के बाद श्रमण भगवान महावीर से धर्मश्रवण कर और उसे हृदय में अवधारित कर काली रानी ने हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसित हृदय होकर श्रमण भगवान् को तीन बार वंदन-नमस्कार करके कहा-भदन्त ! मेरा पुत्र काल कुमार रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है, तो क्या वह विजयी होगा अथवा नहीं? यावत् क्या मैं काल कुमार को जीवित देख सकूँगी? श्रमण भगवान् ने काली देवी से कहा-काली ! तुम्हारा पुत्र कालकुमार, जो यावत् कूणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम में जूझते हुए वीरवरों को आहत, मर्दित, घातित करते हुए और उनकी संकेतसूचक ध्वजापताकाओं को भमिसात करते हए-दिशा विदिशाओं को आलोकशन्य करते हए रथ से रथ को अडाते हए चेटक राजा के सामने आया । तब चेटक राजा क्रोधाभिभूत हो यावत् मिस-मिसाते हुए धनुष को उठाया । बाण को हाथ में लिया, धनुष पर बाण चढ़ाया, उसे कान तक खींचा और एक ही बार में आहत करके, रक्तरंजित करके निष्प्राण कर दिया । अतएव है काली वह कालकुमार मरण को प्राप्त हो गया है । अब तुम कालकुमार को जीवित नहीं देख सकती हो। श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सूनकर और हृदय में धारण करके काली रानी घोर पुत्र-शोक से अभिभूत, चम्पकलता के समान पछाड़ खाकर धड़ाम-से सर्वांगों से पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ समय के पश्चात् जब काली देवी कुछ आश्वस्त-हुई तब खड़ी हुई और भगवान् को वंदन-नमस्कार कर के इस प्रकार कहा-'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! ऐसा ही है, भगवन् ! यह अवितथ है । असंदिग्ध है । यह सत्य है । यह बात ऐसी ही है, जैसी आपने बतलाई है। उसने श्रमण भगवान् को पुनः वंदन-नमस्कार किया । उसी धार्मिक यान पर आरूढ होकर, वापिस लौट गई। सूत्र-८ भगवान गौतम, श्रमण भगवान महावीर के समीप आए और वंदन-नमस्कार करके अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा-भगवन् ! जो काल कुमार रथमूसल संग्राम करते हुए चेटक राजा के एक ही आघात-से रक्तरंजित मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र हो, जीवनरहित-होकर मृत्यु को प्राप्त करके कहाँ गया है ? कहाँ उत्पन्न हुआ है ? भगवान् ने गौतमस्वामी से कहा- गौतम ! युद्धप्रवृत्त वह कालकुमार जीवनरहित हो कर कालमासमें काल कर के चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के हेमाभ नरक में दस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुआ है। सूत्र-९ गौतम ने पुनः पूछा-भदन्त ! किस प्रकार के भोग-संभोगों को भोगने से, कैसे-कैसे आरम्भों और आरम्भसमारंभों से तथा कैसे आचारित अशुभ कर्मों के भार से मरण करके वह काल कुमार चौथी पंकप्रभापृथ्वी में यावत् नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ है ? भगवान् ने बताया-गौतम ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । वह नगर वैभव से सम्पन्न, शत्रुओं के भय से रहित और धन-धान्यादि की समृद्धि से युक्त था । उस राजगृह नगर में हिमवान् शैल के सदृश महान् श्रेणिक राजा राज्य करता था । श्रेणिक राजा की अंग-प्रत्यंगों से सुकुमाल नन्दा रानी थी, जो मानवीय कामभोगों को भोगती हुई यावत् समय व्यतीत करती थी। उस श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा रानी का आत्मज अभयकुमार था, जो सुकुमाल यावत् सुरूप था तथा शाम, दाम, भेद और दण्ड की राजनीति में चित्तसारथि के समान निष्णात था यावत् राज्यधूरा-शासन का चिन्तक था । उस श्रेणिक राजा की चेलना रानी भी थी । वह सुकुमाल हाथ-पैरवाली थी यावत् सुखपूर्वक विचरण करती थी। किसी समय शयनगृह में चिन्ताओं आदि से मुक्त सुख-शय्या पर सोते हुए वह चेलना देवी प्रभावती देवी के समान स्वप्न में सिंह को देखकर जागृत हई, यावत् स्वप्न-पाठकों को आमंत्रित करके राजा ने उस का फल पूछा। स्वप्नपाठकों ने स्वप्न का फल बतलाया । स्वप्न-पाठकों को विदा किया यावत् चेलना देवी उन स्वप्नपाठकों के वचनों को सहर्ष स्वीकार करके अपने वासभवन में चली गई। सूत्र-१० तत्पश्चात् परिपूर्ण तीन मास बीतने पर चेलना देवी को इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ-वे माताएं धन्य हैं यावत् वे पुण्यशालिनी हैं, उन्होंने पूर्व में पुण्य उपार्जित किया है, उनका वैभव सफल है, मानवजन्म और जीवन का, सुफल प्राप्त किया है जो श्रेणिक राजा की उदरावली के शूल पर सेके हुए, तले हुए, भूने हुए मांस का तथा सूरा यावत् मधु, मेरक, मद्य, सीधु और प्रसन्ना नामक मदिराओं का आस्वादन यावत् विस्वादन तथा उपभोग करती हुई और अपनी सहेलियों को आपस में वितरीत करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं किन्तु इस अयोग्य एवं अनिष्ट दोहद के पूर्ण न होने से चेलना देवी शुष्क, पीड़ित, मांसरहित, जीर्ण और जीर्ण शरीर वाली हो गई, निस्तेज, दिन, विमनस्क जैसी हो गई, विवर्णमुखी, नेत्र और मुखकमल को नमाकर यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारों का उपभोग नहीं करती हुई, मुरझाई हुई, आहतमनोरथा यावत् चिन्ताशोक-सागर में निमग्न हो, हथेली पर मुख को टिकाकर आर्तध्यान में डूब गई। तब चेलना देवी की अंगपरिचारिकाओं ने चेलना देवी को सूखी-सी, भूख से ग्रस्त-सी यावत् चिन्तित देखा। वे श्रेणिक राजा के पास पहुँची । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके श्रेणिक राजा से कहा'स्वामिन् ! न मालूम किस कारण से चेलना देवी शुष्क-बुभुक्षित जैसी होकर यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई हैं । श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं की इस बात को सूनकर और समझकर आकुल-व्याकुल होता हुआ, चेलना देवी के पास आया । चेलना देवी को सूखी-सी, भूख से पीड़ित जैसी, यावत् आर्तध्यान करती हुई देखकर बोला- देवानुप्रिये ! तुम क्यों शुष्कशरीर, भूखी-सी यावत् चिन्ताग्रस्त हो रही हो ?' लेकिन चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के इस प्रश्न का आदर नहिं किया, वह चूपचाप बैठी रही। तब श्रेणिक राजा ने पुनः दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी यही प्रश्न चेलना देवी से पूछा और कहादेवानुप्रिये ! क्या मैं इस बात को सुनने के योग्य नहीं हूँ जो तुम मुझसे इसे छिपा रही हो ? चेलना देवी ने श्रेणिक राजा से कहा-'स्वामिन् ! बात यह है कि उस उदार यावत् महास्वप्न को देखने के तीन मास पूर्ण होने पर मुझे इस मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र प्रकार का यह दोहद उत्पन्न हुआ है'-वे माताएं धन्य हैं जो आपकी उदरावलि के शूल पर सेके हए यावत् मांस द्वारा तथा मदिरा द्वारा अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। लेकिन स्वामिन् ! उस दोहद को पूर्ण न कर सकने के कारण मैं शुष्कशरीरी, भूखी-सी यावत् चिन्तित हो रही हूँ। तब श्रेणिक राजा ने चेलना देवी की उक्त बात को सूनकर उसे आश्वासन देते हुए कहा-देवानुप्रिये ! तुम हतोत्साह एवं चिन्तित न होओ । मैं कोई ऐसा उपाय करूँगा जिससे तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो सकेगी । ऐसा कहकर चेलनादेवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम, प्रभावक, कल्याणप्रद, शिव, धन्य, मंगलरूप, मृदु-मधुर वाणी से आश्वस्त किया। वह चेलना देवी के पास से निकलकर बाह्य सभाभवन में उत्तम सिंहासन के पास आया । आकर पूर्व की ओर मुख करके आसीन हो गया । वह दोहद की संपूर्ति के लिए आयों से उपायों से औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी-बद्रियों से वारंवार विचार करते हए भी इसके आय-उपाय, स्थिति एवं निष्पत्ति को समझ न पाने के कारण उत्साहहीन यावत् चिन्ताग्रस्त हो उठा। इधर अभयकुमार स्नान करके यावत् अपने शरीर को अलंकृत करके अपने आवासगृह से बाहर निकला। जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आया । उसने श्रेणिक राजा को निरुत्साहित जैसा देखा, यह देखकर वह बोला-तात ! पहले जब कभी आप मुझे आता हुआ देखते थे तो हर्षित यावत् सन्तुष्टहृदय होते थे, किन्तु आज ऐसी क्या बात है जो आप उदास यावत् चिन्ता में डूबे हुए हैं ? तात ! यदि मैं इस अर्थ को सूनने के योग्य हूँ तो आप सत्य एवं बिना किसी संकोच-संदेह के कहिए, जिससे मैं उसका हल करने का उपाय करूँ। अभयकुमार के कहने पर श्रेणिक राजा ने अभयकुमार से कहा-पुत्र ! है पुत्र ! तुम्हारी विमाता चेलना देवी को उस उदार यावत् महास्वप्न को देखे तीन मास बीतने पर यावत् ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि जो माताएं मेरी उदरावलि के शूलित आदि मांस से अपने दोहद को पूर्ण करती है-आदि । लेकिन चेलना देवी उस दोहद के पूर्ण न हो सकने के कारण शुष्क यावत् चिन्तित हो रही है । इसलिए पुत्र ! उस दोहद की पूर्ति के निर्मित आयों यावत् स्थिति को समझ नहीं सकने के कारण मैं भग्नमनोरथ यावत् चिन्तित हो रहा हूँ। श्रेणिक राजा के इस मनोगत भाव को सुनने के बाद अभयकुमार ने श्रेणिक राजा से कहा-'तात ! आप भग्नमनोरथ यावत् चिन्तित न हों, मैं ऐसा कोई जतन करूँगा कि जिससे मेरी छोटी माता चेलना देवी के उस दोहद की पर्ति हो सकेगी।' श्रेणिक राजा को आश्वस्त करने के पश्चात अभयकमार जहाँ अपना भवन था वहाँ आ गुप्त रहस्यों के जानकार आन्तरिक विश्वस्त पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-तुम जाओ और सूनागार में जाकर गीला मांस, रुधिर और वस्तिपुटक लाओ। ___ वे रहस्यज्ञाता पुरुष अभयकुमार की इस बात को सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट हुए यावत् अभय-कुमार के पास से निकले । गीला मांस, रक्त एवं वस्तिपुटक को लिया । जहाँ अभयकुमार था, वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् उस मांस, रक्त एवं वस्तिपुटक को रख दिया। तब अभयकुमार ने उस रक्त और मांस से थोड़ा भाग कैंची से काटा । जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आया और श्रेणिक राजा को एकान्त में शैया पर चित लिटाया । श्रेणिक राजा की उदरावली पर उस आर्द्र रक्त-मांस को फैला दिया और फिर वस्तिपुटक को लपेट दिया । वह ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे रक्त-धारा बह रही हो । और फिर ऊपर के माले में चेलना देवी को अवलोकन करने के आसन से बैठाया, बैठाकर चेलना देवी के ठीक नीचे सामने की ओर श्रेणिक राजा को शैया पर चित लिटा दिया । कतरनी से श्रेणिक राजा की उदरावली का मांस काटा, काटकर उसे एक बर्तन में रखा । तब श्रेणिक राजा ने झूठ-मूठ मूर्छित होने का दिखावा किया और उसके बाद कुछ समय के अनन्तर आपस में बातचीत करने में लीन हो गए। तत्पश्चात् अभयकुमार ने श्रेणिक राजा की उदरावली के मांस-खण्डों को लिया, लेकर जहाँ चेलना देवी थी, वहाँ आया और आकर चेलना देवी के सामने रख दिया । तब चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के उस उदरावली के हा गए | मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र मांस से यावत् अपना दोहद पूर्ण किया । दोहद पूर्ण होने पर चेलना देवी का दोहद संपन्न, सम्मानित और निवृत्त हो गया । तब वह उस गर्भ का सुखपूर्वक वहन करने लगी। सूत्र-११ कुछ समय व्यतीत होने के बाद एक बार चेलना देवी को मध्य रात्रिमें जागते हुए इस प्रकार का यह यावत् विचार उत्पन्न हुआ-'इस बालक ने गर्भ में रहते ही पिता की उदरावली का मांस खाया है, अतएव इस गर्भ को नष्ट कर देना, गिरा देना, गला देना एवं विध्वस्त कर देना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा,' उसने ऐसा निश्चय करके बहुत सी गर्भ को नष्ट करनेवाली यावत् विध्वस्त करनेवाली औषधियों से उस गर्भ को नष्ट यावत् विध्वस्त करना चाहा, किन्तु वह गर्भ नष्ट नहीं हुआ, न गिरा, न गला और न विध्वस्त ही हुआ । तदनन्तर जब चेलना देवी उस गर्भ को यावत् विध्वस्त करने में समर्थ-नहीं हुई तब श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और उदास होकर अनिच्छापूर्वक विवशता से दुस्सह आर्त ध्यान से ग्रस्त हो उस गर्भ को परिवहन-करने लगी। सूत्र - १२ तत्पश्चात् नौ मास पूर्ण होने पर चेलना देवी ने एक सुकुमार एवं रूपवान् बालक का प्रसव किया-पश्चात् चेलना देवी को विचार आया-'यदि इस बालक ने गर्भ में रहते ही पिता की उदरावली का मांस खाया है, तो हो सकता है कि यह बालक संवर्धित होने पर हमारे कुल का भी अंत करनेवाला हो जाय ! अतएव इस बालक को एकान्त उकरड़े में फेंक देना ही उचित-होगा।' इस प्रकार का संकल्प कर के अपनी दास-चेटी को बुलाया, उस से कहा-तुम जाओ और इस बालक को एकान्त में उकरड़े में फेंक आओ। तत्पश्चात् उस दास चेटी ने चेलना देवी की इस आज्ञा को सूनकर दोनों हाथ जोड़ यावत् चेलना देवी की इस आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया । वह अशोक-वाटिका में गई और उस बालक को एकान्त में उकरड़े पर फेंक दिया । उस बालक के एकान्त में उकरड़े पर फैंके जाने पर वह अशोक-वाटिका प्रकाश से व्याप्त हो गई। इस समाचार को सूनकर राजा श्रेणिक अशोक-वाटिका में पहुँचा । वहाँ उस बालक को देखकर क्रोधित हो उठा यावत् रुष्ट, कुपित और चंडिकावत् रौद्र होकर दाँतों को मिसमिसाते हुए उस बालक को उसने हथेलियों में लिया और जहाँ चेलना देवी थी, वहाँ आया । चेलना देवी को भले-बूरे शब्दों से फटकारा, पुरुष वचनों से अपमानित किया और धमकाया । फिर कहा-'तुमने क्यों मेरे पुत्र को एकान्त-उकरड़े पर फिकवाया ?' चेलना देवी को भली-बूरी सौगंध-दिलाई और कहा-देवानुप्रिये ! इस बालक की देखरेख करती हुई इसका पालन-पोषण करो और संवर्धन करो । तब चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के इस आदेश को सूनकर लज्जित, प्रताडित और अपराधिनी -सी हो कर दोनों हाथ जोड़कर श्रेणिक राजा के आदेश को विनयपूर्वक स्वीकार किया और अनुक्रम से उस बालक की देखरेख, लालन-पालन करती हुई वर्धित करने लगी। सूत्र - १३ एकान्त उकरड़े पर फैंके जाने के कारण उस बालक की अंगुली का आगे का भाग मुर्गे की चोंच से छिल गया था और उससे बार-बार पीव और खून बहता रहता था । इस कारण वह बालक वेदना से चीख-चीख कर रोता था । उस बालक के रोने को सून और समझकर श्रेणिक राजा बालक के पास आता और उसे गोदी में लेता । लेकर उस अंगुली को मुख में लेता और उस पीव और खून को मुख से चूस लेता, ऐसा करने से वह बालक शांति का अनुभव कर चूप शांत हो जाता। इस प्रकार जब-जब भी वह बालक वेदना के कारण जोर-जोर से रोने लगता, तब-तब श्रेणिक राजा उसी प्रकार चूसता यावत् वेदना शांत हो जाने से वह चूप हो जाता था । तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने तीसरे दिन चन्द्र सूर्य दर्शन का संस्कार किया, यावत् ग्यारह दिन के बाद बारहवें दिन इस प्रकार का गुण-निष्पन्न नामकरण किया-इस बालक का नाम कूणिक' हो । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र इस प्रकार उस बालक के माता-पिता ने उसका 'कूणिक' यह नामकरण किया । तत्पश्चात् उस बालक का जन्मोत्सव आदि मनाया गया । यावत् मेघ-कुमार के समान राजप्रासाद में आमोद-प्रमोदपूर्वक समय व्यतीत करने लगा । माता-पिता ने आठ-आठ वस्तुएं प्रीतिदान में प्रदान की। सूत्र-१४ तत्पश्चात् उस कुमार कूणिक को किसी समय मध्यरात्रिमें यावत् ऐसा विचार आया कि श्रेणिक राजा के विघ्न के कारण मैं स्वयं राज्यशासन और राज्यवैभव का उपभोग नहीं कर पाता हूँ, अतएव श्रेणिक राजा को बेड़ी में डाल देना और महान राज्याभिषेक से अपना अभिषेक कर लेना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । उसने इस प्रकार का संकल्प किया और श्रेणिक राजा के अन्तर, छिद्र और विरह की ताक के रहता हुआ समय-यापन करने लगा। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा के अवसरों यावत् मर्मों को जान न सकने के कारण कूणिक कुमार ने एक दिन काल आदि दस राजकुमारों को अपने घर आमंत्रित किया और उनको अपने विचार बताए-श्रेणिक राजा के कारण हम स्वयं राजश्री का उपभोग और राज्य का पालन नहीं कर पा रहे हैं । इसलिए हे देवानुप्रियों ! हमारे लिए श्रेयस्कर यह होगा कि श्रेणिक राजा को बेड़ी में डालकर और राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, धान्यभंडार और जनपद को ग्यारह भागों में बाँट करके हम लोग स्वयं राजश्री का उपभोग करें और राज्य का पालन करें । कूणिक का कथन सूनकर उन काल आदि दस राजपुत्रों ने उस के इस विचार को विनयपूर्वक स्वीकार किया। कूणिक कुमार ने किसी समय श्रेणिक राजा के अंदरूनी रहस्यों को जाना और श्रेणिक राजा को बेड़ी से बाँध दिया । महान राज्याभिषेक से अपना अभिषेक कराया, जिससे वह कूणिक कुमार स्वयं राजा बन गया। सूत्र - १५ किसी दिन कूणिक राजा स्नान कर के, बलिकर्म कर के, विघ्नविनाशक उपाय कर, मंगल एवं प्रायश्चित्त कर और फिर अवसर के अनुकूल शुद्ध मांगलिक वस्त्रों को पहनकर, सर्व अलंकारों से अलंकृत होकर चेलना देवी के चरणवंदनार्थ पहुँचा । उस समय कूणिक राजा ने चेलना देवी को उदासीन यावत् चिन्ताग्रस्त देखा । चेलना देवी से पूछा-माता ! ऐसी क्या बात है कि तुम्हारे चित्त में संतोष, उत्साह, हर्ष और आनन्द नहीं है कि मैं स्वयं राज्यश्री का उपभोग करते हुए यावत् समय बिता रहा हूँ ? तब चेलना देवी ने कूणिक राजा से कहा-हे पुत्र ! मुझे तुष्टि, उत्साह, हर्ष अथवा आनन्द कैसे हो सकता है, जबकि तुमने देवतास्वरूप, गुरुजन जैसे, अत्यन्त स्नेहानुराग युक्त पिता श्रेणिक राजा को बन्धन में डालकर अपना निज का महान् राज्याभिषेक से अभिषेक कराया है । तब कूणिक राजा ने चेलना देवी से कहा-माताजी ! श्रेणिक राजा तो मेरा घात करने के इच्छुक थे । हे अम्मा ! श्रेणिक राजा तो मुझे मार डालना चाहते थे, बाँधना चाहते थे और निर्वासित कर देना चाहते थे । तो फिर हे माता ! यह कैसे मान लिया जाए की श्रेणिक राजा मेरे प्रति अतीव स्नेहानुराग वाले थे? यह सूनकर चेलना देवी ने कूणिक कुमार से कहा हे पुत्र ! जब तुम्हें मेरे गर्भ में आने पर तीन मास हुए तो मुझे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हआ कि-वे माताएं धन्य हैं, यावत् अंगपरिचारिकाओं से मैंने तुम्हें उकरड़े में फिकवा दिया, आदि-आदि, यावत् जब भी तुम वेदना से पीड़ित होते और जोर-जोर से रोते तब श्रेणिक राजा तुम्हारी अंगुली मुख में लेते और मवाद चूसते । तब तुम चूप-शांत हो जाते, इत्यादि सब वृत्तान्त चेलना ने कूणिक को सूनाया । इसी कारण हे पुत्र ! मैंने कहा कि श्रेणिक राजा तुम्हारे प्रति अत्यन्त स्नेहानुराग से युक्त हैं। कूणिक राजा ने चेलना रानी से इस पूर्ववृत्तान्त को सूनकर और ध्यान में लेकर चेलना देवी से कहा-माता ! मैंने बूरा किया जो देवतास्वरूप, गुरुजन जैसे अत्यन्त स्नेहानुराग से अनुरक्त अपने पिता श्रेणिक राजा को बेड़ियों से बाँधा । अब मैं जाता हूँ और स्वयं ही श्रेणिक राजा की बेड़ियों को काटता हूँ, ऐसा कहकर कुल्हाड़ी हाथ में ले जहाँ कारागृह था, उस ओर चलने के लिए उद्यत हुआ । श्रेणिक राजा ने हाथ में कुल्हाड़ी लिए कूणिक कुमार को अपनी ओर आते देखा । मन ही मन विचार किया-यह मेरा बूरा चाहने वाला, यावत् कुलक्षण, अभागा मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (निरयावलिका)" आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, निरयावलिका' अध्ययन / सूत्र कृष्णाचतुर्दशी को उत्पन्न, लोक-लाज से रहित, निर्लज्ज कूणिक कुमार हाथ में कुल्हाड़ी लेकर इधर आ रहा है। न मालूम मुझे किस कुमौत से मारे ! इस विचार से उसने भीत, त्रस्त, भयग्रस्त, उद्विग्न और भयाक्रान्त होकर ताल विष को मुख में डाल दिया । तदनन्तर तालपुट विष को मुख में डालने और मुहूर्त्तान्तर के बाद कुछ क्षणों में उस विष के व्याप्त होने पर श्रेणिक राजा निष्प्राण, निश्चेष्ट, निर्जीव हो गया । इसके बाद वह कूणिक कुमार जहाँ कारावास था, वहाँ पहुँचा । उसने श्रेणिक राजा को निष्प्राण, निश्चेष्ट, निर्जीव देखा। तब वह दुस्सह, दुर्द्धर्ष पितृशोक से बिलबिलाता हुआ कुल्हाड़ी से काटे चम्पक वृक्ष की तरह धड़ाम से पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा । कुछ क्षणों पश्चात् कूणिक कुमार आश्वस्त सा हुआ और रोते हुए, आक्रंदन, शोक एवं विलाप करते हुए कहने लगा-अहो ! मुझ अधन्य, पुण्यहीन, पापी, अभागे ने बूरा किया - जो देवतारूप, अत्यन्त स्नेहानुराग-युक्त अपने पिता श्रेणिक राजा को कारागार में डाला। मेरे कारण ही श्रेणिक राजा कालगत हुए हैं । तदनन्तर ऐश्वर्यशाली पुरुषों, तलवर राज्यमान्य पुरुषों, मांडलिक, जागीरदारों, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापतियों, मंत्री, गणक, द्वारपाल, अमात्य, चेट, पीठ-मर्दक, नागरिक, व्यवसायी, दूत, संधिपाल से संपरिवृत होकर रुदन, आक्रन्दन, शोक ओर विलाप करते हुए महान् ऋद्धि, सत्कार एवं अभ्युदय के साथ श्रेणिक राजा अग्निसंस्कार किया । तत्पश्चात् वह कूणिक कुमार इस महान मनोगत मानसिक दुःख से अतीव दुःखी होकर किसी समय अन्तःपुर परिवार को लेकर धन-संपत्ति आदि गार्हस्थिक उपकरणों के साथ राजगृह से निकला और जहाँ चंपानगरी थी, वहाँ आया वहाँ परम्परागत भोगों को भोगते हुए कुछ समय के बाद शोक संताप से रहित हो गया सूत्र १६ तत्पश्चात् उस कूणिक राजाने किसी दिन काल आदि दस राजकुमारों को बुलाया - आमंत्रित किया और राज्य, राष्ट्र बल-सेना, वाहन रथ आदि, कोश, धन-संपत्ति, धान्य-भंडार, अंतःपुर और जनपद-देश के ग्यारह भाग किये। भाग कर के वे सभी स्वयं अपनी-अपनी राजश्री का भोग करते हुए प्रजा का पालन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। सूत्र - १७ उस चंपानगरीमें श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का अंगज कूणिक राजा का कनिष्ठ सहोदर भ्राता वेहल्ल राजकुमार था । वह सुकुमार यावत् रूप-सौन्दर्यशाली था । अपने जीवित रहते श्रेणिक राजा ने पहले ही वेहल्लकुमार को सेचनक नामक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दिया था। वेहल्लकुमार अन्तःपुर परिवार के साथ सेचनक गंधहस्ती पर आरूढ होकर चंपानगरी के बीचोंबीच होकर निकलता और स्नान करने के लिए वारंवार गंगा महानदी में उतरता । उस समय वह सेचनक गंधहस्ती रानियों को सूँढ़ से पकड़ता, पकड़ कर किसी को पीठ पर बिठलाता, किसी को कंधे पर बैठाता, किसी को गंडस्थल पर रखता, किसी को मस्तक पर बैठाता, दंत- मूसलों पर बैठाता, किसी को सूँढ़ में लेकर झुलाता, किसी को दाँतों के बीच लेता, किसी को फुहारों से नहलाता और किसी-किसी को अनेक प्रकार की क्रीडाओं से क्रीडित करता था । तब चंपानगरी के शृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, महापथों और पथों में बहुत से लोग आपस में एकदूसरे से इस प्रकार कहते, बोलते, बतलाते और प्ररूपित करते कि - देवानुप्रियों ! अन्तःपुर परिवार को साथ लेकर वेहल्ल कुमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा अनेक प्रकार की क्रीडाएं करता है। वास्तव में वेहल्लकुमार ही राजलक्ष्मी का सुन्दर फल अनुभव कर रहा है। कूणिक राजा राजश्री का उपभोग नहीं करता। तब पद्मावती देवी को प्रजाजनों के कथन को सूनकर यह संकल्प यावत् विचार समुत्पन्न हुआ - निश्चय ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा यावत् अनेक प्रकार की क्रीडाएं करता है। अत एव सचमुच में राजश्री का फल भोग रहा है, कूणिक राजा नहीं । हमारा यह राज्य यावत् जनपद किस काम का यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती न हो। पद्मावती ने इस प्रकार का विचार किया और कूणिक राजा के पास आकर दोनों हाथ जोड़, Page 11 मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (निरयावलिका) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से उसे बधाया और निवेदन किया _ 'स्वामिन्! वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती से यावत् भाँति-भाँति क्रीडाएं करता है, तो हमारा राज्य यावत् जनपद किस काम का यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती नहीं है । कूणिकराजाने पद्मावती के इस कथन का आदर नहीं किया, उसे सूना नहीं-उस पर ध्यान नहीं दिया, चूपचाप रहा । पद्मावती द्वारा बार-बार इसी बात को दुहराने पर कूणिक राजा ने एक दिन वेहल्लकुमार को बुलाया और सेचनक गंधहस्ती तथा अठारह लड़ का हार माँगा । तब वेहल्लकुमार ने कूणिक राजा को उत्तर दिया-'स्वामिन् ! श्रेणिक राजा ने अपने जीवनकाल में ही मुझे यह सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दिया था । यदि स्वामिन् ! आप राज्य यावत् जनपद का आधा भाग मुझे दें तो मैं सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दूंगा।' कूणिक राजा ने वेहल्लकुमार के इस उत्तर को स्वीकार नहीं किया । उस पर ध्यान नहीं दिया और बार-बार सेचनक गंधहस्ती एवं अठारह लड़ों के हार को देने का आग्रह किया । तब कूणिक राजा के वारंवार सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को देने का आग्रह किया । तब कूणिक राजा के वारंवार सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को माँगने पर वेहल्लकुमार के मन में विचार आया कि वह उनको झपटना चाहता है, लेना चाहता है, छीनना चाहता है। इसलिए सेचनक गंध-हस्ती और हार को लेकर अन्तःपुर परिवार और गृहस्थी की साधन-सामग्री के साथ चंपानगरी से निकलकर-वैशाली नगरी में आर्यक चेटक का आश्रय लेकर रहूँ । उसने ऐसा विचार कर के कूणिक राजा की असावधानी, मौका, अन्तरंग बातों-रहस्यों की जानकारी की प्रतीक्षा करते हुए समय यापन करने लगा। किसी दिन वेहल्लकुमार ने कूणिक राजा की अनुपस्थिति को जाना और सेचनक गंधहस्ती, अठारह लड़ों का हार तथा अन्तःपुर परिवार सहित गृहस्थी के उपकरण-को लेकर चंपानगरी से भाग निकला । वैशाली नगरी आया और अपने नाना चेटक का आश्रय लेकर वैशाली नगरी में निवास करने लगा। तत्पश्चात् कूणिक राजा ने यह समाचार जानकर कि मुझे बिना बताए ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार तथा अन्तःपुर परिवार सहित गृहस्थी के उपकरण-साधनों को लेकर यावत् आर्यक चेटक राजा के आश्रय में निवास कर रहा है । तब उसने दूत को बुलाकर कहा-तुम वैशाली नगरी जाओ। वहाँ तुम आर्यक चेटकराज को दोनों हाथ जोड़कर यावत् जय-विजय शब्दों से बधाकर निवेदन करना- स्वामिन् ! कूणिक राजा विनति करते हैं कि वेहल्लकमार कणिक राजा को बिना बताए ही सेचनक गंधहस्ती और अठारह लडों का हार लेकर यहाँ आ गये हैं । इसलिए स्वामिन् ! आप कूणिक राजा को अनुगृहीत करते हुए सेचनक गंधहस्ती और अठारह लडों का हार कणिक राजा को वापिस लौटा दें। साथ ही वेहल्लकमार को भेज दें। कणिक राजा की इस आज्ञा को यावत स्वीकार कर के दूत चित्त सारथी के समान यावत् पास-पास अन्तरावास करते हुए वैशाली नगरी वहाँ आकर जहाँ चेटक राजा का आवासगृह और उसकी बाह्य उपस्थान शाला थी, वहाँ पहुँचा । घोड़ों को रोका और रथ से नीचे ऊतरा । तदनन्तर बहुमूल्य एवं महान पुरुषों के योग्य उपहार लेकर जहाँ आभ्यन्तर सभाभवन था, उसमें जहाँ चेटक राजा था, वहाँ पहुँचकर दोनों हाथ जोड़ यावत् 'जयविजय' शब्दों से वधाया और निवेदन किया- स्वामिन् ! कूणिक राजा प्रार्थना करते हैं-वेहल्लकुमार हाथी और हार लेकर कूणिक राजा की आज्ञा बिना यहाँ चले आए हैं इत्यादि, यावत् हार, हाथी और वेहल्लकुमार को वापिस भेजे दूत का निवेदन सूनने के पश्चात् चेटक राजा ने कहा-जैसे कूणिक राजा श्रेणिक राजा का पुत्र और चेलना देवी का अंगजात तथा मेरा दौहित्र है, वैसे ही वेहल्लकुमार भी श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का अंगज और मेरा दौहित्र है । श्रेणिक राजा ने अपने जीवनकाल में ही वेहल्लकुमार को सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दिया था। इसलिए यदि कूणिक राजा वेहल्लकुमार को राज्य और जनपद का आधा भाग दे तो मैं सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार कूणिक राजा को लौट दूंगा तथा वेल्लकुमार को भेज दूंगा।' - इसके बाद चेटक राजा द्वारा विदा किया गया वह दूत जहाँ चार घण्टों वाला अश्व-रथ था, वहाँ आया । उस चार घण्टों वाले अश्व-रथ पर आरूढ हुआ । वैशाली नगरी के बीच से निकला । साताकारी वसतिकाओं में विश्राम मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (निरयावलिका)" आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र करता हुआ यावत् कूणिक राजा के समक्ष उपस्थित हुआ और कहा-स्वामिन् ! चेटक राजा ने जो फरमाया था-वह सब बताया, चेटक का उत्तर सूनकर कूणिक राजा ने दूसरी बार भी दूत से कहा-तुम पुनः वैशाली नगरी जाओ। वहाँ तुम मेरे नाना चेटक राजा से यावत् इस प्रकार निवेदन करो-स्वामिन् ! कूणिक राजा यह प्रार्थना करता है-'जो कोई भी रत्न प्राप्त होते हैं, वे सब राजकुलानुगामी होते हैं । श्रेणिक राजा ने राज्य-शासन करते हुए, प्रजा का पालन करते हुए दो रत्न प्राप्त किये थे इसलिए राजकुल-परम्परागत स्थिति-मर्यादा भंग नहीं करते हुए सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को वापिस कूणिक राजा को लौटा दें और वेहल्लकुमार को भी भेज दें।' तत्पश्चात् उस दूत ने कूणिक राजा की आज्ञा को सूना । वह वैशाली गया और कूणिक की विज्ञप्ति निवेदन की-'स्वामिन् ! कूणिक राजा ने प्रार्थना की है कि जो कोई भी रत्न होते हैं वे राजकुलानुगामी होते हैं, अतः आप हस्ती, हार और कुमार वेहल्ल को भेज दें। तब चेटक राजा ने उस दूत से कहा-जैसे कूणिक राजा श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का अंगज है, इत्यादि कुमार वेहल्ल को भेज दूंगा, यहाँ तक जैसे पूर्व में कहा, वैसा पुनः यहाँ भी कहना । तदनन्तर उस दूत ने यावत् चंपा लौटकर कूणिक राजा का अभिनन्दन कर इस प्रकार निवेदन किया'चेटक राजा ने फरमाया है कि देवानुप्रिय ! जैसे कूणिक राजा श्रेणिक का पुत्र और चेलना देवी का अंगजात है, उसी प्रकार वेहल्लकुमार भी हैं । यावत् आधा राज्य देने पर कुमारवेहल्ल को भेजूंगा । इसलिए स्वामिन् ! चेटक राजा ने सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार नहीं दिया है और न वेहल्लकुमार को भेजा है। सूत्र - १८ तब कूणिक राजा ने उस दूत द्वारा चेटक के इस उत्तर को सूनकर और उसे अधिगत कर के क्रोधाभिभूत हो यावत् दाँतों को मिसमिसाते हुए पुनः तीसरी बार दूत को बुलाया । उस से तुम वैशाली नगरी जाओ और बायें पैर से पादपीठ को ठोकर मारकर चेटक राजा को भाले की नोक से यह पत्र देना । पत्र दे कर क्रोधित यावत् मिसमिसाते हुए भृकुटि तानकर ललाटमें त्रिवली डाल कर चेटकराज से यह कहना-'ओ अकाल मौत के अभिलाषी, निर्भागी, यावत निर्लज्ज चेटकराजा, कणिक राजा यह आदेश देता है कि कुणिक राजा को सेचनक गंधहस्ती एवं अठारह लड़ों का हार प्रत्यर्पित करो और वेहल्लकुमार को भेजो अथवा युद्ध के लिए सज्जित हो- । कूणिक राजा बल, वाहन और सैन्य के साथ युद्धसज्जित होकर शीघ्र ही आ रहे हैं।' तब दूत ने पूर्वोक्त प्रकार से हाथ जोड़कर कूणिक का आदेश स्वीकार किया । वह वैशाली नगरी पहुँचा । उसने दोनों हाथ जोड़कर यावत् बधाई देकर कहा-'स्वामिन् ! यह तो मेरी विनयप्रतिपत्ति-है। किन्तु कुणिक राजा की आज्ञा यह है कि बायें पैर से चेटक राजा की पादपीठ को ठोकर मारो, ठोकर मार कर क्रोधित हो कर भाले की नोक से यह पत्र दो, इत्यादि यावत् वे सेना सहित शीघ्र ही यहाँ आ रहे हैं। तब चेटक राजाने उस दूत से यह धमकी सूनकर और अवधारित कर क्रोधाभिभूत यावत् ललाट सिकोड़कर उत्तर दिया-'कूणिक राजा को सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार नहीं लौटाऊंगा और न वेहल्लकुमार को भेजूंगा किन्तु युद्ध के लिए तैयार हूँ।' तत्पश्चात् कूणिक राजा ने दूत से इस समाचार को सून कर और विचार कर क्रोधित हो काल आदि दस कुमारों को बुलाया और कहा-बात यह है कि मुझे बिना बताए ही वेहल्लकुमार सेचनक गंधहस्ती, अठारह लड़ों का हार और अन्तःपुर परिवार सहित गृहस्थी के उपकरणों को लेकर चंपा से भाग नीकला । वैशाली में आर्य चेटक का आश्रय लेकर रह रहा है । मैंने सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार लाने के लिए दूत भेजा । चेटक राजा ने इंकार कर दिया और मेरे तीसरे दूत को असत्कारित, अपमानित कर पीछले द्वार से निष्कासित कर दिया । इसलिए हमें चेटक राजा का निग्रह करना चाहिए, उसे दण्डित करना चाहिए। उन काल आदि दस कुमारों ने कूणिक राजा के इस विचार को विनयपूर्वक स्वीकार किया। कूणिक राजा ने उन काल आदि दस कुमारों से कहा-देवानुप्रियों ! आप लोग अपने-अपने राज्य में जाओ, और प्रत्येक स्नान यावत् प्रायश्चित्त आदि करके श्रेष्ठ हाथी पर आरूढ हो कर प्रत्येक अलग-अलग ३००० हाथियों, ३००० रथों, ३००० घोड़ों और तीन कोटि मनुष्यों को साथ लेकर समस्त ऋद्धि-वैभव यावत् सब प्रकार के सैन्य, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र समुदाय एवं आदरपूर्वक सब प्रकार की वेशभूषा से सजकर, सर्व विभूति, सर्व सम्भ्रम, सब प्रकार के सुगंधित पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार, सर्व दिव्य वाद्यसमूहों की ध्वनि-प्रतिध्वनि, महान ऋद्धि-विशिष्ट वैभव, महान द्युति, महाबल, शंख, ढोल, पटह, भेरी, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज, मृदंग, दुन्दुभि के घोष के ध्वनि के साथ अपनेअपने नगरों से प्रस्थान करो और प्रस्थान करके मेरे पास आकर एकत्रित होओ। तब वे कालादि दस कुमार कूणिक राजा के इस कथन को सूनकर अपने-अपने राज्यों को लौटे । प्रत्येक ने स्नान किया, यावत् जहाँ कूणिक राजा था, वहाँ आए और दोनों हाथ जोड़कर यावत् बधाया । काल आदि दस कुमारों की उपस्थिति के अनन्तर कूणिक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और यह आज्ञा दी- देवानुप्रियों ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तीरत्न-को प्रतिकर्मित कर, घोड़े, हाथी, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं से सुगठित चतुरंगिणी सेना को सुसन्नद्ध-करो, यावत् से सेवक आज्ञानुरूप कार्य सम्पन्न होने की सूचना देते हैं। तत्पश्चात् कूणिकराजा जहाँ स्नानगृह था वहाँ आया, मोतियों के समूह से युक्त होने से मनोहर, चित्र-विचित्र मणि-रत्नों से खचित फर्शवाले, रमणीय, स्नान-मंडप में विविध मणि-रत्नों के चित्रामों से चित्रित स्नानपीठ पर सुखपूर्वक बैठकर उसने शुभ, पुष्पोदक से सुगंधित एवं शुद्ध जल से कल्याणकारी उत्तम स्नानविधि से स्नान किया अनेक प्रकार के सैकड़ों कौतुक किए तथा कल्याणप्रद प्रवर स्नान के अंत में रुएंदार काषायिक मुलायम वस्त्र से शरीर को पोंछा । नवीन-महा मूल्यवान् दूष्यरत्न को धारण किया; सरस, सुगंधित गोशीर्ष चंदन से अंगों का लेपन किया । पवित्र माला धारण की, केशर आदि का विलेपन किया, मणियों और स्वर्ण से निर्मित आभूषण धारण किए । हार, अर्धहार, त्रिसर और लम्बे-लटकते कटिसूत्र-से अपने को सुशोभित किया; गले में ग्रैवेयक आदि आभूषण धारण किए, अंगुलियों में अंगुठी पहनी । मणिमय कंकणों, त्रुटितों एवं भुजबन्धों से भुजाएं स्तम्भित हो गईं, कुंडलों से उसका मुख चमक गया, मुकुट से मस्तक देदीप्यमान हो गया । हारों से आच्छादित उसका वक्षस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था । लंबे लटकते हए वस्त्र को उत्तरीय के रूप में धारण किया । मुद्रिकाओं से अंगुलियाँ पीतवर्ण-सी दिखती थीं । सुयोग्य शिल्पियों द्वारा निर्मित, स्वर्ण एवं मणियों के सुयोग से सुरचित, विमल महार्ह, सुश्लिष्ट, उत्कृष्ट, प्रशस्त आकारयुक्त; वीरवलय धारण किया। कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित नरेन्द्र कोरण्ट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर, ओं में चार चामरों से विंजाता हुआ, लोगों द्वारा मंगलमय जय-जयकार किया जाता हुआ, अनेक गणनायकों, दंडनायकों, राजा, ईश्वर, यावत् संधिपाल, आदि से घिरा हुआ, स्नानगृह से बाहर नीकला । यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल उच्च गजपति पर वह नरपति आरूढ हुआ। तत्पश्चात कुणिक राजा ३००० हाथियों यावत वाद्यघोषपूर्वक चंपा नगरी के मध्य भाग में से नीकला, जहाँ काल आदि दस कुमार ठहरे थे वहाँ पहुँचा और काल आदि दस कुमारों से मिला । इसके बाद ३३००० हाथियों, ३३००० घोड़ों, ३३००० रथों और तेंतीस कोटि मनुष्यों से घिर कर सर्व ऋद्धि यावत् कोलाहल पूर्वक सुविधाजनक पड़ाव डालता हुआ, अति विकट अन्तरावास न कर, विश्राम करते हुए अंग जनपद के मध्य भाग में से होते हुए जहाँ विदेह जनपद था, वैशाली नगरी थी, उस ओर चलने के लिए उद्यत हुआ। राजा कूणिक का युद्ध के लिए प्रस्थान का समाचार जानकर चेटक राजा ने काशी-कोशल देशों के नौ लिच्छवी और नौ मल्लकी इन अठारह गण-राजाओं को परामर्श करने हेतु आमंत्रित किया और कहा-देवानुप्रियों ! बात यह है कि कूणिक राजा को बिना जताए-वेहल्लकुमार सेचनक हाथी और अठारह लड़ों का हार लेकर यहाँ आ गया है । किन्तु कूणिक ने सेचनक हाथी और अठारह लड़ों के हार को वापिस लेने के लिए तीन दूत भेजे । किन्तु अपनी जीवित अवस्था में स्वयं श्रेणिक राजा ने उसे ये दोनों वस्तुएं प्रदान की हैं, फिर भी हार-हाथी चाहते हो तो उसे आधा राज्य दो, यह उत्तर दे कर उन दूतों को वापिस लौटा दिया । तब कूणिक मेरी इस बात को न सूनकर और न स्वीकार कर चतुरंगिणी सेना के साथ युद्धसज्जित हो कर यहाँ आ रहा है । तो क्या सेचनक हाथी, अठारह लड़ों का हार वापिस कूणिक राजा को लौटा दें ? वेहल्लकुमार को उसके हवाले कर दें ? या युद्ध करें? मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र- ८, 'निरयावलिका' अध्ययन / सूत्र तब उन काशी-कोशल के नौ मल्लकी और नौ लिच्छवी - अठारह गणराजाओं ने चेटक राजा से कहास्वामिन् ! यह न तो उचित है-न अवसरोचित है और न राजा के अनुरूप ही है कि सेचनक और अठारह लड़ों का हार कूणिक राजा को लौटा दिया जाए और शरणागत वेहल्लकुमार को भेज दिया जाए । इसलिए जब कूणिक राजा चतुरंगिणी सेना को लेकर युद्धसज्जित होकर यहाँ आ रहा है तब हम कूणिक राजा के साथ युद्ध करें । इस पर चेटक राजा ने कहा- यदि आप देवानुप्रिय कूणिक राजा से युद्ध करने के लिए तैयार हैं तो देवानुप्रियों ! अपने अपने राज्यो में जाइए और स्नान आदि कर कालादि कुमारों के समान यावत् चतुरंगिणी सेना के साथ यहाँ चंपा में आइए । यह सूनकर अठारहों राजा अपने-अपने राज्यों में गए और युद्ध के लिए सुसज्जित हो कर उन्होंने चेटक राजा को जय-विजय शब्दों से बधाया । उस के बाद चेटक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर आज्ञा दी - आभिषेक्य हस्तिरत्न को सजाओ आदि कूणिक राजा की तरह यावत् चेटक राजा हाथी पर आरूढ हुआ अठारहों गण-राजाओं के आ जाने के पश्चात् चेटक राजा कूणिक राजा की तरह तीन हजार हाथियों आदि के साथ वैशाली नगरी के बीचोंबीच होकर नीकला । जहाँ वे नौ मल्ली, नौ लिच्छवी काशी-कोशल के अठारह गणराजा थे, वहाँ आया । तदनन्तर चेटक राजा ५७००० हाथियों, ५७००० घोड़ों, ५७००० रथों और सत्तावन कोटि मनुष्यों को साथ लेकर सर्व ऋद्धि यावत् वाद्यघोष पूर्वक सुखद वास, निकट - निकट विश्राम करते हुए विदेह जनपद के बीचोंबीच से चलते जहाँ सीमान्त- प्रदेश था, वहाँ आकर स्कन्धावार का निवेश किया तथा कूणिक राजा की प्रतीक्षा करते हुए युद्ध को तत्पर हो ठहर गया । इसके बाद कूणिक राजा समस्त ऋद्धि-यावत् कोलाहल के साथ जहाँ सीमांतप्रदेश था, वहाँ आया । चेटक राजा से एक योजन की दूरी पर उसने भी स्कन्धावारनिवेष किया । तदनन्तर दोनों राजाओं ने रणभूमि को सज्जित किया, सज्जित करके रणभूमि में अपनी-अपनी जयविजय के लिए अर्चना की। इसके बाद कूणिक राजा ने ३३००० हाथियों यावत् तीस कोटि पैदल सैनिकों से गरुडव्यूह की रचना की । गरुडव्यूह द्वारा रथ-मूसल संग्राम प्रारम्भ किया । इधर चेटक राजा ने ५७००० हाथियों यावत् सत्तावन कोटि पदातियों द्वारा शकटव्यूह की रचना की और रचना करके शकटव्यूह द्वारा रथ-मूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ । तब दोनों राजाओं की सेनाएं युद्ध के लिए तत्पर हो यावत् आयुधों और प्रहरणों को लेकर हाथों में ढालों को बाँधकर, तलवारें म्यान से बाहर निकालकर, कंधों पर लटके तूणीरों से, प्रत्यंचायुक्त धनुषों से छोड़े हुए बाणों से, फटकारते हुए बायें हाथों से, जोर-जोर से बजती हुई जंघाओं में बंधी हुई घंटिकाओं से, बजती हुई तुरहियों से एवं प्रचंड हुंकारों के महान कोलाहल से समुद्रगर्जना जैसी करते हुए सर्व ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों से, परस्पर अश्वारोही अश्वारोहियों से, गजारूढ गजारूढों से, रथी रथारोहियों से और पदाति पदातियों से भिड़ गए। दोनों राजाओं की सेनाएं अपने-अपने स्वामी के शासनानुराग से आपूरित थीं । अतएव महान जनसंहार, जनवध, जनमर्दन, जनभय और नाचते हुए रुंड-मुंडों से भयंकर रुधिर का कीचड़ करती हुई एक दूसरे से युद्ध में झूझने लगीं । तदनन्तर कालकुमार गरुडव्यूह के ग्यारहवें भाग में कूणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम करता हुआ हत और मथित हो गया, इत्यादि जैसा भगवान् ने काली देवी से कहा था, तदनुसार यावत् मृत्यु को प्राप्त हो गया । अतएव गौतम ! इस प्रकार के आरम्भों से, अशुभ कार्यों के कारण वह काल कुमार मरण करके चौथी पं पृथ्वी के हेमाभ नरक में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ है । सूत्र - १९ गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया- भदन्त ! वह कालकुमार चौथी पृथ्वी से निकलकर कहाँ जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जो आढ्य कुल है, उनमें जन्म लेकर दृढप्रतिज्ञ के समान सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, यावत् परिनिर्वाण को प्राप्त होगा और समस्त दुःखों का अंत करेगा । इस प्रकार आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने निरयावलिका के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है । अध्ययन-१ का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र अध्ययन-२-सुकाल सूत्र - २० भदन्त ! यदि श्रमण यावत् मुक्ति संप्राप्त भगवान महावीर ने निरयावलिका के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो द्वितीय अध्ययन का क्या भाव प्रतिपादन किया है ? आयुष्मन् जम्बू ! उस काल और उस समय में चंपा नाम की नगरी थी । वहाँ पूर्णभद्र चैत्य था । कूणिक वहाँ का राजा था । पद्मावती उसकी पटरानी थी। उस चंपानगरी में श्रेणिक राजा की भार्या, कूणिक राजा की सौतेली माता सुकाली नाम की रानी थी जो सुकुमाल शरीर आदि से सम्पन्न थी । उस सुकाली देवी का पुत्र सुकाल राजकुमार था । वह सुकोमल अंग-प्रत्यंग वाला आदि विशेषणों से युक्त था। शेष सर्व कथन कालकुमार अनुसार जानना । यावत् वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर कर्मों का अन्त करेगा । सम्पूर्ण कथन कालकुमार के समान ही कहना चाहिए। अध्ययन-२-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन-३-से-१० सूत्र-२१ प्रथम अध्ययन के समान शेष आठ अध्ययन भी जानना । किन्तु इतना विशेष है कि उनकी माताओं के नाम के समान उन कमारों के नाम हैं। अध्ययन-३ से १०-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण -----X-----X-----X-----X-----X-----X-----X----- १९-निरयावलिका-उपांगसूत्र-८-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 19, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका' अध्ययन/सूत्र नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूश्यपाश्री आन-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसार १३ल्यो नमः 860 REASOKHARA 19 KORAKAR XXXXXXXXXX XOXOXOOOXXX. OXXXXXXXXXXXXOXO XXXX XXXXXXXXXX निरयावलिका आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी __[ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] AG 211892:- (1) (2) deepratnasagar.in छमेल ड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com मोबाईल 09825967397 मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 17