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आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका'
अध्ययन/सूत्र
समुदाय एवं आदरपूर्वक सब प्रकार की वेशभूषा से सजकर, सर्व विभूति, सर्व सम्भ्रम, सब प्रकार के सुगंधित पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार, सर्व दिव्य वाद्यसमूहों की ध्वनि-प्रतिध्वनि, महान ऋद्धि-विशिष्ट वैभव, महान द्युति, महाबल, शंख, ढोल, पटह, भेरी, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज, मृदंग, दुन्दुभि के घोष के ध्वनि के साथ अपनेअपने नगरों से प्रस्थान करो और प्रस्थान करके मेरे पास आकर एकत्रित होओ।
तब वे कालादि दस कुमार कूणिक राजा के इस कथन को सूनकर अपने-अपने राज्यों को लौटे । प्रत्येक ने स्नान किया, यावत् जहाँ कूणिक राजा था, वहाँ आए और दोनों हाथ जोड़कर यावत् बधाया । काल आदि दस कुमारों की उपस्थिति के अनन्तर कूणिक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और यह आज्ञा दी- देवानुप्रियों ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तीरत्न-को प्रतिकर्मित कर, घोड़े, हाथी, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं से सुगठित चतुरंगिणी सेना को सुसन्नद्ध-करो, यावत् से सेवक आज्ञानुरूप कार्य सम्पन्न होने की सूचना देते हैं।
तत्पश्चात् कूणिकराजा जहाँ स्नानगृह था वहाँ आया, मोतियों के समूह से युक्त होने से मनोहर, चित्र-विचित्र मणि-रत्नों से खचित फर्शवाले, रमणीय, स्नान-मंडप में विविध मणि-रत्नों के चित्रामों से चित्रित स्नानपीठ पर सुखपूर्वक बैठकर उसने शुभ, पुष्पोदक से सुगंधित एवं शुद्ध जल से कल्याणकारी उत्तम स्नानविधि से स्नान किया
अनेक प्रकार के सैकड़ों कौतुक किए तथा कल्याणप्रद प्रवर स्नान के अंत में रुएंदार काषायिक मुलायम वस्त्र से शरीर को पोंछा । नवीन-महा मूल्यवान् दूष्यरत्न को धारण किया; सरस, सुगंधित गोशीर्ष चंदन से अंगों का लेपन किया । पवित्र माला धारण की, केशर आदि का विलेपन किया, मणियों और स्वर्ण से निर्मित आभूषण धारण किए । हार, अर्धहार, त्रिसर और लम्बे-लटकते कटिसूत्र-से अपने को सुशोभित किया; गले में ग्रैवेयक आदि आभूषण धारण किए, अंगुलियों में अंगुठी पहनी । मणिमय कंकणों, त्रुटितों एवं भुजबन्धों से भुजाएं स्तम्भित हो गईं, कुंडलों से उसका मुख चमक गया, मुकुट से मस्तक देदीप्यमान हो गया । हारों से आच्छादित उसका वक्षस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था । लंबे लटकते हए वस्त्र को उत्तरीय के रूप में धारण किया । मुद्रिकाओं से अंगुलियाँ पीतवर्ण-सी दिखती थीं । सुयोग्य शिल्पियों द्वारा निर्मित, स्वर्ण एवं मणियों के सुयोग से सुरचित, विमल महार्ह, सुश्लिष्ट, उत्कृष्ट, प्रशस्त आकारयुक्त; वीरवलय धारण किया।
कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित नरेन्द्र कोरण्ट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर,
ओं में चार चामरों से विंजाता हुआ, लोगों द्वारा मंगलमय जय-जयकार किया जाता हुआ, अनेक गणनायकों, दंडनायकों, राजा, ईश्वर, यावत् संधिपाल, आदि से घिरा हुआ, स्नानगृह से बाहर नीकला । यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल उच्च गजपति पर वह नरपति आरूढ हुआ।
तत्पश्चात कुणिक राजा ३००० हाथियों यावत वाद्यघोषपूर्वक चंपा नगरी के मध्य भाग में से नीकला, जहाँ काल आदि दस कुमार ठहरे थे वहाँ पहुँचा और काल आदि दस कुमारों से मिला । इसके बाद ३३००० हाथियों, ३३००० घोड़ों, ३३००० रथों और तेंतीस कोटि मनुष्यों से घिर कर सर्व ऋद्धि यावत् कोलाहल पूर्वक सुविधाजनक पड़ाव डालता हुआ, अति विकट अन्तरावास न कर, विश्राम करते हुए अंग जनपद के मध्य भाग में से होते हुए जहाँ विदेह जनपद था, वैशाली नगरी थी, उस ओर चलने के लिए उद्यत हुआ।
राजा कूणिक का युद्ध के लिए प्रस्थान का समाचार जानकर चेटक राजा ने काशी-कोशल देशों के नौ लिच्छवी और नौ मल्लकी इन अठारह गण-राजाओं को परामर्श करने हेतु आमंत्रित किया और कहा-देवानुप्रियों ! बात यह है कि कूणिक राजा को बिना जताए-वेहल्लकुमार सेचनक हाथी और अठारह लड़ों का हार लेकर यहाँ
आ गया है । किन्तु कूणिक ने सेचनक हाथी और अठारह लड़ों के हार को वापिस लेने के लिए तीन दूत भेजे । किन्तु अपनी जीवित अवस्था में स्वयं श्रेणिक राजा ने उसे ये दोनों वस्तुएं प्रदान की हैं, फिर भी हार-हाथी चाहते हो तो उसे आधा राज्य दो, यह उत्तर दे कर उन दूतों को वापिस लौटा दिया । तब कूणिक मेरी इस बात को न सूनकर और न स्वीकार कर चतुरंगिणी सेना के साथ युद्धसज्जित हो कर यहाँ आ रहा है । तो क्या सेचनक हाथी, अठारह लड़ों का हार वापिस कूणिक राजा को लौटा दें ? वेहल्लकुमार को उसके हवाले कर दें ? या युद्ध करें?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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