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आगम सूत्र १९, उपांगसूत्र-८, 'निरयावलिका'
अध्ययन/सूत्र
संकल्प उत्पन्न हुआ-'मेरा पुत्रकुमार काल ३००० हाथियों आदि को लेकर यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है। तो क्या वह विजय प्राप्त करेगा अथवा नहीं? वह जीवित रहेगा अथवा नहीं? शत्रु को पराजित करेगा या नहीं? क्या मैं काल कुमार को जीवित देख सकूँगी ?' इत्यादि विचारों से वह उदास हो गई । निरुत्साहित-सी होती हुई यावत् आर्तध्यान में डूब गई।
उसी समय में श्रमण भगवान् महावीर का चम्पा नगरी में पदार्पण हुआ । वन्दना-नमस्कार करने एवं धर्मोपदेश सूनने के लिए जन-परिषद् निकली । तब वह काली देवी भी इस संवाद को जान कर हर्षित हुई और उसे इस प्रकार का आन्तरिक यावत् संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ । तथारूप श्रमण भगवंतों का नामश्रवण ही महान् फलप्रद है तो उन के समीप पहुँच कर वन्दन-नमस्कार करने के फल के विषय में तो कहना ही क्या है ? यावत् मैं श्रमण भगवान् के समीप जाऊं, यावत् उनकी पर्युपासना करूँ और उनसे पूर्वोल्लिखित प्रश्न पूछू। काली रानी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । आज्ञा दी-'देवानुप्रियों ! शीघ्र ही धार्मिक कार्यों में प्रयोग किये जाने वाले श्रेष्ठ रथ को जोत कर लाओ।
तत्पश्चात् स्नान कर एवं बलिकर्म कर काली देवी यावत् महामूल्यवान् किन्तु अल्प आभूषणों से विभूषित हो अनेक कुब्जा दासियों यावत् महत्तरकवृन्द को साथ लेकर अन्तःपुर से निकली । अपने परिजनों एवं परिवार से परिवेष्टित होकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पहुँची । तीर्थंकरों के छत्रादि अतिशयों-प्रातिहार्यों के दृष्टिगत होते ही धार्मिक श्रेष्ठ रथ को रोका । धार्मिक श्रेष्ठ रथ से नीचे उतरी और श्रमण भगवान् महावीर बिराजमान थे, वहाँ पहुँची। तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया और वहीं बैठ कर सपरिवार भगवान् की देशना सुनने के लिए उत्सुक होकर विनयपर्वक पर्यपासना करने लगी।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान् ने यावत् उस काली देवी और विशाल जनपरिषद् को धर्मदेशना सुनाई इस के बाद श्रमण भगवान महावीर से धर्मश्रवण कर और उसे हृदय में अवधारित कर काली रानी ने हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसित हृदय होकर श्रमण भगवान् को तीन बार वंदन-नमस्कार करके कहा-भदन्त ! मेरा पुत्र काल कुमार रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है, तो क्या वह विजयी होगा अथवा नहीं? यावत् क्या मैं काल कुमार को जीवित देख सकूँगी?
श्रमण भगवान् ने काली देवी से कहा-काली ! तुम्हारा पुत्र कालकुमार, जो यावत् कूणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम में जूझते हुए वीरवरों को आहत, मर्दित, घातित करते हुए और उनकी संकेतसूचक ध्वजापताकाओं को भमिसात करते हए-दिशा विदिशाओं को आलोकशन्य करते हए रथ से रथ को अडाते हए चेटक राजा के सामने आया । तब चेटक राजा क्रोधाभिभूत हो यावत् मिस-मिसाते हुए धनुष को उठाया । बाण को हाथ में लिया, धनुष पर बाण चढ़ाया, उसे कान तक खींचा और एक ही बार में आहत करके, रक्तरंजित करके निष्प्राण कर दिया । अतएव है काली वह कालकुमार मरण को प्राप्त हो गया है । अब तुम कालकुमार को जीवित नहीं देख सकती हो।
श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सूनकर और हृदय में धारण करके काली रानी घोर पुत्र-शोक से अभिभूत, चम्पकलता के समान पछाड़ खाकर धड़ाम-से सर्वांगों से पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ समय के पश्चात् जब काली देवी कुछ आश्वस्त-हुई तब खड़ी हुई और भगवान् को वंदन-नमस्कार कर के इस प्रकार कहा-'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! ऐसा ही है, भगवन् ! यह अवितथ है । असंदिग्ध है । यह सत्य है । यह बात ऐसी ही है, जैसी आपने बतलाई है। उसने श्रमण भगवान् को पुनः वंदन-नमस्कार किया । उसी धार्मिक यान पर आरूढ होकर, वापिस लौट गई। सूत्र-८
भगवान गौतम, श्रमण भगवान महावीर के समीप आए और वंदन-नमस्कार करके अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा-भगवन् ! जो काल कुमार रथमूसल संग्राम करते हुए चेटक राजा के एक ही आघात-से रक्तरंजित मुनि दीपरत्नसागर कृत्- (निरयावलिका) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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