Book Title: Agam 09 Anuttaropapatik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स बाल ब्रह्मचारी श्री नेमिनाथाय नम: पूज्य आनन्द-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरूभ्यो नमः आगम-९ अनुत्तरोपपातिकदशा आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी ' [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि] आगम हिन्दी-अनुवाद-श्रेणी पुष्प-९ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक आगमसूत्र-९- 'अनुत्तरोपपातिकदशा' अंगसूत्र-९ -हिन्दी अनुवाद कहां क्या देखे? क्रम क्रम विषय विषय वर्ग- पहेला ०५ वर्ग- दुसरा ०७ वर्ग-तिसरा ०८ मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (अनुत्तरोपपातिकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक ४५ आगम वर्गीकरण सूत्र क्रम क्रम आगम का नाम आगम का नाम सूत्र ०१ | आचार २५ आतुरप्रत्याख्यान पयन्नासूत्र-२ सूत्रकृत् २६ पयन्नासूत्र-३ स्थान महाप्रत्याख्यान २७ भक्तपरिज्ञा | तंदुलवैचारिक पयन्नासूत्र-४ समवाय पयन्नासूत्र-५ २९ संस्तारक भगवती ०६ ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्र-१ अंगसूत्र-२ अंगसूत्र-३ अंगसूत्र-४ अंगसूत्र-५ अंगसूत्र-६ अंगसूत्र-७ अंगसूत्र-८ अंगसूत्र-९ अंगसूत्र-१० अंगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१ उपासकदशा ३०.१ | गच्छाचार ३०.२ | चन्द्रवेध्यक ३१ । गणिविद्या अंतकृत् दशा पयन्नासूत्र-६ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-७ पयन्नासूत्र-८ पयन्नासूत्र-९ पयन्नासूत्र-१० छेदसूत्र-१ देवेन्द्रस्तव वीरस्तव अनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरणदशा ११ | विपाकश्रुत | औपपातिक ३४ । निशीथ १२ ३५ बृहत्कल्प छेदसूत्र-२ १३ उपांगसूत्र-२ व्यवहार राजप्रश्चिय | जीवाजीवाभिगम १४ उपांगसत्र-३ ३७ १५ प्रज्ञापना उपागसूत्र-४ दशाश्रुतस्कन्ध जीतकल्प ३९ महानिशीथ ३८ उपांगसूत्र-५ १७ उपांगसूत्र-६ १६ | सूर्यप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति १८ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति १९ | निरयावलिका २० | कल्पवतंसिका पुष्पिका पुष्पचूलिका उपांगसूत्र-७ छेदसूत्र-३ छेदसूत्र-४ छेदसूत्र-५ छेदसूत्र-६ मूलसूत्र-१ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-२ मूलसूत्र-३ मूलसूत्र-४ चूलिकासूत्र-१ उपागसूत्र-८ ४० । आवश्यक ४१.१ | ओघनियुक्ति ४१.२ पिंडनियुक्ति दशवैकालिक ४३ उत्तराध्ययन ४४ । नन्दी ४२ उपांगसूत्र-९ उपांगसूत्र-१० उपांगसूत्र-११ उपांगसूत्र-१२ अनुयोगद्वार चूलिकासूत्र-२ वृष्णिदशा २४ | चतु:शरण पयन्नासूत्र-१ मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 3 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक 10 [45] 06 मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशित साहित्य आगम साहित्य आगम साहित्य साहित्य नाम बक्स क्रम साहित्य नाम मूल आगम साहित्य: 147 6 आगम अन्य साहित्य:1-1- आगमसुत्ताणि-मूलं print [49] -1- याराम थानुयोग 06 -2- आगमसुत्ताणि-मूलं Net -2- आगम संबंधी साहित्य 02 -3- आगममञ्जूषा (मूल प्रत) [53] | -3- ऋषिभाषित सूत्राणि 01 आगम अनुवाद साहित्य:165 -4- आगमिय सूक्तावली 01 1-1-मागमसूत्रगुती सनुवाई [47] | | आगम साहित्य- कुल पुस्तक 516 -2- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद Net: [47] | -3- Aagamsootra English Trans. | [11] | -4- सामसूत्रसटी ४राती सनुवाई | [48] -5- आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद print [12] अन्य साहित्य:3 आगम विवेचन साहित्य:171 1तवाल्यास साहित्य -13 -1- आगमसूत्र सटीक [46] 2 सूत्रात्यास साहित्य-2- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-11151]| 3 વ્યાકરણ સાહિત્ય 05 | -3- आगमसूत्राणि सटीकं प्रताकार-20 વ્યાખ્યાન સાહિત્ય 04 -4-आगम चूर्णि साहित्य [09] 5 उनलत साहित्य 09 | -5- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-1 [40] 6 aoसाहित्य-6- सवृत्तिक आगमसूत्राणि-2 [08] 7 माराधना साहित्य 03 |-7- सचूर्णिक आगमसुत्ताणि [08] 8 परियय साहित्य 04 आगम कोष साहित्य: 149 પૂજન સાહિત્ય 02 -1- आगम सद्दकोसो તીર્થકર સંક્ષિપ્ત દર્શન -2- आगम कहाकोसो [01]| 11 ही साहित्य 05 -3-आगम-सागर-कोष: [05] 12 દીપરત્નસાગરના લઘુશોધનિબંધ -4- आगम-शब्दादि-संग्रह (प्रा-सं-गु) [04] | આગમ સિવાયનું સાહિત્ય કૂલ પુસ્તક आगम अनुक्रम साहित्य: 09 -1- भागमविषयानुभ- (भूग) 02 | 1-आगम साहित्य (कुल पुस्तक) -2- आगम विषयानुक्रम (सटीक) 04 2-आगमेतर साहित्य (कुल -3- आगम सूत्र-गाथा अनुक्रम दीपरत्नसागरजी के कुल प्रकाशन 60 AREमुनि हीपरत्नसागरनुं साहित्य AROO | भुनिटीपरत्नसागरनु आगम साहित्य [ पुस्त8 516] तेजा पाना [98,300] 2 भुनिटीपरत्नसागरनुं मन्य साहित्य [हुत पुस्त8 85] तना हुस पाना [09,270] मुनिहीपरत्नसागर संशतित तत्वार्थसूत्र'नी विशिष्ट DVD तेनाल पाना [27,930] | अभा। प्राशनोहुल ०१ + विशिष्ट DVD हुआ पाना 1,35,500 04 25 05 85 5 08 | 03 F मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 4 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक [९] अनुत्तरोपपातिक अंगसूत्र-९- हिन्दी अनुवाद वर्ग-१ सूत्र -१ उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । आर्य सुधर्मा विराजमान हए । नगर की परिषद् गई और धर्म सूनकर वापिस चली गई। जम्बू स्वामी कहने लगे "हे भगवन् ! यदि मोक्ष को प्राप्त हए श्री श्रमण भगवान महावीर ने आठवें अङ्ग, अन्तकृत्-दशा का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो हे भगवन् ! नौवें अङ्ग, अनुत्तरोपपातिक दशा का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है । वह सुधा अनगार ने जम्बू अनगार से कहा, "हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान महावीर ने नौवें अङ्ग, अनुत्तरोपपातिक-दशा के तीन वर्ग प्रतिपादन किये हैं।" "हे भगवन् ! श्री श्रमण भगवान ने यदि नौवें अङ्ग, अनुत्तरोपपातिक-दशा के तीन वर्ग प्रतिपादन किये हैं तो प्रथम वर्ग, अनुत्तरोपपातिक-दशा के कितने अध्ययन प्रतिपादन किये हैं ?'' ''हे जम्बू ! प्रथम वर्ग, अनुत्तरोपपातिकदशा के दस अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, जैसे-जालि, मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिसेन, दीर्घदंत, लष्टदंत, वहेल्ल, वेहायस और अभयकुमार । हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के दस अध्ययन प्रतिपादन किये हैं तो हे भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक-दशा के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में ऋद्धि, धन, धान्य से युक्त राजगृह नगर था । उसके बाहर गुणशील चैत्य था । श्रेणिक राजा था । धारिणी राणी थी। धारिणी देवी ने स्वप्न में सिंह देखा । मेघकुमार के समान जालिकुमार का जन्म हुआ। (जालिकुमार का आठ कन्याओं के साथ विवाह हुआ ।) आठों के घर से बहुत प्रीतिदान आया । सारे सुखों का अनुभव करता हुआ वह विचरण करने लगा । गुणशीलक चैत्य में श्रमण भगवान महावीर विराजमान हुए । वहाँ श्रेणिक राजा उनकी वन्दना के लिए गया । मेघकुमार के समान जालिकुमार भी गया । मेघकुमार के समान जालिकुमार दीक्षित हो गया। उसने एकादशाङ्ग शास्त्रों का अध्ययन किया । गुणरत्न नामक तप भी किया । शेष स्कन्दक के समान जानना । उसी प्रकार धर्म-चिन्तना, श्री भगवान से अनशन का विषय पूछना आदि । फिर वह उसी तरह स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर्वत पर गया । विशेषता इतनी की वह सोलह वर्ष के श्रामण्य-पर्याय का पालन कर मृत्यु के समय के आने पर काल करके चन्द्र से ऊंचे सौधर्मेशान, आरण्याच्युत-कल्प देवलोक और ग्रैवेयक-विमान-प्रस्तटों से भी ऊंचे व्यतिक्रम करके विजय विमान में देवरूप से उत्पन्न हआ। तब वे स्थविर भगवान जालि अनगार को कालगत हआ जानकर परिनिर्वाण-प्रत्ययिक कायोत्सर्ग करके तथा जालि अनगार के वस्त्र और पात्र लेकर उसी प्रकार पर्वत से उत्तर आए और श्री श्रमण भगवान महावीर के पास आकर निवेदन किया कि हे भगवन् ! ये जालि अनगार के धर्म-आचार आदि साधन के उपकरण हैं । भगवान गौतम ने प्रश्न किया ''हे भगवन् ! भद्र-भगवान महावीर की सेवा में उपस्थित होकर उन्होंने सविनय निवेदन किया कि हे भगवन् ! ये जालि प्रकृति और विनयी वह आप का शिष्य जालि अनगार मृत्यु के अनन्तर कहा गया ? कहाँ उत्पन्न हुआ ? हे गौतम ! जालि अनगार चन्द्र और बारह देवलोकों से नव ग्रैवेयक विमानों का उल्लङ्घन कर विजय-विमानमें देव-रूप से उत्पन्न हुआ है। हे भगवन् ! उस जालि देव की वहाँ कितनी स्थिति है? हे गौतम ! जालि देव की वहाँ बत्तीस सागरोपम की स्थिति है ।हे भगवन् ! वह जालिदेव उस देवलोक से आयु, भव और स्थिति क्षय होने पर कहाँ जाएगा?हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धिगति प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का अर्थ प्रतिपादन किया है। मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र-२ इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनों में भी जानना । विशेषता इतनी की अवशिष्ट कुमारों में से सात धारिणी देवी के पुत्र थे, वेहल्ल और वेहायस कुमार चेल्लणा देवी के पुत्र थे । पहले पाँच ने सोलह वर्ष तक, तीन ने बारह वर्ष और दो ने पाँच वर्ष तक संयम-पर्याय का पालन किया था । पहले पाँच क्रम से विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध विमानों में, दीर्घदन्त सर्वार्थसिद्ध में और अभयकुमार विजय विमान में उत्पन्न हुए और शेष प्रथम अध्ययन अनुसार जानना । अभयकुमार के विषय में इतनी विशेषता है कि वह राजगृह नगर में उत्पन्न हुआ था और श्रेणिक राजा तथा नन्दादेवी उसके पिता-माता थे। शेष पूर्ववत् । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के प्रथम वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। वर्ग-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वर्ग-२ सूत्र -३ हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के प्रथम वर्ग का पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है तो श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के द्वितीय वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, जैसेसूत्र-४ दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढदन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रुमसेन, और महाद्रुमसेन कुमार । तथासूत्र-५ सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन और पुण्यसेन कुमार । इस प्रकार द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन होते हैं। सूत्र-६ हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादन किये हैं तो फिर हे भगवन् ! द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशैलक चैत्य था । श्रेणिक राजा था । धारिणी देवी थी। उसने सिंह का स्वप्न देखा । जालिकुमार समान, जन्म हुआ, बालकपन रहा और कलाएं सीखीं । विशेषता इतनी कि नाम दीर्घसेनकुमार रखा गया । यावत् महाविदेह क्षेत्र में मोक्ष प्राप्त करेगा इत्यादि। इसी प्रकार तेरह अध्ययनों के तेरह कुमारों के विषय में जानना । ये सब राजगृह नगर में उत्पन्न हए । महाराज श्रेणिक और महाराणी धारिणी देवी के पुत्र थे । सोलह वर्ष तक संयम पालन किया । इसके अनन्तर क्रम से दो विजय विमान, दो वैजयन्त विमान, दो जयन्त विमान और दो अपराजित विमान में उत्पन्न हए । शेष महाद्रुम-सेन आदि पाँच सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग का अर्थ प्रतिपादन किया है। वर्ग-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 7 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वर्ग-३ सूत्र -७ हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के द्वितीय वर्ग का उक्त अर्थ प्रतिपादन किया है, तो हे भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक-दशा के तृतीय वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्ब ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के तृतीय वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, जैसे सूत्र-८ धन्य, सुनक्षत्र, ऋषिदास, पेल्लक कुमार, रामपुत्र, चन्द्रिका और पृष्टिमातृका कुमार । सूत्र-९ पेढालपुत्र, पृष्टिमायी और वेहल्ल कुमार । ये तृतीय वर्ग के दश अध्ययन कहे गए हैं। वर्ग-३ अध्ययन-१ सूत्र-१० हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने, अनुत्तरोपपातिक-दशा के तृतीय वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किए हैं तो फिर हे भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में काकन्दी नगरी थी । वह सब तरह के ऐश्वर्य और धन-धान्य से परिपूर्ण थी । सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था, जो सब ऋतुओं में फल और फूलों से भरा रहता था । जितशत्रु राजा था । भद्रा सार्थवाहिनी थी । वह अत्यन्त समृद्धिशालिनी और धन-धान्य में अपनी जाति और बराबरी के लोगों में किसी से किसी प्रकार भी परिभृत नहीं थी । उस भद्रा सार्थवाहिनी का धन्य नाम का एक सर्वाङ्ग-पूर्ण और रूपवान् पुत्र था । उसके पालन-पोषण करने के लिए पाँच धाईयाँ नियत थीं। शेष वर्णन महाबल कुमार समान जानना । इस प्रकार धन्य कुमार सब भोगों को भोगने में समर्थ हो गया। इसके अनन्तर भद्रा सार्थवाहिनी ने धन्य कुमार को बालकपन से मुक्त और सब तरह के भोगों को भोगने में समर्थ जानकर बत्तीस बड़े-बड़े अत्यन्त ऊंचे और श्रेष्ठ भवन बनवाए । उनके मध्य में एक सैकड़ों स्तम्भों से युक्त भवन बनवाया । फिर बत्तीस श्रेष्ठ कुलों की कन्याओं से एक ही दिन उसका पाणि-ग्रहण कराया । उनके साथ बत्तीस (दास, दासी और धन-धान्य से युक्त) प्रीतिदान मिला । तदनन्तर धन्य कुमार अनेक प्रकार के मृदङ्ग आदि वाद्यों की ध्वनि से गुञ्जित प्रासादों के ऊपर पञ्चविध सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए विचरण करने लगा। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ विराजमान हुए । नगरी की परिषद् वन्दना के लिए गई । कोणिक राजा के समान जितशत्रु राजा भी गया । धन्य कुमार भी जमालि कुमार की तरह गया । विशेषता यही कि धन्य कुमार पैदल ही गया । उसने कहा कि हे भगवन् ! मैं अपनी माता भद्रा सार्थवाहिनी को पूछ कर आता हूँ । इसके अनन्तर मैं आपकी सेवा में उपस्थित होकर दीक्षित हो जाऊंगा । उसने अपनी माता से जमालि की तरह ही पूछा । माता यह सूनकर मूर्छित हो गई । माता-पुत्र में इस विषय में प्रश्नोत्तर हुए । जब वह भद्रा महाबल के समान पुत्र को रोकने के लिए समर्थ न हो सकी तो उसने थावच्चा पुत्र के समान जितशत्रु राजा से पूछा और दीक्षा के लिए छत्र और चामर की याचना की । जितशत्रु राजा ने स्वयं उपस्थित होकर कृष्ण वासुदेव के समान धन्य कुमार का दीक्षा-महोत्सव किया । धन्य कुमार दीक्षित हो गया और ईर्या-समिति, ब्रह्मचर्य आदि सम्पूर्ण गुणों से युक्त होकर विचरने लगा। तत्पश्चात् वह धन्य अनगार जिस दिन मुण्डित हुआ, उसी दिन श्रमण भगवान महावीर की वन्दना और नमस्कार कर कहने लगा कि हे भगवन् ! आपकी आज्ञा से मैं जीवन-पर्यन्त षष्ठ-षष्ठ तप और आचाम्लग्रहण-रूप तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहता हूँ | और षष्ठ के पारण के दिन भी शुद्धौदनादि ग्रहण मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 8 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक करना ही मुझ को योग्य है । वह भी पूर्ण-रूप से संसृष्ट अर्थात् भोजन में लिप्त हाथों से दिया हआ ही न कि असंसृष्ट हाथों से, वह भी परित्याग-रूप धर्म वाला हो । उसमें भी वह अन्न हो जिसको अनेक श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और वनीपक नहीं चाहते हों । यह सूनकर श्रमण भगवान महावीर ने कहा कि जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, करो । किन्तु धर्मकार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं । इसके अनन्तर वह धन्य कुमार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा से आनन्दित और सन्तुष्ट होकर निरन्तर षष्ठ-षष्ठ तपकर्म से जीवनभर अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा। इसके अनन्तर वह धन्य अनगार प्रथम-षष्ठ-क्षमण के पारण के दिन पहली पौरुषी में स्वाध्याय करता है। फिर गौतम स्वामी की तरह वह भी भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर काकन्दी नगरी में जाकर ऊंच, मध्य और नीच सब तरह के कुलों में आचाम्ल के लिए फिरता हुआ जहाँ उज्झित मिलता था वहीं ग्रहण करता था । उसको बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुओंसे आज्ञप्त उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा-समिति से युक्त भिक्षा में जहाँ भात मिला, वहाँ पानी नहीं मिला, तथा जहाँ पानी मिला, वहाँ भात नहीं मिला । इस पर भी वह धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि कलुषता और विषाद प्रकट नहीं करता था, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त होकर, प्राप्त योगों में अभ्यास करता हुआ और अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हुए चरित्र से जो कुछ भी भिक्षा-वृत्ति से प्राप्त होता था उसको ग्रहण कर काकन्दी नगरी से बाहर आ जाता था और गौतम स्वामी समान आहार दिखाकर भगवान की आज्ञा से बिना आसक्ति के जिस प्रकार एक सर्प केवल पार्श्व भागों के स्पर्श से बिल में घुस जाता है इसी प्रकार वह भी बिना किसी विशेष ईच्छा के आहार ग्रहण करता था और संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करता था। श्रमण भगवान महावीर अन्यदा काकन्दी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से नीकलकर बाहर जनपद-विहार के लिए विचरने लगे । वह धन्य अनगार भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिकादि एकादश अङ्गशास्त्रों का अध्ययन करने लगा । वह संयम और तप से अपने आत्मा की भावना करते हुए विचरता था । तदनु वह धन्य अनगार स्कन्दक समान उस उदार तप के प्रभाव से हवन की अग्नि के समान प्रकाशमान मुख से विराजमान हए । धन्य अनगार के पैरों का तप से ऐसा लावण्य हो गया जैसे सूखी वृक्ष की छाल, लकड़ी की खड़ाऊ या जीर्ण जुता हो । धन्य अनगार के पैर केवल हड्डी, चमड़ा और नसों से ही पहचाने जाते थे न कि मांस और रुधिर से । पैरों की अंगलियाँ कलाय धान्य की फलियाँ, मँग की अथवा माष की फलियाँ कोमल ही तोडकर धूप में डाली हई मुरझा जाती हैं ऐसी हो गई। उन में केवल हड्डी, नस और चमडा ही नजर आता था, मांस और रुधिर नहीं। धन्य अनगार की जङ्घाएं तप के कारण इस प्रकार निर्मास हो गई जैसे काक की, कङ्क पक्षी की और ढंक पक्षी की जङ्घाएं होती हैं । वे सूख कर इस तरह की हो गई की माँस और रुधिर देखने को भी नहीं रह गया । धन्य अनगार के जानु काली वनस्पति, मयूर और ढेणिक पक्षी के पर्व समान हो गई । वे भी माँस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते थे । धन्य अनगार के ऊरुओं प्रियंगु, बदरी, शल्यकी और शाल्मली वृक्षों की कोमल कोंपल तोड़कर धूप में रखी हुई मुरझा जाती हैं ऐसे माँस और रक्त से रहित हो कर मुरझा गये थे। धन्य अनगार के कटि-पत्र ऊंट का पैर हो, बूढ़े बैल का पैर जैसा हो गया । उसमें माँस और रुधिर का सर्वथा अभाव था । उदर-भाजन सूखी मशक, चने आदि भूनने का भाण्ड हो अथवा लकड़ी का, बीच में मुड़ा हुआ पात्र की तरह सूख गया था । पार्श्व की अस्थियाँ दर्पणों की पाण नामक पात्रों की अथवा स्थाणुओं की पंक्ति समान हो गए । पृष्ठ-प्रदेश के उन्नत भाग कान के भूषणों की, गोलक-पाषाणों की, अथवा वर्तक खिलौनों की पंक्ति समान सूख कर निर्मांस हो गए थे । धन्य अनगार के वक्षःस्थल गौ के चरने के कुण्ड का अधोभाग, बाँस आदि का अथवा ताड़ के पत्तों का पङ्खा समान सूखकर माँस और रुधिर से रहित हो गया था। माँस और रुधिर के अभाव से अन्य अनगार की भुजाएं शमी, बाहाय और अगस्तिक वृक्ष की सूखी हुई फलियाँ समान हो गई । हाथ सूख कर सूखे गोबर समान हो गए अथवा वट और पलाश के सूखे पत्ते समान हो मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (अनुत्तरोपपातिकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 9 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक गए। अंगुलियाँ भी सूख कर कलाय, मूंग अथवा माष की मुरझाई हुई फलियाँ समान उनकी अंगुलियाँ भी माँस और रुधिर के अभाव से मुरझा कर सूख गई थीं । ग्रीवा माँस और रुधिर के अभाव से सूख कर सुराई, कण्डिका और किसी ऊंचे मुख वाले पात्र समान दिखाई देती थी । उनका चिबुक भी इसी प्रकार सूख गया था और तुम्बे या हकुब के फल अथवा आम की गुठली जैसा हो गया था । ओठों भी सूख कर सुखी हुई जोंक होती अथवा श्लेष्म या मेंहदी की गुटिका जैसे हो गए । जिह्वा में भी बिलकुल रक्त का अभाव हो गया था, वह वटवृक्ष अथवा पलाश के पत्ते या सूखे हुए शाक के समान हो गए थे। धन्य अनगार की नासिका तप के कारण सूख कर एक आम, आम्रातक या मातुलुंग फल की कोमल फांक काट कर धूप में सुखाई हो ऐसी हो गई । धन्य अनगार की आँखें वीणा के छिद्र अथवा प्रभातकाल का टिमटिमाता हुआ तारा समान भीतर धंस गईं थीं । कान मूली का छिल्का अथवा चिर्भटी की छाल या करेले का छिल्का समान सूखकर मुरझा गये थे। शिड़ सुखे हुए कोमल तुम्बक, कोमल आलू और सेफालक समान सूख गया था, रूखा हो गया था और उसमें केवल अस्थि, चर्म और नासा-जाल ही दिखाई देता था किन्तु माँस और रुधिर नामात्र के लिए भी नहीं रह गया था । इसी प्रकार सब अङ्गों के विषय में जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि उदरभाजन, कान, जिह्वा और ओंठ इनके विषय में अस्थि' नहीं कहना चाहिए। धन्य अनगार माँस आदि के अभाव से सूखे हुए और भूख के कारण रूखे पैर, जङ्घ और उरु से, भयङ्कर रूप से प्रान्त भागों में उन्नत हुए कटि-कटाह से, पीठ के साथ मिले हुए उदर-भाजन से, पृथक् पृथक् दिखाई देती हुई पसलियों से, रुद्राक्ष-माला के समान स्पष्ट गिनी जाने वाली पृष्ट-करण्डक की सन्धियों से, गङ्गा की तरंगों के समान उदर-कटक के प्रान्त भागों से, सूखे हुए साँप के समान भुजाओं से, घोड़े की ढीली लगाम के समान चलते हुए हाथों से, कम्पनवायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान काँपती हुई शीर्ष-घटी से, मुरझाए हुए मुखकमल से क्षीण-ओष्ठ होने के कारण घड़े के मुख के समान विकराल मुख से और आँखों के भीतर धंस जाने के कारण इतना कृश हो गया था कि उसमें शारीरिक बल बिलकुल भी बाकी नहीं रह गया था । वह केवल जीव के बल से ही चलता, फिरता और खड़ा होता था । थोड़ा सा कहने के लिए भी वह स्वयं खेद मानता था । जिस प्रकार एक कोयलों की गाड़ी जलते हुए शब्द करती है, इसी प्रकार उसकी अस्थियाँ भी चलते हुए शब्द करती थीं । वह स्कन्दक के समान हो गया था । भस्म से ढकी हुई आग के समान वह भीतर से दीप्त हो रहा था । वह तेज से, तप से और तप-तेज की शोभा से शोभायमान होता हआ विचरता था। सूत्र-११ उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशैलक चैत्य था । श्रेणिक राजा था । उसी काल और उसी समय में श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी उक्त चैत्य में बिराजमान हुए । यह सूनकर पर्षदा नीकली, भगवान की सेवा में उपस्थित हुई, श्रेणिक राजा भी उपस्थित हुआ। भगवान ने धर्म-कथा सुनाई और लोग वापिस चले गए। श्रेणिक राजा ने इस कथा को सूनकर भगवान को वन्दना और नमस्कार कर के कहा-'हे भगवन् ! इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में कौन सा श्रमण अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सबसे बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है ?" "हे श्रेणिक ! धन्य अनगार अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सबसे बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है।'' 'हे भगवन् ! किस कारण से आप कहते हैं ?'' ''हे श्रेणिक ! उस काल और उस समय में काकन्दी नगरी थी। उसके बाहर सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था। इसी समय कभी पूर्वानुपूर्वी से विचरता हुआ, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ मैं जहाँ काकन्दी नगरी सहस्राम्रवन उद्यान था वहीं पहँच गया और यथा प्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करते हुए वहीं पर विचरने लगा । नगरी की जनता यह सूनकर वहाँ आई और मैंने धर्म-कथा सुनाई । धन्य के ऊपर इसका विशेष प्रभाव पड़ा और वह तत्काल ही गृहस्थ को छोड़कर साधु-धर्म में दीक्षित हो गया। उसने तभी से कठोर-व्रत धारण कर लिया और केवल आचम्ल से पारणा करने लगा । वह जब आहार मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक और पानी भिक्षा से लाता था तो मुझको दिखाकर बिना किसी लालसा के आहार करता था । धन्य अनगार के पादों से लेकर सारे शरीर का वर्णन पूर्ववत् जानना । उसके सब अङ्ग तप-रूप लावण्य से शोभित हो रहे थे । इसीलिए हे श्रेणिक ! मैंने कहा है कि चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार महातप और महाकर्मों की निर्जरा करने वाला है । जब श्रमण भगवान महावीर के मुख से श्रेणिक राजा ने यह सूना और इस पर विचार किया तो हृदय में अत्यन्त प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ और इस प्रकार प्रफुल्लित होकर उसने श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिणा और प्रदक्षिणा की, उनकी वन्दना की और नमस्कार किया । जहाँ धन्य अनगार था वहाँ जाकर उसने धन्य अनगार की तीन बार आदक्षिणा और प्रदक्षिणा की । वन्दना और नमस्कार किया तथा कहने लगा कि तुम धन्य हो, श्रेष्ठ पुण्य वाले हो, श्रेष्ठ कार्य करने वाले हो, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त हो और तुमने ही इस मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ फल प्राप्त किया है । इस प्रकार स्तति कर और फिर उनको नमस्कार कर वहाँ श्रमण भगवान को तीन बार नमस्कार किया और वन्दना की। फिर जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। सूत्र - १२ तब उस धन्य अनगार को अन्यदा किसी समय मध्यरात्रि में धर्म-जागरण करते हुए इस प्रकार के आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुए कि मैं इस उत्कृष्ट तप से कृश हो गया हूँ अतः प्रभात काल ही स्कन्दक के समान श्री भगवान से पूछकर स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर चढ़कर अनशन व्रत धारण कर लूँ । तदनुसार ही श्री भगवान की आज्ञा ली और विपुलगिरि पर अनशन व्रत धारण कर लिया । इस प्रकार एक मास तक इस अनशन व्रत को पूर्ण कर और नौ मास तक दीक्षा का पालन कर वह काल के समय काल करके चन्द्र से ऊंचे यावत् नव-ग्रैवेयक विमानों के प्रस्तटों को उल्लङ्घन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव-रूप से उत्पन्न हो गया । तब स्थविर विपुलगिरि से नीचे ऊतर आये और भगवान से कहने लगे कि हे भगवन् ! ये उस धन्य अनगार के वस्त्र-पात्र आदि उपकरण हैं। तब भगवान गौतम ने श्री श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न किया कि हे भगवन् ! धन्य अनगार समाधि से काल कर कहाँ उत्पन्न हुआ है ? हे गौतम ! धन्य अनगार समाधि-युक्त मृत्यु प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ । हे भगवन् ! धन्य देव की वहाँ कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! तैंतीस सागरोपम की। गौतम ने प्रश्न किया कि देवलोक से च्युत होकर वह वहाँ जाएगा और कहाँ पर उत्पन्न होगा? भगवान ने कहा कि वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो निर्वाण-पद प्राप्त कर सब दुःखों से विमुक्त हो जाएगा । हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान ने तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। वर्ग-३ अध्ययन-२ से १० सूत्र-१३ हे जम्बू ! उस काल और उस समय में काकन्दी नगरी थी । उसमें भद्रा नाम की सार्थवाहिनी थी । वह धन-धान्य-सम्पन्ना थी । उस भद्रा सार्थवाहिनी का पुत्र सुनक्षत्र था । वह सर्वाङ्ग-सम्पन्न और सुरूपा था । पाँच धाईयाँ उसके लालन पालन के लिए नीत थीं। जिस प्रकार धन्य कुमार के लिए बत्तीस दहेज आये उसी प्रकार सनक्षत्र कमार के लिए भी आये और वह सर्व-श्रेष्ठ भवनों में सुख का अनुभव करता हआ विचरण करने लगा। उसी समय श्री भगवान महावीर काकन्दी नगरी के बाहर बिराजमान हो गये । धन्यकुमार की तरह सुनक्षत्र कुमार भी धर्म कथा सुनने गए । थावच्चापुत्र की तरह प्रव्रजीत भी हए । अनगार होकर वह ईर्यासमिति के सब गुणों से युक्त पूर्ण ब्रह्मचारी हो गया । वह सुनक्षत्र अनगार जिस दिन मुण्डित हो प्रव्रजित हुआ उसी दिन से उसने अभिग्रह धारण कर लिया । यावत् जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है उसी प्रकार वह भोजन करने लगा । संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा । इसी बीच श्री भगवान महावीर स्वामी जनपद-विहार के लिए बाहर गये और सुनक्षत्र अनगार ने एकादशाङ्ग शास्त्र का अध्ययन किया । वह संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा। तदनु अत्यन्त कठोर तप के कारण स्कन्दक के समान सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी कृश हो गया । मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उस काल और उस समय राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । गुणशैलक चैत्य में श्रमण भगवान महावीर बिराजमान थे। परिषद् धर्म-कथा सुनने को आई और राजा भी आया । धर्म-कथा सूनकर परिषद् और राजा चले गए । तदनु मध्यरात्रि के समय धर्म-जागरण करते हुए सुनक्षत्र अनगार को स्कन्दक के समान भाव उत्पन्न हए । वह बहुत वर्ष की दीक्षा पालन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव-रूप से उत्पन्न हुए । उसकी वहाँ पर तैंतीस सागरोपम की आयु है । वहाँ से च्युत होकर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेंगे । इसी प्रकार शेष आठ अध्ययनों के विषय में भी जानना चाहिए । विशेषता इतनी कि अनुक्रम से दो राजगृह नगर में, दो साकेतपुर में, दो वाणिज-ग्राम में, नौवाँ हस्तिनापुर में और दशवाँ राजगृह नगर में उत्पन्न हुए । इनमें नौ की माता भद्रा थीं और नौ को बत्तीस बत्तीस दहेज मिले । नौ का निष्क्रमण थावच्चापुत्र समान हुआ । केवल वेहल्लकुमार का निष्क्रमण उसके पिता के द्वारा हुआ । छ: मास का दीक्षा-पर्याय वेहल्ल अनगार ने पालन किया, नौ मास का धन्य ने । शेष आठों ने बहुत वर्ष तक दीक्षा-पर्याय पालन किया । दशों ने एक एक मास की संलेखना धारण की । सब के सब सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए और वहाँ से च्युत होकर सब महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध-गति प्राप्त करेंगे। हे जम्बू ! इस प्रकार धर्म-प्रवर्तक, चार तीर्थ स्थापन करने वाले, स्वयं बुद्ध, लोकनाथ, लोकों को प्रकाशित और प्रदीप्त करने वाले, अभय प्रदान करने वाले, शरण देने वाले, ज्ञान-चक्षु प्रदान करने वाले, मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले, धर्म देने वाले, धर्मोपदेशक, धर्मवर-चतुरन्त-चक्रवर्ती, अनभिभूत श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन वाले, राग-द्वेष को जीतने वाले, ज्ञापक, बुद्ध, बोधक, मुक्त, मोचक, स्वयं संसार-सागर से तैरने वाले और दूसरों को तराने वाले, कल्याणरूप, नित्य स्थिर, अन्त-रहित, विनाश-रहित, शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधि-रहित, पुनः पुनः सांसारिक जन्म-मरण से रहित सिद्ध-गति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिकदशा के तृतीय वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। वर्ग-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ९ - अनुत्तरोपपातिकदशा-आगमसूत्र-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम सूत्र 9, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा' वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक नमो नमो निम्मलदंसणस्स પૂજ્યપાદ્ શ્રી આનંદ-ક્ષમા-લલિત-સુશીલ-સુધર્મસાગર ગુરૂભ્યો નમ: अनुत्तरोपपातिकदशा आगमसूत्र हिन्दी अनुवाद [अनुवादक एवं संपादक आगम दीवाकर मुनि दीपरत्नसागरजी [ M.Com. M.Ed. Ph.D. श्रुत महर्षि ] वन साट:- (1) (2) deepratnasagar.in भेला भेड्रेस:- jainmunideepratnasagar@gmail.com भोपाल 09825967397 . . . . . . . . मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (अनुत्तरोपपातिकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 13