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आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा'
वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक करना ही मुझ को योग्य है । वह भी पूर्ण-रूप से संसृष्ट अर्थात् भोजन में लिप्त हाथों से दिया हआ ही न कि असंसृष्ट हाथों से, वह भी परित्याग-रूप धर्म वाला हो । उसमें भी वह अन्न हो जिसको अनेक श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और वनीपक नहीं चाहते हों । यह सूनकर श्रमण भगवान महावीर ने कहा कि जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, करो । किन्तु धर्मकार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं । इसके अनन्तर वह धन्य कुमार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा से आनन्दित और सन्तुष्ट होकर निरन्तर षष्ठ-षष्ठ तपकर्म से जीवनभर अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा।
इसके अनन्तर वह धन्य अनगार प्रथम-षष्ठ-क्षमण के पारण के दिन पहली पौरुषी में स्वाध्याय करता है। फिर गौतम स्वामी की तरह वह भी भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर काकन्दी नगरी में जाकर ऊंच, मध्य और नीच सब तरह के कुलों में आचाम्ल के लिए फिरता हुआ जहाँ उज्झित मिलता था वहीं ग्रहण करता था । उसको बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुओंसे आज्ञप्त उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा-समिति से युक्त भिक्षा में जहाँ भात मिला, वहाँ पानी नहीं मिला, तथा जहाँ पानी मिला, वहाँ भात नहीं मिला । इस पर भी वह धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि कलुषता और विषाद प्रकट नहीं करता था, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त होकर, प्राप्त योगों में अभ्यास करता हुआ और अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हुए चरित्र से जो कुछ भी भिक्षा-वृत्ति से प्राप्त होता था उसको ग्रहण कर काकन्दी नगरी से बाहर आ जाता था और गौतम स्वामी समान
आहार दिखाकर भगवान की आज्ञा से बिना आसक्ति के जिस प्रकार एक सर्प केवल पार्श्व भागों के स्पर्श से बिल में घुस जाता है इसी प्रकार वह भी बिना किसी विशेष ईच्छा के आहार ग्रहण करता था और संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करता था।
श्रमण भगवान महावीर अन्यदा काकन्दी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से नीकलकर बाहर जनपद-विहार के लिए विचरने लगे । वह धन्य अनगार भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिकादि एकादश अङ्गशास्त्रों का अध्ययन करने लगा । वह संयम और तप से अपने आत्मा की भावना करते हुए विचरता था । तदनु वह धन्य अनगार स्कन्दक समान उस उदार तप के प्रभाव से हवन की अग्नि के समान प्रकाशमान मुख से विराजमान हए । धन्य अनगार के पैरों का तप से ऐसा लावण्य हो गया जैसे सूखी वृक्ष की छाल, लकड़ी की खड़ाऊ या जीर्ण जुता हो । धन्य अनगार के पैर केवल हड्डी, चमड़ा और नसों से ही पहचाने जाते थे न कि मांस और रुधिर से । पैरों की अंगलियाँ कलाय धान्य की फलियाँ, मँग की अथवा माष की फलियाँ कोमल ही तोडकर धूप में डाली हई मुरझा जाती हैं ऐसी हो गई। उन में केवल हड्डी, नस और चमडा ही नजर आता था, मांस और रुधिर नहीं।
धन्य अनगार की जङ्घाएं तप के कारण इस प्रकार निर्मास हो गई जैसे काक की, कङ्क पक्षी की और ढंक पक्षी की जङ्घाएं होती हैं । वे सूख कर इस तरह की हो गई की माँस और रुधिर देखने को भी नहीं रह गया । धन्य अनगार के जानु काली वनस्पति, मयूर और ढेणिक पक्षी के पर्व समान हो गई । वे भी माँस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते थे । धन्य अनगार के ऊरुओं प्रियंगु, बदरी, शल्यकी और शाल्मली वृक्षों की कोमल कोंपल तोड़कर धूप में रखी हुई मुरझा जाती हैं ऐसे माँस और रक्त से रहित हो कर मुरझा गये थे।
धन्य अनगार के कटि-पत्र ऊंट का पैर हो, बूढ़े बैल का पैर जैसा हो गया । उसमें माँस और रुधिर का सर्वथा अभाव था । उदर-भाजन सूखी मशक, चने आदि भूनने का भाण्ड हो अथवा लकड़ी का, बीच में मुड़ा हुआ पात्र की तरह सूख गया था । पार्श्व की अस्थियाँ दर्पणों की पाण नामक पात्रों की अथवा स्थाणुओं की पंक्ति समान हो गए । पृष्ठ-प्रदेश के उन्नत भाग कान के भूषणों की, गोलक-पाषाणों की, अथवा वर्तक खिलौनों की पंक्ति समान सूख कर निर्मांस हो गए थे । धन्य अनगार के वक्षःस्थल गौ के चरने के कुण्ड का अधोभाग, बाँस आदि का अथवा ताड़ के पत्तों का पङ्खा समान सूखकर माँस और रुधिर से रहित हो गया था।
माँस और रुधिर के अभाव से अन्य अनगार की भुजाएं शमी, बाहाय और अगस्तिक वृक्ष की सूखी हुई फलियाँ समान हो गई । हाथ सूख कर सूखे गोबर समान हो गए अथवा वट और पलाश के सूखे पत्ते समान हो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (अनुत्तरोपपातिकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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