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[४४] श्री नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूयो नमः ।
"नन्दीसूत्र” चूर्णि:
[मूलं एवं चूर्णि:]
आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. 1|
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) ।
' 01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल
'jain_e_library's Net Publications |
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४५], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं 9 / गाथा ||-|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकास्त्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
BESANMARWASAMAKASANKRISAMANARASINANKARSONG2MARACRAINS
गाथा
श्री नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
कळकळ08
काहल्काउटकम
II-II
.
प्रकाशिका-युहारीवास्तव्यश्रेष्टिझवरचंदपन्नाजीवितीर्णकिंचित्साहाय्येन
श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेतांबर संस्था, रतलाम ।
मुद्रयिता-जैनबन्धुमुद्रणालयाधिपः श्रीजुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा इन्दौर वीर सं. २४५४ विक्रम सं. १९८४ क्राइष्ट सन १९२८ पण्यं १-१२-०
मा
दीप अनुक्रम
| नन्दी-सूत्रस्य मूल "टाइटल पेज"
___
~2
Page #3
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मूलाङ्का: ५९+९०
मूलांक:
००१ - १६३ | नन्दी - सूत्रं
विषय:
→ वीरस्तुति
→ संघस्तुति
→ जिनवंदना, गणधरवंदना
→ स्थविरावली
पृष्ठांक:
of
०६
०८
११
११
मूलांक
नन्दी चूलिका - सूत्रस्य विषयानुक्रम
विषय:
→ श्रोता, पर्षदा
→ ज्ञानस्य भेदा:
→ अवधिज्ञान वर्णनं
→ मनः पर्यवज्ञान वर्णनं
→ केवलज्ञान-वर्णनं
पृष्ठांक: मूलांक:
१५
~3~
१५
819
२०
२२
दीप- अनुक्रमा: १६३
विषयः
→ मतिश्रुत ज्ञान वर्णनं
→ अङ्गप्रविष्ठसूत्र वर्णनं
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४४], चूलिकासूत्र- [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
अनुज्ञानन्दी परिशिष्ठं १ योगनन्दी- परिशिष्ठं २
पृष्ठांकः
२८
५२
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[ " नन्दीसूत्र - चूर्णि: " इस प्रकाशन की विकास-गाथा]
यह प्रत सबसे पहले “नन्दीसूत्रस्य चूर्णि " के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब |
- हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र - गाथा आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र/गाथा आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची है।
इस आगमचूर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कई निर्युक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते, कोइ कोइ निर्युक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है, उनकी चूर्णि भी है पर उस निर्युक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते । इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है। हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, निर्युक्ति के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बार्थी तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है ।
का यहीं सरल
अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसी को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
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• सस्ता और
..मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम
(४४)
नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं -/गाथा ||-|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
गाथा II-II
मुद्रयिष्यमाणाःमुद्रितपूर्वग्रन्थाः ।
प्रतिपादितः, तथा च श्रीमतो हरिभद्रसरे। दशबैकालिकचूर्णिः
| पूर्वगतकतिचित्सूत्रार्थधारकता या श्रीमऐन्द्रस्तुतयः
उत्तराध्ययनचूर्णिः
गिरमयदेवशारिभिः पंचाशकवृत्तौ गदिता ०-८-० प्रकरणसमुच्चयः
१-४-० आचारांगचूर्णिः
सावितथैव, एवं च तेषां पूर्वगतकालासअनुयोगद्वाराणां चूर्णिः वृचिश्वर-०-०
सूत्रकृतांगचूर्णिः
अकाळभावितया श्रीवीरहायनः पंचपंचाज्योतिष्करण्डकवृत्तिः ३-८प्राप्तिस्थान
शदधिकवर्षसहस्रलक्षण एव सत्तासमयो पंचाशकायष्टशाखीमूलं ४-०-०
श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, योग्यः,एकादशशताब्द्यां माचिनो जिनभद्रा प्रत्याख्यानादि
पेढी रतलाम. ध्यानशतकादिविधायिभ्योऽन्ये एवेति श्री
धर्मसागरैः स्वयमेव सत्रैव पट्टावल्या मुद्यमाणाः
श्रीहरिभद्रसरिसमयप्रकाशः ख्यातं तब दृष्टचरं कैश्चित्तदायर्य, नन्दीआवश्यकचूर्णिः
श्रीमता हरिभद्रसूरिणा पूर्वगतव्या- चूर्णिकालस्तु लेखकादिलिखित इति न वन्दारुवृत्तिः
| ख्याने पूर्वगतानां प्रायो व्यवच्छिन्नत्वम-विश्वासाहे, नस ग्रन्थमध्ये अन्य कृल्लिखिता [भिहित, परिकादीनां च समल उच्छेदः इति ने बाधः इति शापयत्यानन्दसामर
दीप अनुक्रम
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आगम
(४४)
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:) ................................मूलं H / गाथा ||१|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
श्री
सूत्रांक
श्रीनन्दीसूत्रस्य चूर्णिः
नन्दीचूर्णी
वीरस्तुतिः
[-]
गाथा
||१||
ॐ नमो वीतरागाय । सव्वसुतखंधतादीणं मंगलाधिकारे पंदित्ति वत्तव्वा णवणे गंदी, मंदति वा अणाणत नंदी, नंदी पमोदो हरिसो कंदप्पो इत्यर्थः, तस्स य चतुविधो शिक्खेयो, गयाओ णामठवणाओ, दवणंदी जाणगो अणुवउत्तो, अहवा आणग
मावियसरीरवतिरित्तो बारसविहतूग्यसंघातो इमो-भमा मुकुंद महल करंथ झहीर हुडुक कंसाला | काहल तिलिया वंसो पणवो संखो य दबारसमो ॥१॥ भावणदी, णदिसदोवउत्तभावो, अहता इम-पंचविहणाणपरूवर्ग गंदित्ति अज्झयणं, तं च सुतंसेण सव्वसुतम्भंतर
भूतं, तं च सम्वसुतारंभेसु विग्धोवसमणत्यमादीय मंगई पबुज्जति, तस्स च मंगलठ्ठाणावसरपत्तस्स गुरोर्वा विणेयस्स अस्थमुयगोरबुप्पा|| यत्यं अविच्छेयसंताणागयसुयप्पवारिसणत्थं इमं घेरावलिय कहेता ततो से अत्थं कथयंति, सम्वे सुतत्था य जतो तित्थकरप्पभवा अतो ट्र भत्तीए पण्णावगसावगपाढगचिंतगा य पढमताए नमोकारं करेत्ता भणंति-'जयति' गाथा (*१ गाथा २ पत्रे) सातिदियादिविसयकसायप
रीसहोवसग्गा व घातिकम्ममट्ठप्पगारं वा परप्पवादिणो व जेतेसु वा जयतित्ति भण्णति, जगति-खेत्तभावो संमि जे जीवे तेसि जाओ जोणीओ सच्चित्तचित्तसीतसंबुडादियाओ चतुरासीइलक्खविहाणा वा विविइपकारोहिं जाणमाणो वियाणओ, अहंषा हिं कम्मेहिं| जाए जोणीए उववज्जइ तं जहा जाणतित्ति विसिट्ठो जाणगो वियाणगो, अहवा जगग्गहण्णातो धमाधम्मागासपोग्गलगाहणं, जीवत्ति सव्व
R-555ॐॐॐ SS
दीप
अनुक्रम
भगवत् तिर्थकर (सामान्य) स्तुति:, वीर परमात्मानाम् स्तुति:
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आगम
(४४)
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:) ..............................मूलं H / गाथा ||१|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
RECE
सूत्रांक
[-]
गाथा
||१||
जीवग्गहण, जोणित्ति जीवअजीवुष्पत्तिट्ठाणं, जहा य ज उप्पज्जति विगच्छति धुर्व वा तं तत्थ सव्वं जाणतित्ति वियाणगो, अनेन वचनेन | नन्दाचूणीलाकेवलणाणसमत्यो तो सब्वभावे सम्बहा जाणवित्तिख्यापितं भवति । 'गुरु' ति जगति सव्वसण्णिलोगो तस्स भगवानेव तेण गुरू,
वीरस्तुतिः ॥ २ ॥
कथं , उकयते, गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः प्रीतीत्यर्थः, तिरियमणुयदेवासुरपीरसाए धम्ममक्खाइ, जो वा जे पुच्छर तं सव्यं कथ-12 यति तेण गुरुरेव, अनेन वचनेन परोपकारिवं प्रदर्शितं भवति, जगा-सत्ता ताण आणंदकारी जगाणदो, कथं ?, उच्यते, सम्वेसि ससाणं|8| अवाचायणोवदेसकरणत्ता, जतो भणितं-'सव सत्ता ण हतब्वा णप्परियावेयध्या परिघेत्तम्बा ण अन्जावेयव्य'ति, विसेसतो सण्णी धम्मकथणत्ताओ आणंदकारी, ततो निसेसतो भवसाति, अनेन वचनेन हितोपदेशकत्वं दर्शितं भवति, जगा-सत्सा से अण्णेहिं परिभविजमाणे रक्खइति जगणाथो, कह १, सक्यते, मोषवणकायेहि कवकारिताणुमतेहिं रक्यतो जगणाहो भवति, अनेन वचनेन सञ्वपाणीर्ण सणाहता दंसिता । 'जगबंधु' त्ति जगा-सत्ता तेसिं बंधू, कई , सक्यते, जो अप्पणी परस्म वा आवतीपविण परिफचयति सो बंधू, भगवं च मुठुवि परीसहोवसग्गादिसु विजमाणोषि सत्तेषु बंधुत्तं अपरिचयंतो ण विसंधेशति अतो अगबंधू, अनेन वचनेन सव्वसत्तेसु सबंधुता | दसिता भवति । 'पितामहाँ ति, जो पिउ पिया सो पितामहो, सो य भगवं चेव सव्वसत्ताणं पितामहो, कथं ?, उच्यते, सम्बसत्ताण अहिंसादिलक्खणो धम्मो पिता रक्सणतातो, मो य धम्मो भगवता पीतो अतो भगवं धम्मपिता, एवं च सव्वसत्ताण भगवं पितामहो भवति, अनेन बचनेन धम्म पडुरुच आदिपुरिसत्तं (दर्शित) भवति, एतीए गाहाए पच्छद्धस्स पाढंतरं इमं 'जिणवसभो सललियवसभीवकमगती
॥ २ ॥ महाचीरो' जिण एव वसभो जिणवसमोत्ति संजमभारुत्वहणो, कमतो सुभावसंचारेण क्रिया सललित भण्णति, वामदाहिणाणं वा पुरिम| पक्किमचलणाणं जे कमुक्सेवकरणं स विकमो भण्णति, दुपदस्स पुण एगचलणुक्खेबो चेव विकमी, सेस व कंठयं ।। कि-'जयइ सु
ACARBAAXARKAR:
CRECRECR55
दीप
अनुक्रम
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आगम
(४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...................मूलं / गाथा ||२-७|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
गाथा
||२-७||
ताण' (१२-१५) गाहा, रागयोसाविमरी जिणतो जितेंसु वा जिब्वइन्ति, सन्वसुताणति सुतणाणत्थाणं भगवंततो पभवोत्ति पसती,#I श्री नन्दीचूणौं
अणिद्वषयणपरिहारातो पश्चिमोवि अपच्छिमो भवति, अहवा पच्छाणुपुष्धीए अपरिममे वीरो उसभो पच्छिमा. अविसिहसम्णिजीवळोगम्मा सषस्तुतिः वा, अहवा सम्मारिद्विमादिसंजुत्तो संजतलोगस्स गुरू, महं आया जस्स सो महप्पा, सो य अकम्मवीरियसामत्यतो महात्मा, केवलाविविसि-] ठुलद्धिसामस्थतो पा महात्मा, किंच 'भई सन्च' गाथा (३-२३) भावतो भाविता भद्रं तं भगवतो भवउत्ति, लोगो-अद्वविधोबि लोग-| |णिक्खेवो भणितव्यो, सेसं कंठ्यं ।
इमं संघस्स रथरूवग 'भई सील' गाथा (६-४३) रहो सामन्नतो पंचमहब्वयमइतो ओसितेति तस्सद्वारससीलंगसहस्सुसिता जत-II पहाता वारसविणे तवो इंदियणोइंदियो य णियमो, पते अस्सा, सज्झायसहो मंदिघोसो, सेस कंठ्यं । संघस्सव इम-चकवर्ग 'संजम' | गाहा (१५-४३ ) विसुधभाषचकस्स सत्तरसविधो संजमो तुंर्ग, तस्स बारसविधो तयो मवा अरगा, पारियल्लंति-जो बाहिरपुट्ठस्स बाहिर
भूमी सा सो संमत्तं कतं, जम्हा अण्णाई चरगाइएहिं जेतु ण सकति तम्हा एयं जयति अप्पडिचकं च एयं, णमो एरिसस्स चकस्सेति । इम | संघस्सव णगररूवगं 'गुणभवणगहण' गाथा (*४-४२) वंमि पुरिससंघणयरे इमे गुणा पिंडविसुद्धिसमितिगुत्तिदव्यादिअभिग्गहमा
| सादिपढिमा गोयरे य एमादि उत्तरगुणा, दमि संघणगरे भवणा कया, भवणत्ति घरा, तेहिं गहणत्ति णिरंतरं संठिया घणा, तं च संघपुरिसXणगरं अंगाणगादिविचित्तमयरयणभरियं सयोवसमियादिसम्मत्तमझ्यरत्थाबायो मिच्छत्तादिकतवरवजियत्तणओ विसुद्धाओ, मूलगुण-IN
चरितं च से पागारो, सोय अखंडोत्ति अधिराधितो णिचार इत्यर्थः, सेस कंठ | इमंपि संघस्सेव पलमरूवर्ग 'कम्मरय गाथा (*७४४) ट्र कम्म एव रयो कम्मरयो अथवा जे पुव्वं बधं तं कर्म बन्नमाणं रयो तं सध्यपि जलोहमिव कल्प्यतेऽथवा पुस्वयम्ध कम्मं मद्धं वज्झमाणं च
RESCHESTRACRORSCORRCAR
दीप अनुक्रम [२-७]]
भगवत् वर्धमानस्वामीन: स्तुतिः, भगवत् महावीरस्य अतिशय आश्रिता स्तुति, विविध रूपेण संघस्तुति:,
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आगम
(४४)
"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
..................मूलं 1 / गाथा ||८-१७|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
सूत्रांक
-
गाथा
||८-१७||
13 जलाहो ततो विनिग्गतो संघपयुमो, तस्स णालो सुत एव रयणं सुस्तरयणं तं से णालो कतो, पंचम्महव्वया जमा, विरत्ति बढा, ते कणियत्ति Bा श्री नन्दाचूणादा बाहिरा पत्ता कया, गुणा-मूलुचरगुणा जस्स अणेगविधा तेहिं गुणेहिं अब्भहितस्सत्ति अधिकयोगयुक्तस्य गुणकेसरालस्स-मूलादिगुणकेसरायु-16 मघस्तुतिः
तस्य इत्यर्थः । 'सावय' गाथा (*८-४४) परिघुवत्ति परिकरियस्स, जिणसूरस्स धम्मकाणक्खाणतो जेण प्रबोधितं अणेगसमणसहस्सा | ४ य से अम्भितरपत्ता कता, परिसस्स संघपउमस्स भद्रं भवतु । इमं संघस्स चंदरूवर्ग 'तवसंजम गाथा (१९-४५) संघचंवस्स मियो णाम 2 हो तवसंजमा तेहिं लंबिओ, अकिरियत्ति-णत्थियवादी ते राहुमुहं तेहिं अधरिसोति ण सको घेर्मु णिच्चंति-सव्वकालं संकादिविसुद्धं सम्मत्त , | से जोण्डा, सेस कंठ्यं । संघस्स सूररूवगतिमं 'परतित्थिय' गाहा (*१०-४५) हरिहरहिरण्णसक्कोल्गचरगतावसादयो 'परतित्थिय । | गाथा (७१०-४५) सिं णाणतेयपर्भ सुतादिणाणप्पभा.पणासेति, तवतेयकरणातो य अविवादित्तिमति लेसत्ति रस्सीवो मुताईणाणुज्जो 18 | यसंपुण्णस्स य इमंमि जए संघसूरस्स भई भवतु, मेस कंठ्य । इमं संघसमुहरूवर्ग 'भदं चिति' गाथा (*११-४५) जलवट्ठियंतरा जरमणं सा वेला सा य मेरावि भण्णति, एवं संघसमुहस्स घितिवेला ताए परिवुडोत्ति वेद्वितो, वायणासज्झायजोगकरणं मगरो परप्रचादोपस-2 गादिभिन्न क्षुभ्यते, रुंदो-महंतो, सेस फंठचं । इम संघस्स मेरुरूवर्ग, तस्स य पव्वयस्स इमे अवयवा-पेढं मेहला स्थितो सिला मेहलासुदू
कूडो मेहलाए वणं गुहा गुहामु य मिगिंदा सुवण्णादिधाययो णाणादिविविधदितोसहिपज्जलितो णिज्झरा य सलिलजुत्ता कुहरा य से मयूरादिपाक्ख18 उत्साहिता अगुवघातिविजुल्लतोवसोभितो य सो य कप्पादिरुक्खुवसभितो य, अंतरंतरेसु य बेरुलियादिरयणसेभितो, एतेसिं पदार्ण का
॥४॥ | पडिरूवेण इमाहिं छहिं गाहादि उवसंथागे 'सम्मईसण' गाथा (*१२-४५) 'णियम' गाथा (१३-४५) 'जीवदया' गाथा (*१४-४५) ॥ 'संवर' गाथा (*१५-४६) 'विणय गाथा (०१६-४६)'णाणवर' गाथा (७१७४६ ) संघपब्वयस्स सम्मइसणं चेव वारं, तं च |
दीप अनुक्रम [८-१७]
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आगम
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“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
..................मूलं 1 / गाथा ||८-१७|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
संघस्तुतिः
ka
गाथा
||८-१७||
है संकादिसल्लरहियत्तणयो वढंति चिरवट्टिये, कई ?, विसुन्झमाणतणयो अतीव अवगादंति वुत्तं भवति,एवं पेद, धम्मो दुविहो मूलुत्तरगुणेसु, नन्दीचूणी| सो य दुविधोऽवि वरोति-पधाणो,तत्युत्तरगुणधम्मो रयणा वेहि मंडिता जे मूलगुणा ते चामकिररि-तं सुवण्ण, तम्मयी मेहला तया जुयस्स महेला-1
गिस्स, 'णियमोति इंदिपसु अणेगविधी सो य नियमो सिलायलो, तेहि चेव उस्सितो असुभज्यवसाणविरहितत्तणओ कम्मविसुज्झमाणतणतो
वा उज्जलसुत्तत्थाणुसरणदो य उज्जलं-दित्तिमं चिंतिजद तेण दिलं, तं चेव कूडंति-चित्तकूड तस्स गंदेइ जेण वणयरजोइसभवणवेमाणिया व तेण ४ गंदणं, वर्णति-वणसंड, तं वल्लिविताणाणेगोसहिसतेहि य गहणं पत्तयपल्लवपुष्फफलोचतेहिं मणहारित्तणतो मणहरं, गंधतो सुरभिगंध, ६ सीलवणसंडेवि जम्हा सदैव गदति प्रमोदति रमंतीत्यर्थः विविहलद्धिविसमतो य मणहरं सीलवणं विसुद्धभावत्तणता य सुगंधं, जहा
दव्ववणसंई गंधिण उद्धमायति व्याप्त तहा मीलगंधेण संघस्स गंधुदुमायस्स किया, जं पल्वयासणं सिलारुक्स्वगहणं तं कंदरति भावो, जीवेसु ४ दयाकरणसुंदरं जं तस्स कंदरं, तत्व य उप्पाबल्ले य दरितोत्ति जीवदयाकरणपित्तोत्ति वुत्तं भवति, को य सो?, मुणिगणो मइंदो परप्पवादि
सासणसंघमयाण इंदो, कथं ?, सियवादओत्ति मभावतणतो हे उत्ति-पखवंति कारणं वा ते सयग्गसो सुत्ते भवति, ते य हेववो धातू, ते य पगति परूवणगुहाए, सा य परूवणगुहा णाणादिस्यणादिहिं दित्ता खेलोसहिमादितोसधीहि वा पित्ता, स हि गुमस्म संघस्स, संवरोत्ति | पञ्चक्खाणं तं चेव जल-सलिलं, किंचि पव्वययातो ऊसरितं उज्झरं, इधावि खओवसमपभावातो खयोवसभियं उज्झरं, तातो पलंबिता खयो* वसमियसंवरदगधारा तेण विरायए सोभयतित्ति | सावगजणा पउरोत्ति-बहुः प्रचुरः सेो य गीयगुणीए परवतित्ति रडती ते चेव मोरा णाडगादीहि यणच्चंति, जे पव्वयस्स अह समपदेस रुक्खा तुर्ग च तं कुहरं, एवं संघपव्वयस्स हाणमंडवादी कुहर्रति, विणयकरणतातो विणवणतो मुणी सो य विणयकरणलेण फुरयंत चेव फुरितं विज्जुतंति-चकासियं तं च ओज्जलंति निम्मलं तेण उज्जलंतेण संघसिहरं जालियामिव लक्विजा,
दीप अनुक्रम [८-१७]
॥
५
॥
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आगम
(४४)
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं 1 / गाथा ||१८-२५|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्राक
श्री
गाथा
॥१८
२५||
हासंघसिहरं पावयणिप्पुरिसा पहब्वा, तत्य व विविधकुलुप्पण्णसाहवो कप्परुक्खखारासवादिलविफलेहि य फळभरा द्धिहेतुढ़िया | तायकर पूणाला साधवो कुसुमिता गुणा बत्ति बहुल्या, मविमुतादिणाणा बरेति-पहाणा तच्चेव णाणावेकलियाविरवणादिव कंता, कंता इति कतिजुत्ता. कंतादि-11
जालिगणधरा
णामावली जुत्तत्तणया चेव सविसरण जीवादिपयस्थसरूवावलंभतो दिप्पंति, णाणस मलो णाणावरणं सम्विगमतो य विगतमलं चुलामणिरिव सिंहराबारा "
चूला, सोय णाणातिसयऽत्थसरूवावलंभगुणोहजुया जगप्पहाणपुरिसा चूला इति, एवं संघपव्ययस्स पेढादिचूलपण्जवसाणकापियस्स वदामि । लाविणयप्पणवोत्ति छण्हविगाहाणं, एत्थ य पढ़ति-एवं चरमतित्वगरस्स संघस्स तप्पणामे कते इमा अवसरापण्णा आवली भण्णात, का सा तिविधा-तित्थगर० गणधर० थविरावली, तत्य तित्थगर० सणत्वं इमं भषणति४ 'वंदे उसमें' 'विमल' गाथाय (१८.१९।४७) कंठ्यं, घरमनित्थगरस्स इमा गणधरावली, 'पढमेत्थ इंदभूती, बीए पुण होति अग्गि-| & भूतित्ति । ततिते य वाउभूती, ततो वितचे सुधम्में य (२०-४८) मंडिय मोरियपुत्चे अकंपिते चैव अयलभाता य । मेतज्जे य
पहासे गणहरा होति वीरस्स (०२१-४८) एत्थं गणधरावलीतो सुधम्माता वेरावली पठबत्ता, जतो भण्णति 'मुधम्म अग्गिवेसाणं| सिलोगो (२३-४८) समणस्स पं. महावीरस्स कामवगोत्तस्ल सुधम्मे अंतेवासी अग्गिवेसायणसगोले, सुधम्मश्स अवासी जंबुनामे कासवगोत्तेण, जंबूणामस्स अंतेवासी पभवे करुचायणसगोत्ते, पभवस्व अंतेवासी सज्जभवे वच्छ सगोचे, जसमई गाथा (२४-४९) सेग्ज
भवस्स अंतवासी जमभरे तुंगियायणवग्यावच्चसगोते, जसभइस्स अंतेवासी इमे दो थेरा-भदयाहू वाईणतिसगोत्ते संभूइविजए य माढरस-४ लगात, संभूतिविजयस्स अंतवासी थूलभदो गोतमसगोते 'एलावच्च' गाथा (२५-४९) थूलमहस्स अंतवासी इमे दो थेरा-महागिरी Pएलावरचसगोते सुहन्थी य बासिहगोत्ते, सुहस्थिरस सुट्टितमुप्पडिबद्धादयो आवलीले जहा दसासुते तदा माणियध्या, इह तेहि अहिगारो णत्थि ।।
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दीप अनुक्रम [१८-२५]
964
२%25
तिर्थकराणां एवं गणधराणां नामोच्चारणं, सुधर्मास्वामी आदि स्थविरावलि-वर्णनं
~11
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आगम
(४४)
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं H / गाथा ||२६-३१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सुत्राक
गाथा ||२६
-
SXC
8 महागिरिस्स आवलीए अधिगारो, महागिरिस्स अंतवासी बहुलो बलिरसहो य दो जमलभातरो कासबसगोता, तत्थ बलिस्सहो पावयणी स्थविरानादाणा जातो, तस्स थुतिकरणे भणियं 'बहुलस्स सरिव्वयं वंदे सरिवव्यंति सरिसवयो, क्यो जुयलंमि कालं पदुकच जा जा सरीरपरिवट्टिअवल्या ॥ ७ ॥
सा सा पपत्तो भण्णति, 'हारियगाथा' (कै२६-४९) बलिसहस्स अंतवासी साती हारिवसगोते, माइस्म अंतवासी सामग्जे हारियगोत्ते अहवा सामजस्स ओवासी संडिल्लो कोसितसगाते 'अज्जजीयधरो'त्ति अजंति आर्य आगं वा जीयंति सुत्तं घरंति सुत्तत्थस्स अहिवई वरणावाईति उकोस, पाठंतर या 'जीवधरं ति आर्यत्वात् जीवं नवरं रक्षतीत्यर्थः, अण्णे पुण भणति-संडिलस्स अंतवासी जीवधरो अणगारो, मो थ &ा अज्जसगोचा'त्ति संद्धिहस्स सीसो, 'तिसमुद' गाथा । १२७-४९) पुञ्चदक्षिणापरा ततो समुदा उत्तर तो वेयड्डो, एत्यंतरे खातकित्ती,
सेसं कंध्यं, तस्स सीसो इमो-'भणगं' गाहा (१२८-५०) कालियपुथ्वमुत्तत्थं भर्णतीति भणक:, चरणकरणकियां करोतीति कारकः, सुत्तत्थे य मणसा जमायतो ज्झरफा, परप्पवादिजयेण पवयणप्पभावको गाणदंभणचरणगुणाण च. पभावगो आधारो य, सेस कंटच, तस्स सीसो इमो 'णाणंमि दं.' गाहा १२९-५०) कंठ्या, तस्स सीसो 'वडतु' गाथा (*३०-५०) यत्ति पृद्धियतो, को व सो? 'वायगवंसो' वायति | सिस्साणं कालियपुष्वमुत्तति कायगा-आचार्या इत्यर्थः, गुरुसण्णिधे वा सीसभावेण वाइत सुतं जेहिं ते वायगा, सोति पुरिसपुव्यपरंपरेण | | ठितो बंसो भण्णति, सो चेव जमोवाजणतो संजमावजणतो व जसवंसो भण्णति, सो त अणागतवसो इत्यर्थः, कस्स सो परिसो बसो?, भण्णति, अज्जणागहत्थीर्ण, केरिसाणंति पुच्छा ?, भण्णति-जीवादिपयत्यपुच्छासु वाकरणे सहप्पाहुदे वा पहाणाणं, एवं चरणकरणे, कालकरणसु वा सम्वभंगविकप्पणासु, तप्परूवणाय तहा कम्मपगडिपरूवणाए पहाणाणं पुरिसाणं पट्टओ वायगवंसो, तस्सा ।। सीसो 'जच्चजण' गाथा ( ७३१-५१) जच्चजणगाणं जहा कित्तिमवुदासत्थं सरीखणेण वणितो तहा सरसपकामुहियसण्णिमो या
दीप
अनुक्रम [२६-३३]
। अत्र द्वे प्रक्षेपे गाथे वर्तते. ते गाथे मत्संपादित “आगमसुत्ताणि" मूलं एवं सटीकं द्वयो: अपि पुस्तके मुद्रिते |
~12
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आगम
(४४)
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं H / गाथा ||३२-३८|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्राक
गाथा
||३२
३८||
श्री 18/ कुच्छितओ वळओ कुवलयो सो य कण्हकायो, कुवलयं वा णीलुप्पलं, कुवलयं वा रतणविसेसो, रेवतिवायगोत्ति, सेसं कठ्यं, तस्स सीसो ४ स्थविराणानन्दाचूणाला 'अयलपुर' गाथा (*३२-५१) बंभहीवगसाहीण आयरियाण समीवे णिक्खंतो सीहबायको उत्तमवायकत्तणं च संकाळसुतसंभवं, सेलामावली ॥८ ॥
कंठं । तस्म सीसो 'जेसिं इमो' गाथा (#३३-५१) कथं पुण तेसिं अणुयोगो ?, उच्यते, बारससंवकछरीए महंते दुभिक्खकाले भत्तट्ठा अण्णतो ठिताणं गहणगुणणाणुप्पेहाऽभावतो सुते विपणडे पुणो मुभिक्खकाले जाते मधुराए मईते साधुसमुदए खंदिलायरियप्पमुहसंघेण जो जं संभरइत्ति एवं संघडितं कालितमुत, जम्हा य एवं मधुराय कयं तम्हा माहुरा बायणा भण्णति, सा य खंदिलायरियसंमयत्ति काउं तस्सतियो अणुयोगो भण्णइ, सेंस कंट्यं, अण्णे भणति-जहा सुतं ण णहूँ, तमि दुभिक्खकाले जे अण्णे पहाणा अणुबोगधरा ते विणवा, एगे| | खदिलायरिए संथरे, तेण मधुराए अणुयोगो पुण साधूर्ण पवत्तियोति सा महुरावायणा भण्णति, ततो 'हिम' गाथा (*३४-५१) हिमवंत
पव्वतेण महसणं तुम जस्स सो हिमवंतमहतो, इयरथा णास्थ अण्णो तत्तुल्लोति, एम मुतिवातो, उत्तरतो वा हिमवंतेणं सेमदिसासु त समुद्रेण वाणिवारितो जसो हिमवतनिवारणो जसो हिमवंतोनि, अता हिमवंते महतविकमो, कथं १, उच्चते, सामत्यतो महंतेवि कुलगणसंघपयोयणे |
तरइत्ति, परप्पवादिजयेण वा विससलद्धिसंपण्णत्तणता वा महतो विकमो, अथवा परीसहोबसग्गे तबविससे वा धितिए ते परकमतो अणत-13 | गमपज्जवत्तणयो अणतं वा सुतं महत, हिमवंतणाम वंदे, संस कंठय, किंच-'कालिय' गाथा (४३५-५२) हिमवंतो चेव हिमवंतखमास-18 हामणो, तस्स मीसो णागज्जुणायारितो, तस्स इमा गुणकित्तणा 'मिउमद्दव' गाथा (*३६-५२) अणुपुञ्ची-सामादियादिसुतग्गहणाण काल-18
॥८ टतो य पूरिमपरियायत्तणेण पुरिमाणुपुन्वितो य वायगत्तर्ण पत्तो, ओघसुतं वा उस्सग्गा तच्च आयस, सेसं कठ्यं । एबस्स सीसो भूयदिनो
आयरिभो सस्सिमा गुणकित्तणा तिणि गाथा 'वरकणय' गाहा (#३७-५२) गम्भत्ति पोमकेसरा, मेस कंठ्य, 'अडभरह' गाहा (१३८-12
45464645%EX
दीप
अनुक्रम [३४-४०]]
~13
Page #14
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
||३९
४४||
दीप
अनुक्रम
[४१-४६]
श्री
मन्दीपूर्वी
॥ ९॥
"नन्दी"- चूलिकासूत्र -१ ( चूर्णि :)
मूलं H / गाथा ||३९-४४||
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूर (NV), मूनिकासूर [१] 'नन्दीनस्य चूर्णि
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५२) बहुविध सझायोति अंगपविट्टो चारसविधो अनंगपविद्धो य कालियओकारितो अणेगविधो सो यप्पहाणीति सुगुणितराणेण जिस्सं कोत्तिकाउं, सेसं कंठ्यं, 'भूतहियत' गाथा ( *३९-५२ ) भूयहितंति अहिंसा पराजयंति धारयध्वं अहिंसाभावे पगमता अतीव अध्यम - ताए अहिंसाभावपरिणया इत्यर्थः, सेसं कंठ्यं, भूयदिन्नस्स सीसो लोभिच्चो, तस्स इमा थुती सुमुणिय' गाहा (*४०-५३) सुरु मुणिबं, किं तं १, भण्णति-जत्तिणेण णिच्चो, परमाणू अजीवत्तणेण मुत्तत्तेण यत्ति जो दुष्पदेसा दिएहिं वण्णादिपज्जवेदि य अणिच्चो, सुटुठु य मुणितं सुतत्वं धरेति, णिच्चकालंपि स्वभावे ठिओ सम्भावो सोमणो वा भावो सम्भावो संघेज्जमाणो वा भावो सम्भावो तं ओभासप तच्च तथात्वेन इत्यर्थः तं च लोभिजणामं आयरियं च सेकंड, वस्त लोभिज्जस्स सीसो दुसगणी, तस्स इमा श्रुती अत्थमहगाथा ( #४१-५३ ) सा व अत्थस्स खाणी, किंविसिद्धस्स ?, महत्यस्स महत्यो य अणेगपज्जायमेतभिण्णो, अथवा भासगरूवो अत्यो विभागोषि, समपज्जववित्तीकरो य महत्थो, एरिसस्स अत्यरस खाणी दूसगणित्ति संबमति सुभो समणो सुम्समणो तस्स मुस्समणस्स, बक्स्वाति अत्यहणं तंमि अत्थकहणे, सोताराण कहेइ बाणी निव्वाणी, अहबा वक्त्राणंति-अणुयोगपरूवणं कथणं-अक्खेवमादिताहि काहिं धम्मकहणं, तस्थ बुहाण ( कूऊइला ) वि आगताणं तस्स वाणी णिव्वाणीं जणेति, किमंग पुण घम्मरसवणटुमागताणं ?, अथवा पासे सवति कण्णा ते सुहं जणेइति सुस्वणा, एवं सुइकारती (णा) बाटो भण्णंति, अथवा सुस्सषणा सुचवा] इत्यर्थः, सेसं कंठ्यं इमावि दुस्सगणिण चैव चलणथुती 'सुकुमाल' गाहा ( *४२-५४ ) पत्रयणं-दुवासंगं गणिपिडगं अस्थि सो पावयणी, गुरवोत्ति कार्डच बहुवयणं भणियं, ससे कंठ्यं, एस णमोकारो आयरियजुगप्पाणपुरिसार्ण, बिसेसग्गहणतो, इमो पुण सामण्णतो सुदविसिद्वाण कज्जति 'जे अण्णे' गाथा (*४३-५४) कंठ्या, एवं च णाणपरूत्रणज्झयणं अरिहस्त देवजश, णो अणरिइरस दिजइ, जतो भणिता में सेलपण' गाथा
सामान्येन श्रुतधरमहर्षीणां नमस्कारम्
★ ज्ञानप्ररूपणा संबंधे शिष्याणां योग्यायोग्य विभाग- दर्शनार्थे १४ दृष्टान्ता:
~ 14~
स्थविरावली
॥ ९॥
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं [१] / गाथा ||४४-४७|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सुत्राक
[१] गाथा ॥४४
(४४.५४) पत्य अरिहो इमो कुडेसु अप्पसत्यवम्मसारित्या भावितेसु अवम्मसारित्या, तथा इसमेसजलूगजाइगसारित्या अरिहा, गोभेरी-181 नन्दीचूणा आमीरीसुत पसत्योबणनोवणीता अरहा, सेसा अणरिहा, इमस य णाणपरूवणझयणस्स परूवणे परिसा जाणगावि तिविधा जाणियन्यादि
| तत्थ आणिता गुणदोसविसेसण्णू अणभिग्महिता य कुस्मुइमतेसु । सा खलु जाणिग परिसा गुणतनिल्ला अगुणवज्जा ॥ १॥ इमा
अजाणिया-पगतीमुद्धमजाणिय मियछावयसीहिकुक्कुरगभूता। रयणमिव असंठविता सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा ॥२॥ इमा दुब्बियड्डा|'किंचिम्मत्तगाही पल्लवम्माही य तुरियगाही य । दुपियड्डिया तु एसा भणिया तिविहा भवे परिसा ॥३॥ एत्य जाणिता अजाणिता | य अरिहा ॥ एवं कयमंगलोक्यारे थेरावलिकमे य दंसिए अरिहसु त दसितेसु दूसगणिसीसो देववायगो साधु जणहियडाए इणमाह
णाण पंचविधं' इत्यादि (१.६५) अस्य व्याख्या-णाति ण्णाणं अवोधमित्तं भावसाहणो,अथवा णजइ अणेण इहणाणं खओवसम-IG खाइतभावेण, जीवातिपयत्या णति इति नाणं, करणसहिणो, अथवा णज्जति एतमिति णाण, णाणमवि जीवोत्ति अहिकरणसाधणो, पंच पति ही संस्था, विधिरिति भेदो,पण्ण-पण्णवितं प्ररूपितमित्यनान्तर,अत्यतो तिस्थकरे हि.सत्तओ गणधरेदि,अथवा पण्णा बुद्धी पधाणपण्णेण अवात्तं 181 &ा पणतं, सतविहिणालद्धमित्यर्थः, अथवा पहाणपण्णतो अवान पण्णतं. तिथगरसमीवतो गणहरेस्बिद्धति बुत्तं भवति. अथवा पण्णा बुद्धीट
तीए प्राप्तं पण्णतं, नित्थगरगणधरायरियेहिं कधिजत बुद्धीए पण्णत्तमिति, नंदित्तणेण अधिकयं णाण संबज्झइ, जे पुन्वमुवण्णस्या पंच-12 18 नाणभेया तेषां प्रतिपदमभ्युपगमे जहासदो, अस्थाभिमुहो निवतो बोधः२ स एवं स्वार्थिकप्रत्ययोपादानादभिीनयोधिक, अथवा अतो तद-15 II भिणियाए तेण वाऽभिणियुज्झए संमि वाऽऽभिणियोधिक, स एव चाभिणियाधिकोपयोगतोऽमन्यत्वादाभिनियोधिक, तथा तं सणेति ॥१०॥
तेण वा सुणेति तम्हा व मुणेति तम्हि वा सुणेतीति मुत, आत्मैव वा श्रुतोपयोगपरिणामानन्यत्वात् शृणोतीति अवर्ण, अवधीयत इत्यवधिः |
अSEKASIAS
४७||
दीप अनुक्रम [४६-५३]
पर्षदाया: वर्णनं क्रियते ज्ञानस्य पंच भेदानां वर्णनं क्रियते
~15
Page #16
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आगम
(४४)
"नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं R] / गाथा ||४७..|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्राक
[२] गाथा ||४७..||
तेण वाऽवधीयते तम्मि वाऽवधीयते अवधाण वा अवधिः मर्यादेत्यर्थः सीए परोपनिबंधणातो दब्बादयो अवधीयते इत्यवधी:, परि सव्वतो- ज्ञानभेदाः नन्दाचूणाभाषेण गमणं पज्जवणं पश्नचो मष्णसि मणसो वा पज्जवोर, एस एव पाणं मणपज्जवणाणं, तथा पज्जयणं पज्जयो मणसि मणसो वा पज्जयः
मन:पर्याय: स एव जाणं मणपज्जवणाणं,, तथा आयो पावणं लाभो इत्यनर्यान्तरं, सबओ आयो पज्जाओ मणनि मणसो वा पज्जायोद मणपज्जायो स एव जाणं मणपज्जवणाणं, मणसि मणसो वा पजवा तेसु वा णाणं मणोपज्जवणाणं, तथा मणसि मणसो वा पउजवा पन्जाया * वा वेसिं तेमु वा णाण मणपवजवणाणं-गमणपरावत्तीगो लोगो भेदादयो बहुपगवत्ता । मणपज्जवमि. णाणे निरुत्तवण्णत्यमेवेति ॥१॥ तधा केवळमेग सुद्ध सकलमसाहारणमणतं च इत्यर्थः, णाणसहो य सम्बत्थाभिणिबोभकादीण समाणाधिकरणो दहल्वो, तंजहा-आभिनिवाधिक पतं गाणं आभिणियोधिकणाण, एवं सम्बेसु वत्तव्यं, पुच्छा य-किमेम मतिणाणादियो क्रमो?, एत्य उत्तरं भण्णति-एस मकारणो उवण्णासो, इमे य ते कारणा-तुलसामित्तणतो सबकालाविच्छेदठितित्तणतो इंदियाणिदियाणिमित्तत्तणयो तुलसओवसमकारणतणतो सब्वब्वादिविसयसामण्ण-18 तणतो परोक्खसामण्णतणतो य, तज्भावे य सेसणाणसंभवतो, अतो आदीए महसुत्ताई कयाई, तेसुवि य मतिपुव्वयं सुतंति पुव्वं मतिणाणं कयं, तस्य व पिट्ठतो सुतंति, अथवा इंदियाणिंदियणिमित्तचेण अविसिटेवि सति सुतेवि परोवदेसचाणमित्तभेदातो अरिहंतवयणकारणतणतो य सुतस्स मतिअणतरं सुतंति, मतिसुतसमाणकालत्तणतो मिच्छदसणपरिग्गहत्तणतो तन्विवजयसाधम्मत्तणतो सामिसाईमत्तणतो सम्मत्ताइकालेगलाभत्तणवो यं मनिसुताणतरं अवधित्ति भणितो, ततो छउमत्थसामिसामन्नत्तणतो य पोग्गलविसयसमभावत्तणतो य अवधिसमणतरं मणपज्जवणाणति, सव्वणाणुत्तमत्तणतो सरुवावसुद्धत्तणतो य विरयसामिसामण्णतणतो य तवंत केवल भणितं ॥
||११ सव्वं एतं समासतो दुविध-पच्चक्खं च परोक्खं चेत्यादि (सू. २-७१) इह अप्पवत्तव्वत्तणतो पुत्रं परुचक्खं पण्णविज्जइ, यह
दीप अनुक्रम
REACT
[५४]
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं ३-८] / गाथा ||४७...|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत्यक्ष
प्रत सूत्रांक [३-८] गाथा ॥४७..||
SHREE
18 जीवो अक्खो, कथं !, उच्यते, 'अशू व्याप्ता' विति णाणप्पणताए अत्थे असइत्ति, इत्येवं जीवो अक्खो, णाणपभावेण बोधेति भणितं नन्दीचूणौँ ।
भवति, अथवा 'अस भोजने इच्चेतस्स वा सब्वे असइत्ति अक्खो, पालेति मुंक्ते वेत्यर्थः, अक्खं पति वट्टइत्ति पच्चक्वं, अणिदियन्ति ॥१२॥
बुचं भवति, चसहातो य सो अवधिमादिभेदो वट्टल्वो, अक्खातो परेसु जं जाणं उपजइ तं परोक्खं, न चेदं, चसद्दातो इंदियमणोणिमित्वं दट्टब्बमिति ।। 'से कि तं पच्चक्वं? (३-७५) पुच्छा, सेत्ति सः पच्चक्खणाणभेया 'किन्त' वि पारिपण्हे, कतिभेदंति वुत्तं भवति, तं च | किंसरूवं?, आयरिओ तंजहेत्येवमादि, इंदियाणं सब्बावप्पएसेहि स्वावरणक्खतोवसमातो जा लद्धी तं ताविदियपकचक्खं, तं पंचविध, (४-७६) पर आह-गणु दविविधापत्थियपदेसमेत्तरगहणतो सेसप्पदेसेसु पुण उपलखियोवसमा णिरस्थभावा भवंति, आयरिय | आह-ण एवं, पदीवविद्धतसामस्थतो, जथा चतुसालभवणेगदेसजालितो पदीयो सव्वं भवणमुज्जोवेति तथा दस्विर्दियमित्तपदेसविसयपडिबोधितो सव्वातप्पदेसोपयोगपरिच्छेययो खओवसमसापळया य भवाति ण दोसो, भाविदिओ य वावारपच्चक्खत्तणतो, एतं परचक्ख, परमस्थतो पुण चिंतमाण एवं परोक्स, कम्हा , जम्हा परा-दव्यिर्दिया, भाविदियस्स य तदक्षिणतणतो, 'णोइंदियपच्चक्वं' ति (सू ५-७६) इंदियाइरि, तं तिथिई, एबमादी अवहिन्ति मज्जाया, सा य रूविदव्वे, सुम्भिरूवात वयणातो, तेसु णार्ण ओधिणाणं
भवपच्चइयंति (६-७६) (७-०६) मणिते, णणु आंधी बयोवसमिते भावे णरगादिभवो सो उदइए भावे कथं भवपरुचइतो भण्णति !, | उच्चयते, सोवि खयोवसमितो चेब, किन्तु सो चेव वयोवसमितो गरगदेवभवेसु अवस्सं भवइत्ति, दिलुतो पक्खीण आगासगमणं व, एवं IM भवपच्चइतो भण्णति, (सु.८-७६) खतोवसमितो पुण णरतिरियाणं, तेसु णावस्सं उपज्जइत्ति, खयोवसमभावे केई, खयोवसमसरूवं च सुते
| पेव भणियं, 'को हेतु' ति इदि सो य खयोक्समो गुणमंतरेण जहा गगणम(भ)च्छादिते अधापवित्तित्तो छिदेणं दिणकरकिरणव्व विणिस्सित
दीप अनुक्रम [५५-६०]
॥१२॥
अवधिज्ञानस्य वर्णनं क्रियते
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं -१६] / गाथा ||४८-१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
नन्दीचूणादादब्वमुज्जीवनिक
प्रत सूत्रांक [८-१६]] गाथा ॥४८
५५||
श्री
दब्वमुज्जोवंति तथा अवधिआवरणखयोवसमे त अवधिळभी अधापवित्तितो विष्णातो, 'गुणपडिया' इत्यादि, उत्तरुत्तरचरणगुणविमुम- अवधिज्ञानं
माणवेक्खातो अवधिणाणदसणावरणाण खयोवसमो भवति, तक्खयोवसमेण अवधि उपजा, 'अणुगामियंति अणुगमणसीलो अणुगामितो PM ॥१३॥ तदावरणखयोवसमातप्पदेसविसुद्धगमणतातो लोयणं या, अनगतंति जला जलंतं पब्वतंतं पव्वता, अविसिहो अंतसदो, एवं ओरालियस-ट्र
रीरं ठितं गतंति एगई, तं च आतप्पदेसफड्डेगावहि एगदिसोवलंभातो व अंतगतमोहिणाणं भण्णति, अथवा सन्वातप्पदेसविमुद्देसु ओरा-12
लियसरीरगतेणं एगदिसिपासणं गतंति अंतगर्त भण्णसि, अहवा फुझ परमत्थो भण्णति-गदिसावधिउबलदखेत्तातो सो अवधिपुरिसो अंत-18 ट्रगतोति जम्हा तम्हा अंतगत भण्णति, मझगतं पुण ओरालियसरीरमज्झफगविमुद्धीतो सव्वदेसविसुद्धीतो वा सम्बदिसोवळभत्तणतो मज्जा
गतोति भण्णति, अथवा उवलदिखेत्तस्स वा अवधिपुरिमो मझगतोत्ति, 'उक' चि दीविता 'चुडलि'त्ति तणापिंडी अग्गे पज्जलिता आलातं विदारयं जलतं मणि वा जलिंति 'जोइ ' ति मलगादिट्ठियं अगाणि जलत' पदीयोति दीवतोत्ति पुरतोत्ति-अग्गवो 'पणोल्लणं'-13 वि णुद प्रेरणे हत्यगहियस्स डंडगठितस्स वा परंपरेण नुदन्नित्यर्थः, 'मग्गतोचि पिटुतो 'अणुकट्टणंति हलगहितस्स संडगगाहियस्स वा अणु
पच्छा वा कट्टणंति, पासतोत्ति दाहिणे वा वामे वा पासे दोसु वा सयं जमलाहितं 'परिकड्डियं ति हत्थदंडगठितं वा परिपासओ ठितस्स कट्टणं ६ सीसो पुच्छति 'अंतगतस्स य' इफचादि, आयरिय आह-पुरतो, इरुचादि, सव्वतात्ति-सव्वासुवि दिसिविदिसासु समंता इति सब्वातप्पदेसे-18/
सुवा विसुद्धफड्डुगेसु, बा, अहवा सव्वतोत्ति सल्वासु दिसिविदिसासु सव्वातप्पदेसफड्डुगेसु त, स इति णिदेसो अवधिपुरिसस्स, मंता इति । णाता, अहवा समं बव्वादयो तुल्ला अत्ता इति प्राप्ता इत्यर्थः, गच्छंतमणुगच्छति, अणाणुगामितं संकलापडिबद्धहियपदीबो-181॥१३॥ व तस्स व खेत्तावेक्खखयोवसमलाभेण अगाणुगामितं, परंतंति समंतयो अगणीपासेणं तस्स व जोइस्सा सव्यदिसिबिदिसासु
दीप अनुक्रम [६०-८०]]
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं -१६] / गाथा ||४८-५५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
[८-१६] गाथा ॥४८
५५||
समता परिघोलणति-पुणो२ इतो२ परिसकर्ण । वद्धतं वुड्ढी तं पुव्वावस्थातो उबरुवरि वद्धमाणति, तं च उस्मण्णं चरणगुणविसुद्धमवेक्वत्तणतो अवधिज्ञानं नन्दीचूणों &ापसस्थावसाणवाणात अदि पसत्यलिस्सामणुगता भवंति, पसस्थदन्यसाहि अणुरंजियं चित्र पसत्ययसाणं भण्णा, पसवझवसाणातो
य चरणातो व चरणातविसुद्धीतो य चरणपकचतलद्धीर्ण वड्डी भवति, इमाओ य जहण्णमुधोसविमज्झमोहिदिसणगाहाओ जहा |पेढियाए, हाणित्ति हस्समाणं पुवाबत्थातो अधोऽधो हस्समाणं, तं च वड्डमाणविपक्वतो मणितव्व, अप्पसत्थलेस्सोवरंजित चित्तं अणेगा& सुभत्यचिंतणपरं चिन्न सकिलिलु भण्णति, उप्पणोहिणाणस्स पुणो पातोत्ति परिवावी भाव इत्यर्थः, तं च सत्ताविससोवलंभण भण्णति, ते य|
इमे-असंखयंगुलभागादीया, दुष्पमिति जाव णवत्ति अंगुलपूहुत्तं भण्णाति, दो हत्था कुच्छी, पडिवातिणो आव उकोसो लोगमेनए बा, अप-10
डिवादित्ति सोवि खेत्तविसेसोवलंभानो चेव गज्जइ, अतो भण्णति-अलोगस्स एगमवित्ति, अविपदत्यो संभावणे, किमुत दुपदेसादिवळंभे | & इत्यर्थः, वित्थरेण खयोबममविसेमतो असंखेज्जविहमोहिणाणं, ओहिमादिगतिपउजवसाणं वा चउद्दस विधवित्थरो, ते पदुरुच इमं चउन्विह
समासतो भण्णचि, 'दव्वादि' दवाओ ओधिणाणी जहण्णण तेयाभासंतरे अणते दव्ये उवलभा, नकोसतो सब्वरूविदव्वाई, जाणइचिणाण, तं च विसेसम्गाहर्गतं जाणं, सागारमित्यर्थः, दसेइत्ति बसणं, तं च जं सामण्णणग्गाहर्ग तं दसणं, अणागारमित्यर्थः, खेत्त कालतो व सुचसिद्धं, भावतो ओधिणाणी जहण्णेण अणंते भावे उवलभइ, उकोसतोषि अणंते, जहण्णपदातो उसोसपदं अणंतगुणं, उकोसप-12
देवि जे भाषा ते सव्वभावार्ण अर्णतभागे बट्टति, ओधी भव(५६-९८) गाहा-दब्वतः बहुविकप्पा परमाणुमादियविसेसतो, खेत्ततोचि अंगुल-18 ल असंख्यभागविकापादिया, कालतोचि आवलियअसंखेजभागादिता, भावतोवि वण्णपाजवादिया। मणपज्जवणाणमिदाणि, तस्स सरूवं ॥१४॥ विणितमादीप, दयाणि सामी विसेसिज्जइ पुख्यमुत्तेहि
दीप अनुक्रम [६०-८०]]
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं [१७-१८] / गाथा ||५६-५८|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१७-१८]
गाथा ||५६५८||
"किं मणुस्स' (१७-९९) इत्यादि, समुच्छिममगुस्सा, गम्भवतियमणुस्माण व वन्तपित्तादिसु संभवंति, कम्मभूमगा पंचसु भरहेसुन नन्दीचूर्णी
पंचम एरवण्सु पंचसु महाविदेहेसु य, हेमवदादिमु मिहणा ने अकम्मभूमगा, तिणि जोयणसता लवणजळमोगाहित्ता चुल्लहिमवंतसिहरिपाद-15 ॥१५॥
पदिहिता एगोरुगादिकछप्पण्णअंतरदीविगा, कि पज्जत्ताणं अपज्जत्ताणंति-पग्जचीणाम सत्ती, सामवतो य पुग्गलवोवचया उप्पजइ, ताओ लय छप्पज्जत्तीओ,ता आहार०सरीर०इंदिय० आणपाण०भासाक्ष्मणपज्जती चति,तत्व एगेन्दियाणं चउरो,विगलिदियाणं पंच,असंणीण संववहाकरतो पंच चेव, सण्णीणं च छ, तत्थ आहारपजसी णाम खछरसपरिणामसत्ति, आहारपजत्तीए सत्तधातुतया परिणामसत्ती सरीरपम्जत्ती,
पंचण्हमिंदियाण जोग्गा पोग्गला विचिणिसु अणाभोगनिवत्तितवीरियकरण सम्भावापायणसच्चा इंदियपम्जती,(उस्सास) पोग्गलजोगाणापाणूण,
भासा जोग महणणिसिरणसची भासापज्जती, मणजओग्गे पोग्गले घेत्तग मणक्षाए परिणामणणिसिरणसची मणपजसि, एताओ पज्जसीओ पज्जत्तीॐणामकमोदएणं निव्यत्तिजंति, ता जेसि अस्थि ते पज्जत्नया, अपज्जत्तयणामकम्मोदएणं अणिहिता ता जेसिं ते अपज्जत्तया, अप्पमत्तसंजमा लाजिणकरिपता परिहारविमुद्धिया अधादिया पडिमापडिवण्णगा य, एते सततोपयोगोषउत्तत्तणतो अप्पमत्ता, गमवासिणो पुण पमत्ता, कण्हुइ
अणुवयोगसंभवतातो,अथवा गपछवासी णिमाता य पमत्तावि अपमत्तावि भवंति,परिणामवसतो,इविपत्तस्सेति आमोसधिमाविअण्णयपतिपत्तस्म मणपज्जवणाणं उपग्जद, अथवा ओषिणाणिणो मणपज्जवणाणं तप्पजति, अण्णे णियम भणति, अजमती-उज्जुमती, सामण्णग्गाहिणित्ति | भणित होति, एस मणोपज्जयबिसेसोत्ति, उस्सणं विसेसेइ-विसुद्ध उबलमति, णातीव बदुबिसेसविसिद्ध अत्वं उवलम्भइत्ति भणित होति, घटोन पण चिंतिउचि जाणइ, विपुला मती विपुलमती, बहुविससम्माहिणित्ति भणितं भवति, मणोपजायविसेसं जाणति, विट्ठतो जधाऽण घडो 31॥१५॥
चिंतितो, तं च देसकालादिअणेगपज्जायविसेसविसिद्ध जाणति, अहवा रिजुविउलमतीणं इमं दम्यादीहि बिसेससरूवं भण्णति-सण्णिणा मणत्तेणं
दीप अनुक्रम [८१-८४]
अथ मन:पर्यवज्ञानस्य वर्णनं क्रियते
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं [१७-१८] / गाथा ||५६-५८|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
नन्दीचूर्णी
प्रत सूत्रांक [१७-१८]
गाथा ||५६५८||
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माणिते मणोखंधे अणंते अणंतपदेसिए दवट्ठताए तग्गए य बण्णादिए भावे मणपज्जवणाणेणं पचक्वं पेक्खमाणो जाणइत्ति माणितं, मणियत्वं क्षुल्लकपुण पञ्चक्त्रंणा पेक्खाइ, जेण मणणं मुत्तममुत्तं वा, सो य छतमत्थो तं अणुमाणतो पेपसाइत्ति,अतो पासणता भणिया,अहवा छउमत्थस्स एगविधखयो-ला प्रतरादि बसमलंभे विविधोवयोगसंभवा भवति, जाहत्थे व रिजुबिपुलमतीणं व ओवयोगो, अयो विसेससामण्णत्थेसु उबजतो भण्णति पासइत्ति भणितं ण दोसो, विपुलमती पुण दवट्ठयाते वण्णादिरहि य अधिगतरं जाणतीत्यर्थः उपरिमहडिल्लाई खुट्टागपतराईति इमस्स भावणत्थं इमं पण्णविज्जइ-तिरियलोगस्स उट्टाहो अट्ठारसजोषणमतियस्स बहुमज्मे एत्थ असंखग्जअंगुलमागमेचा लोगागासप्पयरा अलोगेण संवदिया है। सब्बखुङ्गयरा खुट्टागपयराति भणिता, ते य सञ्चता रज्जुपमाणा, तेसिं जे य बहुमज्झे दो खुशागप्पयरा, तेसिपि बहुमझे जंबुद्दी | रयणप्पथपुढविबहुसमभूमिभाग मंदरम्स बहुमज्झदेसे एत्व अट्ठप्पदेसो रुयगो, जतो दिसिविदिसिविभागो पवतो, एतं तिरियलोगमनं, तातो | तिरियलोगमज्झातो रजुप्पमाणखुट्टागपतरोहितोवरि तिरियं असंखेयंगुलभागबुड्डी उबरिहत्तोऽवि अंगुलसंखेयभागारोहो चेव, एवं विरियमुवरिं
च अंगुलसंखेयभागबुडीए नाव लोगबुड्डी णेतब्वा जाव उट्टलोगमजसं, लओ पुणो वेणेव कमेणं संवट्टो कायव्यो जाव उवरि लोगंतो रज्जु| पमाणो, ततो य उडलीममाझायो उवरि हेट्ठा व कमेण खुड्डागप्पतरा भाणितवा जाव रज्जूपमाणा खुडागप्पतरति, तिरियलोगमज्जारज्जूप्पमाणबुडागप्पतरेदितोबि हेला अंगुलासंख्येयभागबुड्डी तिरियं अधाऽवगाहेणवि अंगुलस्स असंखभागो चेव, एवं अधोलोगो वडेयव्यो जाब अधोलोगतो सत्तरज्जुओ, सत्तरज्जुपयरेहिंतो उबरुवरि कमेण खुड्डागप्पतरा भाणियब्बा जाब तिरियलोगमारज्जुप्पमाणा खुडागप्पचरत्ति। एवं खुडागपरूवणे कते इमं भण्णति-उवरिमत्ति य लोगमज्झतो अधो जाव णव जोयणसते जाव इमीग रयणप्पभाए पुढबीए उवरिमखुडागपतरत्ति भण्णति, तदधो अधोलेगे जाव अधोलोइयगामवत्तिणो ते देदिमखुड्डागप्पतरत्ति भण्णति, रिजुमती अधो ताव पासतीत्यर्थः, अथवा
RECEBOESREERS
दीप अनुक्रम [८१-८४]
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं [१७-१८] / गाथा ||५६-५८|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१७-१८]
गाथा ||५६
५८||
नन्दीचूणौं ४ बालअपोलोगस्स उवरिमखुष्गप्पतरा तिरियलॉगस्स हिट्ठिमा खुट्टागपतराते जाव पश्यतीत्यर्थः, अण्ण भणति-नवरिमात अधोलोगोबरि ठिता जे
त मनः पर्यवं उवरिमा, के य ते १, रुचते, सम्वतिरियलोयवत्तिणो तिरियलोगस्स वा अहोणवसयवत्तिणो ताण चेव जे हिटिमा ते जाब पश्यतीत्यर्थः, इमं णो घडइ, अहोलाइयगाममणपज्जवणाणसंभववाहलत्तणतो, उक्तं च-दहाधोलाकिकान प्रामान , तिर्यगलोकविवर्तिनः । मनोगतांस्त्वसौ भावान, बेत्ति : | तार्तिनामपि ॥१॥ अड्डातिजंगुलग्गहणं उस्सेधअंगुलमाणेण ४, कह णजइ ?, उच्चायते, 'उस्सेधपमाणतो मिणसु देई' ति वयणातो अंगु-18 लादिया य विष्पमाणा ते सव्वे देहनिष्फण्णा इति, णाणविसयत्तणतो य, दो. सा. रिजुमतिखेचोवलंभष्पमाणातो विपुलमती अम्भाहिय-18 तरागं उवलभइत्ति, एगदिसिपि अमाहयसंभवो भवइत्ति समंततो जम्हा अमहियंति तम्हा विपुलतरागं भण्णति, अथवा जधा जवेडोर घडातो जलाधारतणतो अम्महि अतो सो पुण नियमा घडागासखेतेण विपुलयरो भवति, एवं विपुलमती अम्महिततरागमणोल द्विजीवनब्वाधार खेतं जाणति, तं च णियमा विपुलयरं इत्यर्थः, अहवा आयामविक्खंभेणं अम्भहियतरागं बाहलेण विपुलयरं खेतं उबलभत | इत्यर्थः, अहवा दोषि पदा एगट्ठा, विशिष्टविविविसेसदेसगो तरसरोति यथा सुक सुकतर इति, किं च जहा पगासगदव्यविसेसतो खेतषिसुद्धिविसेसो लक्विजह तथा मणपज्जवणाणावरणविसेसातो रिजुमणपज्जविणाणसमीवातो विपुलकखमणपजवणाणी विसुद्धतरगं जाणति, मणपज्जवगाणावरणखयोबसममत्तलंभत्तणतो वा वितिमिरतरागंति भण्णति, अहवा पुब्वबद्धमणपज्जवणाणावरणखयोवसमलंभमुत्तमलंभत्तणतो विसुद्धति भमितं, तस्सेवावरणस्स पञ्झरमाणसमावतणतो पुवबद्धस्स तु अणुक्यत्तणतो वितिमिरतरागंति भणति, अहवा दोऽवि एते एगद्विता पदा। ७ मणषजवणाणस्स, सेसं कंठय ।। इदााण केवलणाणं भण्णनि-मणपज्जवणाणाणतरं सुत्तकमुदिद्वत्तणतो विसुद्धिलाभुत्तरमयो य केवलं भणति
म॥१७॥ 'से किं तं केवले' स्यादि सूत्र, (१९-११७) केवलणाणअभेदेखि भेदो भवसिद्धावत्यादिएहि अणेगधा इमो कम्जद, मणुस्सभवठि
दीप अनुक्रम [८१-८४]
| अत्र केवलज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:) .....................मूलं [१९-२३] / गाथा ||५९-६०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
नन्दाचूण
॥१८॥
प्रत सूत्रांक [१९-२३]
गाथा ||५९६०||
तस्स जं केवलणाणं तं भवत्य केवलणाण, पसदो उस्मण्णे, भेद ओसणे, सम्बकम्मविमुको सिद्धो तस्स जणाणं तं सिखकेवळ०, (जोगो-मणा-18| सिद्धभेदा: दिवावारजुओ जोगी वजोगो सावठितो तस्स जणाणं तं अयोगिभवत्थ केवलणाणं, पढमसमयो केवलणाणुप्पसिसमयो घेव, अप ढमो वितियादिसमयो जाब सजोगि तस्स चरमसमयेत्यर्थः, अहवा एसेवस्थो समयविकप्पेण अण्णहा दंसेग्जद, सजोगिकालचरमसमए | चरिमोत्ति पनिछमो, ततो परं अयोगी भविष्यतीत्यर्थः, परिमो ण भवति, चरिमस्स आदिसमयतो आरम्भ ओमत्यगं गेझं । तत्व सिद्ध केवल-18 णाणं दुविध-अणंतर जाव पढमसमयो वाय अचरमो भण्णति, पतेसु जंणाणं तं अचरमसमयभवत्यकेवलणाणं, सेस कंठ्य । 'से किंतं सिद्ध केवलणाणे' त्यादि सूत्र ( २०.११३) तत्व सिद्धकेवलणाणं दुविध-अणंतर परंपर, तस्य अणंतरं को समयंतरं पत्तो, सिद्धत्तप्रथमसमय इत्यर्थः, ते पंचवसविधा तिस्थसिद्धाइया. तित्यसिद्धा इति जे नित्ये सिद्धा ते तित्थमिद्धा, तित्वं चाउरवण्णो समणसंघो पढमादिगणधरो वा,
मणितं च आरिसे-तित्वं भंते ! विवं अरहादि तित्थं', गोयमा ! अरहा ताव वित्थंकरे, तिथं पुण चाउबण्णो समणसंघो" संमि तिरथकालबा भावे उप्पण्णे ततो वा तित्थकाळभावातोले सिद्धा ते तित्यसिद्धा, अतिस्थं चातुवण्णसंघस्स अभावो तित्यकालभावस्स बा अभावो संमि अतित्य| कालभाव अतिस्थकालभावतो वाजे सिद्धा ते असिथसिद्धा, तं च अतिर्थकरे तित्थे वा अणुप्पण्णे जहा मरुदेविसामिणीप्पमित्यो, रिसभादयो | तित्थकरा ते जम्हा नित्यगरणामकम्मुश्यभाये ठिता तित्थगरमावावो सिद्धा सम्हा ते तित्थगरासिद्धा, अतित्वकरा-सामण्णकेवलिणो ते गोयमादि संमि अतित्वकरभाये ठिता अतिस्थकरभावतो का सिद्धा असिस्थकरसिद्धा, स्वयमेव बुद्धा स्वयंबुद्धा, सयमपणा, जे वा जाइसरणादिकारणं पदुष
युद्धा, स्फुटतरमुच्यते वाशप्रययमतरण ये प्रतिबुद्धास्ते स्वयंबुद्धा, ते य दुविधा-तित्थगर नित्थगरवतिरित्ता य, इह वहरिचेहि अधिकारो, किं च रास्वयंबुद्धस्स बारसविहोवि उवधी भवति पुख्याधीतं से सुतं भवति वणवा, जति से णस्थि तो लिंग णितमा गुरुसण्णिधे व पविजइ, एत्येव ॥१
दीप
AAS
अनुक्रम [८५-९२]
अत्र सिद्धानां भेदा: वर्णयन्ते
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[१९-२३]
गाथा
||५९
६०||
दीप
अनुक्रम [८५-९२]
श्री नन्दीचूर्णी
॥ १९ ॥
"नन्दी' चूलिकासूत्र -१ ( चूर्णि :)
..मूलं [१९-२३] / गाथा || ५९-६०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र (NV), मूनिकासूर [१] नन्दीत्वस्य चूर्णि
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बिदर, अथ पुन्याधीतसुतसंभवो अस्थि तो से लिंगं देवया पयच्छइ, गुरुसण्णिधे वा पडिवञ्जर, जइ य एगविधारपविचरण जोगो इच्छा वा साता एको चैव विहरइ, अण्णा गच्छे विहरतीत्यर्थः एवंभि भावे ठिता सिद्धा एतातो वा भावातो सिद्धा । पचेयबुद्धा पत्तेयं वाह्यं वृषभादिकारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा प्रत्येकबुद्धा, वहिः प्रत्ययं प्रतिबुद्वानां च पत्तेयं नियमा विहारो जन्हा तन्हा यते पत्तेयबुद्धा, जधा करकंडुमादतो, किंच 'पतेयबुद्धानां जणेण दुविधा उकोसेणं णवविधो उबधी नियमा पाउरणवज्जो भवति किं चन्पत्तेयबुद्धानं पुम्बाधीतं सुतं णियमा भवति, जहणणं एकारसंगा उक्कोसेणं भिण्णदसपुब्बा, लिंगं च से देवया पयच्छति, लिंगयज्जितो वा भवति, जतो य भणित- 'रुप्पं पत्तेयबुद्धा' इति, एभि भावे एतातो वा सिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धाः । बुद्धबोधिता जे तंबुद्धेहि तित्थगरादिपहिं बोधिता पत्तेयबुद्धेहिं वा कविलादिहिं बुद्धबोहिता, अहवा बुद्धयो. एहिं बोहिता बुद्धबोधिता, एवं सुधम्मादिएहिं जंबुणामाद्गयो भवति, अहवा बुद्ध इति प्रतिबुद्धा तेहिं प्रतिबोधिता बुद्धबोधिता प्रभवादिभिराचार्यैः, एतब्भावे ठिता एतातो वा सिद्धा बुद्धबोधितसिद्धा, दवलिंग प्रति रजोहरणमुहपोत्चिपडिग्गधारणं सलिंग, एयां दबलिंगे दिता सलिंगसिद्धाः, तावसपरिव्वायगादि कसायमादि दध्वलिंगठिता सिद्धा अण्णडिंगसिद्धा, एवं गिहिलिंगेवि केसादिअलंकरण दिए दुव्वलिंगे ठिवा सिद्धा गिद्दिलिंगसिद्धा, इत्यीलिंगंति इत्थीए डिंगं, इत्थीए उबलक्खणंवि वृत्तं भवति, तं तिविधं वेदो सरीर
ती जेवत्थं वा, इद सरीरणिव्वतीए अधिकारो, ण वेदणेषत्थेदि, तत्थ वेदे कारणं जम्हा वीणवेदो जमेणं अंतोमुहत्तातो उशोण देसूणपुम्बकोडितो, णेषत्थस्स व अणियत सणतो, तम्हा ण तेहि अधिकारी, सरीरकारणनिब्बती पुण नियमा चेव उदयतो णाममुदयाओ य भवति, तंमि सरीरणिव्यत्तिलिंगे ठिता सिद्धा तातो वा सिद्धा इत्थिलिंगसिद्धा एवं पुरिसणपुंसगलिंगवि भाणियम्बा, एकसिद्धति एकमि समते एको चैव सिद्धो, अगतिद्वत्ति एकमि समए अगेगे सिद्धा दुगादि जाव अट्टमति, भणितं च-बत्तीसा अडयाला, सट्ठी बावचरी य
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सिद्धभेदाः
॥ १९ ॥
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं [१९-२३] / गाथा ||५९-६०|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
KHE
प्रत सूत्रांक [१९-२३
गाथा ||५९६०||
ठा योद्धव्या । चुलसीती छण्णउती दुरहित अछुत्तरसय च ॥१।। चौ. गणु एते पण्णरस भेदा विभेदठिता अण्णोष्णणिरवेक्खा ण भवंति, कासिद्धभदाः नन्दाचूणा पंचदस भेदति पण्णता ?, आचार्य आह-जणु तिस्थपुरिसविभागुप्पण्णाणुप्पण्ण। कालभेदयोर्वा दो भेदा परोप्परविरुद्धा, एगाणेगादि एककाल-II
सहचरितासहचरित्तत्तण ओ भिण्णा, सयंबुद्धादयोवि णाणावरणखयोवसमविसेसा य पडियोधबिसेसत्तणओ, थीति विसिहा, एवं तित्थादितापण अण्णण लक्खणसहावठिताणं पंचदस भेदा पण्णता, किं च जहा मतिणाणतत्यादियाण चरिमपज्जवसाणाणं अष्णोण्णाणुबेक्वेन्ताण भेदो | इपि जइ तथा तो को दोसो ?, किंच- णाणाणयाभिष्पायत्तणत्तो सुत्तस्स व अणेगगमपज्जायत्तणतो अभिधाणभेदत्तणतो य पंचदस-1&
भेदकरणति ण दोसो। इदाणिं तं चेव सिद्धकेवलणाण समयभेदतो अणेगधा विसेसिज्जइ-पढमसमयसिद्धस्स जो वितियसमओ तमि | | सिद्धो सो परो तस्सविय अण्णो एवं परोपरसिद्धकेवलणाणं भाणियन्वं, वच्च अपढमसमय इत्यादि, नास्य प्रथमः समयो विद्यत इत्यप्रथमः, द्वितीयसमयसिद्ध इत्यर्थः, स च परंपरसिद्धविसेसणस्स प्रथमतः स परतो वितियादिसमया माणितम्बा । तं सव्वंपि चढान्विहं दब्बादि, . | सब्बदव्या, दय्वत्ति धम्माधम्मागासादयो,तेहिंतो जीववव्वा अर्णतगुणा,देहितोषि पुग्गलदव्वा अणतगुणा,एते सव्वे सरूवतो जाणति, भावावि | दुविहा-जीवाजीवा, खेत्तपि लोगालोगभेदभिण्णमणतरूवं जो जाणा, कालंपि समयावलियादिगं तीयमणागतं सव्वद्धा सरूवयो सब्वं जाणति, भावावि दुविहा-जीवभावा अजीवभावा य, तत्थ जीवभावा फमुदयसतत्तपरिणामितलक्खणा गतिकसायादिया कमुदयलक्खणाश
॥२०॥ अणेगविधा, उवसमखयखयोवसमजीवसतत्तलक्खणा अणेगविहा, परिणामिया व जीवभब्वाभब्वत्तादिया, वेसु अमुत्तदव्येसु धम्माधम्मागासा गतिठितिअवगाधलक्खणा अगलहुगा व अणंता, पुग्गलदम्वा य सुहुमवायरविस्ससापरिणता अभिधणुमादिता अणेगविधा, परमाणुदुअणुगादीणविऽणाइपज्जवा एमादिता अणंता, एते दब्वादिया सव्वे सबढ़ा सम्वत्थ सबका उवउत्तो सागाराणागारलक्षणोद
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RECE
दीप अनुक्रम [८५-९२]
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं [१९-२३] / गाथा ||५९-६०|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
नन्दीचूी ॥२१॥
[१९-२३]
गाथा ||५९
६०||
गाणदंसणेहि जाणति पासइ य, इत्य केवलणाणदसणोवयोगहि वहुया समयसभा आयवृद्धीए पकापिता इमं भतिकेई भणंति जुगर्व जाणइ पासइय केवली णियमा । अण्णे एंगतरिय इकछति सुतोवदेसणं ॥ १ ॥ अण्ण ण चेव वीमुं देसणमिच्छति दर्शनोपजिणवारदस्स | चिय केवलणाणं तं चिय से दसणं वेति ॥ २॥ तत्थ जे ते भगति जगवं जाणइ पासइ य ते इमं उववाति उवदिसति
सोमवा उवदिसति-योग वादः 'ज केवलाइ सादी अपज्जवसिताई दोवि भणिताई। ता बेंति केइ जुगवं जाणइ पासइ म सव्वष्णू ।।३।। इधराऽऽईणिहणचा मिच्छावरणक्खओति व जिणस्स । इयरेतरावरणता अथवा जिकारणावरण ॥ ४ ॥ तध व असम्वण्णुत्तं असव्वदरिमत्तणप्पसंगो य । एगंतरोवयोगे ४ जिणस्स दोसा गहुविधीता ॥ ५ ॥ एवं बहुधा भणित आगमवादी सत्तरं इमं आइ-भण्णति भिण्णमुहत्तोवयोगकालेवि तो तिणाणि-द स्स | मिच्छा छावडीसागरोवमाई खयोवसमा ॥६॥ अधा छउमत्थस्म मतिसुतावधिणाणेसु अंसमुहुत्तो कालोवयोगसंभवो उवये गाणु-101 वयोगेण य ( छा ) बट्ठी सागरा से ठितिकालो दिट्ठो तथा जति जिणस्स णाणदसणासादिअपज्जवसाणा उबयोगाणु-18 चयोगेण भवति तो को दोसो १, जति एयं ते णाणुमयं तो इमं ते कथं अणुमतं भविस्सति ?, 'अथ णवि एवं तो सुण जहेव स्वीणतराइओ अरहा । संतेऽवि अंतरायक्वयंमि पंचप्पगारम्मि ||७॥ सततं ण देइ लभइ व मुंजइ उपमुंजई व सब्वण्णू । कमि देइ लभइ व मुंजविका व तथेच इहयपि ॥८॥ तस्स लमंतस्स व उव जतस्स व जिणस एस गुणो । खीणतराइययत्ते जं से विग्यं ण संभवति ॥ ९ ॥ उबउत्तरसेमेव य णामि व सणंमि व जिणस्स । वीणावरणगुणोऽयं जं कासणं मुणइ पासइ वा ।। १०॥ पुणो पर आइ-पासंतोऽपि ण है जाणति जाणव न पासती जति जिणियो । एवं न कयाइवि सो सम्वष्णू सम्बदरिसी य॥ ११ ॥ अत्रोत्सरं आचार्य आद'जुगवमजाणतोबिहु ।। चतुहिवि णाणेहिं जह व चतुणाणी । मण्णइ तथैव अरहा सम्बण्णू सव्वदरिसी य ॥ १२ ॥ पर एवाह-'तुल उभयावरणक्लयमि पुष्वयर
दीप
अनुक्रम [८५-९२]
अत्र केवलज्ञानदर्शनोपयोग वाद: वर्णयते
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं [१९-२३] / गाथा ||५९-६०|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक [१९-२३]
गाथा ||५९६०||
मुम्भवो कस्स? | दुषिहुवयोगाभावे, जिष्णस्स जुगवंति चोदेति ॥ १३ ॥ उत्तरं आचार्याह-भण्णइ न एस णियमो जुगबुप्पण्णेसु केवलज्ञान नन्दाचूणाला जुगवमेवेह । होय उवयोगे, एस्थ व सुण ताव विद्वतं ॥१४|| जह जुगबुप्पत्तीएवि सुते सम्मत्तमतिसुतादी] | णत्थि जुगवावयोगी सम्बेसु
लदर्शनोप॥२२॥ I Rथेव केवलिणो ॥ १५ ।। किंच-भणियपिय पण्णत्तीपण्णवणादीसु जह जिणो समयं । जं जाणवीण पासइ अणुरयणप्पभादीणि ॥ १६ ॥
योग वादः राजे भणंति केवलणाणदसणाण एगतं ते इमं देवजति भणति-जह किर खीणाबरणे दसणणाणाण संभवो ण जिणे । उभयावरणातीने तह केवलद
सणसावि ॥ १७॥ एस ते हेतुजत्ति तहा अत्यर्ण ण संसहइति उत्तरे हेउजती ण चेव भण्णति, देसण्णाणोवरमे केवलनाणस्स संभवो
भणियो। दसरसणविगमे तह केवळदसणं होतु ॥१८|| आचा०संसहद तहा उत्तर देउजुत्तीए चेव भणंति-'देखणाणोवरमे जह केवलणाणसंभवो IC भाणतो। दसरंसणविगमे तह केवलदेसर्ण होइ ।। १९ ॥ अह देसनाणदसणविगमे तब केवल मयं नाणं । न मयं केवळदसणमिच्छामेत्तं 1 षु तदेव ॥२०॥ किंच-भण्णइ जहिणाणी जाणति मासति य भासित सुत्ते। न य नाम ओधिदसणणाणगत्तं तह इमंपि ॥२१ ॥ एवं 13ापराभिपाए पडिसिद्ध पगंतरोषयोगता सिता, तहविर्म भण्णति-जह पास तह पास पासा सो जेणेह सर्ण तं से । जाणइ जेणं अरहा तिं से णाणत्ति घेत्तव्यं ॥२२॥ किंच--सिद्धाधिकारे एगंतरोवयोगदंमिगा इमा पाहुडा गाहा–णाणमि दसणंमि य एचो एगयरयंमि एव उत्ता । सिखस्स केवलिस्सा जुगवं दो नथि उवयोगा ॥ २३॥ किंच--भगवईए उपयोगो एगतरो पणुवीसइमे सते सिणायस्स | भणितो
विगडयोश्चिय छटलुइसे बिसेसे ॥ २४ ॥ किंश किस्स व णाणुमताभणं शिणस्म जति होना पोवि उवयोगा। पूणं ण हावि जुगर्व &जतो णिसिद्धा सुते बहुसो ॥ २५ ॥ अथ सव्वदच' गाथा (१५९-१३४) 'केवलणाण' गाथा ( ६०-१३९)
एताओ जहा पेटियाए, सेसं कंप । इदाणि कमागतं बहुबत्तन्वं परोक्खं भणति-से किंत, ( २४-१४०) अक्सा
CAMERRORRECAS
दीप
अनुक्रम [८५-९२]
E AN
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं २४-२५] / गाथा ||६०...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [२४-२५]
गाथा ||५९६०||
वियमणा परा तेसु जं जाणं तं परोक्खं मतिश्रुते परोक्षमात्मनः, परनिमित्तत्वात् अनुमानषत् , णणु सुते इंदियपच्चक्खं भणित, नन्दाचूणाका उच्यते, सकचमिण, एवं जेवियमणेहिं बहिलिंग एव समुबजायद समेगतेणेष इंदियाणं अत्तणो य परोक्खं, अणुमाणत्तणओ, ॥२३॥
धूमातो अम्गिणाणं ब, जे पुण सक्खा इंदियमणोनिमित्तं तं तेसिं चेव पच्चक्खं अलिंगत्तणतो, अत्तणो अत्तधमादित्व, अचणो तु सतं एगवेणेव परोक्खें, इंदियाणपि तं संवहारतो परचक्वं, ण परमस्थतो, कम्हा ?, जम्हा दावादिया अयणा इति, तं दुविध-मतिणाणं | | सुतणाणं च, इ६ मतिसुतणाणमुवण्णासक्रमे कारणं पुब्बुत्त दवं, मतिसुताण य अभयसामिणिरूवणत्यं इमं सुत्त जत्थ मतिणाणे त्यादि जस्थति -पुरिसे जत्थ वा इंदियखयोवसमे मतिणाणं तस्येव सुतणाणं, अथवा. जत्थाभिणिबोधियं सरूवं तत्वेव सुतंपि णियमा, अण्णोणाणुगता भवंतेते, आह-मतिसुयाणं अण्णोण्णाणुगतत्तणतो सामिकालकारणखयोवसमतुसत्तणतो य एगतं पावति णो दुगपरिकप्पणंति, अत्रोच्यते, मतिसुताणं अण्णोण्णाणुगवाणवि आयरिया भेदमाह दिटुंतसामस्थतो, जहा आगासपट्टिताणं धम्माधम्माणं अण्णोण्णाणुगवाणं लक्खणभेदा भेदो दिहो तहा मतिसुताणवि समकालाविअभेदेवि मेदो भण्णइ 'अभिणिबुज्झती' त्यादि, एवं लक्षणाभिधाणभेदा भेदो। लेसि, अथवा इमे मतिसुतविससा 'भतिब्बर्ष मुतं, ण मती सुतपुब्बिया' इति, जतो सुतस्स मतिरेव पुष्य-कारण, कधी, उच्चत्त, मतीए | सुतं पाविज्जति, ण मतिमतरेण प्रापयितुं शक्यते, गहितं च मतिते पाविजइ, परिवत्तयतो णो पणस्सइत्ति, जतो मतिमेव मुतं पवण्णो भवति, णणु सुतंपि सोठ मती भवति, उच्यते, दव्यमुतं, न भावथुतादित्यर्थः। अहवा मतिमुताण भेदकतो विसेसो, मतिणाणं अट्ठावीसइभेद-18 | भिण्णं, मुतणाणं पुण अंगाणगाइवीसइभेदभिण्णं अहवा मतिसुताण इदियोवलाद्विविभागतो भेदो इमो-सोइंदियोवलद्धी' गाथा पूर्ववदया-|
४॥२३॥ |ख्येथा। अहवा मतिसुतमेवं भणति-'पुद्धिदिडे' गाथा, एताते गाथाए अत्थो-मतिसुतविससो य जहा विसेसाबस्सगे तदा भाणियष्यो, अण्ण
दीप अनुक्रम [८५-९२]
| अथ मति(आभिनिबोधिक)ज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[२४-२५]
गाथा
||५९
६०||
दीप
अनुक्रम
[८५-९२]
श्री नन्दीचूण
॥ २४ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र- १ (चूर्णि:)
.. मूलं [२४-२५] / गाथा || ६०...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४४ ] चूलिकासूत्र- [ ०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
| वन्यसमं मतिगाणं सुचसमं च सुतणाणं भर्गति, तं च ण घडति, जम्हा वागसुंब दितेण भइएण सो वा सुतस्स परिणामो सेज्जइ, तम्हा तं ण जुज्जते इत्यर्थः, अह पुणेो मतिसुतभेदो अक्तराणुगतं सुतं, अनक्खरं मतिणाणमिति, अथवाऽऽत्मप्रत्यायकं मतिणाणं स्वपरप्रत्यायकं सुतणाणं, अह्वा मतिसुताण आवरणभेदो दिट्ठो, तक्खओवसमविसेसातो चैव मतिसुताण भेदो भवति, भणिदो मतिसुतविसेसो, इवाणि जवा मतिसुतणाणाण कज्जकारणभेदेहिं भेदो दिो तथा मत्तीए सुतस्त त सम्ममिच्छविले सदलणपरिग्गहातो भेदो इति ॥ अतो सु भण्ण 'अविसेसिता मती' त्यादि ( २५-१४३ ) सामिणो अविससिता मती इमं वक्तव्या आभिनियोधिकेत्यादि, चसदेो समुच्चते, विसेसिता |मतीत्यादि, यदा पुण इमेण सामिणा विसेसिया मती भवति तदा इमं वक्तव्या सम्मद्दिस्सि मतीत्यादि सूत्रनिद्धं, 'अविसेसितं सुत' मित्यादि एतंपि उबजि एवं चैव वत्तध्वं अथवा जाव बिसेसणेण अविसेसिता मती ताव मती चैव वक्तव्वा, सच्चैव मती णाणसद्दविसेसणतो | इनं मत्तव्वा 'आभिणिवोधिके' त्यादि सूत्रसिद्ध णाणाणाणसविसेसणं कहूं ?, भण्णति, सम्मत्तमिन्द्रसामिगुणन्तवो, सम्मदिस्सि मतीत्यादि सूत्रसिद्धं सुतेवि एवं चैव वत्तव्वं, पर आह-तुलक्खयोवसमत्तणया घडाइवत्थूण य सम्मपरिच्छेदत्तणतो सद्दादिविसेसाण य समुवलंभातो कहूं मिच्छादिट्टिस्स मतिसुता अण्णापति भणिता ?, उच्यते, सदसयविसेसण्यातो भवहेतुजहिच्छितोवरंभातो मिच्छद्दिस्सि अण्णाणं चैव पुब्वं भणामि ।
'से किं तं आभिणिवोधिकेत्यादि सुतं ( २६-१४४ ) वस्थ 'सुतणिसितं' ति सुतंति-सुतं तं च सामाइयादिबिंदुसारपक्जवसाणं, एतं दुव्वसुतं गतिं तं अणुसरणतो जं मतिणाणमुप्पज्जइ तं सुतणिस्साए उत्पष्णंति वा णिस्सितं तं सुतभिस्सितं भण्णति, तं च उमदेहा
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मतिश्रुतयोर्भेदः
॥ २४ ॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[२६-३७]
गाथा
॥६१
८०||
दीप
अनुक्रम
[९३
१२८]
श्री नन्दी चूर्णी
॥ २५ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र- १ (चूर्णि:)
.. मूलं [२६-३७] / गाथा ||६१-८०||
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४४ ], चूलिकासूत्र - [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
चायधारणाठितं चतुभेयं, 'अस्सुतणिसितं व' तिजं पुण दव्यभावसुतणिरवेक्त्रं आभिणियोधिकमुपज्जतं अस्सुतभावतो समुप्पण्णंति असुतणिस्सितं भष्णति तं च उत्पत्तियादिबुद्धि चउकं इमं 'पुत्र'० (३६२-१४४ ) गाहा भरह० ( ०६३-१४४) मधु० (६५-१६५ ) गाहा, उप्पइया गता । इयाणि वेणइया 'भरणि०' (६६-१५९) 'निमित्ते' (* ६७-१५९) गाहा 'सीता' (* ६८-१५९) गाहा 'विणयसमुत्था०' गाहा, इमा कम्मइया 'उपयोग ०' ( * ६९-१६९) गाहा 'हेरणि०' ( *७०-१६४ ) गाहा, कम्मइता गया । इमा परिणामिया 'अणु' (* ७१-१६५ ) गाहा 'अभए'० (७२-१६५) गाथा 'खमण' (* ७३- १६५) 'चलण' गाहा (*७४१६५ ) गाहा, एताओ सब्बाओ जधा णमोकारे ( अभिप्पा ) तथा दा
इयाणि सुतनिस्सितं उम्माइयं सवित्थरं भण्णति, 'से किं तं०' (२७-१६८) इह सामण्णस्स रूवादिअसेस विसरिवेक्खस्स अणि अवप्रहणमवग्रहः तरसेवsत्थस्स विचारणविसेसेणेहणमीहा, तस्स विसेसणविसिद्धस्स अबसातोऽवायः, तव्विसेसावगम इत्यर्थः, सन्विसेयाव गमस्स धरणं अविरुचुती धारणा इत्यर्थः तत्थ 'से किं तं उ० (२८-१६९) उग्गहो दुविधो-अत्थोग्गो वंजणउग्गहो य, एत्थ बंजणोम्गहस्स पच्छाणुपुति (अत्थोग्गद्दाइया) अत्थोग्गहातो वा पुब्वं वंजणुमाहो भवइत्ति वंजणेोग्गडमेव पुत्रं भणामि, 'से किं तं वंज० (२९-१६९) वंजणाणं अथम्मा। वंजणोवग्गो वंजणोग्गहो, एत्थं वंजणगहणेण सहादिपरिणता दब्या घेत्तव्या, एत्थ वंजणोग्गहणेण दबिंदियं घेत्तन्वं, एतेति दोण्हवि समासाणं इमो अस्थो-जेण करणभूतेण अत्था जिज्जेति तं वंजणं, जहा पदीवेण घडो, एवं सदाइपरिणतेहिं दव्वेहिं उवकरणेंदियपचेहिं विद्धिं संबद्वेर्दि संपतेहिं जम्दा अस्था जिज्जइसि तम्हा ते दव्त्रा वंजणं, वंजणावग्गहो सुत्तसिद्धो चउब्विहो, 'से किं तं अत्थोग्गहे'
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अश्रुतनि) श्रितमामि निवोधिकं
| ।। २५ ।।
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:) .................मूलं R६-३७] / गाथा ||६१-८०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
अवहेहा
प्रत सूत्रांक [२६-३७] गाथा ॥६१
नन्दीचूणों
॥२६॥
SABER
८०||
|(३०-१७३) इत्यादि सूत्र, अस्थस्स उग्गहो अस्थोग्गहो, मो त वंजणावग्गहातो चरमसमयाणतरं एकसमय, अवि सबिदियषिसयगिणहतो 181 अस्थुवाहो भवति, चक्विंदिवस मणसो व पणाभावे पदम चेव अविसिहमत्यग्गहणकाले यो एगसमयं सो अत्थोग्गही भाणेयम्बो, दिन
पायसम्बोनि सो विभागण छविहो दंसिरजा, ण पुण तस्सोग्गहस्स काले सदादिविसेसवुद्धी अस्थि, णोइंदिओत्ति मणो, सो (दुविहो) दव्वमणो II
धारणा भावमणो य, तस्थ मणपज्जात्तणायक मुदयातो जोगे मणोदब्वे घेत्तुं मणजोगपरिणामिता दवा दव्बमणो भण्णइ, जीवो पुण मणपरिणामकक्रियावण्णे भावमणो, एस उभयरूवो मणव्वालंबणो जीवस्स णाणव्वाबारो भावमणो भण्णति, तस्स जो उवकरणमिंदियदुवारनिरलेक्खो घडाइअवसरूवचिंतणो बोधो उप्पज्जा सो वा णोइंदियस्थोवरगहो भवति ॥ तस्स (३१-१७४) घोसात्ति-उदत्तादिया सरविसेमा घोसा भण्णति, वंजणंति अभिलावखरा, तेसि इम एगढिया चेव ओगेण्हणता इत्यादि. एते जाहसामण्णतो पंचषिणियमा एगहिया, उग्गहार्षभागे पुण काजमाणे उम्गहविभागसण भिण्णत्था भवति, सो य उग्गहो तिविहो-विससावरगहो सामण्णत्वावग्गहो विसेससामण्णत्या| वम्गहो य, एगट्टिताण इमो भिण्णत्थो, वंजणोग्गहस्स पढमसमयपविट्ठाण पोग्गलाण गहणता ओगिण्डता भण्णति, आएलेतिकाउं, वितियादिसमयादिसु जाव बंजणोग्गहो ताव उवधारणता भण्णह, पगसामगसामण्णत्वावग्गहकालो वेक्षणता भण्णइ, विसेससामण्णत्थावरगहकालो | अवक्षणता भण्णइ, पसरत्तरविसेससामण्णत्वावगहेसु जाच मेहया धावइ नाव मेघा भण्णा, जत्थ जणावग्गहो णत्थि तस्थ सवणादिया कातिषिण एगहिता भण्णन्ति, आह--णण भिण्णस्थत्ताओ एगट्रितत्ति विरुद्ध, उच्यते, ण विरुद्ध, जतो विकप्पेसु जग्गहस्सेव सरूवं दसिजा, 18
॥२६॥ लाइदाण उपाहसमणतरं हा, (३२-१७५ ) साबविहा मुसिद्धा, इमे सरसेगहिता, तेवि दासामण्णतो एगहिता चव,
अस्थांचकरपणतो पुण भिषणस्था मेण विधिणा, आभोअणता इन्चादि. महसमयाणंतर सम्भूयविसेसत्याभिमुहमालायण
दीप
अनुक्रम [९३
१२८
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:) .......................मूलं R६-३७] / गाथा ||६१-८०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [२६-३७]
गाथा ||६१
श्री
नन्दीचूणीं ॥ २७॥
८०||
आलोयणा भण्णति, तमेव धम्माणुगतारचण्णयवइरेगवससमालोयणा मग्गणा भण्णइ, तस्सेवत्वस्त बहरेगधम्मपरिचातो अण्ण- अवग्रहायेयधम्मसमाळोगणं च गवसणा भण्णति, तमेव धम्माणुगतास्थल पुणो पुणो ममालोयणतेण चिंता भण्णइ, तमेव वत्थु णिकचाणिकचाइपहि5 कार्थाः दबमावेहि विमरिसता वीमंसा भण्णइ, एवं बहुधा अस्थमालोगतं, सस्म उक्कोसतो अंतमुहुचकालं सव्या ईदा भवइ, हाणतरं अवाओ, (३३-१७६ ) सो छविहो सुत्तसिद्धो, तस्मेगडिता इमे पंच, ने अवायसामण्णतणतो णियमा एगहिता चेब, आमदाणाभिष्णतणतो पुण |मिणत्या इमेण विधिणा आओवजा, तेचि पुणतं जाणणं अंतमुहत्तातो परतो दिवसादिकालविभागसु, संभरंतो य धारणा भण्णइ (३४-12 १७६ ) ठवणत्ति ठावणा, सो अपायधारियं अत्यं पुन्बावरमालोइत हियमि ठाक्यंतस्स ठवणा इति भण्णइ पूर्णघटस्थापनावत् , पतिकृत्ति सेषि त अवधारियत्थो हितयमि प्रभेदेन पाहाइतमाणो पइट्ठा भण्णा, जले उपलपक्षेपप्रतिष्ठावत, कोट्ठत्ति जथा कोहगे सालिमादि बीया || पक्वित्ता अविणठ्ठा धारिति तथा अवाताधारियमत्यं गुरूवदिसुत्तमत्वं वा अविणटुं धारणा कोहगसमानिकाउं कोढ़ोत वत्तम्बो, इच्चे-15 तस्यादिसूत्र, इति उपप्रदर्शने, एतस्मत्ति जं अतिकतं अट्ठावीसतिभेद, ते य के अहावीसति भेदा?, वरुयते, चउविहो वंजणावग्गदो छबिहोदा अत्यावमाहो छब्धिधा ईहा छविधो अवायगे छविधा धारणा. पते मब्वे अट्ठावीस, एयरस अट्ठावीसाइविदस्म मझातो जो वंजणाभिम्गहो । चउब्विहो तस्स दिलुतदुगेण परूवणा, 'से जहा णामें' ( ३६-१७७) इत्यादि, सत्ति पडिबोधकस्स णिदेसे, जहा पामयत्ति जहा णाम संभवतः, आत्माभिप्रायकृतादित्यर्थः, 1x॥२७॥ सवण्णुपणीचमत्थं तवणुमारि सुत्तं वा अप्पबुद्धिविण्णाणतणयो अणवगच्छमाणो सीसो पुच्छाचोयणातो चोदको, अहवा तमेव सुत्तमत्थं
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:) .....................मूलं R६-३७] / गाथा ||६१-८०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [२६-३७]
गाथा ||६१
श्री
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वा घडमाणं विभिण्णमाणो नहोसचोदगतो चोदओ भण्णाति, पवयणमविरुद्धं णिहोस सुत्तत्थं पण्णवेसो पण्णवगो, विरुद्धदुरुत्सुकं वा मातवाय नन्दाचूणा || अस्थतो अविरुद्धं दरिसेतो पण्णवेइ जो सो वा पण्णवगो भण्णति, यथावत् संसयक्तीत्यर्थः, चोदको संसयमावण्णो पण्णवर्ग पुग्छ -
एगसमयादिपविट्ठा' इत्यादि, कंठचं, एवं पोषकं पुच्छामिप्पारण वदंतं पण्णवगाह-णो एगसमयपबिट्ठा इत्यादि, जो एस परिसिद्धी । डासो ता एस सदाइफुडविण्णाणजणगणति को गहणमागच्छति, इहरा पोग्गला गहणमागच्छत्येवेत्यर्थः, एवं एगादिसमयपविट्ठपोग्गलपICI डिसिद्धमु इमा अणुण्णा असंखेज्जसमयपविठ्ठा पोग्गला गहणमागच्छति, इमस्स अणुयोगत्थो अणुयोगिणाऽवसेयो, तत्थ अणुवोगे 12 इमो-जहा पवासी से गिहमन्तो अद्भाणं पंचाहेण सत्ताहेण वा वीतीवतित्ता सगिह पवित्ति, एवं असंखजेहिं समयेहिं आगता पविट्ठा
हा कष्णपेल्लेसु पोग्गला गेव्हइति, एवं अणुयोगो भवति, इमो अणुयोगत्थो-पढ़मसमयादारम्भं बिवियाइसमय पविसमाणेसु असंखजइम || & समए पविट्ठा ते गणमागच्छति, ते य सहादिविण्णाणजणगत्तिकाउं, अतो तेसि गहणमुवदिई, सो य असंखज्जइमे समयो किंपमाणे |
असंखेज्जए भण्णति ?, उच्यते, जहणेणं आवलियाअसंखेज्जमागमत्तेसु समतेसु गतेसुत्ति, उकोसणं संखेज्जासु आपलियासु आणापाण-12 कालपरजन्त वा, उभयधावि अविरुद्धं, गतो पडिबोधकदितो, अस्थ आवागसीसगति-पागट्ठाणस्स वा अवा आपागट्टाणस्स आसण्ण संगता परिपेरतं, अहवा आपागस्सुत्तरियाए जं ठाणं तं आपागसीसय भण्णात, अणवेहि प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयं अणता प्रविशतीत्यतो अनंता, आहे तं वंजणं पूरियं भवइत्ति, पत्थं बंजणग्गहणण सहाइपुग्गलदव्वादि दबिंदियं वा उभयसंबंधो वा घेत्तव विधावि ण विरोधो,
॥२८॥ वजण पूरियति कथं, उच्यते, जदा पुग्गलदच्या बंजणं तया पूरियति पभूता ते पोग्गलम्बा जाता अप्रमाणमागता स विनेवपडिबाधसमत्था जातत्य, जया पुण वकिदियं जण तया रियवि को?, उच्यते, जाहे वेहि पोग्गलेहि दग्विवियं आफर्म भरित बाविसं तया
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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गाथा
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श्री नन्दीचूण
॥ २९ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.. मूलं [२६-३७] / गाथा ||६१-८०||
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र - [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
पूरियंति भण्जइ, जया उ उभयसंबंधो वंजणं तथा पूरियंति कथं १, उच्यते, दव्विंदियस्स पुग्गला अंगीभावभागता पुग्गळा व बिदिए अनुपक्का, एस उभयभावे, एमि उभयमावे पोग्गलेहिं इंदियं पूरियं पूरितं इंदिएण विसयपडिबोधकपमाणा पोग्गला गहिया, एवं उभयसामत्यतो विष्णाणभावो भवतीत्यर्थः, हुन्ति करेइन्ति वंजणे पूरिते तं अत्थं गेण्हइति उत्तं भवइ, एस एकसमयितो अत्यावग्गहो, तं पुण किंपतारं १, उच्यते, णो चेवणं जाणति केव एस सद्दादी, तक्काले सामण्णमणिद्देसं साइवि, से ण साइत्तिजाणइत्ति वृत्तं भवद्द, किं च सरुखनामजातिगुणकिरियाविमुहं तमवि नाख्येयं गृह्णातीत्यर्थः, एत्थ पडिवोदकालातो पुव्वं ' वंजणोग्गहस्स' परूवणति कया, बंजप्योग्गहस्स परतो हुति करेतित्ति, तंमि परिबोधकाले एगसमइओ अत्थावग्गही संभवइ, ततो से कमेण ईहावायधारणातोति, इत्थ पडिबोधगमगदितेहिं वंजणोग्गहस्स भिण्णकालता फुई दंसिता, पर आइ-साधु चैव पडिवोधमलगदितेहिं वंजणत्थावगाहाण भेदो दंसितो, जागरतो पुण साइअत्थे पडुप्पण्णे ण वंजणोग्गडो लक्खिज्जइ जतो पुव्वमेव साइअत्यविण्णाणमुप्पज्ञ्जते, भणितं च सुत्ते ' से जहा णामए के पुरिसे' इत्यादि, अथवा इमस्स सुत्तस्स इमो संबंधो, पर आइ-सरूत्रनामजातिद्रव्यगुणकियाविकल्पविमुखं अनाख्येयं गृह्णाति तं विरुध्यते, कुतः ?, यतः सूत्रेऽभिहितं ' से जधा णामए' इत्यादि सूत्र, वा इतो संबंधो-सुप्तप्रतिबोधकमलगदितेहिं वंजणत्थावग्गहाण भेदे दक्षि इह पुण सुत्ते महगदिवेण वा वंजगत्थावग्गहाण भेदो दंसिज्जइ 'से जहा णामए' इत्यादि सुत्तुच्चारणसवणाणंतरमेव पर आइ-पत्थ सुत्ते वंजणत्थवग्गहाण उक्खिज्जंति, जतो अव्वन्तं सदं सुणेइत्ति भणितं समेत्तेऽवधारिते पढमको अवाय एव लक्खिज्जति, आयरियआण तुमं सुत्ताभिवार्थ जाणसि, णणु अव्वत्तसहसवणा ते अत्यावग्गणं कसं जतो अव्वतमणिदेसं सामण्णं विकप्परहियंति भण्णइ, तस्स य पुखं वंजणावरगणं भवितव्यं, जतो एतम्गाहिणो सोतादिइंदियरस अत्थोवमाहो वंजणावग्गहमंतरेण ण भवइचि नियमेण सो, सो य
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प्रतिबोधकमल्लकदृष्टान्तौ
॥ २९ ॥
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं R६-३७] / गाथा ||६१-८०|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
ॐ
श्री
प्रत सूत्रांक [२६-३७] गाथा ॥६१
८०||
सकाळमुहुमत्तणवो उप्पळसतपत्तछेन्जविट्ठतेण ण लक्खिज्जहाति, चोरक आह-जाति एवं तो सुत्ते भाणितं से तण सरेति लग्गदिते तं की, सच्चते, अवनहेहानन्दाचूणाच तेणं सरेति गहिपति वक्ता-सूत्रकारोऽभिवते, इतिकरणगिरेसा, से सम्बबिसेसविमुई शब्दमात्रमुक्तं भवति, णो ष ण जाणति टा पाय॥३०॥
शके वेस सद्देत्ति, ण तु शब्दोऽयमित्यर्थः, कम्हा , उच्यते, एकसमयतो अत्यावग्गहस्स, किंच-पण्णवंतो व पण्णवगो संववहाराभिप्रायतो
तेण सदेति लग्गदितेत्ति पूते ण पोसो, जवि वा शब्दोऽयमिति बुद्धी भावतो अवातो चेव भवे तत्व, कथं', उकयते, णो जतो अस्थावग्याहमेत्ते काले साइति बिसेसणाणमयि, अवातमितिसभितो सदोऽयमिति बुद्धी हवेग्जा, तो फुटबवानोऽयं एव हवेज्जा, णो य तकाळे अवातो इच्छिम्जा, जवो अत्यपरिच्छेतो असंवेक्जममयकालितो भवति, अण्णे पुण आवारिता एवं सुतं विसेसस्थावरगहे भति, अन्वतं सा सुणेन्जत्ति एस विसेसत्यावरगहो, तेण सरे उगहि तेत्ति एतं मुत्तसं सामण्णस्सात्यावमाहस्स दंसतं, कथं १, उच्यते, जवोटू भण्णइ-जो चेवणे जाणइ केव एस सरेति, संखसंगणादिकरवळाविकोऽस्ति, एसोवि अविरुद्धो मुत्तत्यो, ततो अत्यावह समयाणतरं पढमसमयादिसु ईई पुण पविसइ, ईहत्ति केह. संसर्व मण्णंति तं ण भवति, संसर्यसस्स अण्णाणभावलणतो, माणाणसोय हाति, थाइ-को पुण संसयेहाण विखेसो ?, उच्यते, यह जं थाणुपुरिसाविअत्थेसु पविट्ठ चितं तदत्य परिचोदतेण पव्हियं सुताव चेवो संसवो भण्णति, वं प अण्णाण, जे पुण हेतूपवत्तिभाषणेहिं सम्भूयमत्थस्स विसेवधम्माभिमुहालोयति सम्भावस्स अवगमविमुदं असमोहमविफळमत्थपरिच्छेन चित्तं तं हा भण्णति, अणुत्ति वाहातो पच्छाभावे असंखेन्जसमा परिणामतो होवयोग अविच्छेयलणतो अंचमुचकालं हा इति, ततो विसिहमदणाणखयोवषमभावत्तणतो तमुहृत्तकालं ईहति, ततो विभिडमाणाणखयोवसमभावतणतो वमुच| कालम्भंतर एव जाणवि अमुए एस सदो संखसंगारिणत्ति, दुरवबोधत्तणतो पुण अत्थरस अविसिहमाणाणखयोगसमक्षणतो का होवयोगे
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
...............मूलं R६-३७] / गाथा ||६१-८०|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [२६-३७]
गाथा ||६१
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| अंतोमुत्ते कुत्ते अणवगतत्यो पुणेवि अण्णं तमुहत्तं ईहते, एवं ईहोक्योग ऽविच्छेयसंताणतो बहुचवि अंतमुहुने दिना, प दोबो, ततो अवाहेहामन्दीचूणाकाहाणतरं वातो. सोय सहाइअत्थपबुष्पण्णस जे परधम्मा तेसु बिमुहस्स सधम्मे य अवधारयतो ण एस संगजो णिमधुरंगभीरत्तणतो संखसदोऽयमिति, एवमवगतत्थो असंखेम्जसमइतो उकोसतो एगंतामुहुत्तिते यो अवबोधो यो एस अस्थपरिच्छेदो सो अवाओ भवति, ततो
धारणा अवाताणतरं धारण परिस इति, सा य धारणा जहण्णतो असंखेज्जसमते अविचुतीए तमस्थं धरंति, जयोसतो अंतमुहुचो, अणुक्योगतो पुण | समत्वं विस्मृतं पुणोवि संभरे इति धारणा, एवं सा संखेग्जवासाउयाण मुहत्तदिवसादिकालसखाप सिम्जे कालं हवेग्ज, असंखेजदासाव्याणं पुण असंखेज काळ हवेग्ज, एवं चाखिदिएवि रूवं माणितब्वं वंजणावग्गवाज, घाणरसफार्सिविण्मुवि जहा बोइंदिते तथा सव्वं भाणितम्ब, संवेयेजत्ति, एते महादि इंदियत्ये पदुष्पपणे दियं स्वं खं इंदियत्वं आअखयोवसमणुरूवं मुभमभं वा वेदेजति, एते
साई चक्खुईदियवज्ज सेसिदिदि पत्तमिवियत्वं प्रायसो इहमणिहूँ वा स्वं आत्मानमनुगतं वेदनं बेवते न सरीरेण अनुपलभ वा वेश्य-13 | तीत्य:, फासिंदिपत्थं पुण स्वं अनुगतं सरीरानुगतं च दुधावि फुडं वेदेज्जइति संवेदेश्नति, अवो भणितं परं मणसो सुविणमि सदातिविसतेसुअवगाहावयो यन्या, दियवावाराभावे मणो माणसिते इ६ सुत्तेण णियसण मणे, से जचा णामए इत्यादि मु कम्यं, सुविमि दिई अन्वतं सुमरा, प्रनियोधप्रथमसमये सुविणमवि संभरतो अत्यावरगहो, तस्य प्रथमावस्थायां व्यजनावमा, परवोऽज्य हादिशब्दः। पूर्ववत्, जमातो मणिवियत्यवावारेवि मणसो युज्यते पंजणावगहो, उपयोगस असंखसमयचणओ, वयोगद्वाए य प्रतिसमयमणोरम्बपाहणओ मणोदव्याणं वंजणववरेसत्तो समय व असंखेग्जइमे मनसो नियमाथै ग्रहणं भवे, तस्य च प्रथमसमयप्रवियोषकाखोऽथोवमहा तस्य पूर्वमसंक्येयसमयरत व्यजनावमहा शेषमीहादि पूर्ववत् , सीसो पुरुछा-नग्गहादीण उवकमो, एगवरअभावे वा कि सराविवरथुपरि
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...............मूलं R६-३७] / गाथा ||६१-८०|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [२६-३७]] गाथा
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अच्छेतो व भवति', आचार्याह-आमं न भवति, अत एव च कमे नियमः, जम्हा णो अणहिग डर, तम्हा पुवं उग्गहो, जम्हा अणीहितंद्र नन्दीचूदाणोऽवगच्छइ ईहाणतरं तम्हा अवातो, जम्हा य अणावायं ण धारिजइ वत्थु अवायाणतरं तम्हा धारणा, जम्हा य एस क्रमणियमो तम्हामिमातः ॥३२॥ PI सव्ये आभिणियोधियणाणवगमा णियमा एव भवंति, अत एव कारणा सव्वे अवगहादयो महणाणभेदा भवतीत्यर्थः
तं च मतिणाणं समासतो चउबिहेत्यादि (३७१८४) सुनं, तं च मतिणाणं खयोवनमरूवतो एगविधपि होतं तभेतत्तणवो से णाणभेदा बम्बादिया से भवंति, दब्बतो वत्तव्बो, गदि वयणालंकारे, देसीवयणतो वाणं, अथवा अपादानते पंचमी विभकि, तत्थपायाणभावातो वम्वतो गं, एवं आभिणिबोधितणाणी लभति 'आदेसेण' इत्यादि, इहादेसो नाम प्रकारोऽसौ त सामण्णतो विसेसतो य, तत्य दव्व० जातिसामण्णावेसेणं सव्वब्वाणि धम्मत्यिकायादियाणि जाणति, विसेसदब्वेवि, जधा धम्मत्यिकायो धम्मत्यिकायदेसे धम्मत्थिकायस्स पदेसेत्यादिके य जाणति, भावे य जाणति जधा मुहुमपरिणता अवि सतत्था उप्पण्णवण्णादिया, ण पस्सइत्ति सम्बे साम-16 ण्णविसेसा, वसविहे धम्मादिए, चक्खुदसणेण रूवसहाइतो केसि पासइत्ति क्त्तव्वं, अहवाऽऽदेसो सुत्र, तेणादेसतो सब्वव्वे जाणति इत्यादि, चोदक आह-जति सुर्व कथं मतिणाणंति', उच्यते, सुतोवलद्धरयेसु अणुसरतो तब्भावणबुद्धिसामथओ सुतोवयोगनिखक्यावि मतिपच्चवा-1 चिण सुवावेसेविण (सु) ज्जइ, तो खेपि सामण्णविसेसादेसतो, तच्च सामण्णतो खेत्तमागास, चेव सव्वगतममुत्तं अवगाहलक्खणं सव्वं
जाणंति, विसेसोवि लोगुहतिरियाइविसेसे खेत्त जाणति, ण जाणइ य, केवि क्षेत्र न पश्यत्येव, कामेषि आदेखो सामण्णबिसेसतो, तस्यका लाभामण्णतो इस भण्णइ, ण य परिसणवो, णेव या सुतमणुसुतं वा कलासमूह, सच सव्वाणि वा कलेइचि कळणं वा करितमेवंविधं सव्वकालेला
जापति, विसेसादेसे समयावलियादि ओसप्पिणिमादि वा विसेसकालो, के य जाणति न जाणति देवि, कालं न पश्यत्येव, भावे इति भवन
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“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.. मूलं [२६-३७] / गाथा ||६१-८०||
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र - [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
भूविव भावः एवं सव्वभावे, भावे जातिमित्तसामण्णतो जाणति, विसेसादेसतो जीवाजीवभावे, तत्थ णाणकसाबादिया जीवे, अजीवे वष्णपञ्जवादिए अणेगा बीससयजोगपरिणता, एत्थ विन्नाणविसयत्था जे ते जाणति पासति, सेसे ण याणइ, सम्बभाषे ण पावइति मत्तिणाणस्स असध्यण्णेयविसयत्तणओ, 'उग्गह ईह' गाथा (३७५-१८४) 'अत्थाणं' गाथा (७६-१८४) 'उग्गह एक' (७७-१८४) | गाथा 'पुडं सुणाई' गाथा (#७८-१८४) 'मासा' (७९-१८४) गाथा ईहा गाथा (*८०-१८४) एताओ गायावो अहा पेढियाए तझ मणियव्वा इति सेतं मतिणाणंति, एस आदीए जा पुच्छा तस्स सम्बद्दा सरुवे वणित इमं एरिसंति दंसगं णिगमणवाक्यं से तं मतिणाणंति, अथवा सीसो पुच्छति जो एस वणितसरूवेण ठितो णाणावसेसो सो किं वत्तयो, आचार्याह-'से' इति णिसे संति- पुब्वपण्छामरिसणे तं एतत् मविणाणंति स्वनामाख्यमित्यर्थः, अहवा सेचि अस्य व्यंजने लोपे कृते एवं मतिणाणंति भणति, एतावत् मतिज्ञानमित्यर्थः ॥ इयाणि सव्वचरणकरणक्रियाधारं जहुदिहं कमापण्णं सुनणाणं भण्णइ
'से किं तं सुतामित्यादि, ( ३८-१८७ ) तं च सुतावरणस्वयोवसमक्षणतो एगविर्धपि तं अक्खरादिभावे पच्च अंगवादिराति| चोइसविदं भण्ण, तत्थ अक्सरं तिषिधं, तं० णाणक्खरं अभिलावक्खरं वण्णकखरं च तत्थ णाणक्खरंखर संचरणेन क्षरतीत्यक्षरं न प्रच्यवते अनुपयोगेऽपीत्यर्थः, अभिलावण तो तं च गाणं से सवो चेतनेत्यर्थः, आह एवं सव्वमपि सेसं तो णाणमक्सरं, कम्हा सुतं अक्खरमिति भण्ण ?, उच्यते, रूडिविसेसतो, अभिलावणा अक्खरं भणितो, पंकजवत् एवं ताव अभिलावहेतुत्तणतो सुतविण्णाणस्स अक्खरया भणिया, इयाणिं वण्णक्खरं वणिज्जइ-अणणाभिधिता अस्था इति वात्थस्स वा वाच्यं चित्रे वर्णकवत् अहवा द्रव्ये गुणाविशेषवर्णकवत् वयेऽभिप्यते तेन वर्णाक्षरं एत्थ सुतं से किं तं अक्खरं' ( ३९-१८७ ) एत्थ सुतं, तनाक्षरं त्रिविधं सणक्षेत्यादि अक्खरसहं गुणतो
अथ श्रुतज्ञानस्य वर्णनं आरभ्यते
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मतिः श्रुतं च
॥ ३३ ॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३८-४३]
गाथा
॥८१॥
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श्री नन्दी चूर्णी
॥ ३४ ॥
"नन्दी"- चूलिकासूत्र -१ ( चूर्णि :)
.. मूलं [३८-४३] / गाथा ||८१||
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र (NV), भूमिकासूर [१] 'नन्दीतूनस्य चूर्णि
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भासतो वा अक्खरसुतं, तत्थक्खरलंभे अभिलावे या दव्वसुतं खयोवसमद्धी भावसुतं तच्चाक्षरं त्रिविधं सण्णक्षरादि, तत्थ सण्णक्खरं अक्खरागारविसेसो, सो य ब्रह्मादिनिविविधाणो अणेगविध आगारो, तेसु आगारे जन्हा अकारे अकारस्सण्णा एव भवति, एवं सेसेसुवि, तम्हा ते सणक्खरा भणिता, जहा वहं धनागारं दब्बे बगारसण्णा उप्पतीत्यर्थः, व्यक्तिकरणं बंजणं, व्यभ्यते अनेनार्थ इति वा व्यजनं यथा प्रदीपेन घट:, व्यंजनं च तदक्खरं च व्यजनाक्षरं, सचेद्द सर्वमेव भाष्यमार्ग अकारादि इकारंतमर्थाभिययंजकत्वात् से सितमेव अक्षरं अर्थाभिव्यंजकं भवति जहा पट इत्यादि, छद्धक्सरंति अक्खरलद्धी जस्सत्थि तस्स इंदियमणोभवविष्णाणतो इह जो अक्खरखाभो उप्पज्जइ तं द्विक्खरं तं च पंचविधं सोतेंदियादि, जधा सोइंदियळद्वितो सदं सोतुं संख इति अक्सर दुतलाभो भवति, एवं स द्विअक्सर भाणियब्वं, इ६ सण्णावंजनक्खरे दोषि दव्यसुतं संगदितं, सुचविण्णाणकारणत्तातो, छद्धक्खरे तु भावसुतं खद्वीप विष्णाणमयत्क्षणतो, भवणा वा । इयाणि अणक्खरसुतं अक्सर सहसवणतो कारणतो वा अणक्खरसुतं भवति, तं च अणेगविहं इमं- 'ऊससितं' गाहा ( *८१-१८७) पूर्ववत् कंठ्या ।। इयाणि सग्णिमसण्णिस्स सुतं,
'से किं तं सण्णीतं इत्यादि ( ४०-१८९ ) तत्र संज्ञाऽस्यास्तीति संज्ञी, सो य सण्णी तिविधो काढितोवदेसेण इत्यादि चोदक आहजइ सण्णासंबंधयो सण्णीतो, सव्वे जीवा सण्णी जतो एगिंदियाणवि दस आहारादिसण्यातो पढिज्जति, आचार्याह-रद्द ओहसण्णा थोबचणतो णाधिक्रियते, जहा जो करिसावणेण घणवं भवइति, सेसाहारासण्णांदितोषि भूयिष्ठतराषि णाधिक्रियते, अणित्तणतो, जद्द बाइंडसंठिते ण मुत्तत्तणतो रुवयं भण्णइ, एते अधिकत सण्णाण अणुवणयदिता, इमो उवणयदिहंता, जधा यदुषणो धणवं पसत्यणिव्यन्तियदेहमुचित्तणतो व स्वयं भण्णति, तथेह महती सुभा य संज्ञाधिक्रियते सा य संज्ञा मनोविज्ञानं तत्संबंधारपण्णीत्यर्थः उक्तः प्रसंगः,
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श्रुतज्ञानं
॥ ३४ ॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[३८-४३]
गाथा
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श्री नन्दीचूण
।। ३५ ।।
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
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.मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूर (NV), मूनिकासूर [१] 'नन्दीनस्य चूर्णि
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प्रकृवमुच्यते-कालियोबदेसेणंति, इहापि पदलोवो दट्ठव्वो, तस्सुच्चरणा दीहकाळितोवर सेणंति वत्तव्वं दीहमायतं कारितोति बिसेसणं, कस्स ?, उषदेवस्त्र, जहा जिणभवणमुदुत्तकाळितो दीहकाळितो वा पूयामंडवो कयो, वहा दीहकाळितोयदसेति भणितम्बो, उवदेक्षणमुवदेसो, उवसति वा पण्णवणत्ति वा परूवणति वा एगठ्ठा, दीदकालितो देसो तेण दाइका जितोवरसेणं जस्स सण्णा भवति सो | आदिपदलोपातो काळितोवतेद्वेणं सण्णीत्यर्थः अथवा कालियं आयारादिसुतं तदुक्तेसेणं सण्णी भवति, सोय असरिसो जो अतीतकाले सुवरीदेवि इदं तदिति कृतमणुभूतं वा सुमतेि, वट्टमाणे य इंदियोईदिएण य अण्णयरं सहाइअत्यमुवलद्धं अण्णयवइरेगधम्मेहिं इहवेतिईदा तस्सेव परधर्म्मपरिगो सधम्मणुगमभावधारणे व अवोहोत्ति, अवातो विसेसधम्मण्णेसणं मगाणं जहा मधुरगंभीरक्षणतो एस संखसद्द इति, श्रीमंसमुपयोगभवा णिच्चमणिच्च इत्यादि, गवेसणा जो अणागते य चिंतयति, कई वा तं तत्थ कायव्यमिति, अण्णोष्णालंयणानुगतं चितं चिंता, आतपरहत्या य हिताहियविमरिसो वीमंसा, अथवा किमेतति इंदा, णिच्छयावधारितो अत्यो अबोधो, अभिसइयत्थस्स मणोवयणकापहि जोगो मग्गणा, अभिलसियतत्थे चैव अपडुच्चमाणो गवसणा, अगधा संकप्पकरणं चिंता, द्वंद्वमर्थे तु वीमंसा, जहा चिमणिकचं हितमद्दिवं दूरं कृशं थोयं बहु इच्चादि, अथवा संकप्पतो चेव तिर्विधो-आमरिसणा वीमंसा अहवा अपोहोच अवादो सेसा ईद्दा एगडिया, जेणेव अण्णयर विकल्पेण मणेोदब्बमणुगतं चित्तं वा वसति एस कालितोवदेसेणं सष्णिचि, सो य अणंते मणोजोगे खंधे घेतुं मणेति एस द्विसंपण्णो मणविष्णणावरणखयोव समद्देतुत्तणतो व जदा चक्खुमतो पदीवादिष्पगासेण कुडा रूवोवली भवइ तहा मणस्त्रयोषसमलद्धिमतो मणोदव्यपगासेण मणोछट्ठेदि इंदिरा कुडमत्थमुवल भतीत्यर्थः काखितोवदेससण्णी, विवक्खे असण्णी, जद्द वेद भविसुद्धचक्नुमतो मंदमंदप्पासा रुबोवलद्धी असुद्धा, एवं संमुच्छिमपंचिदियस्स विसष्णस्स उच्को खखयोबसमेवि अप्पमाणा, दव्वग्गण
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संश्यसंशिधुवं
।। ३५ ।।
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
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गाथा
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अनुक्रम
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श्री
नन्दी चूर्णी
॥ ३६ ॥
छन
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.. मूलं [ ३८-४३] / गाथा ||८१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४४ ], चूलिकासूत्र [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
सामत्यपरिणामत्तणो य असण्णिणो अविसुद्वमप्पा य अत्योपलब्धीत्यर्यः, ततोऽविमुद्धा चतुरंदियाणं ततो तेइंदियाण ततोऽविसुद्धा बेइंद्रियाणं मुत्तुवती, जस्स इंदिया स तथा, तेसु अ बगा ( रसा) दिसु पवत्ततो विगादियाणवि, आदेसंतरतो मणोदम्बम्महणं असुद्धमप्पत्तणतो य भणियं, सो य मणो तेर्सि चैव अमणो ददृब्वो, असुद्धत्तणतो अशीलवत् अधनवद्वा, तया बेईदिएहितोवि समीवातो अव्यत्तत्तरं विष्णाणं जधा मत्तमुच्छियविभावितस् य तथा एगेंदियाण सब्बहा मणाभावो विष्णाणं सव्वजहणं काढितोदेसखण्णिणो, एते समुच्छिमादयो सम्वे असण्णीणो भवतीत्यर्थः, इदाणिं हेत्वदेसेणंति-हेतुः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरं, उवदेसेणंति पूर्ववत् हेतुत्ततो सण्णी भवइति, जेण देतुओवदेसेणं सण्णी भवति, जस्सत्ति जीवस्स णं वा अलंकारे देखीवयणतो वा, आत्मस्वरूपप्रदर्शने बचनोपन्यासे वा, अव्यक्तेन विज्ञानेन अभिसंधाय पूर्व ततः विज्ञानस्यैव करणशक्तिः करणं क्रिया शक्ति:-सामर्थ्य अथवा करणे शक्तिः करणशक्ति: अथवा करण एव शक्ति: करण| शक्तिः तच्च अभिसंधाकरणं संचित्य संचित्य इहेसु विसयतच्वत्थुसु आहारादिसु प्रवर्तते, अणिट्टिसु तु णियत्तंते, एवं सदेद्दपरिपाटणदेवो पवति, ते य पायें पट्टणकालमती याऽणागतका लावलंबि नो भवति, उस्सण्णमेयं, केचित्तु सीताऽणागतकाळावलंबिणोवि वं भवति, सुषि आगतो सुडुमो संताणचोदको अविस्मरणहेतू दव्बो, एवं तेसि विकलैंदियाण संमुच्छिमपबंदियाणं हेतुवायसण्णा भणिता, ते पडुच्च असण्णी जे णिचिट्ठा इहाणि विसयविणियदृवावारा मत्तमुच्छियविसोपमुत्तादिसारित्थवेयणट्टिया पुढवादि एनिंदिया इत्यर्थः, इयाणं दिट्टिवातोवदेसेणंति, दृष्टिदेशेनं वदनं वादः उपदेशनमुपदेशः इत्यनेन दृष्टिवादोपदेशेन संशीत्यभिधीयते, सो य सम्मदिट्टिणी तस्स सम्मदिट्टिणो सणिस्स जं सुतं तेण सण्णिसुवखयोवसमभावेण जुत्तत्तणतो दिट्टिवातसण्णी लम्भति, अहवा दिवायसणित्ति मिच्छ तस्य सुयावरणस्स य वयोवसमेणं कतेण सष्णिसुतस्स छंभो भवति, एवं सो दिवायसण्णी लम्भइ, तस्स सुतं दिविाताण्णवं इत्यर्थः,
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संश्यसि श्रुतं
॥ ३६॥
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आगम
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [३८-४३]
गाथा ||८||
॥३७॥
लातं खयोवसमितभावत्थं सम्मदिट्टि पडुच्च मिच्छदिट्ठि असण्णी भणितो, सो तं मिच्छत्तस्सुदयतो असणी भवति, तस्स सुत्वं च सुयभण्णा- संश्यसजिIDIणावरणखयोवसमेणं लम्भति, एवं विहिवायअसण्णीत्यर्थः, तस्स सुतं दिढ़िवातअसण्णिसुतं, एवं दिद्विवाते सण्णिअसण्णिसु मुतखयोवसम-10 श्रुत | भावसुतं खत्तव्वं इति । पर आइ-खयोवसमभावठितो सणितणतो लक्खिज्जइ, खाइगभावठितो केवलं किण्ण सणिति', उच्यते, अतीवभा
वसरणतणतो य पदुष्पण्णमाकाण पबुज्मणतो अणागतभावचिंतणतो य सणित्ति, जिणे अणुसरण पत्थि, जिणसा सम्बदा सम्वथा सम्वत्थ का सन्वभाव जाणतीत्यर्थः, तम्हा केवली पोसणीणाअसण्णी भवति, पुनरप्याह पर-इह मिच्छदिहिणोवि केवि हिताहियणाणवा वारसण्णास-11 | जुवा दसिंति, किं ते असण्णिणो माणिया, उच्यते, तस्स जा सण्णा सा जतो कुत्सिता, जहिह कुत्सितं वयणमवयणं कुत्सितसीलमसील | वा, तथा तस्स सण्णी कुत्सितवणतो असंज्ञैव दवा, अण्णं च तस्स मिच्छत्तपरिग्गहतो णाणमण्णाणमेव दहब्ब, भाणितं च सदसदविसेसणा०
गाथा कंठ्या, एवंपि ते असण्णी, आह-एगिदियाणं ओहसण्णा तदप्पत्तातो ते असण्णी चेव, तेदितो दिया जाव समुच्छिमपंचेंदी पतोस है दूरतरसण्णाप हेतुवायसण्णी भणितो, कालितोवदेसं पुण पडुच्च तेचि असणी, विष्णाणाविसिद्वत्तणतो, दिष्टिवातोवदेस पुण पहच्च कालितो-18
बदेसावि असण्णी, अविसिट्टत्तणतो चेव, अतो णजइ दिहिवायसणी सबुत्तमो, सुत्ते य उवरिढवितो, जुत्तमेतं, कालियहेतुसण्णाणं पुण | उक्कमकरणं, कम्हा ?, उच्यते, सव्वत्य सुचे सणिग्गण जे कतं तं काडितोबदेससण्णिस्स, अत: सव्वं तत्संव्यवहारख्यापनार्थ आदी कालि& गगहणं कृतमित्यर्थः, किंच-सण्णिअसण्णीणं समनस्काऽमनका इति कमावर्शितो भवति, अविकलेंद्रिया अमनस्का इति, अल्पमनोद्रव्यउद्दनसामर्थ्य इति, वियते पुनः मनस्तेषा, यस्मादुक्तं "कृमिकीटप गायाः, समनस्का जंगमाभितभेदाः । अमनस्का: पंचविधाः पृथिवीकायादयो
॥३७॥ जीवा ॥१॥ इति, भणितं सण्णिअसण्णिसुतं । इयाणिं सम्ममिच्छासुतं, तत्थ सम्मसुतं 'से कितं सम्ममुते' त्यादि (४१-१९२) जे इति
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[३८-४३] गाथा
॥८१॥
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श्री नन्दीचूर्णी
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“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.. मूलं [३८-४३] / गाथा ||८१||
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अणिस्स गहणं, मंदि पकचक्खभावे, वंदना णमंसणा पूयणादि अरहंतीति अरहंता, अरिणो वा हंता अरिहंता, वो गुणसंपदा विसेसणं, भगवंतेहिं धम्मजस अत्थलच्छीपयत्तविभव पते अप्पयत्था भगसण्णा जेर्सि अस्थि ते भगवंतो, केवलणाणदंसणा उप्पज्जंति, ते व जुगवं समुप्पणे सम्बमणागतद्धा पडुप्पण्णसरूवा णिरावरणा सब्वगुणपण्जव विसेस सामण्णविसेसभावे जुगवं पवचे णाणदंसणधरा, तेहिं णाणदंसणेहिं तीयद्वारा सम्बव्वगुणभावे आणति, तथा पप्पण्णे अणागते व जायति, कालतो दव्वभावे य पडुप्पण्णकाळे जाणतीत्यर्थः, हिशब्दो सर्ववचनेषु कारणार्थी बहुवचनप्रतिपादकः, 'तेल्लोक' ति विष्ण होगा तेल्लोकं ते य उद्धऽभस्तिर्वक्, अत्र तन्निवासिग्गहणं, भवनवासिनो अधोलोगणिवासी षणयरजोवितिरितच मथुस्सा तिरियलोकनिवासी ऊर्ध्वं सर्ववैमानिका एवं प्रायोवृत्त्या अधोलोइयम्गामसंभवाद्वा, वहिर्तति कहितं प्रेक्षिर्त निरीक्षियं दृष्टमित्यनर्थान्तरं त्रैलोक्येन महिला मनोरथदृष्टिरष्टा अथवा गोशीर्षचंदनादिचर्चिता, त्रैलोक्यस्य मनोईिवा महिता, अथवा महिमाकरणेन महिया, सा च महिमा महाजनसमूहेन गीतनृत्यनाटकानेकप्रेक्षणकरणविधाने अणलियमणवण्जसम्भूतत्थविसावयावयणेहिं धुती पूइया, अथवा अन्यान्यवि वयप्रसिद्धा होते एकार्थवचनाः प्रवति, विसरा तिसहपवादिसते अभूतस्थरूने वज्जेऊण इमं अहत्यं दुवासंगं पणीतं जं पज्जवणयव्वियातो भूतत्येण वा जुत्तं प्रकरिसेण पीयं प्रणीयं, दुबालसंग इत्यादि कंठ्यं, इहमंगगतं आवारादि अजंगगतं आवस्सगादि, एवं सव्वं दब्बतिणयमतेण सामिणा असंबद्धं पंचत्थिकाया इव निच्च सम्मसुतं भण्णति, अथवा एतं चैव दुबाळसंगादि संबद्धं भणियं सम्मसुतं, कई तं चैव सम्मसुर्य मिच्छतं वाई, उच्यते, सम्मदिस्ति सम्म सुर्य मिच्छास्त्र भिच्छसुर्त, इमं चैव सुतपरिमाणतो नियमिज्जइ, चोहरसपुब्बी तरत्र सामा इयादि बिंदुसारपज्जब साणं सम्बंधि जिबमा सम्मं सुतं ततो उम्मत्थगपरिहाणीए जाय अभिष्णदसपुथ्बी पताणनि सामादियादि सर्व्वं सम्मसुर्त सम्ममुत्तत्तणतो चैव भवति, मिच्छ्णुभावसजतो अभिनवसपुत्रे ण पावड, दितो जधा अभव्या भावाणुभाव
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सम्य
ग्मिध्याश्रुते
॥ ३८ ॥
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"नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [३८-४३]
गाथा ||८१||
अते
बोलणतो ण सिग्मतीत्यर्थः तेण परंति अभिनवसपुष्वहितो हेडा ओमत्थगपरिवाणीए आव सामाइयं ताव सव्वे सुपठाणा सामिसम्मगुणतणतोसम्यनन्दीचूर्णी सम्मसुतं भवति,ते व सूतडाणा सामिमिच्छत्तगुणवणतो मिच्छमुतं भवति॥
| ग्मिथ्यावाणि मिच्नसुत-से किं तं मिच्छसुतं' इत्यादि (४२-१८४) अण्णणितहि अण्णाणं-अबोधो वेण इतो अणुगतेत्यर्थः, मिच्छाविष्टितेहि मिच्छति अनृतं दिवित्ति दरिसर्ण मिच्छादिहिणो अणुगतहिति भणितं, स इत्यात्मनिर्देशः, ॐवोऽभिप्रायः, तथा बातत्येण वा अत्यस्त जो बोधो स बुद्धिः, अवमहमति उत्तरत्र दाविधिकप्पा, सम्वे मती, अहवा णाणावरणवयोवसमभावो खुबी, सो पेव नतो मणोवश्वणुसारतो पवत्ता ततो मती मण्णा, एवं आस्माभिप्राय: बुद्धिः मतित्ति पत्थुतं, विविधकल्पनाविकल्पितं रचितं, तकच मारधादि जाव पचारि य बेदा संगोवंगा, सब्वे ते लोगसिद्धा, लोगतो व तेसि सरूवं आणितम्ब, एतेसि सव्व भिच्छसुतं भणितम्ब, एवंसि सम्ममिच्छसुवाविकप्पे चतुरो विकप्पा भाणियन्या इमेण विधिणा-सम्मसुतं व सम्मसुतं,मिच्छविडियो चेव मिच्छसुतं,मिच्छसुतं सम्मविद्विणो सम्मसुतं, सम्मसुयं मिच्छादित &ाद्विणो मिच्छसुयं वइच्चवाई तं सम्मदिद्विस्स सम्मतपरिम्महिताई सम्मसुतं,पत्थ सुते पढमतइयविकप्पा, ताइसि सम्ममिच्छमुताई, अथवाद मिच्छताईचेव, सेस कंठ्यं । मिच्छदिहिस्सच्चादिसुने विजयचउत्थादिविकप्पा ददृब्बा, तस्य पदमविकप्पे सम्मसुतं सम्मत्तगुणेण सम्म परिणामयतो सम्मसुतं चेव भवति, विवियविकप्पे जहा संबसंजुयं खीरं पित्तजरोदयतो ण सम्मं भवति तथा मिच्छत्सुक्यतो सम्मसुतो मिच्छाऽभिणिवेसतो मिच्छसुतं भवति, वितियविकप्पे तिष्फलादिमाणिपि उवउत्तं सवकारिककारत्तणतो सम्म भवति, तथा मिच्छभावोवलंभातो सम्मसुते रढतरभावुप्पायकरणतो तं से खम्मसुतं भवति, चरिमविकप्पे मिच्छतं तं व मिच्छाभिणिवेसेन मिच्छसुर्य व भवति, तस्स मा मिच्छदिद्धिको त घेव मिच्छसुतं सम्मपुतं भवति, कम्हा एवं मण, उच्यते, परिणामविसेसतो,जम्हा ते मिच्छविडियो तेहिं व
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आगम
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [३८-४३]
गाथा
||८१||
18 पुग्यावरविकोहि मिच्छतभणितेहिं चोदिया भणिया समाणा इति संतः, चोदणाणतरं आत्मकलावस्थायाः संत इत्यर्थः, पुवं जं सासणं I नन्दीचूल परिवण्णो तं मे सपक्खे तमि जातदिट्ठी तं वर्मेति परिचयति छवित्तिबुत्तं भवति, जम्हा एवं तम्हा तं पुम्वमिच्छसुवं सम्मसुत में भवति । ॥४०॥
पर आइ-तत्तावगमसम्भावसमाणसम्मत्तसुताणं को पदिषिसेसो जेण भण्णति सम्मत्सुतपरिग्गहिवाई सम्मसुतं, उच्यते, जहा गाण-IN ४ दसणाणं अवबोधसामण्णभेदा तथा सम्मसुताणपि भविस्सति, कथं , उच्यते, जहा बिसेसाणं अवबोधिअवातकरणे गाणं अवगहाओ चेत्र द सणं तहा इम, तत्ते वा जा रूती तं सम्माचं, तरथेव जे रुचिक सुतं, एवं मिच्छत्तपरिमाहेऽवि वत्तब्वं ।। इदाणि सादिसपज्जवमाणोPIसे किं तं सादीय' (४३-१९५) इत्यावि, इह पज्जायठितो वो िछत्तिणितो तस्स मतेणं दुबाळसर्मपि सादिपज्जवसाणंति कंठ्यं, जहा। ६ णरगादिभवमवेक्खतो जीवो, दश्वठितो पुण अबोच्छित्तिपतो तं तस्स मयेणं दुवालसंगपि अणादिअपञ्जवसाणं च, त्रिकालावस्थायां जहा पंच-| थिका यब, एमेवऽत्था बव्वादिचउर्क पडुच्च चिंतिजा, तत्थ दब्वत्तो सम्मसुतं एतमि पुरिसे सादि, जं पढमताए पढा, सपज्जवसाणं| देवलोगगमणतो गेलण्णतो वा गट्ठो पमादेणं वा केवलणाणुप्पत्तितो वा मिच्छादसणगमणतो वा सपज्जवसाणं, बहवा एगपुरिसस्सेया PI सादिपज्जवसाणतणतो, दव्यतो चेव बहवे पुरिसे पदुरूच अणादिअपज्जवसाणं, अण्णोण्णठितिमणाइविच्छेयत्तणते। मणुयत्तण व जहा खेत्ततो भरहेरवतेसु तित्थगरधम्मे संघादियाण ठप्पायवोच्छेयत्तणतो साविपज्जवसाणं, महाविदेहेसु अविच्छेदत्तप्पो, कालतो ओसप्पिणिए विसु उस-11 प्पिणिए दोसु सो जंतं जाओसरिपणिणोउस्सप्पिणि तइयं महाविदेहकाबपलिभार्ग पहुच विसुवि काळेसु अवट्टितत्तणतो अणादिअपजवसाणं । इवाणि भावता, जे इति अणिपिस्स णिदेसे जहा इति का पुम्वन्दे अपरण्हे वा दिया वा रायो वा पुस्वि जिणहिं पण्णता भावा पच्छा 15॥१०॥ एए गोतमादिभिः आधविग्जंवि-आख्यान्ते सामग्णवो वा पण्णविग्जंति भेदाभेदेहि तसिं भेदप्पभेदाणि सरूवमनाणं परूवणा,सिर्जति चवमा
दीप
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [३८-४३]
गाथा ||८||
भ
॥४१॥
श्री. मेनेणं, जहा गो तधा गवय इति, गिदसणं हे उदिट्ठतेहि, उवदसणा उवणतोवसंधारोह, सव्वणयहिं वा, अथवा एगहिता, एते इति पण्णव-M नन्दीचूणाणिज्जाण णिहेसो, तहा इति पण्णवर्ग पण्णवणिजे वा पदुच्च सादि सपज्जवसाणं भवति, तफच पण्णवर्ग पदुच्च उपयोगतो सरबिसेसतो | साधादि
| पयचयं आसणीवसेसतो व साविपाजवसाण, पण्णवणिज्जे पडुच्च गवितो ठाणतो दुपदेसाविभेदतो वधेगपदेमादिमगवगाढतो एगसम-18 बादिअव्वत्थाणातो वण्णाइपज्जवे व आमज्ज सादिसपज्जवसाण, पाठान्तरं वा 'ते तदा पडुरच' तया इति कालं, अनाथपर्यवसितं भावत: भुतज्ञान क्षायावशमिके भोष नित्यं वर्तते स्वामित्तसंबंध इति, अहवा सादिपज्जवसाणं सपडिपक्वं पदसु भंगचउको, परमभंगे संमस-1 हितसुतभावो चिंतेयचो, अणेगविधं वा खयोवसमभावं पडुरुच दव्यादिउवयोग वा पदुरुच पढमभंगो, बिश्यो मुण्णो, अहवा अभभ्वाण | अणागतद्धसंबंधेण सुतभाषा भणितन्यो, चरिमतइयभंगेमु अविसिद्वसुतभावो अभव्यभब्वे पदुरच जोएयव्वा, अभवसिद्धियस्स इच्चादि |*
सुतसिद्धं, इह चरिमवलियभंगेसु अणादिसुतभावो दिडा सुवाधिकारतो, इहरा सातिभावो दहब्बो, मतिसुवाण अण्णुण्णाणुगतत्तणते', सो य | अणादिभावो जहण्णो अजहण्णमणुकोसो वा हवेना, उकासो ग भवति, कम्हा , जम्हा उकोसणाणभाषो केवलियो भवति, तस्स व सुने इमं पमाणं पढिज्जइ_ 'सव्वागासपदेस' इत्यादि सूत्र, सव्वमिति अपरिसेसं, सव्वगं अवि किंधेवं भवति?, सर्व आकासं, सव्वागासयस्स पदेसा सव्वागास-12 | पदेसा जं परिमाणंति बुच भवति, एवं सब्वागासपेदेसियग्गं अर्णवेण रसिणा अण्णण गुणितं, ताहे जे गसिपमाणं लब्मति तं सव्वपज्ज-॥४१॥ का वाण अग्गं भवति, पज्जाताण त एवोकस्सागासपदसम्म जावतो अगुरुलहुयादी पज्जवा एए पण्णाए सव्वे सपिडिता, तोर्स संपिडियाणं |DI दा अग्गं एतापमाणं अक्खरं लभति, अवखरंति दुविहं जाणं, अकारादि व्वसुतक्खरं, तत्य णाणमक्सरति अविसेसतो सब जाणमक्सर,
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [३८-४३]
गाथा
||८||
जम्हा तं जीवातो उप्पण्णं अणण्णभावत्तणतो णो खरइत्ति, इह पुण सम्बपजायतुलत्तगतो केवलणाण घेसव्वं, तम्हा केवल सव्वदव्यपग्जाय-18 केवलनन्दीचूणीं|विण्णसिसमत्थं भवति, तथा केवलं ये पबत्तइति तस्मवि परिमाणं इमेण व विक्षिणा भाणियाब, सव्वागासपदेसम्ग इत्यादि पूर्ववत् , ते [टी ॥४२॥
य सम्बपजाया समासतो तीस इमेण चेव बिहिणा-गुरु २ लहु २ गते घडरो पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा अणित्यत्वसंठाणसंठिता छ संठाणा, एते सव्वव्ये संभवंति, अमुत्तदव्वेसु अगुरुला चेव एको पज्जायो संभववि, पत्थ य एकेके मेवे अर्णता भेदा संभवति, किंच-18 मुत्तदव्येसु जयविलसतो अणेगवरा अदुवास थूलपज्जाया भति, कथं, उच्यते, ते च बत्तीसं सव्वगुरुलदुपज्जापहि विहूणा, यतो | भणिते 'णिच्छययो सम्वगुरू सव्वलढुं वाण विउजते दव्यं । ववहारतो र जुम्जति बायरखंधेसु णण्णेसु ॥ १ ॥ गिच्छयमतेण सम्वहा लहूं गुरुं वा णस्थि दव्वं, जदि हवेज तो तस्स पडमाणसण विरोहो केणइ हवेज्जा, सव्वलहुस्स वा उत्पमाणस्स, जओ य निच्चपडणं उप्पडणं याण विज्जते, सम्बहा लहुं गुरु वा ण, तम्हा सब्बहा गुरुं लहुं वा दव्य णस्थि, ववहारणतादेसेण पुण दोऽपि अस्थि, जहा सम्वगुरु कोडिसिला का वर्ज वा, सम्धलढुंव धूमचलूगपत्तादी, एवं ववहारणतादेसतो वायरपरिणामपरिणतेसु खंधसु गुरुभाषो बहुभावो य भवति, णाणेसु तिणमु
हुमपरिणामेसुत्ति, के पुण सुहमपरिणामिता दवा के वा बायरपरिणया, उच्यते, परिणामतो आरद्धं एगुत्तरवट्टितेसु ठाणेसुमुहुमपरिणता
वया लयभति, एतेसिं च अगुरुलहुपाजवा भवंति, बायरो पुण परमाणुतो आरम्भ जाव असंखेज्जपरेसिओ कंधो भवति परतो वायरपरिणाम। ॐ खंधो लब्मति, सो य जहणोषि अणतपदेसिओ णियमा भवति, वातो एगुत्तरवडिता अणतठाणावादिया बायरा बंधा ते ओरालविउठवा- ||॥४२॥ लहारतो य वगणांसु भवंति, णियमा य ते गुरुलहुपरजया भवंति, सीसो पुच्छति-जे रूविगुरुला दव्या अगुगलहुया तेतिके थोवा लहया ?,
उच्यते, थोवाणि लद्दष्वाणि, तेहिं तो रूबी अगुरुलहु बब्वा अणतगुणा भवंति, उच्यते थूराणं अणतपदेसिताणं खंधाणं सहाणे अर्णताओIDI
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [३८-४३] गाथा
श्री
नन्दीचूर्णी
॥४३॥
||८१||
ECASEXRXAXAREE
वग्गणाओ, सुटुमाणपि अर्णताओ वगणातो, थूरवग्गणवाहितो उपरि भासादिवग्गणठाणेसु एकके अणंताओ वग्गणातो, हेहातोषि धूरवग्गणहाणेणं एका वग्गणा, एवं जाव दसपदेसिताणं संखेाजपदेसिताणं संखेज्जाओ वग्गणाओ असंखअपदेसिताण असंखज्जाओ वग्ग-15
जाआबग- अगुरूलघुराणातो, एतेणं कारणेणं गुरुलहुदब्वेहितो रूवी अगुरुलाहुदल्याणि अणतगुणाणि भवंति, आदेसतरेण या बादरठाणेसुध मुहमपरिणामो पायाः
अविरुद्धोत्ति भाणियव्यो, उक्तंच 'गुरुलहुदबहिनो अगुरुलहुपज्जया अर्णतगुणा । ओभयपडिसेहिया पुण अर्णतकप्पा बहुविकप्पा ॥१॥ गुरुलट्ठपज्जायजुता जे दवा तेसिं चेव पञ्जाया। तेहितो रूविअगुरुलहुय दवाण जे अगुरुलहुपजाया ॥ २ ॥ ते अ थोरणंतगुणतणतो अणतगुणा एव भवतीत्यर्थः, उभयपडिसेहिया णाम अगुरुयलहुआ, पुण विसेसणे, कि विसेसति !, उच्यते, अरूविदव्वाधारा | इत्यर्थः, अहवा उभयपडिसेहिता णाम बायरमुहुमभाववज्जिता जे दया, अरूविण इत्यर्थः, तेसु अणंतकप्पा पाम एकेका अर्णतप्रकारा, कथं?, उच्यते, आगासत्यिकाए देसपएसपरिकप्पणाए, एवं धम्मादिमुषि, बहुविकप्पत्ति तेलि अर्णतकापाय एकेको अणतप्रकारो, कथं पुणी, | उच्यते, जम्हा एकेके आगासपदेसे अर्णता अगुरुयलहुयपज्जाया भवति तम्हा बहुविकप्पत्ति, ते य सम्बण्णुवयणयो सद्धेया इति, | रूविअरूविदवाण य पजायअप्पपहुयं इम भष्णति-रूविदव्वाणं जे गुरुलहुपजाया ते पण्णाछेदण पिंडिवा एतेहिंतो एकरस व अमुत्त| दम्बस्स जे अगुरुलहुपजाया ते अणतगुणा भवंतीत्वर्यः, पत्थं सांसो भणवि--फेवतिहिं पुण भागेहिं मुत्तदव्याणं विवियपग्जाएहितो अमुत्तदव्याण अगुलहुपरजाया अणतगुणा भवंति?, उच्यते, नास्त्यत्र परिमाणं, बहुधावि अणंतपणं गुणिज्जमाणो अमुत्सदव्यपजारसु णास्थ
॥४३ परिमाणं, एवं गते परिमाणार्थे इमं भषणति-'केण ठवेज्ज णिरोहो अगुरुलहुपज्जयाण उस्मुने । अचंतमसजागो जहितं पुणनं विवक्खस्स ला॥१॥" जतो अमुत्तदष्वाण बहुधावि अर्णवएण गणिज्जमाणा पजाया ण भवंति तो केनेति-केनान्येन प्रकारेण भविष्यति', भवे णिराहो
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श्री नन्दीचूर्णां
॥ ४४ ॥
“नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.. मूलं [ ३८-४३] / गाथा ||८१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४४ ] चूलिकासूत्र- [ ०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
णाम परिमाणपरिच्छेद इत्यर्थः, किं मुत्तदव्याणं अगुरुलहुज्जायपरिमाणं भविस्सति १, नित्युच्यते--'अच्चतम संजोगो' अच्चतं अतीव अपुज माणो जम्दा संजोगो जहितंति-यत्र, पुण विसेसणे, किं विसेस- रूविब्वे तदित्यनेन अमुत्तदव्यपक्खो तस्स विवक्खो मुत्तदव्यपगारो तेसु परजायथावसणतो अमुत्तदव्वेसु पज्जायाण अतीव बहुयत्तणतो, अतो मुत्तदव्हतो अमुत्तदध्वपज्जायाण परिमाणकरणसंजोगो एगंते जेव युज्जते, ण घडतेत्यर्थः, 'एवं तु अहिं अगुरुलहुज्जपछि संजुतं । दोति अमुत्तं दब्वं अरूविकायाण उण च ॥१॥ति, चउन्हं धम्माधम्मागासजीवाणंति, एतेसिं चतुण्हवि नियमा पत्तेयं अनंता अगुरुहरूपज्जाया भवंति कथं?, उच्यते, जहा एतेसिं एकेको पदेसो अर्णतेहिं अगुरुहुपज्जापछि संजुत्तो तम्हा धम्माधम्मेगजीवस्त्र य असंखेज्जपदेसत्तणतो असंखेज्जमणता पत्तेयं भवति, आगासपदेसपरिमाणत्तणतो पुण तेसि अस्थि परिमाणं तहावि संववहारतो अनंता उक्ता इत्यर्थः एवं ताव वक्खेयमनंतमुक्तं ॥ अथेदानीं तत्केवलज्ञानं यथाऽनंतं तथेदमुच्यते 'उवलद्धी' गाहा, सच्चे रुविदव्वाण य जावइयां गुरुहुपज्जाया ते सध्बे अरुविदध्वाण य जे अगुरुलहुज्जाया एते सव्वे जुगवं जाणति पासइ य, जतो एवमणतं केवळणाणमक्वायंति सप्रसंगमभिहितं । इदाणि अक्खकारादिदव्य सुतमक्खरंति, जदि अविसेसतो णाणमव खरं सुतं ययं तदाविरुदिवसतो जड़ा पंकयं सहा सरक्खरं वंजणक्खरं वण्णक्खरं वा भण्णति, तत्थ सरकसरं सरंति-गच्छंति सरंति वा इत्यतो सरक्खरं, अकारादि, बंजणस्स वा फुडमभिधायं खरात, ण वा सरकस्वरमंतरेण अत्थो संभरेज्जति सरक्खरं, ककारादि बंजणक्खरा, व्यज्यते ऽनेनार्थ इति प्रदीपेन घटादिवत् व्यब्जनाक्षरं, तेहिं चैव सरवंजणक्खरं, वण्णकखरं किं?, जदा अस्थो वणिजति अभिप्पते वा तदा ते वण्णक्खरं भण्णति, इद एकरस अकारादिकारान्त सरक्खरसपरपज्जाया भेदा इमे, अकारस्स पज्जाया जधा दहिहस्वप्लुतास्त्रयः, तथा दीही उदात्तानुदात्तस्वरितभेदः, एवं हस्वप्लुतावपि, पुनरप्येकेको साऽनुनासिको निरनुनासिकञ्च इत्येवं अष्टादशभेदः, एवं सेसक्खरराणवि जहासंभवं भेदा
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पर्यायाः
अक्षरभेदाभ
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [०१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
Cit
प्रत सूत्रांक [३८-४३]
गाथा ||८||
&भाणियब्बा, अहवा सरविससतो एकेकमक्सरस्स अर्णता पज्जाया, एत्थ य अकारजाती सामण्णतो सपज्जया अट्टारस, सेसा परपज्जाया, &ासायादिनन्दीचूणौं |
अथवा अकारादि वंजणा केवला अण्णसहिता वा जं अभिलावे लभते ते तस्स सपज्जाता, सेसा तस्स परपज्जाया, ते य सव्वेवि अणता, ॥४५॥ जतो सुते भणितं 'अणता गमा अणता पज्जाया' माणित 'पण्णवणिज्जा' गाथा, अक्खरलंभेण गाथा, अणभिलप्पाण अभिलप्पा अणतभागो,
सिपि अर्णतभागो सुतणिबद्धो इति, अहवा अकारादिअक्खराण पज्जया सचदव्वपज्जायरासिप्पमाणमेत्ता भवति, कई ?, Pउच्यते, जे अभिलावतो संजुत्तासजुत्तेहिं अक्सरेहिं उदत्ताणुदाचेहि य सरहिं जावइए अभिलावे अभिलप्पे य लभति ते सब्बे सतमप्पपज्जा
छाइया, सेसा सवे परपज्जाया, आकासं मोनु सयपज्जएहितो परपज्जाया अनंतगुणा, आगासस्स सपज्जएहितो परपज्जाया य, णणु विरुद्ध दिउच्यते, सब्बक्खराण घडादिवत्थुणो वा दुहया पज्जया चिंतिज्जति, संबद्धा असंबद्धा य, अकारस्स अकारपज्जया अकारसहावत्तणतो अस्थि-|
तेण संबद्धा, घटागारावस्थायां घटपर्यायवतू , ते चेव णस्थित्तेण असंबद्धा, णस्थित्तस्स अभावत्तणओ, जहा घटाकारावस्थायां मृत्पर्यायवत्, | अकारे इकारादिपर्याया णत्थि, ते असंबद्धा, अकारण छिन्नभावत्तणतो, जहा मृदयस्थायां पिंडाकारपर्यायवत्, ते चेव णत्थित्तण संबद्धामा 4 अस्थित्तभावत्तणतो घटाद्यवस्थायर्या घटपर्यायवत , एवं अक्सरेण छिन्नभावत्तणतो परेसु घडेसु घड इव पज्जाया विचिंताणिज्जा, घटादिसु य M अकारपज्जाया, इच्चेवं एकेकमक्खरं सब्बपज्जायमर्य, एवं सर्वत्रकाः सर्वपर्यायाः, अतो भण्णति सव्वागासपदेसणं अणंतगुणितं पज्जवर्मा
अक्खरं णिप्फज्जइ, एवं णाणक्खरं अकारादिअक्खरं यअक्खरं च तिण्णिवि अणताभिहिता, एत्य जाणक्खरं जीवस्स संसारत्वस्स | | कयाइ ण भवति, जतो भणितं 'सव्वजीवाणं पि यथे' इत्यादि सुत्र्त, सम्वजीवग्गहणेऽवि सति, अविपदं संभावणे, किं संभावयइ, इर्म
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं ३८-४३] / गाथा ||८१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक [३८-४३]
गाथा ||८||
श्री
सिद्धे मोतुं, चसहतो य भवत्थकेवली मोत्तुं, णकारो वाक्यालकारे, अक्सर-गाणं तस्स अणंतभागो निकचुग्धाडियतो, सो केवलस्स ण संभ-3साद्या नन्दाचूणावति, केवलस्स अविभागसंपत्तणतो य, ओधीएवि संभवति, अणतभागस्स अभावत्तणतो, अवधेरसंखयप्रकृतिसंभवादित्यर्थः, मणपज्ज-दू ॥४६॥
वणाणेऽवि रिजुविपुलदुब्भेदसंभवतो अणतभागे ण भवति, किंच-अवधिमणपज्जवणाणणिच्चुधाडअभावत्तणतो इध अणधिकारो, परिका सुद्धे मतिसुत्तेत्ति, अक्खरस्स अणतभागो णिच्युग्याडियओ, अधिकतसुतस्स वा अक्खरस्स अणतभागो णिपुग्धालियतो, जत्थ सुतं तत्थ |
मविणाणं घेतव्वं, णिच्चवि सम्बकालं, चम्पादितोत्ति गावरिनइ, सो य अर्णतभागो पुढवादिएगेंदिवाणयि पंचण्ह णिचुम्बाडो, अथवा | सम्बजहण्णा अर्णतभागो णिकग्धाबो पुढविकाइए, चैतन्यमात्रमात्मन: अकोसस्थीणशिसहिषणाणसणावरणोदतेवि जो आवरेजजति, का जइ पुण सोवि आवरेग्जेज्ज तेण जीवो अजीवयं पावे, 'सुठुवि मेहसमुदए होति पभा चंदसूराणं' जम्हा सो णावरिज्जइ तम्हा जीवो | जीवत् ण परिचयइ, सो य कम्हा णावरिजइ ?, उच्यते, दवसमावसरूवत्तणतो, इह दिहतो जहा 'सुद्धवि मेहच्छादिए णमे चंदसूरप्पभा | मेहपडलं भेत्तुं व्वे ओमासह तथा अणतेहिं णाणसणावरणकम्मपोग्बालेहिं एकके भातप्पेदेसे आवेढियपरिवेदियो ते कम्मावरणपडले भेत्तू-* णाणतणतभागो पव्वरह, ततो असे अव्वत्तं णाणमक्खरं सव्वजहणं भवति, वतो पुढविकारहितो आउकाइयाण अणतभागेणवि मुठ्ठयर
णाणमक्खरं, एवं कमेणं तेज्याउवणस्सतिबेईदियतेईवियचरिदियअसणिपंचेंदिवाणवि मुठ्ठयरं भवतीत्यर्थः । भणितं सादिसपम्ज-18 है। वसितं अणादि अपज्जवसितंच, पत्थेच प्रसङ्गतो अक्खरपडलं भणित, एत्थं बहुक्त्तव्यं, अक्सरपडलं समासतोऽभिहित, विस्थरतो से अत्यं
जिणचोइसपुब्विया कहेइ। इवाणि गमितागमिते--(४४-२०२) गमबहुलत्तणतो गमितं तस्स लक्षण-आविमज्मवसाणे वा किंचि |
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.................मूलं ४४] / गाथा ||८१...|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [४४] गाथा ||८१..||
नन्दीचूर्णी
शादि
॥४७॥
विसेसजुत्तं सुर्त दुगाविसतग्गसो पढिज्जमाणं गमितं भण्णति, तं च एवंविहं उत्सणं दिहिवाए, अण्णोण्णसगभिधाणठितं जं पदिज्जइ त गमिकाग|अगमितं, तं च प्रायसो आयागीदकालियसुतं, उक्तं गमितागमितं ॥ :
| मिक इदाणं अंगाणगपविट्ठ( ४५.२०९) च गमिसागमित चेव समासतो अंगाणंगपबिहुँ भण्णति, कहं', उच्यते, सव्यसुतस्स तम्भा-IGI
अंगप्रविवगतत्तणतो, अहवा अरहंसमग्गोवदिहाणुसारे ठितं जं तं समासतो दुविहं इत्यादि सुतं, पादयुगं जंघोरुगातदुवगं पदो य बाहू ता । गीका वा सिरंच पुरिसो पारसअंगो सुतविसिहो ।।१।। इच्चतस्स सुतपुरिसस्स जं सुतं अंगभागठितं तं अंगपवि? भण्णइ. जे पुण एतस्सेव सुतपुरि-13 &ासस्स बारेगे ठितं तं अंगवाहिरतिभण्णति, अहवा गणधरकयमंगगतं जं कत थेरेहिं बाहिरं तं च णियतं अंगपविलु अणिययसुत| बाहिरं भाणितं । ॥१॥से कितं अंगवाहिरं इत्यादि, कंठयं । आवस्सगवइरित्तं दुबिह-कालिय उकालियं च, तत्थ कालियं जं विणरावीण।
पढमे (चरमे) पोरिसीसु पडिज्जइ, जं पुण कालवेलवजे पढिज्जइ त उक्कालियं, तत्थ उक्कालियं अणेगविध-दसवेयालियादि, कप्पमकप्पं 8 &च जत्थ सुते वणिजाति कपियाकम्पिय कप्पं सुते वणितं तं कप्पसतं, अणेगविहचरणकप्पणोकप्पयं तं कप्पसुतं, तं दुविहं चुलं म
तं वा, चुस्लंति लहुतरं अवित्थरत्थं अप्पगंथं वा चुल्लकप्पसुतं, महत्थे महागन्थं वा महाकप्पसुतं, एसेव पण्णवणत्यो सविस्थरो, अण्णे य सविस्थरत्था अस्थ भणिता सा महापण्णवणाणेक्जा, मजादितो पंचविधो पमातो तेसु चेव आभोगपुयिया उवरती अप्पमातो, एते जत्थ सुवित्थरा MI दंसेज्जइ तमग्भवणं पभावप्पमाद, सूरचरितं एत्थ विद्यते जत्थ सा सूरपण्णती, पुरिसोत्ति संकू पुरिससरीरंबा, ततो पुरिसातो गिरफण्णा पोरि- ॥४७॥ का सी, एवं सब्बस्स बत्धुणो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति पोरिसी हवइ, एत्थं पोरिसिपमाणं उत्तराययणस्स अन्ते दक्षिणायणस्स वा आदी एक्क| दिणं भवनि,अतो परं अदृएक्कसट्ठिभागा अंगुलस्य दक्षिणावयणे बद्धति उत्तराययणे व हस्संति,पर्व मंडळे मंडले अण्णष्णा पोरिसी जत्थ अज्झयणे
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अनुक्रम [१३७]]
| अथ अंग-अनंग प्रविष्ट सूत्राणां वर्णनं आरभ्यते
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आगम
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं ४४] / गाथा ||८१...|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीस्त्रस्य चूर्णि:
उत्कालिक
दसेज्जइ तमामयणं पोरिसिमंडलं, चन्दसूरस्स दाहिणुत्तरेसु मंडलेसु जहा मंडलाउ मंडलपवेसो तथा वणिज्जइ जत्थ अझयणे तमज्झयणं मंडलप्प- नन्दीचूर्णी
चूणादासो, विज्जत्ति-णाणं, परण-चारित, विविधो विसिट्टो वा निच्छचो-सम्भावी स्वरूपमित्यर्थः फर्क वा णिच्छतो तं जत्थायणे वणिज्जइ ॥४८॥
| तमजायणं विज्जाचरणविणिध्ययो, सबालबुडाउलो गच्छो गणो सो जस्स अस्थि सो गणी, विजाति णाणं, तं च जोइसाणामित्तगर्त णार्ड पसरथे18 सु इमे कग्जे करेंति, तंजहा-पब्बावणा सामाइयारोवणं उवट्ठावणा सुतउद्देससमुद्देसागुणातो गणीये वा दिस्सागुण्णा, खेत्तेसु य णिग्गमापवेदसो, एमादिया कन्जा जेसु तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तजोगेसु य जे जत्य करणेज्जा ते जत्थज्झयणे वणिज्जति तमायणं गणिबिज्जा, थिरमज्झवसाणं
माणं, विभयणं विभत्ति, सभेवमाणं जत्थ वणिज्जइ अज्झयणे तमझायणं झाणविभत्ती, मरण-पाणच्चातो विभयणं विभत्ती पसत्यमपसत्था
णि सभेदाणि मरणाणि जत्थ वणिज्जति अझयणे तमज्झयणं मरणविभत्ती, आतति आत्मा तस्स विसोधि तवेण चरणगुणेहि य आलोयणाहै विहाणेण य जहा भवति तहा जत्थ अज्झयणे वणिज्जइ तमायणं आतविसोधी, सरागो वीयरागो य एतासि जत्थ सरूवकहणा विसेसतो वीयग
गस्स तमझवणं वीचरायसुतं, बाधातो णित्वाधातो वा भत्तसंलेहो कसायादिभावसलेहो य जो जधा कायन्यो तथा वणिज्जती जत्व अझयणे तमज्मवणं सैलेरणासुतं, विधरणं विधागे तस्स कप्पो विधित्तं बुत्तं भवति सो जिणकप्पे थेरकप्पे वा, जिणकप्पे पडिम अहालंदं परिहारिया य ददुव्वा, रितेर्सि वित्थरा विधि जत्य अज्झवणे तमझयण विधारकप्पो, चरण-चारितं तस्स विधी चरणविधी, सभेदो चरणविधी सज्झइ जत्य अझय-| णे तमक्झयण चरणविधी, आतुरो-गिलाणोतं किरियातीतं णातुं गीतत्था पच्चक्षायति दिणे२ दव्वहासं करेंता अंते य सब्बहा तेण ता भत्ते वेग्मं जणेता भत्ते णित्तण्हस्स भवचरिमपच्चक्खाणं कारेंति, एवं जत्यऽज्झयणे सवित्थरं वणिज्जइ तमझयणं आउरपच्चक्खाणं, धेरकप्पेण वा विहरेचा अते थिरकष्पिता पुण वित्थरेण संल्लीढा तहाविजधाजुत्तं सलेहा करेत्ता णिव्याघातं सब्बधा चेव भवचरिमं पच्चक्खंति, एवं सवित्थरं
K
॥४८॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक श्री
[४४]
गाथा
||८१..||
दीप
अनुक्रम
[१३७]
नन्दीम
॥ ४९ ॥
"नन्दी"- चूलिकासूत्र - १ ( चूर्णि:)
मूलं [४४] / गाथा ||... ||
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूर (NV), मूनिकासूर [१] 'नन्दीनस्य चूर्णि
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अस्थमायणे वण्णिव्जते, ते अ दो अझयणा, तत्थेक्कं सुत्तस्येहि संखित्यरं खुति, वितियं सुत्थेहिं विच्छिण्णय महत्वति ।
अंगस्स चूलिता अधा आयारस्स पंच चूलातो, दिट्टिवातस्म वा चूलियागत्ति, विवक्वावसातो अायणादिसमूहो वग्गो, जधा अन्तगदाणे, अणुत्तरोबवाइयदसाणं तिनि बग्गा, तेसिं चूला बग्गचूडा, वियाहो-भगवती तीए चूला बियाहचूला, पुव्वभणितो अभणितो य समामतो ( वित्थरओ) य चूलाप अत्यो भण्णतीत्यर्थः, अरुणो णाम देवो तस्समग्रणिचद्धे अझयणे जाव तं अज्झयणं उवडते समाणे अणगारे परियट्टेति ताव से अरुणदेवे समयणिवित्तणतो चलितासणो जेणेव से समणे तेणेव आगच्छति उबवूहति, ताहे ताहे समणस्स पुरतो अंतठितो कलंजली आवडते सुणेमाणे २ चिट्ठा से समत्ते य भणति सुभासितं २ वरेह वरंति, इहलोकणिपिव्यासे समणे पडिभणति ण मे वरेण अट्ठोत्ति, ताधे स पदाद्दिणं करेत्ता णमंसेत्ता य पडिगच्छति, एवं गरुलेो वरुणो बेसमणो सक्को देविंदे बेलंधरे यत्ति, उद्वाणसुयंति अज्झयणं सिंगणाइयकज्जे जस्स थे गामस्स वा जब रायधाणीप वा एगकुलस्स वा समणे आसुरुति बट्टे उपउत्ते तं उद्वाणसुरत्ति अायणं परियट्टइ एक्कं दो तिन्नि वा बारे साधे से गामे वा जाव रायाणी वा उलं वा उट्ठेति उब्वसइत्तिवृत्तं भवति, से चैव समणे तस्स गामस्स वा जाव रायधाणीए वा तुट्ठे समाणे पसण्णे पसण्णलेसे सुदासणत्थे उबवत्ते समुद्वाणं तं परियट्टइ एक्कं दो तिष्णि वा वारं ताहे मे गामे वा जाब रायद्दाणी वा आवासेति, समुवद्वाणसुर्यति वत्तब्बे बगा रमेवात समुद्वाणसुयत्तिभणितं, अप्पण्णा पुब्वयम्मि कयसंकल्पस्स आबासेति णागपरियाणियति अञ्झयणं, णागत्ति जागकुमारो वस्त्र सम
अयणं, तं जया समणे उवउसे परियट्टेति तथा अकय संकल्पस्सवि ते नागकुमारा तत्थत्था चैव परियायंति बंदंति णर्मसंति भत्तिबहुमाणं वा करेंति सिंगणाइयकज्जेसु य वरया भवतीत्यर्थः, निरियावलियास आवलियादेवीओ जा जेण तयोविसेसेण ववण्णा, आवलिपविट्टेतरे य णीरया तग्गामिणो य णरतिरिया य संगता वणिज्जंति, सोधम्मसाणकप्पेसु जे कप्पविमाणा ते कप्पव डेंसया तं बण्णिता तेसु य देवीओ जा जेण तवोविसेसे
~54~
कालिकं
॥ ४९ ॥
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[४४]
गाथा
।।८१..।।
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अनुक्रम
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श्री नन्दी चूर्णी
॥ ५० ॥
"नन्दी"- चूलिकासूत्र - १ ( चूर्णि:)
मूलं [४४] / गाथा ||... ||
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [ ४४ ], चूलिकासूत्र- [ ०१] “नन्दीसूत्रस्य चूर्णि :
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उब्वण्णा तावण्णिता ताओ य कप्पबडेंसया भणिता, संजमभावविगसितो पुष्किको संजमभावचुतो अवपुष्फितो, अगारभावं परिविता प व्वाभावेण विगसिता पच्छा सीयइ जो तस्स इद्द भवे परभवे य विलंबणा दंसिज जत्थता पुष्क्रिया, एस विसेसो पुप्फचूलाए दंसिज्जइ । अंधगवणो जे कुठे ते अंधगसद्दटोबाटो बन्दिणो भणिया, ते मंथरियगती सिज्झणा य जत्थ भणिता वे वदिसातो, दसत्ति अवस्था अन्मया वा, भगवतो उसमस्त चउरासी इसमणसाइस्सीवो होस्था, पइण्णगायणावि सध्ये काटियउल्कारिया चउरासीइसहस्सा, कथं?, जतो ते चढरासीइसमणसहस्सा अरिहंतमा उदिद्वे जं सुतमणुसता किंचि हिंति ते सव्ये पण्णा, अहवा सुतमणुस्सरंतो अप्पणो वथणकोसल्लेण जं धम्मदेसणादिसु भासतो वं सयं पद्दण्णगं, जन्दा अर्थतगम पज्जगं सुतं दिहं तं च वयणं नियमा अण्णयरगमाणुपाती भवति, तदा तं पण्णगं, एवं चउरासी पइण्णगसहस्सा भवतीत्यर्थः एतेणेव विहिणा मज्झिमतित्थगराणं संखेज्जा पइण्णगसहस्मा, समणस्सवि भगवतो जम्छा चोरससमणसाहस्सी तो उक्कोसिता समणसंपया तुम्हा चोह सपझयणसहस्मा भवंति, अदवा 'जत्तिया सिस्सा' इत्यादिसूत्रं, इद्द सुचे अपरिमाणा पणगा, पइण्णगसामिअपरिमाणत्तणतो, किंच-इह सुत्ते पत्तेयबुद्धप्पणीयपण्णगं भणियध्वं कन्हाई, जम्दा पतिष्णयपरिमाणेण चैव पत्तेयबुद्धपरिमाणं करेइत्ति भणितं, पत्तेयमुद्धा बेतिया चेवत्ति, चोदक आह--णणु पेत्तयबुद्धा सिस्सभावो य विरुज्झए, आचार्य्याह-वित्वगरपणीयसासण पडिवण्णसणतो, तस्सीसो भवतीत्यर्थः भणितं कालियसुतं, अंगवादिरं च । इदाणि अंगपविद्धं
(से किं तं अंगपवि (४५-२०९) इत्यादि (से किं तं आयारे ४५ - २०९ ) सूत्र, आवरणं आयारो गोयरो भिक्खागहणविदाणं विणओ नाणाइओ विविधो बावण्णविधाणो वा बेणइया सीसा तेसिं जहा आसेवणसिक्या भासा सच्चा असच्चमोसा य एयं सव्यं आयारे अभासा मोखा सच्चामोसा य, चरणं 'ययसंजम' गाधा करणं 'पिंडरस जा विसोधी' गाहा, जत्तचि य संजमजत्ता तस्स साइणत्थं आहारो मत्तचि
आचार आदि अंग- सूत्राणां वर्णनं क्रियते
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कालिक
॥ ५० ॥
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आगम
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं ४५-५६] / गाथा ||८१...|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
अंगप्रविष्टं
प्रत सूत्रांक [४५-५६]
गाथा ||८१..||
नन्दीघूर्णी
॥५॥
मात्रा, कुतो घेत्तव्यो' वर्तनं वृत्तिः, एवं सव्वं आधारे अम्पपिज्जास आल्यायते, सुत्तमत्वस्स य पदाणं वातणाओ परित्ता, अर्णता ण भवंति, आ- दिअंतोवलंभत्तणतो, अहवा उस्सप्पिणिकाल वा पडुच्च तीताणागतसव्वद्धं वा पदुच्च अर्णता, उग्वक्कमाविणामादिणिक्खेवकरणं च अणु-17 योगहारा ते आवारे संखेम्जा, तेसिं पण्णवगवयणको गोचरत्तणतो, वेडो छंदजाती, पडियत्तिओसि दब्वादिषयत्यम्भुवगमो, पटिमाभिग्गहविसेसाय पहिवत्तीवो ते समासतो सुत्तपडिचदा संखज्जा, तिविहा जेण मिक्खेवमादिणिज्जुनी तेण संखेजा, णव बभचेरा पिंडेसणा सेज्ज इरिया भा| सजाय बत्येसणा पादेखणा लागहपडिमा सत्त सत्तिक्कया भावणा विमुक्ती, एवं ते पंचासी हवेज्जा, पणवीसं अश्मयणा, पंचासीतिउद्देसणकाला, कथं ?, उच्यते, अंगस्ल सुवर्खधस्स अझयणस्स अरेसगरम पते चतरोवि एक्को बसणकालो, एवं सत्थपरिणाए सत्त उद्देमणकाला लोगविजयस्स छ सीतोसणेजस्स चउरो सम्मत्तस्स चारो लोगसारस्स छ धुस्स पंच महापरिणाए सत्त विमोहमायणस्स अट्ठ उवधाणसुत्तस्स चतरो, पिबेसणाए एकारस, सेक्जाए तिण्णि, भासजायाए दो, पावेसणाए वो उगाहपडिमाए दो, सत्तिकयाणं सत्त, भावणाए एको, विमोचीए एको एते सब्वे पंचासीति, चोवक आह-जति यो सुतखंधा पणुवीसअज्झयणाण अद्वारससहस्सा पदमाणं भवति, जतो भाण णवतचेरमयितो अङ्कारसपदमहस्तितो वेओ' त्ति एतं विरुज्झति, आचार्य आह-णणु एत्थवि माणितं 'सपंचचूलो अट्ठारसपवसहरिसतो वेदो' चि, इह सुत्तालावगपरेहि सहितो बहुबहुतरोयपतयेत्यर्थः, अहवा दो सुतखंधा पणुवीसं अायणा य एते आयारासादितस्स आधारस्स पमाणं भाणितं, अट्ठारसपदसहस्सा पुण पढममुयक्खंघस्व णवरमइयस्स पमाण, विचित्सत्यपदाय सुत्ता, गुरूबदेसा कोर्स अस्थी भणितव्यो, बक्सररयणाए सं- * खज्जा अक्खरा, अभिधाणाभिधेयबसतो गमा भवंति, ते अणंता इमेण विहिणा-सुतं मे आसतेणं भगवता, सुतं मेआ तदासु मे आउसंतेहि सुतं मे बासुयं मे भात, सुतं मया आवदा सुयमदा अहिं सुख मया आ एवमाविगमेहिं भण्णमाणं अणतगम, अक्खरपाजपदि अत्यपज्जपदि य
दीप
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॥५१॥
१४९]
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आगम
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
..मूलं ४५-५६] / गाथा ||८१...|| .......
(४४)
प्रत सूत्रांक [४५-५६]
गाथा ||८१..||
Bामणतं, परित्ता तसा अणंता ण भवंति, अर्णवा बावरा वणफासहिता, सासतत्ति पंचत्थिकाइयाइया कहाति कितिमा पयोगातो बीमसापरिणा-181 अंगप्रविष्ट नन्दादिमतो या जहा बम्मा अम्भरुक्खादी, जहा एते सम्वे आयारे सुत्तेण णिबद्धा णिज्जुत्तिसंगहीहतूदाहरणाविण्हि य निकाइया,किंच-एते अण्णे य जिपापणचा-जिणप्पणीया भावा आपविजंति जाव उवदंसेक्जंति, एतेसिं पदाणं पूर्ववद् व्याख्या, एवविधमायारं धिज्जिउं से पुरिसे एवं जथा आ-12
की यारणिवद्धा परूविता य तथा सव्वभावाणं णाता भवति, विविधति अणेगधा जाणमाणो विण्णाता भवति, अण्णवावादुरोहितो वा विसिदद्वतरे व विसिट्ठयरं वा जाणमाणो विष्णाता भवति, सेस णिगमणले सुत्त कंठ्य, सेतं आयारो ॥ 'से कि तं सुयगडे' त्यादिसूत्र (४७-२१२) है
सूइज्जइत्ति जघा गट्ठा सूई तंतुणा सूइज्जा, उवलभ्यतेत्यर्थः, अथ सूति पडं तेइ तथा सूयगडो जीवाइपदत्या सूझवि, बूह किच्चति प्रतिब्यूह ते-11 इन प्रविम्यूहेन तेन परपवादी जिप्पडपसिणं कार्ड ससमयस्स सम्भावे ठविजइ, चहेसयपरिमाणाओ उद्देसणकाला जाणेज्जा, सेस कंठ्यं, सेत सूय-18
गडे | 'से किं तं ठाणे त्यादिसुतं (४८-२२८) ठाविजवित्ति स्वरूपतः स्थाच्यन्ते, प्रज्ञाप्यन्ते इत्यर्थः, छिन्नतई टंक फूलनि जधा वेदग्रस्नोवरि णव सिद्धायतणादिया कूड़ा, हिमवताविया मेळा, सिहरेण सिहरी, जधावेदडो, जं कूडं उवरि अंबखुज्जयं तं पन्भारं, जंवा पव्वयस्स लव|रिभागे हरिथकुंभागिती कुडई जिग्गतं तं पन्भारं, गंगाइया कुंडा तिमिसादिया गुहा रुप्पमुवण्णरयणादिया आगरा पुंडरीयादीया वधा, गंगार्मि
मावियाओ णदीओ, सेसं कळ्य, से तं ठाणं । 'से किं ते समवाय' इत्यादि (४९--२२९) समवाए णिक्खेवो धनीव्यहो, दब्वे सचित्तादिदका ब्वसमवायो, भावसमवातो इमं चेव अंग, अहवा जत्थ वा पसत्या उदयाई बहू भावा संणिवादियजोगा वा भावसमवातो, भावसमवाए वा इमं| ॥५२॥ लाणिवत्तं जीवा समासासिज्जति समं असिज्जति समंति ण विसम जधावस्थितं अनूनातिरिक्त इत्यर्थः आधीयते बुध्यते ज्ञानेन गृह्यतेत्यर्थः, अहका |
समासत्ति इद मनोऽभिहित सब्वपदत्याण समासतो विसरिसोचि, सेस कठ्यं, उक्तं समवायं । 'से किं तं वियाधे' त्यादी (५०-२२९)
दीप अनुक्रम [१३८
१४९]
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आगम
(४४)
प्रत
सूत्रांक
[89-46]
गाथा
।।८१..।।
दीप
अनुक्रम [१३८
१५९]
श्री
सन्दीपूर्वी
॥५३॥
"नन्दी"- चूलिकासूत्र - १ ( चूर्णि:)
...मूलं [४५-५६] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र (NV), मूनिकासूर [१] नन्दीत्वस्य चूर्णि
वियाहित्ति व्याख्या इह जीवादयो व्याख्यायंते, इह सतं चैव अायणसनं, गोयमादिहिं पुढे अपुट्ठे वा जो पहंचवागरणं, सेसं कंट से तं वियाहि ॥ ' से किं तं णाताधम्मकहे ' त्यादि सूत्रं (५१-२३०) एगुणवीस जातज्झयणा, जातत्ति आहरणा, विद्वंतियो वा जज्जइ ते जावा, एते पढमसुयखंचे, अहिंसादिलक्खणस्स धम्मस्स कहा धम्मकडा, धम्मियाओ का कहाओ धम्मकद्दाओ, अक्वाणगति वृत्तं भवति, एते बितियसुतखंधे, दस धम्मकहाणं वग्गा, वग्गोति समूहो, तव्विसेसणविसिठ्ठा दस अज्झयणा वेते दब्बा, एगूणवीसं जाता दस य धम्मकहातो, तत्थ प्णातेसु आदिया दस जाता चेव, णेतेसु अक्खाइयादिसंभवो, सेसा जब जाता, तेसु एक्के जाते चत्तालीसं अक्खादियाओ भवंति, तत्यचि एकेकाए अक्खाइयाए पंच पंच उबक्वाइयसयाई भवति, तेसुवि एक्काए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्वायडबक्याइयसयाई भवंति, एवं एते जब कोडीओ, ताओ धम्मकहासुं सावेतव्वत्तिकाउं एकूणवीसार प्रताणं दण्ह् य धम्मकथाणं विसेसो कज्जर, वस पाता दक्षणव धम्मकथाओ, दसहिं परोप्परा सुद्धा, एवं विसेसे कते सेसा णव जाता ते णाया चतालीसाए गुणिता, जाता तिष्णि सया सहा अक्खाइताणं एते अक्खाइया पंचसहिंता सोभिता, तत्थ सेसं चत्तारं सते, तं उबक्वाइयपंचसतेहिं गुणितं जाता उबखाइयाणं सत्तरिसहस्सा, ते इहि अक्लाइतोयक्साइयसतेहिं गुणिता, एवं जाया अद्भुद्वातो अक्वाइयकोडीओ, पदग्गेणंति उवसग्गपदं निवातपदं णामितपदं अक्खापदं मिस्सपदं च एते पदे अधिकिनच पंच लक्खा छावत्तरि च सहस्सा पदग्गेणं भवति, अथवा सुचालावयपदश्गेणं संखज्जाई पदसहस्साई भवंति अहवा छोहत्तराधि त सहस्स पंचलक्खावि संखेज्जपद सहस्सेहिं ण विरुजांति, सेस कंठ्यं, 'सेतं णाताधम्मकहाओ ॥ 'से किं तं उवासगदसाओ' इत्यादि सुतं (५२-२३१) 'उवासय'त्ति सावता तेसिं अणुब्वयगुण सीलवतोवदेसणा दससु अज्झयणेसु अक्खातिज्जति उवासगदसा भणिता, तासु य पद्ग्गं एकारस लक्खा बावण्णं च सहस्सा पद्ग्गेणं, सुत्तालाभयपदेहिं संखज्जाणि वा पदसहस्साई पद
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं ४५-५६] / गाथा ||८१...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
[४५-५६]
गाथा
||८१..||
लामोणं, सेंस कंठप, 'सेत उवासमदमाओ' || 'से कितं अंतगडदसाओं' इत्यादि सुतं (५३-२३२) 'अंतकडदसति कन्मणो संसारस्स3/उपासकानन्दीचूर्णी & गन्दाचूणालावा अंतो कडो जेहिते यतिस्थगरादी, पढमवग्गो दसज्झयणति तस्संखतो अंतकडदसति, माहवा वसति अवस्था, तेर्सि जा अवत्वा साप-16 चगान ॥५४॥
पिणम्जतित्ति अतो अंतकडदसा, सरीरा धुझणे वा दसहं अंतकगेत्ति अंतकडवसा, णवरं अंतकरकिरियाओत्ति अस्य व्याख्या-अंतकडाणं ४ किरिया अंतकडकिरिया, बहूर्ण वा अंतो कडे किरियाओत्ति भणिता, किरियत्ति क्रिया कशावल्या इत्यर्थः, अहना किरियत्ति कर्मक्षपणक्रिया &ससेलेसादिअवस्थाए, अहवा किरियत्ति सुहमकिरियं साणं, अहवा घात्तिकम्मेसु अंतकडेसु किरियत्ति कम्मबंधो, सो य इरियावहितोत्ति
भणितं भवति, आपविजइ, वग्गोत्ति समूहो, सो य अंतकडाणं अज्झयणाचं वा, सव्वे अक्षयणा जुगवे उदिस्संति, तासु सुत्तपदग्गा तेवीस | लक्खा चउरो य सहस्सा पदग्गेणे, संखेग्जाणि वा पदसहस्साणि सुतालावगा अ पदग्गेणं, सेसं कंठणं, से तं अंतकडदसा'। 'से किं तं अणुसरोववाइयदसा' इत्यादि सुत्तं (५४-२३३) णथि जस्सुत्तरं सो अणुत्तरो, उववज्जणमुववातो उत्पत्तीत्यर्थः, अणुत्तरो उववाओ जस्स सो अणुत्तरोववाइतो तसि, बहुवयणाओ अणुत्तरोववाइयत्ति वग्गे बग्गे दसज्झयणत्ति अतो अणुत्तरोववाइयदसा भणिता, संसारे सुहभावं पडुरूच | | अणुत्तरं, अहवा गतिचउक पडुच्च अणुत्तरं, अहवा देवगतीए चेव अणुत्तरं, अणुत्तरदेवेसु जेसि वचावो तेसिं णगराविया कहिज्जंति, इह वग्गो
चि समूहो, सो च अज्झयणाणं, बग्गे बग्गे दस अभ्ययणा इत्यर्थः, तेर्सि पदसंखा छायालीसं लक्खा अह य सहस्सा, संखेज्जाणि वा पदसहका साणि, सेस कंठयं से तं अणुववाइयदुसा' (अणुत्तरोववाइयवसा) ॥ 'से किं तं पण्हावागरणाई' इत्यादि सूत्र (५५-२३४) पाहोति लापुच्छा, पतिवयण वागरणं प्रत्युत्तरमित्यर्थः, तम्हि पाहावागरणे अंगे पंचासषदाराविका व्याख्येया परप्पवादिणो य अंगुडवाहूप्पासणादियाणं
॥५४॥ च पसिणाणं अद्वैत्तरं सत, किंच-जे विग्जमता विवाए जविज्जमाणा अपुरिछत्ता चेव सुभासुभं कहयंवि तारिसाणं अपसिणाणं अठुत्तरं सयं
दीप अनुक्रम [१३८
REETTENSE
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प्रत
सूत्रांक
[89-46]
गाथा
।।८१..।।
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श्री नन्दीचूण
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"नन्दी"- चूलिकासूत्र - १ ( चूर्णि:)
...मूलं [४५-५६] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र (NV), मूनिकासूर [१] नन्दीत्वस्य चूर्णि
अंगुडाइपसिणगावं चैव करेंति तं तारिमाणं पसिणापक्षिणवाणं अदुत्तरं सयं, अहवा अणंतररा जे कहिता ते पक्षिणा परंपरे पक्षिणापासणा' तं पुण विज्जाकहितस्स परंपरे भवति, अण्णे य विविधातिसया कहेज्जति किं वा जागा सुबण्णा अण्णे य भवणवासिणो ते विज्जमंतागरिसिता आगता साधुणा सह संवदति जल्पं करेति पाठान्तरं वा दिव्या संघाया संवयंति त दुमुक्या संभवंवि, वरदाधावगतादि वा कुर्बति, दसमस्संगस्स पदम दोणडविलक्खा सोलस य सहस्सा, पदग्गेणं संखेज्जाणि या पद्महस्साणि, लेसं कंठ्यं, 'से तं पण्हावागरणं ॥ 'से किं तं विवागतं' इत्यादि (५६-२३४) विविधो पाकः विपचनं विपाकः कर्मणां सुभमसुभो अमि वा सुते विपाको कहिज्जइ तं विपाकसुतं, विपाकसुत्तस्स सुतपद एगा पदकोडी चुलसीती च लक्खा बत्तीसं च सहस्सा पदयोणं, संखेज्जाणि वा पदसहस्साई पदम्गेणं, सेस कंठ्यं, 'से किं तं दिवाति ति ( ५७-२३५) दृष्टिदर्शनं वदनं वादः दीनां वाद दृष्टिवादः तत्र वा दृष्टीनां पातो दृष्टिपातः, सभेदभिण्णातो सम्वणतदिद्वीतो तत्थ वयंति पतंति वत्ति अतो दिट्टिश्रातो, सो य पंचभेदो परिकम्मादि, तत्थ परिकंमति जोगकरणं, जधा गणितस्स सोलस परिकम्मा तग्गहितसुवत्थो सेलगणितस्स जोगो भवाते, एवं गहिदपरिकम्मत्तत्य सेससुताइदिद्विवादसुतस्स जोगो भवति, तं च परिक्रम्मं सिद्धसेणितपरिकम्मादिथूलभेदयो सत्तविधं उत्तरभेदयो तेसीतिविधं मातुअपदादी, तं च सव्वं मूलुत्तरमेवं सुत्तत्थओ वोच्छिष्णं जधागतसंपदातं वा वच्च किं च एतो सत्तण्डं परिक्रम्माणं जे आदिमा परिकंमा ससमयिका स्वसिद्धान्तप्रज्ञापना एवेत्यर्थः, आजीविया पासंडत्या गोसालयवत्तिता, तो सिद्धन्तमतेण चुताचुतसेोणिता सत्त परिकम्मा पण्णविज्ञ्जति । इयाणि परि कम्मे णयचिंता-गमो दुविहो-संगहितो असंगहिओ य, संगहितो संग पविठ्ठो, असंगहितो ववद्दारं, तन्हा संगहो वबहारो रिजुसुतो सदाश्या य एको, एवं चउरो गया, एतेहिं छ ससमइकाइ परिकम्माई चिंतितित्ति, अतो भणितं 'पडकणइयाणं' ति, ते चैव जीवकाए
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अनुतरो० पातिकादीनि
।। ५५ ।।
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आगम
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं [७] / गाथा ||८२-८४|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
[५७]
गाथा
||८२
शा
श्री.. तेरासिता भणिता, कम्हा १, उच्यते, जम्हा ते सव्वं जगं च्यात्मकं इच्छति, जस्स जीवो अजीओ जीवाजीवा, लोए अलोए लोयालोया,अरष्टिवादः नन्दीचूणौं ।
दिसते असंते सन्तासंतो, एवमादिनयबिताए चिन्तेन्ति, सिविहं णयमिच्छंति, जहा-दन्वठितो पज्जवठितो उभयठितो य, अतो मणितं | ५ 'सत्त तेरासियाई ति सत्त परिकम्मा तेरासिया पाखंडत्या विविधाए णयचिंताए चिंतयंतीत्यर्थः 'सुत्ताई'ति उज्जुसुताइयाई बावीस मुत्ताई,
५ सम्बदव्वाण सव्वपज्जवाण सव्वणयाण सव्वभंगविकप्पणोवदंसगाणि, सव्वस्स णयगतस्स यऽत्यस्स सूर्यगत्ति सूयणतो सुत्ता भणिता & जधाभिधाणत्थातो, ते य इदाणि मुत्तत्थतो बोच्छिष्णा, जहागतसंप्रदायतो बोद्धव्या, ते चेव बाबीसं सुत्तावि भगवतो अढासीति सुत्ता
भवंति इमेण विधिणा-याधीस सुत्ता विच्छिन्नछेवणयाभिप्पायया, कहं छेदछेदणतो छेदणतोवि भण्णति', उच्यते, जो ततो सुतं छि द्र देण इच्छद जवा 'धम्मो मंगलमुकि' ति सिलोगो, एस सिलोगो सुत्तत्वतो पत्तेयभेदेण ठितो, णो वितियाइसिलोगे अवेक्सइत्ति युत्तं ४ है भवति, छिण्णो छेदो जस्स स भवति छिण्णछेदः, प्रत्येकं कप्पितपयवेत्यर्थः । एते एवं बाबीसं ससमयसुत्तपरिवाडीए सुत्तादि, ता एते चेव | का बावीस अछिण्णछेदवणताऽभिप्पायतो बाजीवियसुत्तपरिवाडीए ठिया अच्छिण्णछेदणतो. जघा एसेच दुमपुफियापढमसिलोगो अत्यतो |DI विनियाइसिलोगे अधिक्खमाणो बितिए य पढम, अच्छिण्णच्छेदणयाभिप्पायतो भवति, एवंपि बावीसं सुत्ता अक्खररयणठितावि अत्थयो अण्णोण्णमवेक्खमाणा अछिण्णछेयत्तणयठियत्ति भण्णति, णयचिंताए बावीसं चेव सुत्ता 'तेरासितेणं विकणइयाइ'न्ति त्रिकनयाभिप्रायता चिंत्यंतेत्यर्थः, तथा ससमावि णयचिंताए बावीस चेव सुत्ता चउक्षणइया, एवं चउरो बावीसातो अट्ठासीई मुत्ता भवनि, से तं सुत्ताई J५६॥ से किं तं पुव्वगतं?, कम्हा पुख्वगतंति !, उच्यते, जम्हा नित्थकरो तित्यपवत्तणकाले गणहरा सव्वसुताधारत्तणतो पुन्वं पुन्वगतसुत्तत्यं भासइ तम्हा पुठवंति भणिता, गणथरा सुत्तरयणं करेन्ता आयाराइरयणं करेंति ठवेंति य, अण्णायरियमतेणं पुण पुश्वगतमुत्तत्थो पुथ्वं
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आगम
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गाथा
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श्री सन्दीपूर्ण
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.मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूर (NV), भूमिकासूर [०१] नन्दीनस्य चूर्णि
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अरहता भासिया गणहरेहिवि पुव्वगतं चैव पुब्वं रइयं पच्छा आयाराइ, एवमुत्तो चोदक आह-गणु पुव्वावरविरुद्धं, कम्हा ?, आवारणिज्जुत्तीए भणितं - 'सव्वेसिं आचारो०' गाडा, आचार्याह-सत्यमुक्तं, किंतु ठावणा, इमं पुण अक्खररयणं पद्दुच्च भणितं, पुत्र्षं पुव्वा कता इत्यर्थः, ते य उप्पायपुब्वादय चोरस पुव्वा पण्णत्ता, पढमं उप्पायपुर्वति तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण य उप्पायभावमंगीकार्ड पण्णवणा कया, तस्स पदपरिमाणं एका पदकोडी, वितियं अम्गेणीयं, तत्थवि सव्वदव्वाण पज्जवाण य सब्वजीवविसेसाण त अग्गं परिमाणं णउतिपदसहस्सा, तइयं वीरियपवाय, तत्थवि अजीवाण जीवाण य सकामेतराण वीरियं प्रवदतीति वीरियप्पव्वादं तस्सवि चत्तारि पदसहस्सा, चत्थं णत्थि अत्विप्पवायं, जं लोगे जधा अस्थि णत्थि वा अहवा सितवायाभिप्पाददो तदेवास्ति नास्तीत्येवं प्रवाद इति अस्थिणस्थिप्पवादं भणितं, तंपि पदपरिमाणतो सद्वि पदसहस्वाणि, पंचमं णाणप्पवादति, तम्मि मइणाणाइपंचकस्य सप्रभेदं प्ररूपणा जम्हा कता तम्हा णाणप्पवाद, संभि पदपरिमाणं एगा पदकोडी एगपणा, छट्टु सच्चप्पवाद, सच्चं संजमो तं सच्चैवयणं वा तं सच्चे जत्थ सभेदं सपविक्खं च वणबजइ तं सच्चप्पवायें, तस्स पदपरिमाणं एगा पदकोडी छप्पदधिया, सत्तमं आयप्पवातं, आयत्ति आत्मा सोऽणेगधा जत्थ णतदरिसणेहिं वणिज्जइ तं आयप्पवाद, तस्सवि पदपरिमाणं छव्वीस पदकोडीओ, अट्टमं कम्मप्पवादं णाणावरणाइयं अदुविहं कम्मं पगतिठितिअणुभागप्परेसादिएहिं भेदेहिं अण्णेहिं उत्तरुत्तरभेदेहिं जत्थ वणिज्जइ तं कम्मप्पवाई, तरस्रवि पदपरिमाणं एगा पदकोडी असीतिं च पदसहस्वाणि भवंति णवमं पचक्खाणं, तंमि सव्वपचक्खाणसहवं वणिज्जइत्ति अटो पच्चक्खाणप्पवाद, तस्स पदपरिमाणं चउरासीति पदसहस्साणि भवंति, दसमं विज्जणुप्पवातं, तत्थ व अणेगे विग्जाइसया वण्णिता, तस्स पदपरिमाणं एगा पदकोडी दस य पदसहस्वाणि, एगादसमं अवशंति, वंसं णाम निष्कलंण वंशमवंशं सफलेत्यर्थः सव्वे णाणतब संजमजोगा सफला वणिज्जति अप्पसत्था य पमादादिया
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kturgi
॥ ५७ ॥
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श्री
नन्दीचू
।। ५८ ।।
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.मूलं १५७] / गाथा ||८२-८४||
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र (NV), भूमिकासूर [१] 'नन्दीत्वस्य चूर्णि
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सध्ये असुभफला वण्णिता अतो अवेनं, तस्संधि पदपरिमाणं एकवीस पदकोडी, पारसमं पाणाडं, तत्थ आयु प्रमाणं सविहाणं सव्वं सतिपदं अणे य प्राणा वर्णिता, तस्त्र पदपरिमाणं एगा पदकोडी छप्पण्णं च पदसय सहस्सा, तेरसमं किरियाविसालं, तस्थ कायकिरियादओवि सासति सभेवा संजमकिरियाओ व बंधकिरियाविधाणा, तस्सवि पदपरिमाणं णव कोडीओ चोदसमं छोगबिंदुसारं तं च इमसि छोए सुयलोए वा बिंदुसारं भणितं, तस्स पदपरिमाणं अद्धतेरस पदकोडीओ ॥ इवाणि अणुयोगोचि अनुयोग इत्येतत् अनुरूपो योग अनुयोग इत्येवं सर्व एव सूत्रार्थी वाच्यः, इद्द जन्मभेदपर्यायशिक्षादि योग:, विवक्षितोऽनुयोगो वाच्यः, स च द्विविधो मूलपरमाणुयोगो गंडिकाविशिष्टश्च तत्थ सूटपढमाणुयोगेति, इह मूलभावस्तु तीर्थंकरः, तस्स प्रथमं पूर्वभवादि अथवा मूलस्स पढमा मवानुयोगो एत्थ तित्यगरस्स अवीवमवभाषा वट्टमाणवयजम्मादिया भावा कद्देज्जति, अहवा जे मूलस्स पढमा भावा ते मूळपढमाणुयोगो, एत्य तित्वकरस्स जे भावा प्रसूतास्ते परियायपुरिसप्ताह भाणियव्वा, 'गंडियाणुयोगो' चि-इक्खुमा दिपर्वकंडिकावत् एकाधिकारत्तणतो गंडियाणुयोगो भण्णवि, से च कुलकरादियातो विमलवाहणादिकुलकराणं पुष्वमव्वजम्मणामप्पमाण० गाहा, एवमादि जे किंचि कुलकरस्स वतव्यं तं सव्वं कुलकरगण्डियाए भणितं, एवं वित्थगरादिडियासुवि, 'चित्तंतरंगांडिय' त्ति, चित्ता इति अनेकार्थाः अंतरे इति उसभअजियंतरे या दिट्ठा, गंडिका इति संयं, अतो चिरांवरे गंडिका दिट्ठा, तो तासं परूवणा पुव्वावरिपइिमा निष्ट्ठिा
आदिवजसादीणं उसमस्त पओपए णरबतीणं । सगरसुयाण सुबुद्धी इणमो संखं परिकमेह ॥ १ ॥ चोइस लक्खा सिद्धा ि वईणेको य होति सम्बद्धे । एवेकेके ठाणे पुरिसजुगा होतऽसंखेज्जा || २ || पुनरवि चोटस टक्सा सिद्धा भिवदीण दोष्मि खब्बट्टे । जुगठाणे
~63~
पूर्वगतश्रुतं
।। ५८ ।।
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं [१७] / गाथा ||८२-८४|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
[५७]
गाथा
PORRORDER
||८२
चित्रान्तर| वि असंखा पुरिसजुगा होति गायब्वा ।। ३ ।। जाव य लक्खा चोइस सिद्धा पण्णास होति सव्वट्ठे। पण्णासटाणेवि य पुरिसजुगा होतिs
गण्डिका नन्दीचूणा संखेज्जा ॥४॥ एगुत्तरा दुलक्खा सबढाणे व जाव पण्णासा। एकेक्कुत्तरठाणे परिसजुमा होतिऽसंखेज्जा ॥५॥ विपरीयं सम्बा ॥५॥ चोरसलक्खा य निम्बुलो एगो। सव य परिवाडी पण्णासा जाब सिद्धीए ॥६॥ तेण परं लक्खादिवो दो ठाणा य समग बरुचति।
* सिवगतिसम्वद्वेहिं णमो तासि विधी होइ॥७॥दो लक्खा सिद्धीए दो लक्खा जरवदीण सबढे । एवं सिलपथपत पंच आव मक्खा | असंखेजा ॥८॥ सिवगसिसम्बद्वेदिविसंतरगडिता ततो चतरो। एगा एगुचरिया एगादि विविधत्तरा तझ्या ॥ ९॥ तविएगादि तिओतर तिगमादि ओत्तरा पत्ये या पढमाए सिद्धेको दोष्णि य सम्वट्ठसिद्ध मि॥१०॥वचो तिणि णरिता सिद्धा चत्तारिहोंति सबढे। इस जाव असंखेमा सिवगतिसम्बट्ट सिद्धहि ॥ ११ ॥ वार विउत्तराए सिद्धेको - विणि होति सबढे । एवं पंच य सत्त व जाव | असंखेज दो तिमि ॥ १२ ॥ एग चड सच दसगं नाव असंखेग्ज होंति दो तिण्णि | सिवगतिसम्वहिं तिउत्तर। एत्य यज्वा ॥१॥ साहे तियगाविधिउत्तराए अऊणतीसं तु तिबग ठाव । पढमे उणाथि खेवो सेससु इमे भवे खेवा ॥१४॥'दुग पण नवगं तेरस सत्तरस दुबीस बरंच अद्वेष । पारस चोरस अथ अळूवीस छब्बीस पणुवीसा ॥ १५ ॥ एकारस तेवीसा सीयाला सवरि सवहत्तरी वय ।। इग दुग सत्तासीती पगत्तरिमेव बावड़ी॥१६॥ अवत्सरि चठवीसा वायालसयं वहेपब्बीसा | एए रासीक्वेवा विमर्शता महाक-11 मसो॥१७|| सिवगतिसब्वहिंदोदो ठाण विसमुत्तराणेया। जावूणतीसठाणे लणतीस पुणवीसाए ॥१८॥ विसमुत्तरा य पढमे एवमसमाविसमुसरा णेया। सव्वहषि विक अण्णाए आदिमं ठाणं ॥१५॥ अउणत्तीसं बारा ठावे णस्थि पढम पक्खेवो । सेसे सगवीसाएका
॥ ५९॥ सव्वत्य दुगाविसखियो ॥२०॥ सिषतिपटमारीए वितियाए वह य होति सबढे । इस पगंतरियाई सिक्यतिसम्बठापाई ॥२१॥
E
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
.................मूलं [७] / गाथा ||८२-८४|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१७] गाथा
||८२
शा
15 एवमसंखेज्जाओ चित्रीतरगंडियाओ णेयत्वा । जाब जियसन्त राया अजियजिणपिया समुप्पण्णो ॥ ३२ ॥ एवं गाहाहि चित्तरगंडिया चित्रान्तरनन्दाचूषा सम्मत्ता । इमा एतासिं ठवणा -
गण्डिका ॥६॥ एतिया लक्खा सिद्धा-२४१४१४ १४|१४|१४|१४ १४ १४ १४| एवं जाव असंखेज्जा पुसिसजुगा सिद्धा
1 एत्तिया सव्वदृगया- ||२|३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १०] एसा पढमा, अत्मे परं सिद्धा लक्खा [8] IPI सिद्धा एत्तिया लकखा-१/२ | ३ | ४ ५ ६ ७ ८ ९ सवढे लक्खा जाव असंखेज्जा पुरिसजुगा |
सव्वट्ठमि गया एत्तिया लक्खा १४ १४ | १४ | १४ १४ | १४ १४ १४ | १४ | सिद्धा, एसा बीया, अओ परं एत्तिअलक्खा सिद्धा सव्वद्वेवि एचिया
एवं जाव असंखेज्जा आवलिया। आवलिया एगादि एगुत्तरं दोवि गच्छति | २ | ३ ४ ५ ६ ७ ८ | ९ | दरगमणाओ पंचासीइमे ठाणे चिट्ठति, 81 |२/३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ एसा तझ्या गंडिया, अतः परं चतस्रो है।
गडिया एकोत्तरा प्रदश्यते ।।
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गाथा
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श्री नन्दी चूर्णो
॥ ६१ ॥
एमाइ एगुत्तरा पढमा या एगादि सिद्ध एगादि सिवगति बिउत्तरिया सब्बडे लक्खा. एवं जाव असंखेज्जा.
१
२
“नन्दी”- चूलिकासूत्र- १ (चूर्णि:)
. मूलं [ ५७ ] / गाथा ||८२-८४||
३ ५ ७
४
११ १३
५ ८ १० १२ १४
५
१
९
३ ७ ११ १५
१३ १७ २४ ७२ द्वा९ १ १९ ४२ २७ १०३
२९ ३४ ४२ ५१
३७ ४३ ५५ ४० ७६ १०६ ३१
३१ ३८ ४६ ३५ ४७ ५७ ५४ ४२ ९९ ३० ११६
तिउत्तरा तझ्या चिचंतरमंडिया.
३
~66~
७ १३ १९ २५ ३१ ४ १० १५ २२ २८ ३४
८ १५ २५ ११ १२ २० ९ १५
१७ | २९ १४ ५०. १३ २८ २६ ७३
एवं गाहानुसारेण णायव्वं जाव अखंज्जा । चूलत्ति सिहरं दिट्टिवाते जं परिकम्मसुतपुव्वपुव्वाणुओगे य भणितं तच्चूलासु भणितं, साय चूलाओ आदिस्लपुव्वाण चउण्डं, फूलवत्थ भणितातो चैव सम्दुवरि ठविता पढिज्जति य, अतो ते सुतपन्ययचूला इव चूछा, सेसि जहकमेण संखा, चतु वारस अड्ड दसय भवति चूडा चउण्ड पुडवाणं । एए व चूलवत्थू सब्बुवरिं किल पढिज्जति ॥ १ ॥ संखेज्जा वश्यू, मणुषीसुतय दो सता, संखेज्जा चूलवत्थुत्ति चडतीसं (८५-२४६) अनंता भाषात्ते भवनं भूतिर्वा भावः, ते य जीवाजीवात्मका अणता प्रति
चित्रान्तरगण्डिका
॥ ६१ ॥
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आगम
(४४)
"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
................मूलं [७] / गाथा ||८२-८४|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
श्री
नन्दाचूणा
[५७]
॥६
॥
गाथा
||८२
काबद्धा, अणता अभावनि अभवन अभावः अभूनिर्वा, जम्हा जीवा अजीवतेण अभाव: अजीवो य जीवत्तेण, घनो पचतेण पलो य घढत्तेण,13/ मावाचा:
एमादि अर्णता अभावा प्रतिबद्धा, अहवा जे अहा जावइया भावा तेसिं परिपक्यतो ताबड्या चेव अर्णता अभावा भवंति, 'अणंता हेउ' तिद पंचदसावयवववणे सपक्खधम्मसपा खत्तअभिलसितसझसाधकं वयणं हेतू भवति, अहवा सम्बजुत्तिजुत्तं बदणं हेतू भण्णति, अहवा सब्वे जिणवयणपहा हेतू प्रतिपादकत्तणतो, णिहोसहेतुक्यणं वा, मुत्तस्स य अर्थतगमत्तणतो, एवं अणंता अहेतू, भाणितपडिपक्खो, ते य अणवा चेवाहेतू , अणंता कारणति कज्जसाहयं कारणति, ते य पयोगवीससातो अणवा भाणियब्वा, जे च जस्स असाधकं तं तस्स अकारणं, जहा चकादंडादयो पदस्स, एवं अर्णता अकारणा, अंणता जीवा इत्यादि कंश्यं, 'इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडग तीते काले अर्णता | जीवा आणाय विराधेत्ता इत्यादि, (५८-२४७ ) दुकालसंग गणिपिडगं तिविहं पण्ण-सुत्ततो अत्यवो तदुभयो, पसेव आणा तिविहा | सुत्ताणा अत्थाणा तदुभवाणा य, एगद्विता तहवि अभिहाणतो विसेसो काजइ, यथा आज्ञाप्यते एभिः तदा आमा भवति, तंतुभिः पटं ब्यय, | देवदत्तवत् आज्ञाप्यते यया हितोपदेशः तदा आशा इति । इदाणि एतेसिं विराहणा चिंतिजइ, जे सुत्ततो दुवालसंगं गणिपिडर्ग तं अत्थतो | भणितं अमिाणिवेसण अण्णहा पण्णवेतो ताए अस्थाणाए सुतं विराहिता तीते कालेऽणता जीवा संसारं भमियपुग्धा गोदामाहिलवत, अहवा |अं अत्थतो जे दुवालसंग गणिपिडगं सुत्ततो अभिनिवेसेण अण्णहा पठित्ता ताए सुत्ताणाए अत्धं विराहेत्ताऽतीते काळेऽणता जीवा संसार
भमियपुव्वा जहा जमाली, अहवा आणति पंचविहायाराराधणसीलता गुरुणो हितोपदेसवदण आणाए अण्णहा आवरतण गणिपिडगं विरा-181 |धितं भवति, एवं तीए काले अर्णता जीवा संसार भमियपुवा, एसो अक्खरसमो अस्थो, इमो यऽणक्खरसमो-आणाए विराधेचा इति, जहाद छायाए भुंजिचा गतो, णो छायाए करणभूयाए भुजेत्ता, किंतु छायायां भुक्त्वा गतोत्ति, एवं आशायां विराधनं करवा, सा य आणा इमा
RESEASESSASSES*
दीप अनुक्रम [१५०
१५४]
अथ द्वादशांगीनां आराधना-विराधनाया: फलम् वर्णयते
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आगम
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"नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
..................मूलं ५८] / गाथा ||८५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र- [४४], चूलिकासूत्र- [१] "नन्दीसूत्रस्य चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
1५८
गाथा
॥६३॥
||८५||
EिSIRESices
इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगं आणाए विरोहता' सेसं पूर्ववत् , पहुप्पण्णअणागतेसु एवं चेव वत्तव्यं, गवरं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवाद्वादशांगाति, अर्णता असंखेज्जा य न भवतित्ति, मणुयाण संखेज्जतणतो, आराहणसुचेसु एवं घेव बत्तव्यं, ण कथाती णासी अवीवकाले नास्तित्व-आराधना भावप्रतिषेधकं सूत्र, 'भुवि च' इत्यादि त्रिकाले अस्तित्वसाधर्क सूत्रं, त्रिकालभाषणता चेव अचळता, ठिकचा धुवा मेर्वादिवत्, धुवसणवो विराधना | पेव जीवादिणवपदत्थेसु नियुक्त नियतं जधा लोकवचनं पंचास्तिकायेष्विव, णिवत्तणतो व सासर्य शश्वद् भवतीति समयावलिकामुहूर्तदिनादि-ते
फलं चव जावाणिवपदत्यान प्वाका, सासयत्तणतो पेव वायणादिसु अक्खयं, नास्ति पयो अतयं गंगासिंधुपवाहिष्वपि पाटीयादिहववत् , अक्खयतणतो घेच अध्ययं 13 नास्य व्ययो अव्ययं, मानुषोसरा बाहियसमुद्रवत् , अव्ययत्तणतो चेव स्वप्रमाणे अवहितं जैबूद्वीपादिवत् , अक्खयत्तणतो व सय्वहा चिंतिम-16 | माणं णिकचं आकाशवत् , अविनाशीत्यर्थः, हवा एते भुवादिया एगट्टिया, चोदक आहइन्चे हुबालसंग धुवादिपदपरूवितं किमाणाकागेशी, आचार्याह-जम्हा जिणा णण्णहावादिणो तम्हा सेसि वयणं सवं आणाते चेव गेज्ज्ञ, कहिंवि विद्वतावि गेझ, इह दुवालसंगरस धुवादि-18
परूवितत्वस्म साधको इमो दिहतो से जधा णामएइत्यादि, फठ्यं, तच्च दुवालसंग सुतं चन्विहं वन्वादियाण आव सुयणाणकेवळते पडुच |
भणितं-दव्यतो णं सुयणाणी सुवणाणणावउत्ता सुत्तविण्णचीए सव्वदव्वादि जाणति, पासइत्ति विरोधो?, उच्यते, जम्हा अदिहाणवि मेकमा-12 ४ दियाण पासणयाए आगारया लिइह जो वाऽदि लेक्खइ, पण्णवणाए य भणिता सुयणाणपासणतचि ण विरोहो, आरतो पुण जे सुतणाणी
ते सव्वदव्वाण पासणतासु भइया, सा य भयणा मतिविसेसतो जाणियब्वा, एवं खेत्तकाळभावेसुवि. माणितव्वा, सुतणाणदसणथं भण्णति PI'अक्खर' गाहा (०८६-२४९) (५१-२४९) इमा चोइसविहमुतभावपरूवणा कता, एवं आवारादि गणधरपणीयं तस्स पत्तेयबुद्धसासि
तस्स वा तधाकालाणुभावतो बळबुद्धिमेधाविहाणि जाणिकग जे य सुयभावा आयरिणहिं णिज्जूढा तेसु गहणविही दसिज्जा--'आगम' गाहा
दीप
अनुक्रम [१५५
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आगम
“नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (चूर्णि:)
..मूलं १९] / गाथा ||८६-९०|| ...
(४४)
प्रत सूत्रांक
5-0८७-२४९) इमेते वह बुद्धिगुणा 'सुस्वसइ०' गाथा (*८८-२४९) विणेयरस अत्यसवणे इमा विही 'मयं हुंकार' गाम०४९-२४९) द्वादशांगानन्दाचूणाला गुरुणो अणुयोगकरणे इमा विही सुत्तस्थो खलु' गाहा (१९०-२४९) 'जं नु भणियमूर्ण वा अतिरितं बावि अहव विवरीयं । तं सम्मशुयोग-लाना ॥६॥ धरा कहेस काउ समक्खंति ॥१॥ गिरेणगामेत्तमहासहा जिवा, पसूयती संख जगट्ठिताकुला । कमविता बीमत चिंतितक्यारा फुलंबई
विराधना
फलं 18 तमिधाणबमुख्य ॥१॥ सकराजतो पंचसु वर्षशतेषु नंद्यध्ययनपूर्णी समाप्ता इति ॥ प्रन्यानं ॥ १५०० ॥
[५९]
गाथा
||८६
कलम
" इति श्रीनन्द्यध्ययनचूर्णिः
समाप्ता।
॥६
॥
दीप अनुक्रम [१५८
१६३]
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादिता (आगमसूत्र ४४)
"नन्दीसूत्र-चूर्णि:” परिसमाप्ता:
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________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 44 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च / “नन्दी चूलिकासूत्र” [चूर्णि:] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "नन्दीसूत्र” चूर्णि: नामेण परिसमाप्ताः। Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's ~70~