Book Title: Aagam 30 GACHCHH AACHAAR Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] श्री गच्छाचार (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “गच्छाचार” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आद्य संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com, M.Ed., Ph.D.) 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[३०], प्रकीर्णकसूत्र- [७] गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र -७ (मूलं+संस्कृतछाया) - मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [ ३० ], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया 'गच्छाचार' प्रकीर्णक (७) श्री आगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अयं ग्रन्थाङ्कः - ४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं । चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्) प्रकाशकः - श्री आगमोदयसमितेः कार्यवाहकः झवेरी वेणीचंद सूरचंद । इदं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटीयां - २६-२८ तमे गृहे रामचंद्र बेस शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । बीर [सं० २४५२. गच्छाचार - प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज” विक्रम सं० १९८३. ~1~ सन १९२७ ई. [ वेतन रु. २-०-० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १३७ 'गच्छाचार' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १३७ मलाक: गाथा: पृष्ठांक: मूलाक: गाथा: पृष्ठाक: मलाक: गाथा: पष्ठाक: । ००४ ००१ | ०४१ | मङ्गलं-आदिः गुरू-स्वरुपस्य वर्णनं ००३ | १०७ | गच्छ-संवसमानस्य-गुणा: । ००४ | आर्या-स्वरुपस्य वर्णनं | ०१७ ००७ | | १३४-१३७ सूरि-स्वरुपस्य वर्णनं उपसंहार । ००४ । ०२१ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गच्छाचार मूलं एवं संस्कृतछाया) इस प्रकाशन की विकास-गाया यह प्रत सबसे पहले “चतुः शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफ करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? *आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोंमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है । हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है । अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन -भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ...... मुनि दीपरत्नसागर ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ..आगमसूत्र [३०], प्रकीर्णकसूत्र [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+संस्कृतछाया) (३०) ----.......- मूलं [१]--....-...--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रकीर्णकेषु ॥ ७ गच्छाचारे प्रत सूत्रांक ॥६१॥ ||१|| अथ गच्छाचारप्रकीर्णकम् ॥७॥ | गच्छवासनमिऊण महावीर तिअसिंदनमंसियं महाभागं । गच्छायारं किंची उद्धरिमो सुअसमुदाओ॥१॥७१०॥1 अत्थेगे गोयमा! पाणी, जे उम्मग्गपइटिए । गच्छमि संवसिसाणं, ममइ भवपरंपरं ॥२॥७११ ॥ खामद्धं । जाम दिण पक्वं, मासं संवच्छरंपि वा । समग्गपट्टिए गच्छे, संवसमाणस्स गोयमा!॥३॥७१२ ॥ लीला-11 अलसमाणस्स, निरुच्छाहस्स बीमणं । पक्स्लाविक्खीइ अन्नेसि, महाणुभागाण साहणं ॥४॥७१३॥18॥ उज्वमं सवधामेसु, घोरंबीरतवाइअं। लवं संकं अइकम्म, तस्स विरियं समुच्छले ॥५॥७१४॥वीरिएणं तु जीवस्स, समुच्छलिएण गोयमा!। जम्मतरकए पावे, पाणि मुहुत्तेण निदहे ॥६॥७१५॥ तम्हा निषणं निहा-12 लेड, गच्छ सम्मग्गपट्टियं । वसिज तस्थ आजम्म, गोयमा! संजए मुणी ॥७॥७१६ ॥ मेढी आलंपणं खंभ, अथ गच्छाचारप्रकीर्णकम् ॥७॥नत्वा महावीरं त्रिदशेन्द्रनमस्थितं महामागम् । गपछाचार कश्चित् नद्धरामि श्रुतसमुद्रात् ॥ १॥ सन्त्येके गौतम! प्राणिनो ये उन्मार्गप्रतिष्ठिताः । गच्छे समुष्य भ्राम्यन्ति भवपरम्पराम् ॥ २ ॥ यामाई याम दिन पक्षं मासं संवत्सर-17 मपि वा। सन्मार्गप्रस्थिते गमछे संवसतो गौतम! ॥ ३ ॥ लीलयाऽऽलस्यं कुर्वाणस्य निरुद्यमस्य विमनस्कस पश्यतामन्येषां महानु-1 भागानां साधूनाम् ।। ४ ।। उपमः सर्वक्रियासु घोरे वीरे तपआदी । लजां शङ्कामतिक्रम्य तस्य वीर्य समुच्छलेत् ॥ ५॥ वीर्येण तु || जीवस्य समुच्छलितेन गौतम! । जन्मान्तरकृतानि पापानि प्राणी मुहूर्तेन निदेहेत् ॥ ६ ॥ तस्मानिपुर्ण निभाल्य सन्मार्गप्रस्थितं गच्छं। । तत्राजन्म वसेत् गौतम ! संयतो मुनिः ॥ ७॥ यस्मात्सूरिगच्छस्प मेढी आलम्बनं स्तम्भो दृष्टिः सुगुप्तं यानं भवति तस्मात्तमेव दीप अनुक्रम JINEnatimimmaN | भगवंत-वीर-वंदना, गच्छे संवसमानस्य फलम् ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+संस्कृतछाया) (३०) ...............-- मल [८]-.-..--.----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्राक ||८|| दीप दिट्ठी जाणं सुउत्तमं । सूरी होइ गच्छस्स, तम्हा तं तु परिक्खए ॥ ८॥ ७१७ ।। भयवं! केहिं लिंगेहि, प्रसूरि उम्मग्गपद्वियं ?। विपाणिज्जा छउमत्थे, मुणीतं मे निसामय ॥९॥७१८॥ सच्छंदयारि दस्सीलं. आर-1 भेसु पषत्तयं । पीढयाइपडिबद्धं, आउकायविहिंसगं ॥१०॥७१९ ॥ मूलुत्तरगुणभट्ट, सामायारीविराहों। अदिनालोअणं निचं, निचं विगहपरायणं ॥ ११ ॥ ७२०॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स दायवा। परसक्खिा विसोही सहवि चवहारकुसलेणं ॥ १२ ॥ ७२१ ॥ जह सुकुसलोऽषि विजो अनसको अत्तणो वाहि। विल्लुवएसं सुचा पच्छा सो कम्ममायरह ॥ १३ ॥ ७२२ ॥ देसं खितं तु जाणित्ता, बस्धं पतं उवासयं । संगहे साहवरगं च, सुत्तत्थं च निहालहें ॥ १४ ॥ ७२३ ॥ संगहोवग्गहं विहिणा, न करेइ अ जो गणी। समणं समणिं तु दिक्वित्ता, सामायारिं न गाहए ॥१५॥ ७२४ ॥ बालाणं जो उ सीसाणं, जीहाए परीक्षेत ।। ८ ।। भगवन ! कैलिअरुन्मार्गप्रस्थितं सूरि छदस्थो मुनिर्विजानीयात् । तत् (कथयतः) मम निशमय ॥ ९॥ स्वच्छन्द|चारिणं दुःशील आरंभेषु प्रवर्तकं । पीठाविप्रतिबद्धमप्कायविहिंसकम् ॥ १०॥ मूलोत्तरगुणभ्रष्टं सामाचारीविराधकं नित्यं अदत्तालोधनं | नित्यं विकथापरायणम् ॥ ११ ॥ पत्रिंशद्गुणसमन्वागतेन तेनाप्यवश्य परसाझिकी विशुद्धिः सुष्वपि व्यवहारकुशलेन कर्सच्या ॥ १२ ॥ यथा सशलोऽपि वैध आत्मनो व्याधिमन्यस्य कथयति । पाद्वैद्योपदेशं कुत्ला स फर्माचरति ॥ १३ ॥ देश क्षेत्रं तु जात्या वस्त्र पात्रमुपाभयम् । समगृहीयात् साधुवर्ग च सूत्रार्थ प निरीक्षते ॥ १४ ॥ यो पनी विधिना सङ्कोपनही न करोति । श्रमणान् श्रमणीश्च दीक्षयित्वा सामाचारी न शिक्षयति ।। १५ । यस्तु बालान् शिष्यान् जिहया उपलिम्पति (लालयति)। न सम्यग् मार्ग प्रायति तं अनुक्रम अथ सूरि/गणि/आचार्यस्य स्वरुपस्य वर्णनं क्रियते ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१६]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया NI प्रत सूत्रांक ||१६|| प्रकीर्णकेषु उवलिंपए । न सम्म मग्गं गाहेइ, सो सूरी जाण वेरिओ ॥१६॥ ७२५॥ जीहाए विलिहतो न भद्दओ सारणा गणिलक्षणं ७ गच्छा- जहिं नथि । डंडेणवि ताडतो स भद्दओ सारणा जत्थ ॥ १७ ॥ ७२६ ।। सीसोवि वेरिओ सो उ, जो गुरूं| नवि बोहए । पमायमइराघत्य, सामायारीविराहयं ॥ १८ ॥ ७२७ ।। तुम्हारिसावि मुणिवर ! पमायवसगा। हवंति जब पुरिसा । तो को अन्नो अम्हं आलंबण हुन्ज संसारे?॥१९॥ ७२८ ॥ नाणंमि दसणम्मि अचर॥ ३२॥ Bणमि यतिसुवि समयसारेसु । चोएइ जो ठवेउं गणमप्पाणं च सोय गणी ॥२०॥ ७२९ ॥ पिंड उवहि: च सिलं उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं । चारित्तरक्खणट्ठा सोहिंतो होइ सचरित्ती ॥ २१ ॥ ७३० ॥ अप्परिस्साथी सम्म समपासी चेव होइ कजेसु । सो रक्खइ चक्खंपिव सवालवुहाउलं गच्छं॥२२॥ ७३१ ।। सीआN वेद विहारं सुहसीलगुणेहि जो अबुद्धीओ। सो नवरि लिंगधारी संजमजोएण निस्सारो॥२३॥७३२।। कुलगा-10 सूरि जानीहि वैरिणम् ॥ १६ ॥ जितया बिलिहन यत्र स्मारणा नास्ति स न भद्रकः । दण्डेनापि ताडयन् स भद्रको यत्र स्मारणा ॥१७॥ शिष्योऽपि वैव स तु यो गुरुं नैव बोधयेत् । प्रमादमदिराप्रस्तं सामाचारीविराधकम् ॥ १८॥ युष्मादृशोऽपि मुनिवसः! प्रमादवशगा भवन्ति यदि पुरुषाः । तहि कोऽन्योऽस्माकमालम्बनं भवेत्संसारे ॥ १९ ॥ ज्ञाने दर्शने च चारित्रे च त्रियपि समयसारेषु ।। प्रेरयति यः स्थापयितुं गणमात्मानं च स एव गणी ।। २० ।। पिण्डमुपधि शय्यामुगमोत्पादनैपणाशुद्धम् । चारित्ररक्षणाय शोधयन् भवति सचारित्री ।। २१ ॥ सम्यग् अपरिभापी कार्येषु भवत्येव समदर्शी। स रक्षति चक्षुखि सबालवृद्धाकुलं गच्छम् ।। २२ ॥ सादयति | बिहारं सुखशीलतागुणैर्योऽबुद्धिकः । स केवलं लिङ्गधारी संयमयोगेन निस्सारः ॥ २३ ॥ कुलप्रामनगरराज्यानि प्रहाय यस्तेषु करोति 81 दीप अनुक्रम [१६] 625 ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [२४] Enima “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं संस्कृतछाया) मूलं [२४]---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया मनगररजं पयहिअ जो तेसु कुणइ अ ममत्तं । सो नवरि लिंगधारी संजमजोएण निस्सारो ॥ २४ ॥ ७३३ ॥ विहिणा जो उ चोएह, सुत्तं अत्थं च गाहए । सो घण्णो सो य पुण्णो य, स बंधू मुक्खदायगो ॥ २५ ॥ ॥ ७३४ ॥ स एव भवसन्ताणं चक्खुभूए विआहिए । दंसेह जो जिणुडिं, अणुहाणं जहद्विअं ॥ २६ ॥ ।। ७३५ ।। तित्थयरसमो सूरी सम्मं जो जिणमयं पयासेह । आणं अइकमंतो सो कापुरिसो न सप्पु रिसो ॥ २७ ॥ ७३६ ।। भट्ठायारो सूरी भट्ठायाराणुवेक्खओ सूरी उम्मग्गठिओ सूरी तिनिवि मग्गं पणासंति ॥ २८ ॥ ७३७ ॥ उम्मग्गठिए सम्मग्गनासए जो अ सेवए सूरी। निअमेणं सो गोयम ! अप्पं पाडेइ संसारे ।। २९ ।। ७३८ ।। उम्मग्गठिओ इकोऽवि नासए भवसत्तसंघाए । तं मग्गमणुसरंते जह कुतारू नरो | होइ || ३० || ७३९ || उम्मग्गमग्गसंपआिण सूरीण गोअमा णूणं । संसारो य अणंतो होइ य सम्मग्गममत्वं स केवलं लिङ्गधारी संयमयोगेन निस्सारः ॥ २४ ॥ विधिना यस्तु प्रेरयति सूत्रमर्थ चावगाहयति । स धन्यः स च पुण्यश्च स बन्धुर्मोक्षदायकः ।। २५ ।। स एव भव्यसत्त्वानां चक्षुर्भूतो व्याख्यातः । दर्शयति यो जिनोद्दिष्टमनुष्ठानं यथास्थितम् ॥ २६ ॥ तीर्थंकरसमः सूरियों जिनमतं प्रकाशयति । आज्ञामतिक्राम्यन् स कापुरुषो न सत्पुरुषः ॥ २७ ॥ भ्रष्टाचारः सूरिभ्र्ष्टाचाराणामुपेक्षकः सूरिः । उन्मार्गस्थितः सूरिखयोऽपि मार्ग प्रणाशयन्ति ॥ २८ ॥ उन्मार्गस्थितान् सन्मार्गनाशकान् यस्तु सेवते सूरीन् । नियमेन स गौतम ! आत्मानं पातयति संसारे ।। २९ ।। उन्मार्गस्थित एकोऽपि नाशयति भव्यस्वसङ्घातान् । तं मार्गमनुसरतो यथा कुतारको नरो भवति ॥ ३० ॥ उन्मार्गामार्गसंस्थितानां सूरीणां गौतम! नूनम् । संसारयानन्तो भवत्येव सन्मार्गनाशकानाम् ॥ ३१ ॥ Far Pls Pethe y ~7~ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [३१]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रकीर्णकेषु ७ गच्छा- चारे ॥६३॥ प्रत सुत्रांक ||३१|| *CCCCAL नासीणं ॥ ३७४०॥ सुद्धं सुसामग्गं कहमाणो ठवह तइयपक्खंमि । अप्पाणं इयरो पुण मिहत्यधम्माओ आचार्य सतिश ७४१॥ जइदिन सकं काउं सम्मं जिणभासिज अणुवाणं । तो सम्म मासिजाजह भणि खीणरागेहिं ।। ३३ ।। ७४२ ॥ ओसनोऽवि विहारे कम्मं सोहर सुलभबोही जाचरणकरणं विसुद्धं ववूहितो परवितो । ३४ ॥७४३ ।। सम्मग्गमग्गसंपहिआण साहूण कुणा वच्छल्लं । ओसहभेसजेहि सयमनेणं तु कारेई ॥ ३५ ॥ ७४४ ॥ भूए अस्थि भविस्संति केइ तेलुकनमिअकमजुअला । जेसिं परहिअकरणेष-10 बद्धलक्खाण बोलिही कालो ॥३६॥ ७४५ ॥ सीआणागयकाले केई होहिंति गोअमा ! सूरी । जेसि नामग्गहणेवि हुज नियमेण पच्छित्तं ।। ३७ ।। ७४६ ॥ जओ-सयरीभवंति अणविक्खयाइ जह भिववाहणारे |लोए । पडिपुच्छसोहिनोअण तम्हा उ गुरू सपा भयइ ॥३८|७४७॥ जो उप्पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव य। शुद्ध मुसाधुमार्ग कथयन स्थापयति तृतीयपक्षे । आत्मानं इतरः पुनर्गृहस्थधर्मादश्यति ॥ ३२ ॥ यद्यपि न शक्यं कर्तुं सम्यग् जिनभा|पितमनमानम् । तथाऽपि सम्यग भाषेत यथा भणितं क्षीणरागैः ।। ३३ ॥ अबसन्नोऽपि विहारे कर्म शोधयति मुलभबोधिश्च । पर| णकरणं विशुद्ध अपयन प्ररूपयंश्च ॥ ३४ ॥ सन्मार्गमागेसप्रस्थितानां साधूनां करोति वात्सल्यम् । औषधभैषज्येषः खयमन्येन तु कारयेत् ॥ ३५ ॥ भूताः सन्ति भविष्यन्ति के ऽपि त्रैलोक्यनतकमयुगलाः । येषां परहितकरणैकबद्धलक्षाणां व्यतिप्रजति कालः ॥३६॥ ॥ ३६॥ अतीतानागतकालयोः केचिद्भविष्यन्ति गौतम ! सूरयः । येषां नामग्रहणेऽपि भवति नियमेन प्रायश्चित्तम् ॥ ३० ॥ यता ४ ॥६३॥ अनपेक्षया यथा लोके भृत्यवाहनानि खैरीभवन्ति तथा प्रतिपृच्छाशुद्धिनोदना ( विना शिष्याः) तस्माद्गुरं सदा भजेत् ॥ ३८ ॥ यस्तु | दीप अनुक्रम [३१] JAMERatindiamanand ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) --- ----- मूलं [३९]------ - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३९|| सीसवगं न चोएड, तेण आणा विराहिआ॥ ३९ ॥ ७४८ ॥ संखेवेण मए सोम्म!, वण्णि गुरुलक्षणं । गच्छस्स लक्खणं धीर!, संखेवेणं निसामय ॥ ४० ॥ ७४९ ॥ गीयत्थे जे सुसंविग्गे, अणालसी दडवए। अक्खलियचरिते सययं, रागहोस विवजए॥४१॥ ७५०॥ निट्टविअअहमयठाणे, सुसिअकसाए जिई-17 दिए । विहरिजा तेण सद्धिं तु, उउमत्णवि केवली ॥ ४२ ॥ ७५१ ॥ जे अणहिअपरमत्या, गोअमा118 संजया भवे । तम्हा ते विवजिजा, दोग्गइपंथदायगे ॥ ४३ ॥ ७५२ ॥ गीअस्थस्स वपणेणं, विसं हलाहलंद पिथे । निधिकप्पो य भक्खिजा, तक्खणे जं समुहवे ॥४४॥ ७५३ ॥ परमस्थओ चिसं णोतं, अमयरसायणं खुतं । निविग्घं जं न तं मारे, मओवि अमयस्समो॥४५॥ ७५४ ॥ अगीअस्थस्स वपणेणं, अमयंपि न घुटए । जेण नो तं भवे अमर्य, जं अगीयत्वदेसियं ॥ ४६ ॥ ७५५ ॥ परमत्थओ न तं अमर्य, विसं हालाहलं प्रमाददोषेण आलस्येन तवैव च । शिष्यवर्ग न नोदयति तेनाज्ञा विराधा ॥३९॥ सहेपेण गया सौम्य ! वर्णितं गुरोलक्षणम् । गच्छस्य | लक्षणं धीर! संक्षेपेण निशमय ॥ ४० ॥ गीतार्थो यः सुसंविनोऽनालस्यो दृढव्रतः । अस्खलितचारित्रः सततं रागद्वेषविवर्जकः ।। ४१॥ निप्तिताष्टमदस्थानः शोपितकषायो जितेन्द्रियः । विहरेत्तेन छद्मस्थेनापि साई तु केवली ॥ ४२ ॥ येऽनधीतपरमार्था गौतम! संयता | भवेयुः । तस्मात् तान दुर्गतिपथदायका इति विवर्जयेत् ॥ ४३ ॥ गीतार्थस्य बचनेन हालाहलं विषं पिवेत् । तत्क्षणे यत्समुपवेत्तनिर्वि-| कल्पश्च भक्षयेत् ॥ ४४ ॥ परमार्थतो विपं न तत् अमृतरसायनमेव तत् । निर्विघ्नं यन्न सन्मारयेत् मूतोऽप्यभूतसमः ॥ ४५ ॥ अगी-18 तार्थस्य वचनेनामृतमपि न पिबेन् । येन न तद्ववेदमृतं यद्गीतार्थेन दिष्टम् ॥ ४६॥ परमार्थतो न तदमृतं विषं हालाहलमेव तत् । दीप अनुक्रम RECENSESS [३९] JAMERussimimmsin IXI mjavitneyam गीतार्थ-महिमा वर्णयते ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [४७]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रकीर्णके ७ गच्छा- चारे प्रत सूत्रांक * * ||४७|| * खुतं । न तेण अजरामरो हुजा, तक्खपा निहर्ण वए ॥४७॥७५६ ॥ अगीअत्यकुसीलेहि, संग तिविहेणगीतार्थबोसिरे । मुक्खमग्गसिमे विग्धं, पहमी नेणगे जहा ॥ ४८॥ ७५७ ॥ पजलियं हुयवहं दहें, निस्संको तस्य महिमा पवेसि । अत्ताणं निहिनाहि, नो इसीलस्स अल्लिए ॥ ४९ ॥ ७५८॥ पजलंति जत्थ धगधगधगस्स गच्छलक्षणं गुरुणावि चोइए सीसा । रागरोसेण विषणुसरण तं गोअम! न गच्छं ॥ ५० ॥ ७५९ ॥ गच्छो महाणुभावो तत्थ वसंताण निजरा विउला । सारणवारणचोअणमाईहिं न दोसपडिवत्ती॥५१॥ ७६० । गुरुणो, छंदणुवित्ती सुविणीए जिअपरीसहे धीरे। णवि धद्धे णवि लुढे णवि गारविए न विगहसीले ॥५२॥७६१॥ खंते दंते गुत्ते मुत्ते बेरग्गमग्गमल्लीणे । दसविहसामापारीआवस्सगसंजमुजुते ॥५३ ।। ७६२ ॥ खर-| फरुसककसाएऽणिदृट्ठाइ निदुरगिराए । निन्भच्छणनिद्वाडणमाईहिंन जे पउस्सति ॥५४॥७६३॥ जे अन| न तेनाजरामरो भवेत्तत्क्षणे निधनं प्रजेत् ॥ १७ ॥ अगीतार्थ कुशीलैः सङ्ग त्रिविधेन म्युरगजेत् । मोक्षमार्गस्येमे विनाः पधि स्तेना यथा ॥ ४८ ॥ प्रज्वलितं हुतवहं दृष्ट्वा निःशकस्तत्र प्रवेश्य । आत्मानं निर्दहेन नैव कुशीलमाश्रयेन् । ४९ ॥ प्रज्वलन्ति यत्र धगध गधगेति गुरुणाऽपि नोदिते शिष्याः । रागद्वेषाभ्यां व्यनुशयाभ्यां स गौतम! गच्छो न ॥ ५० ॥ गच्छो महानुभावस्तव वसतां निर्जरा। है विपुला । स्मारणावारणानोदनादिभिर्न दोषप्रतिपत्तिः ॥ ५१ ।। गुरुच्छन्दोऽनुवृत्तिः सुविनीतो जितपरीपहो धीरः । नैव लब्धो नैव, लुब्धो नैव गौरवितो न विकथाशीलः ॥ ५२॥ क्षातो दान्दो गुप्तो मुक्तो वैराग्यमार्गमाश्रितः । दशविधसामाचार्यावश्यकसंयमोयुक्तः ॥ ६४ ॥ ॥ ५३॥ वरपरुषकर्फशयाऽनिष्ठदुष्टया निरगिरा । निर्भर्त्सननिर्धाटनादिभिर्न यः प्रद्विष्यति ॥ ५५ ॥ यश्च नाकीर्तिजनको नायशो-18 दीप अनुक्रम ८-60-40-5 [४७] JAMERussimimminता अथ गच्छस्य स्वरुपम् कथयते ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१५]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया TA प्रत सूत्रांक ||५|| अकिसिजणए नाजसजणए नऽकजकारी अ । न पक्षणउडाहकरे कंठग्गयपाणसेसेऽवि ॥ ५५ ॥ ॥ ७६४ ॥ गुरुणा कजमकजे खरककसदुद्दनिदुरगिराए । भणिए तहत्ति सीसा भणंति तं गोअमा! गच्छं ॥५६॥ ७६५ ॥ दूजिलअ पत्ताइसु ममत्सए निप्पिहे सरीरेऽवि । जायमजायाहारे यापालीसेसणाकुसले ॥ ५७ ॥ ७६६ ॥ तंपि न रूबरसत्थं न य बण्णस्थं न चेव दपत्धं । संजमभरवहणत्थं अक्खोवंग व वहणत्धं ॥ ५८॥ ७६७ ॥ वेयण यावचे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तिपाए छट्ट पुण धम्मचिंताए ॥ ५९॥ ७६८ ॥ जत्थ य जिट्ठकणिहो जाणिजह जिट्टविणयबहुमाणो । दिवसेणवि जो जिट्ठो न हीलिज्जइ स गोअमा गच्छो ॥३०॥७६९ ॥ जत्थ य अजाकप्पं पाणचाएवि रो(घो)र दुन्भिक्से । न प परिभुजह सहसा गोअम! गच्छं तयं भणियं ॥ ३१॥ ७७० ॥ जत्थ य अजाहि समं घेरावि न उल्लर्विति गयदसणा। जनको नाकार्यकारी च । न प्रवचनोहाहकरः कण्ठगतप्राणशेषोऽपि ।। ५५ ।। गुरुणा कार्वेऽकार्ये वा खरकर्कशदुष्टनिरगिरा । भणिते ? तथेतिशिष्या भणन्ति यत्र गौतम! तं गई जानीहि ।। ५६ ॥ दूरोज्झितपात्रादिममत्वो निःस्पृहः शरीरेऽपि । जाताजानाहारपरिष्ठापनायां विचत्वारिंशदेवणासु कुशलः ।। ५७ ॥ तदपि न रूपरसार्थ न च वयं न चैव दार्थ । संयमभरवहना) वहनार्थमझोपाञ्जन| मिथ ॥ ५८ ॥ वेदनायै वैयावृत्याय ईर्या संगमार्थ तथा प्राणप्रत्ययं षष्ठं पुनर्धर्मचिन्तायै ।। ५९ ॥ यत्र च ज्येष्ठकनिष्ठौ हायेते ज्येष्ठ-1 विनयवहुमानश्च । दिवसेनापि यो ज्येष्ठो नच स हील्यते यत्र स गौतम! गच्छः ।। ६० ॥ यत्र चार्यालब्धं रोरदुर्भिक्षे प्राणत्यागे ऽपि । न च परिभुज्यते सहसा गौतम! गच्छः स भणितः ।।६१।। यत्र चामिः समं स्थविरा अपि नोड़पन्ति गतदशनाः। न प यानि बीणा-II दीप अनुक्रम [१५] KASA अथ गच्छ-स्वरुप-मध्ये आर्या-संसर्गस्य दोषा: वर्णयते ~114 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं+संस्कृतछाया) (३०) चारे 5 प्रत सूत्रांक ||६२|| --------------- मूलं [६२]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया स प्रकीर्णकेषु न य झायंति थीणं अंगोवंगाई तं गच्छं ॥ ३२॥ ७७१ ॥ बजेह अप्पमत्ता अजासंसग्गि अग्गिविसस- आर्यासंस७ गच्छा- रिसी । अजाणुचरो साहू लहइ अकित्तिं खु अचिरेण ॥ ३३ ॥ ७७२ ॥ घेरस्स तबस्सियस्स व बहुसुयस्स गनिन्दा हाच पमाणभूअस्स । अज्जासंसगीए जणपणपं हविजाहि ॥ १४ ॥ ७७३ ॥ किं पुण तरुणो अपहुस्सुओ अ| Fण पऽविहु विगिढतवचरणो । अज्जासंसग्गीए जणपणयं न पाविजा? ॥६५॥ ७७४ ॥ जइवि सद घिरचित्तो तहावि संसग्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीवेव घर्ष विलिज चित्तं खु अज्जाए ॥ ६६ ॥ ७७५॥ सवस्थ इत्यिवग्गमि अप्पमत्तो सया अवीसत्यो । नित्थरइ यंभचेरं तबिधरीओन नित्थरह ।। ६७॥ ७७६ ॥15 सबस्सु विमुत्तो साहू सवस्थ होइ अप्पवसो । सो होइ अणप्पवसो अजाणं अणुचरंतो उ ॥ १८॥७७७॥ खेलपडिअमप्पाणं न तरह जह मच्छिआ विमोएउं । अवाणुचरो साहून तरह अप्पं विमोए ॥ १९॥ ४७७८ ॥ साहुस्स नत्यि लोए अजासरिसी हु बंधणे उवमा । धम्मेण सह ठवंतो न य सरिसो जाण असि मङ्गोपाङ्गानि स गच्छः ।। ६२ ।। वर्जयताऽप्रमत्ता आर्यासंसर्गमभिविषसदृशम् । आर्यानुचरः साधुर्लभते ऽकीति खल्वचिरेण ॥ ६३ ॥ खबिरस्य तपस्विनो बहुवतस्य प्रमाणभूतस्यापि । आसंसर्या जनजल्पनं भवेत् ।। ६४॥ किं पुनस्तरुणोऽवदभुतधन चैव विरुष्ट-II तपश्चरणः । आर्यासंसर्या जनजपनं न प्राप्मुवात् ।। ६५ ।। यद्यपि सयं स्थिरचित्तस्तथाऽपि संसर्गीलब्धप्रसरायाः । अनेः समीपे पृक्-13 | मिव चिली येत चित्तमार्यायाः ॥६६॥ सर्वत्र सीवर्गेऽप्रमत्तः सदाऽविश्वसः। नितरति ब्रह्मचर्य तद्विपरीतो न निस्तरति ।। ६७॥ ॥६५॥ सर्वार्थेषु विमुक्तः साधुः सर्वत्र भवत्यात्मवशः । स भवत्यनारमवश आर्याणामनुचरंस्तु ।। ६८ ॥ श्लेष्णपतितमात्मानं यथा मक्षिका विमो-101 दीप अनुक्रम [६२] JAMERamammelan ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) प्रत सूत्रांक ||60|| दीप अनुक्रम [8] Jan Em “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र - ७ (मूलं संस्कृतछाया) मूलं [60]---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया लेसो ॥ ७० ॥ ७७९ ॥ वायामितेवि जस्थ भट्टचरित्तरस निग्ग विहिणा । बहुलद्धिजुअस्सावि कीरङ्ग गुरुणा तयं गच्छं ॥ ७१ ॥ ७८० ॥ जत्थ य सन्निहिउखड आहडमाईण नामग्रहणेऽवि । पूर्वकम्मा भीआ आउला कप्पतिप्पेसु ।। ७२ ।। ७८१ ।। मउए निहुअसहावे हासदवविवज्जिए विगहमुके। असमं जसमकरिते गोअरभूमह विहरति ॥ ७३ ॥ ७८२ ॥ मुणिणं नाणाभिग्गह दुकरपच्छितमणुचरंताणं । जायर चितचमक देविंदापि तं गच्छं ॥ ७४ ॥ ७८३ ॥ पुढविन्दग-अगणि-मारुअ-वणप्पड़-तसाण विविहजीवाणं । मरणंतेवि न पीडा कीरह मणसा तयं गच्छं ॥ ७५ ॥ ७८४ ॥ खजूरिपत्तमुंजेण, जो पमज्जे उवस्सयं । नो दया तस्स जीवेसु, सम्मं जाणाहि गोपमा ! ॥ ७६ ॥ ७८५ ॥ जत्थ य बाहिरपाणिस्स विदृमित्तंपि गिम्हचवितुं न शक्नोति तथाऽऽयनुचरः साधुर्न सक्कोयात्मानं विमोचयितुम् ।। ६९ ।। आर्यासदृशी साधोर्बन्धने ढोके उपमा नास्येव धर्मेण सह स्थापयन् न च सदृशोऽलेपं च तं जानीहि ॥ ७० ॥ यत्र वाड्यात्रेणापि भ्रष्टचारित्रस्य बहुलब्धियुक्तस्यापि । विधिना निग्रहो गुरुणा (यत्र) क्रियते स गच्छ ॥७१॥ यत्र च संनिभ्युपस्कृताहृतादीनां नामग्रहणेऽपि पूतिकर्मभीताः कल्पत्रेपेप्वायुक्ताः ॥ ७२ ॥ मृदुको निभृतस्वभावो हास्यनर्भविवर्जितो विग्रहमुक्तः । असमञ्जसमकुर्वन् गोचर भूम्यष्टकेन विहरति ॥ ७३ ॥ मुनीनां नानामिमहान् दुष्करप्रायश्चितं चानुचरताम् । देवेन्द्राणामपि चित्तचमत्कारो जायते यत्र स यच्छः ॥ ७४ ॥ पृथ्वीदकामिमारुतवनस्पतित्रसानां विविधजीवानां । मरणान्तेऽपि न पीडा क्रियते मनसा यत्र स गच्छः ॥ ७५ ॥ खर्जूरीपत्रमुखेन यः प्रमार्जयेदुपाश्रयम् । गौतम ! तस्य जीर्वेषु दवा नैति सम्यग् जानीहि ।। ७६ ।। यत्र च बापानकस्य विन्दुमात्रमपि प्रीष्माविषु तृष्णाशोषितप्राणा मरणेऽपि मुनयो न गृइन्ति ॥ ७७ ॥ Far Pal Pathe On ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [७७]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||७७|| प्रकीर्णके माईसु । तण्हासोसिअपाणा मरणेऽवि मुणी न गिपहंति ॥ ७७ ॥ ७८६ ॥ इच्छिज्जइ जस्थ सया बीअपए- गच्छस्वअगदाणावि फासुर्य उदयं । आगमविहिणा निउणं गोअम! गच्छं तयं भणियं ॥ ७८ ॥ ७८७ ॥ जस्थ प मूल वि-II रूपम् चारे सहअ अन्नयरे वा विचित्तमायके । उप्पन्ने जलणुजालणाइ न करेह तं गच्छं ॥ ७९ ॥ ७८८॥ बीअपएणं| ४सारूविगाइसहाइमाइएहिं च । कारिती जयणाए गोयम! गच्छं तयं भणियं ॥ ८०॥ ७८९॥ पुप्फाणं वीआणं तयमाईणं च विविहदवाणं । संघट्टणपरिआवण जत्थ न कुजा तयं गच्छं ॥८१॥ ७९०॥ हासं ४ खेड़ा कंदर्प नाहियवायं न कीरए जत्थ । धावण डेवणलंघणममकारावपणउच्चरणं ॥ ८२ ॥ ७९१ ।।। जस्थिस्थीकरफरिसं अंतरिअं कारणेऽवि उप्पन्ने । दिट्ठीविसदित्तग्गी विसं व बजिजए गच्छे ।। ८३ ॥ ॥ ७९२ ॥ बालाए चुहाए ननुय दुहिआए अहव भइणीए । न य कीरइ तणुफरिसं गोअम! गच्छं तयं| ॥६६॥ दीप अनुक्रम [७७] इष्यते यत्र च सदा द्वितीयपदेनापि प्रामुकमुदकम् । आगमविधिना निपुर्ण गौतम ! गच्छः स भणितः ।। ७८ ॥ यत्र च शूलविधिकाही अन्यतरस्मिन् वा विचित्रे आतके उत्पन्ने चलनोचलनादि न करोति स गठः ॥७९॥ द्वितीयपदेन सारूपिकादिभादादिफैध। कार. यन्ति यतनया गौतम ! गच्छः स भणितः ।। ८० ॥ पुप्पाणां वीजानां त्वगादीनां च विविधद्रव्याणाम् । सङ्घनपरिनापने यत्र न कुर्यात् । स गच्छः ।। ८१ ॥ हास्य क्रीडाकन्दो नास्तिकवान यत्र न क्रियते धावनप्लवनलवनानि ममकारावर्णोधारणं च ॥ ८२ ॥ यत्रान्तरि-6॥६६॥ तोऽपि स्वीकरस्पर्शः कारणे ऽयुत्पन्ने । बचते दृष्टिविषदीमाग्निरिव विपवन स गच्छः ।।८३॥ चालाया वृद्धाया नमुर्दुहितुरथवा भगिन्याः । LAIMEBusiniyamation ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [८४]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||८४|| AAAACA4 भणियं ॥ ८४ ।। ७९३ ।। जत्थित्धीकरफरिसं लिंगी अरिहावि सयमवि करिना। तं निच्छयओ गोअम!! जाणिना मूलगुणभट्ट ।। ८५ ।। ७९४ ॥ कीरइ बीअपएर्ण सुत्तमभणियं न जत्थ विहिणा उ । उप्पन्ने पुण, कले दिक्खाआपंकमाईए ॥८६॥ ७९५॥ मूलगुणेहि विमुकं यहुगुणकलिपि लद्धिसंपणं । उत्तमकु-1 लेवि जायं निद्धादिजह तयं गच्छं ॥८७ ॥ ७९६ ॥ जत्थ हिरण्णसुवणे धणधपणे कंसतंचफलिहाणं ।। सपणाण आसणाण य मुसिराण चेव परिभोगो॥ ८८ ॥ ७९७ ।। जत्थ य वारडिआणं तस्स(तेक)डिआणं चतह य परिभोगो । मोत्तुं सुफिलवत् का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? ॥८९॥७९८॥ जत्थ हिरण्णसुवणं हत्धेण परागपं(गर्ग)पिनो छिप्पे । कारणसमप्पिअंपि हु निमिसखण«पि तं गच्छं ॥९० ॥ ७९९ ॥ जत्थ य अजालद्धं पडिगहमाई विविहमुवगरणं । परिभुंजइ साहहिं तं गोअम! केरिसं गच्छं? ॥ ११ ॥ ८०० ॥ मप कियते तनुस्पर्शो गौतम! स गच्छो भणितः ।। ८४ ॥ यत्र स्त्रीकरस्पर्श लिङ्गी अर्हन्नपि स्वयमपि कुर्यात् । गौतम ! निश्चयतस्तं मूलगुणभ्रष्ट जानीयाः ।। ८५ ।। क्रियते द्वितीयपदेन सूत्रेऽभणितं न यत्राविधिना । उत्पन्ने पुनर्दीक्षाऽऽनकादिके कार्ये ।। ८६ ॥ मूलगुणैविमुक्तं बहुगुणकलितमपि लब्धिसंपन्नम् । उत्तमकुलेऽपि जातं निर्धाटयति स गच्छः ।। ८७॥ यत्र हिरण्यसुवर्णयोर्धनधान्ययोः कास्यताम्रस्फटिकानाम् । शयनानामासनानां च शुषिराणां चैव परिभोगः ॥ ८८ ॥ यत्र च रङ्गयुक्तवस्त्राणां भरतादियुक्तानां च तथा च परि-1 भोगः । मुक्त्वा शुलं पत्र का मर्यादा तत्र गच्छे ॥८॥ यत्र हिरण्यसुवर्ण परकीयमपि कारणे समापतितेऽपि । निमेषक्षणार्द्धमपि न स्पृशेत स गच्छः । ९० ॥ यत्र पार्यालब्ध प्रतिमहायपि विविधभुपकरणम् । साधुमिः परिभुज्यते स गौतम! कीदृशो गच्छः ॥ ९१ ॥ दीप * अनुक्रम [८४] LAIMEBusinyaindianaM ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [९२]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रकीर्णकेषु ७ गच्छाचारे * प्रत ॥६७॥ सूत्रांक ||९२|| अगुल्लहभेसजं चलबुद्धिविषहणपि पुद्धिकरं । अवालद्धं भुजह का मेरा तत्व गच्छमि ॥ ९२ ॥ ८०१॥ एगो ब्रह्मादी एगिस्थिए सर्दि, जत्थ चिट्ठिल गोयमा। संजईए विसेसेणं, निम्मेरं तं तु भासिमो ॥१३॥ ८०२॥ दढचा-[गच्छाचारः रित्तं मोतुं आइयं मयहरं च गुणरासिं । इको अज्झाई तमणायारं न तं गच्छं ॥९४ ॥ ८०३ ॥ घणगजियहयकुहि चिज दुग्गिजन गूढहिअयाओ । अजा अवारिआओ इत्थीरजं न तं गच्छं ॥ ९५ ॥८०४॥13 जत्य समुद्देसकाले साहणं मंडलीह अजाओ। गोअम! उर्वति पाए हत्धीरजं न तं गच्छं ॥ ९६ ॥ ८०५॥18 जत्थ मुणीण कसाए जगडिजंतापि परकसाएहिं । निच्छंति समझे सुनिविट्ठो पंगुलो चेव ॥ ९७ ॥८०६|| धमतरापभीए भीए संसारगन्भवसहीणं । न उईरंति कसाए मुणी मुणीणं तयं गच्छं ॥९८॥ ८०७॥ कारणमकारणेणं अह कहवि मुणीण उट्टहिं कसाए । उदिएवि जत्थ भन्ति खामिजह जत्थ तं गई ॥२९॥ अतिदुर्लभं भैषज्यं बलबुद्धिविवर्द्धकमपि पष्टिकरम् । आर्यालब्धं यत्र भुज्यते का मर्यादा तत्र गच्छे ? ॥९२शा एकाकी एकाकिन्या स्त्रिया यत्र तित् गौतम! विशेषेण संयत्या निर्मादमेव तं भाषामहे ॥ ९३ ॥ दृढचारित्रामादेयां गुणराशि महत्तरिको मुक्त्वा । एकोऽध्याप-12 यति यत्र सोऽनाचारो न स गच्छः ॥ ९४ ॥ पनगर्जितहयाकविद्याद्वदुर्भाहागूढहदया। आर्याऽवारिता यत्र तत् खीराय न स गरछः ॥ ९५ ।। यत्र भोजनकाले साधूनां मण्डल्यामार्याः । पादौ स्थापयन्ति गौतम! तत् स्त्रीराज्यं न स गच्छः ॥९६॥ यत्र मुनीनां परकपा|येदीप्यमाना अपि पायाः मुनिविष्टपाङ्गल इवन समुत्थातुमिच्छन्ति ॥ ९७ ॥ धर्मान्तरायभीता भीताः संसारगर्भवसतिभ्यः । नोदी-II||६७।। रयन्ति कपायान मुनीनां मुनयः स गपछः ॥९८॥ कारणेऽकारणे च अथ कथमपि मुनीनां कषाया उत्तिष्ठन्ति । तानुदितानपि यत्र रुचन्ति दीप 20-50-52-% अनुक्रम [९२] गच्छ-स्वरूप वर्णनं मध्ये गच्छ-मर्यादाया: अभावस्य आर्या/साध्वी आश्रित कारणानि दर्शयते (गच्छ के स्वरुप का वर्णन करते करते बिचमे सूत्रकारश्री ने | "साध्वीओ के कारण से" गच्छ की मर्यादा कैसे नही रहती, उस बात का वर्णन यहा बताया है) ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१००]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१००|| WIn८०८॥ सीलतवदाणभाषण चउबिहधम्मतरापभयभीए । जत्थ बह गीअत्थे गोअम! गच्छं तयं । काभणियं ॥ १०० ।। ८०९॥ जत्थ य गोयम! पंचण्ह कहवि मूणाण इकमचि हजा । तं गच्छतिविहेणं वोसि-1 टूरिय बइज्ज अन्नत्य ॥१०१।। ८१०॥ सूणारंभपवत्तं गच्छं सुजलं न सेविजा । जं चारित्तगुणेहिं उनलं18 तं तु सेविवा ॥ १०२ ॥ ८११ ॥ जत्थ य मुणिणो कयधिकयाई कृति संजमुन्भट्ठा । तं गच्छ गुणसायर । विसं व दूरं परिहरिजा ॥ १०३ ॥ ८१२ ॥ आरंभेमु पसत्ता सिद्धतपरम्मुहा विसपगिद्धा । मोतुं मुणिणो IN गोअम! वसिज मज्झे सुविहिआणं ॥ १०४ ॥ ८१३॥ तम्हा सम्म निहालेउ, गच्छ सम्मग्गपट्टि । पसिजा, पक्ख मासं वा, जावज्जीवं तु गोयमा ॥ १०५॥ ८१४ ॥ कुडो वुड्डो तहा सेहो, जत्थ रक्खे उबस्सप । तरुणो।' |चा जत्थ एगागी, का मेरा तत्थ भासिमो? ॥ १०६॥ ८१५ ॥ जत्थ य एगा खुड्डी एगा तरुणी उ रक्खए। क्षाम्यते च यत्र स गच्छः ॥ ९९ ॥ शीलतपोदानभावनारूपचतुर्विधधर्मान्तरायभयभीताः । यत्र बह्वो गीतार्थाः गौतम ! गरछः स| | भणितः ॥ १०० ॥ यत्र च गौतम! कथमपि पञ्चानां शूनानामेकमपि भवेत् । तं गच्छं त्रिविधेन व्युत्मध्यान्यत्र प्रजेत् ॥ १०१॥ शूनारम्भप्रवृत्तं गच्छं वेपोचलं न सेवेत । यचारित्रगुणैरुज्वलसमेव सेवेत ॥ १०२॥ यत्र च मुनयः क्रयविक्रयादि कुर्वन्ति संयमो-1* दृष्टाः । तं गन; गुणसागर! वियवहूर परिहरेत् ॥ १०३ ।। आरम्भेषु प्रसक्तान सिद्धान्तपराङ्मुखान विषयगृद्धान । मुनीन मुक्त्वा 31 गौतम ! मुविहितानां मध्ये बसेत् ॥ १०४ ॥ तस्मात्सम्यग् निभाल्य गच्छं सन्मार्गप्रस्थितम् । वसेत् पक्षं मासं वा यावजीवमेव वा गौतम ! ॥ १०५ ।। क्षुल्लको वृद्धस्तथा शैक्षो यत्र रक्षेदुपाश्रयम् । तरुणो वा यत्रैकाकी का मर्यादा तत्र भाषामहे ? ॥ १०६ ॥ वत्र दीप अनुक्रम [१००] COCCAS JIHEReatinatamansi ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) .---.-....-- मूल [१०७]------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया गच्छाचारः प्रत सूत्रांक ||१०७|| प्रकीर्णकेपुटवसाह । गाउमा तन्य विहार का सुद्धा बभचरस्स? ।। १०७ ॥ ८१६ ।। जत्थ य उवस्सयाओ राई गच्छ ७ गच्छा- हत्यमित्तंपि । एगारर्ति समणी का मेरा तत्थ गच्छस्स? ॥१०८।। ८१७ ॥ जत्य य एगा समणी एगो| पारे समणो अजपए सोम्म! । निअपंधुणावि सदितं गच्छं गच्छगुणहीणं ॥१०९॥ ८१८॥ जय जयार-| Mमपारं समणी जंपह गिहत्वपचक्खं । पचखं संसारे अज्जा पक्खिवह अप्पाणं ॥११० ॥ ८१९ ॥ जत्थ य ॥ २८॥ गिहत्वभासाइ भासए अजिया सुरुवादि । तं गच्छं गुणसायर! समणगुणविवजिअं जाण ॥ ११ ॥ ॥ ८२० ॥ गणि गोअम ! जा उचियं, सेअं वत्थं विवजिअं । सेवए चित्तरूपाणि, न सा अज्जा विआहिआ W॥ ११२ ॥ ८२१ ॥ सीवणं तुम्क्षणं भरणं, निहत्थाणं तु जा करे । तिल्लवहणं चावि, अप्पणो य परस्स य 15॥११३ ।। ८२२ ॥ गच्छह सविलासगई सयणीयं तृलियं सथियो । उबढे सरीरं सिणाणमाईणि जा | चैका क्षुल्लिका एका तरुणी वा रक्षते वसतिम् । गौतम! तत्र विहारे (संयमे ) का शुद्धिर्भमचर्यस्य ? ॥ १०७ ।। यत्र 'चोपाश्रयादहिः । ममणी एका रात्रिम् । दिहलमात्रमपि गच्छेत् तत्र गच्छस्य का मर्यादा ॥ १०८ ॥ यत्र चैका श्रमणी एकः श्रमणध (मिथः ) जल्पति | सौम्य ! । निजबन्धुनाऽपि माई स गच्छो गच्छगुणहीनः ।। १०९ ।। यत्र गृहस्थप्रत्यक्षं श्रमणी जकारमकारं जपति । तत्राऽऽर्याऽऽत्मानं | प्रत्यक्षं संसारे प्रक्षिपति ।। ११० ॥ यत्र च सुरुष्टाऽपि आर्या गृहस्थभाषामिर्भाषते । गुणसागर! गच्छं श्रमणगुणविवर्जितं जानीहि । ॥ १११ ॥ गणिगौतम ! उचितं श्वेतं वस्त्रं विवर्य याऽऽर्या चित्ररूपाणि (वस्त्राणि) सेवते साऽऽर्या न व्याख्याता ॥ ११२ ।। या गृहस्वाना सीवनतुण्णनभरचानि करोति । तैलोद्वर्तनं वाऽऽत्मनश्च परस्य च ।। ११३ ॥ गच्छति सबिलासगतिः शयनीयं तूलिका दीप 962 अनुक्रम [१०७] ६८।। LIVEReadinashasana श्रमणी/साध्वी/प्रवर्तिनी आदिनां आचार/स्वरुपम् वर्णयते ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [११४]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||११४|| कुणइ ॥ ११४ ॥ ८२३ ॥ गेहेसु गिहत्वाणं गंतूण कहा कहेइ काहीआ । तरुणाइअहिवडते अणुजाणे जाउ सा पडणी (साइ परिणीया)॥११५ ।। ८२४ ।। बुड्डाणं तरुणाणं रतिं अज्जा कहह जा धम्मं । सा गणिणी गुणसायर! पडणीआ होइ गच्छस्स ॥ ११६ ॥ ८२५ ।। जत्थ य समणीणमसंखडाई गच्छमि नेव जायंति ।। गच्छं गच्छवरं गिहत्वभासाओ नो जत्थ ॥ ११७॥८२६ ।। जो जसो वा जाओ नालोअइ दिवसप- मक्खि वापि । सच्छंदा समणीओ मयहरयाए न ठायंति ॥ ११८॥ ८२७ ।। विंटलि आणि पति गिलाण-14 सेहीण नेव तिप्पंति । अणगाढे आगाद करति अणगाढि अणगाढं ॥ ११९॥ ८२८ ॥ अजयणाए पकुवंति, पाहुणगाण अवच्छला। चिसलयाणि सेवंति, चित्ता रयहरणे तहा ॥ १२० ।। ८२९ ।। गइविन्भमाइपहि आगारविगार तह पगासिति । जह बुहाणवि मोहो समुईरह किं नु तरुणाणं १ ॥ १२१ ॥ ८३० ॥1 सविन्धोका (करोति ) । शरीरसुवर्तयति सानादीनि या करोति ॥११४|| गृहस्थानां गृहेषु गत्वा कधिका कथाः कथयति । तरुणानभ्यापत्तोऽनुजानाति सा प्रत्पनीका ।। ११५ ।। वृद्धानां तरुणानां याऽऽर्या रात्री धर्म कथयति । गुणसागर! सा गणिनी गरछस्य प्रत्पनीका भवति ॥ ११६ ॥ यत्र च गच्छे श्रमणीनां कलहा नैव जायन्ते । यत्र च न गृहखभाषा तं गच्छं गच्छवरं जानीहि ।। ११७ ।। यो । यतो वा जातस्तमसिधार देवसिकं पाक्षिकं वा नालोचयन्ति स्वच्छन्दाः श्रमण्यो महतरिकाज्ञायां न तिष्ठन्ति ॥ ११८ ।। विण्टलिकानि 15 लायुधन्ति ग्लानानां शैक्षीणां च न सर्पयन्ति । अनागाढेखागाढं आगादेऽनागाढं च कुर्वन्ति ।। ११९ ॥ अयतनया प्रकुर्वन्ति प्रापूर्ण- कानामवत्सलाः । चित्राणि वस्त्राणि तथा चित्राणि रजोहरणानि सेवन्ते ।। १२०॥ गतिविभ्रमादिभिराकारविकारान तथा प्रकाशयन्ति । दीप अनुक्रम [११४] ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१२२]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया चारे प्रत सूत्रांक ||१२२|| प्रकीर्णक यहुसो उच्छोलिंती मुहनयणे हत्थपायकक्खाओ । गिण्हेइ रागमंडल (मंडणु) भोइंति अतह य कबडे श्रमण्या७ गच्छा-18||१२२॥८३१॥ जत्थ य धेरी तरुणी धेरी तरुणी य अंतरे सुयइ । गोअम! तं गच्छवरं वरनाणचरित्तआहारं चारः है।॥१२३ ॥ ८३२ ॥ घोइंति कंठिआओ पोइंति तह य दिति पोत्ताणि । गिहकज्जचिंतगीओ नहु अज्जा ६९॥ गोअमा! ताओ ॥१२४ ॥ ८३३ ॥ खरघोडाइहाणे वयंति ते वावि तत्थ वचंति । वेसित्थीसंसग्गी उवस्सपाओ समीवंमि ॥१२५ ॥ ८३४ ॥ सज्झाय (छकार्य) मुक्कजोगा धम्मकहा विगहपेसण गिहीणं । गिहिनिस्सजं वाहिति संधर्व तह करतीओ ॥१२६॥८३५॥ समा सीसपरिच्छीणं, चोअणासु अणालसा । गणिणी | गुणसंपण्णा, पसत्यपुरिसाणुगा ॥ १२७ ।। ८३६ ॥ संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंडा य कारणे । सज्झाय-IA यथा वृद्धानामपि मोहः समुदेति किं नु तरुणानाम् ॥ १२१ ॥ बहुशो मुखनयनानि हस्तपादकक्षाश्च क्षालयन्ति । शिक्षते च रागमण्डल भोजयन्ति तथा च कल्पथकान् । (कल्पस्थकान गृह्णाति रजयति मण्डवति भोजयंति च तथा ) ॥ १२२ ॥ यत्र च स्थविरा | तरुणी स्थविरा तरुणी अन्तरा स्वपिति । गौतम! स गच्छवरो वरमानचारित्राधारः ।। १२३ । क्षालयन्ति कण्ठप्रदेशान् प्रोतयन्ति | च तथा च ददति बत्राणि गृहिकार्यचिन्तिकाः गौतम! नैव ता आर्याः ॥ १२४ ॥ खरघोटकादिखाने प्रजन्ति ते (नटविटादयः)। वाऽपि नत्र ब्रजन्ति । उपाश्रयसमीपे वेश्यास्त्रीसंसः ।। १२५ ।। मुक्तस्थाध्याययोगा धर्मको विकथा गृहिणां प्रेषणं च (कुर्वन्ति) गृहिनिषद्या बाहयन्ति संस्तवं तथा कुर्वन्ति च (यत्रार्या स न गच्छः) ॥ १२६ ॥ शिष्यप्रतीच्छकयोः समा नोदनासु अनलसा । गुणसं-IN॥ ९ ॥ पन्ना प्रशस्तपुरुषानुगा गणिनी ॥ १२७ ॥ संविना भीतपर्पच कारणे उपदण्डा । स्वाध्यायध्यानयुक्ता सङ्घहे च विशारदा ॥ १२८ ॥ SADCAad दीप अनुक्रम [१२२] JAMERananathaiane १ w jasthan.ary ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “गच्छाचार" - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) (३०) ------------- मूलं [१२८]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१२८|| ज्झाणजुत्ता य, संगहे अविसारया ॥ १२८॥ ८३७ ॥ जत्युत्तरपडिउत्सरवडिआ अज्जा व साहणा सदि।। पिलवंति सुरुवावी गोअम! किं तेण गच्छेण ? ॥ १२९ ।। ८३८ ॥ जत्थ य गरूछे गोअम ! उप्पण्णे कारणमि अजाओ। गणिणी पिडिठिआओ भासंती मउअसदेणं ।। १३०॥ ८३९ । माऊए दुहिआए मुण्डाए अहव। विभइणिमाईणं । जत्थ न अखा अक्ख इ गुत्तिविभेयं तयं गच्छं ॥१३१ ॥ ८४० ।। दसणपारं कुणई चरित्त नासं जणेइ मिच्छतं । दुहवि वग्गेणऽना विहारभे करेमाणी ॥ १३२॥ ८४१॥ तंमूलं संसारं जणेइ । अजावि गोअमा! नणं । तम्हा धम्मुवएस मुत्तुं, अन्नं न भासिज्जा ॥१३३ ।। ८४२॥ मासे मासे उ जा अजा, | एगसित्थेण पारए । कलहा गिहत्यभासाहि, सर्व तीए निरत्ययं ॥ १३४ ॥ ८४३ ॥ महानिसीह कप्पाओ, ववहाराओ तहेव य । साहुसाहुणिअट्ठाए, गच्छायारं समुद्धिअं॥ १३५॥८४४ ॥ पदंतु साहुणो एअं, अस-IN यत्रोत्तरप्रत्युत्तरपतिता आर्या रुष्टा अपि साधुना सार्द्ध प्रलपन्ति गौतम! किं तेन गच्छेन ? ।। १२९ ॥ यत्र च गमछे गौतम ! आर्याः18 कारणे उत्पो । गणिनीपृष्ठस्थिता मृदुशब्देन भाषन्ते ॥ १३० ॥ मातुर्दुहितुः मुषाया अथवा भगिन्यादीनां 1 यत्रायां गुप्निविभेदं नाख्याति | स गच्छः ।। १३१ ॥ यत्रार्या विहारभेदं कुर्वती दर्शनाविचारं करोति । चारित्रनाशं जनयति द्वयोरपि वर्गयोर्मिध्यात्वं करोति ॥ १३२ ॥ तन्मूलमार्याऽपि गौतम! नूनं संसारं जनयति । तस्माद्धर्मोपदेश मुक्त्वा नान्यद् भाषेत ।। १३३ ॥ याऽऽर्या मासे मासे तु एकसि-13 क्येन पारयेत् । गृहस्वभाषामिः कलइयेच तस्या सर्व निरर्षकम् ।। १३४ ॥ महानिशीथान् कल्ान् व्यवहारात्तथैव च । साधुसाव्यर्थ गच्छाचारः समुदतः ।। १३५ ।। पठन्तु साधव एनमस्वाध्यायं विवयं । उत्तम श्रुतनिस्पन्दं सूत्तमं गच्छाचारम् ।। १३६ ॥ गच्छाचार है। दीप अनुक्रम [१२८] JAHEduatiharmindiana ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३०) “गच्छाचार” - प्रकीर्णकसूत्र-७ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१३६]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३०], प्रकीर्णकसूत्र - [०७] "गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया १० प्रकी- केषु गणिविद्यायां झायं विवजिउं । उत्तम सुयनिस्संद, गच्छायारं तु उत्तमं ॥ १३६ ॥ ८४५ ॥ गच्छायारं सुणिसाणं, पढित्ता भिक्खुभिक्खुणी। कुणंतु जं जहा भणियं, इच्छंता हियमप्पणो॥१३७१८४६॥ गच्छाचारपइपणयं सम्मत्तं ॥७॥ तादिवसब लादि प्रत सूत्रांक ||१३६|| SANSAR ॥७०॥ 29 दीप श्रुत्वा पठित्वा भिक्षुभिक्षुक्यः । कुर्वन्तु यद् यथा भणितमिच्छन्तो हितमात्मनः ॥ १३७ ।। इति गच्छाचारप्रकीर्णकं समाप्तम् ॥७॥ अनुक्रम [१३६] ॥ ७० ॥ JAMERadininamaina मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ३०) “गच्छाचार” परिसमाप्त: ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः [ 300 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “गच्छाचार-प्रकीर्णकसूत्र” |मूलं एवं छायाः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “गच्छाचार" मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~ 23~