Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 22
________________ जैनविद्या 18 13 तीर्थकृत्समयानां च, परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति, कश्चिदेवभवेद्गुरुः॥3॥ (इस पर स्वामीजी कहते हैं कि) हे भगवान ! तीर्थ-प्रवर्तकों में आपस में, उनके द्वारा प्रवर्तित शास्त्रों में टकराव है, मेल नहीं है इसलिये उनमें आप्तपना नहीं घटित होता क्योंकि सुगत भी अपने आपको तीर्थंकर मानता है और कपिल भी अपने आपको तीर्थ प्रवर्तक मानता है फिर भला किस को गुरु माना जाय ! अर्थात् किसी को भी नहीं ? किन्तु पुनः स्वामी जी कहते हैं कि वह आपमें नहीं है क्योंकि आपमें न तो दोष है और न आवरण है, यथा दोषावरणयोर्हानि, निशेषास्त्यति-शायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।4।। - जिस प्रकार सुवर्ण आदि द्रव्यों में अपने हेतु पुटपाक आदि से किट्ट-कालिमा आदि अंतरंग एवं बहिरंग मैल का सर्वथा क्षय होता देखा जाता है उसी प्रकार किसी आत्मा विशेष में अतिशय न होने से दोषों की हानि भी निःशेष देखी जाती है। और वह निर्दोषपना आपमें विराजता है - स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥6।। - हे भगवान ! युक्ति और आगम से आपके वचनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं आता है। इसलिये आप ही अज्ञान, राग एवं द्वेषादि से सर्वथारहित सर्वज्ञ वीतराग हो। आपके इष्ट तत्व मुक्ति और उसके कारण संसार और संसार के कारण ये तत्व प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणों द्वारा अबाधित सिद्ध होते हैं। इसलिये आप ही सच्चे आप्तमान हैं। सर्वज्ञत्व भी आपमें ही है, यथा - सूक्षमान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥5॥ _' - अनुमेय (अनुमान का विषय) होने से सूक्ष्म, अन्तरित और दूरार्थ पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं, जैसे- अग्नि आदिधूम आदि के अनुमान से सिद्ध किये जाते हैं। आपके शासन में सभी तत्व निर्बाध सिद्ध होते हैं ।जो आपके शासन से विरुद्ध हैं वे आप्त के अभिमान से ही दग्ध हैं क्योंकि वे सर्वथा एकान्तवादी हैं । आपका शासन अनेकान्तात्मक वस्तु की निर्बाध सिद्धि करनेवाला है। (1) भावैकान्त में सर्वथा अभाव का लोप होने से वस्तु सर्वात्मक अर्थात् एकरूप अनादि, अनन्त और अस्वरूप हो जायेगी॥9॥ (2) प्राग्भाव न मानने पर कार्य द्रव्य घट आदिअनादि हो जायेगा और प्रध्वन्साभाव के न मानने पर वस्तु अनन्त हो जायेगी अर्थात् घट का कपालादि कार्य नहीं होगा।।10। (3) अन्योन्याभाव (इतरेतरभाव) न मानने से वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी और अत्यन्ताभाव न मानने से सर्व प्रकार से समुदायरूप वस्तु मानी जायेगी अर्थात् जीव में अजीव और अजीव में जीव का

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