Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 116
________________ जैन विद्या 18 अप्रेल 1996 निर्मित औषधि । परन्तु ऐसा नहीं है। जैन सिद्धान्त में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को रत्नत्रय नाम से जाना जाता है। यह रत्नत्रय जिस प्रकार मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्ररूपी दोषत्रय के निराकरण में समर्थ हैं उसी प्रकार आयुर्वेदीय रसशास्त्रोक्त पारद, गन्धक और धातूपधातु आदि तीन द्रव्यों के सम्मिश्रण से निर्मित तथा अमृतीकरणपूर्वक तैयार किया गया रसायन वात-पित्त-कफ दोष त्रय का नाश करता है। अतएव इस रसायन का नाम 'रत्नत्रयोषध' रखा गया है । 107 आचार्य समन्तभद्र ने अपने 'सिद्धान्त रसायन कल्प' नामक उक्त ग्रंथ में विभिन्न औषध - योगों के निर्माण में घटक द्रव्यों का जो प्रमाण (मात्रा) निर्दिष्ट किया है उसमें भी जैन धर्मसम्मत संख्या-प्रक्रिया का अनुसरण किया है जो अन्यत्र नहीं मिलता है। इस ग्रंथ में कथित संख्या - संकेत को केवल वही समझ सकता है जिसे जैनमत की जानकारी है। जैसे 'रस सिन्दूर' नामक रस औषधि की निर्माण-प्रक्रिया में कथित निम्न संख्या-संकेत द्रष्टव्य - 'सूतं केसरि गन्धकं मृगनवसारदुमां' । यहाँ पर द्रव्य के प्रमाण के लिए जिस संख्या का संकेत किया गया है वह सहज और सर्वज्ञात नहीं है। जैसे- 'सूतं केसरि' । यहाँ 'सूत' शब्द से 'पारद' और 'केसरी' शब्द से 'सिंह' अभिप्रेत है जिससे पारद और सिंह का संयोग किसी सामान्य अर्थ को ध्वनित नहीं करता है । वस्तुतः 'केसर' शब्द यहाँ संख्या विशेष की ओर इंगित करता है। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का एक चिह्न होता है जिसे लांछन कहते हैं। जैसे ऋषभदेव का लांछन है 'बैल', तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चिह्न सर्प और चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का चिह्न सिंह (केसरि) है। अतः 'गन्धक यहाँ फलितार्थ यह हुआ कि सूत (पारद) केसरि अर्थात् 24 भाग प्रमाण लिया जाय। इसी प्रकार मृग' अर्थात् गन्धक 'मृग' प्रमाण में लिया जाय । मृग चिह्न सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ भगवान का है। अत: गन्धक का प्रमाण 16 भाग लेने का निर्देश है। समन्तभद्र स्वामी के सम्पूर्ण ग्रंथ में सर्वत्र इसी प्रकार के सांकेतिक व पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है जो ग्रंथ की मौलिक विशेषता है'। स्वामी समन्तभद्र के उक्त ग्रंथ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उनसे पहले भी जैनेन्द्र-मतसम्मत वैद्यक ग्रंथों का निर्माण उनके पूर्ववर्ती मुनियों ने किया था। क्योंकि उन्होंने परिपक्व शैली में रचित अपने ग्रंथ में पूर्वाचार्यों की परम्परागतता को - 'रसेन्द्र - जैनागमसूत्रबद्ध' इत्यादि शब्दों द्वारा उल्लिखित किया है। इसके अतिरिक्त 'सिद्धान्त - रसायनकल्प' में समन्तभद्राचार्य ने स्वयं उल्लेख किया है - ‘श्रीमद्भल्लातकाद्रौ वसति जिनमुनि: सूतवादे रसाब्जं' इत्यादि । यह कथन इस तथ्य की पुष्टि करता है कि आचार्य समन्तभद्र से पूर्व भी वैद्यक ग्रंथों की रचना करनेवाले जैन मुनि हुए हैं जो संभवत: ईसा पूर्व द्वितीयतृतीय शताब्दी में रहे होंगे और वे कारवाल जिला होन्नावर तालुका के गैरसप्पा के पास हाडल्लि में रहते थे । हाडल्लि में इन्द्रगिरि और चन्द्रगिरि नाम के दो पर्वत हैं। वहाँ पर वे तपश्चर्या करते थे । श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के अनुसार अभी भी इन दोनों पर्वतों पर पुरातत्वीय अवशेष विद्यमान हैं' । पुष्पायुर्वेद श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के अनुसार श्री समन्तभद्र स्वामी ने किसी 'पुष्पायुर्वेद' नामक ग्रंथ का भी निर्माण किया था। क्योंकि जैन धर्म में व्यवहार में अत्यन्त सूक्ष्मतापूर्वक अंहिसा को प्रधानती दी गई है ।

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