Book Title: Jain Vidya 18
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 69
________________ जैनविद्या 18 सकता। इस प्रकार, सर्वभूत- हितकारी और सर्वाभ्युदयवादी होने के कारण भगवान का शासनवाक्य सर्वोदय तीर्थ के समान है। पूर्ण अभ्युदय, उत्कर्ष और विकास ही सर्वोदय है जो स्याद्वाद - शासन से उपलभ्य है। 60 'युक्त्यनुशासन' में कुल चौंसठ भाष्यगर्भ श्लोक या कारिकाएँ हैं। प्रत्येक श्लोक वीर भगवान् के सर्वोदय तीर्थ का निर्देशक है। यथासंकलित श्लोकों में महावीर के शासन का मण्डन और इसके विरोधी मतों का खण्डन उपन्यस्त किया गया है। कुल चौंसठ श्लोकों में समग्र जिन शासन को समेटना गागर में सागर समाने की उक्ति को अन्वर्थ करता है । आचार्य समन्तभद्र के इस ग्रन्थ के मूल पद्यों में अथवा मंगलाचरण में या अन्त की पुष्पिका में कहीं भी ‘युक्त्यनुशासन' शब्द को ग्रन्थ के नाम के रूप में संदर्भित नहीं किया गया है। ग्रन्थकार ने अपनी प्रतिज्ञा में और पुष्पिका में भी इस ग्रन्थ को स्पष्टत: 'वीर जिन का स्तोत्र' कहा है । द्रष्टव्य - की हत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुति - गोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश- बन्धम् ||1|| ( मंगलाचरण ) इति स्तुत्यः स्तुत्यैस्त्रिदश - मुनि-मुख्यैः प्रणिहितैः स्तुतः शक्त्या श्रेयः पदमधिगतस्त्वं जिन ! मया महावीरो वीरो दुरित - पर- सेनाऽभिविजये विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधौ 116411 ( पुष्पिका) इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का मूल नाम 'वीर जिन स्तोत्र' रहा होगा, बाद में इसका नाम 'युक्त्यनुशासन' हो गया होगा; क्योंकि ग्रन्थ की उपलब्ध प्रतियों तथा शास्त्र - भाण्डारों की सूचियों में 'युक्त्यनुशासन' नाम से ही इसका उल्लेख उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य विद्यानन्द ने बहुत स्पष्ट शब्दों में टीका के मंगल, मध्य और अन्त्य पद्यों में इसे 'युक्त्यनुशासन' नाम का स्तोत्र-ग्रन्थ उद्घोषित किया है - 'जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् । ( मंगलपद्य) स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य नि:शेषत: । (मध्यपद्य) प्रोक्तं युक्त्यनुशासन विजयिभिः स्याद्वाद मार्गानुगै: । (अन्त्य पद्य) ज्ञातव्य है कि इस ग्रन्थ के अड़तालीसवें पद्य में ग्रन्थकार ने 'युक्त्यनुशासन' शब्द का उल्लेख ग्रन्थ नाम के संदर्भ में नहीं, अपितु विषय-विवेचन की दृष्टि से किया है। अनुमान है, परवर्ती टीकाकारों ने इसी शब्द को इस ग्रन्थ के नाम के रूप में उद्घोषित कर दिया। श्लोक इस प्रकार है - दृष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थ प्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।

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