Book Title: Yugpravarttaka Krantikari Acharya Amarsinhji Vyaktitva aur krutitva Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 6
________________ १४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड -- - - +++++++++ +++++ ++++++++++++++++ 00000000000000000... ++++++++000000 जैन साधना में समाधिपूर्ण जीवन का जितना महत्व है उससे भी अधिक महत्व समाधिपूर्ण मृत्यु का है। समाधि पूर्ण मृत्यु को वरण करने वाले साधक को पूर्ण शान्ति और समाधि प्राप्त करनी होती है। आचार्यश्री ने सभी के साथ खमत्खामणा किये और कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन पन्द्रह दिन के संथारे के पश्चात् स्वर्गवासी हुए। संघ ने युवाचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज से सनम्र प्रार्थना की कि आपश्री आचार्य पद पर आसीन होकर हमें सनाथ करें। स्थान-स्थान से शिष्ट मण्डल अमृतसर पहुंचे और सभी ने अपने यहाँ आचार्य पद महोत्सव मनाने की प्रार्थना की। अन्त में देहली संघ की प्रार्थना को स्वीकार किया गया और आपश्री शिष्य समुदाय व सन्तों को लेकर देहली पधारे। संवत् १७६२ में चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन देहली में आचार्य पद महोत्सव मनाया गया। 'आचार्यश्री की जय' के सुमधुर घोष से वायुमण्डल गूंज उठा। समूचा संघ हर्ष से पुलकित हो उठा। आपश्री जैसे अनासक्त कर्मठ आचार्य को पाकर संघ धन्य हो गया ।। आचार्यश्री अमरसिंहजी ने देहली संघ की प्रार्थना को सम्मान देकर देहली में इस वर्ष वर्षावास सम्पन्न किया, अत्यधिक धर्म की प्रभावना हुई। उसके पश्चात् पुनः आपश्री पंजाब संघ की प्रार्थना को संलक्ष्य में रखकर पंजाब पधारे और चार चातुर्मास पंजाब में करके पुनः संवत् १७६७ में देहली में चातुर्मासार्थ पधारे। पूज्यश्री का तेज प्रतिदिन बढ़ रहा था। उनके प्रवचनों में चुम्बकीय आकर्षण था। चीनी भाषा के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ताओ उपनिषद में लिखा है कि हृदय से निकले हुए शब्द लच्छेदार नहीं होते और लच्छेदार शब्द कभी विश्वास योग्य नहीं होते। जो वाणी हृदय की गहराई से निकलती है उसमें स्वाभाविकता होती है और सहजता होती है। जैसे कुएँ की गहराई से निकलने वाला पानी शीतल, निर्मल और ताजा होता है वैसे ही सहज वाणी भी प्रभावशाली होती है । जो उपदेश आत्मा से प्रस्फुटित होता है वह आत्मा का स्पर्श करता है, किन्तु जो जीभ से निकलता है उसमें चिन्तन, भावना और आचार का बल न होने से वह हृदय को स्पर्श नहीं कर सकता। हृदय से निकली हुई बात में बकवास नहीं होता किन्तु तीर-सी वेधकता होती है। आचार्य संघदासगणी ने अपने बृहत्कल्पभाष्य में लिखा है कि गुणवान व्यक्ति का वचन घृतसिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी और पथ-प्रदर्शक होता है, किन्तु गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेहरहित दीपक की तरह निस्तेज और अन्धकार से परिपूर्ण होता है, आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज के प्रवचनों में जीवन का गहरा चिन्तन था, मनन था, साथ ही अनुभवों का सुदृढ़ पृष्ठबल था। नदी की निर्मल धारा की तरह उसमें गति थी, प्रगति थी और जाज्वल्यमान अग्नि की तरह उसमें आचार और विचार का तेज था। उनके प्रवचनों में वासीपन नहीं, किन्तु विचारों, भावों और भाषा में ताजगी थी। यही कारण है कि जातिवाद, पंथवाद, और सम्प्रदायवाद को भूलकर हजारों की संख्या में हिन्दू-मुसलमान, सिक्ख और जैनी प्रवचनसभाओं में उपस्थित होते थे और आचार्यश्री के पावन प्रवचनों को सुनकर झूमने लगते थे। आचार्यश्री के प्रवचनों की धूम से देहली गूंज रहा था। उस समय हिन्दुस्तान के बादशाह थे शाहनशाह बहादुरशाह । वे दक्षिण से अजमेर आये थे। बादशाह से किसी विशिष्ट कार्य के लिए मिलने हेतु जोधपुर के महामन्त्री खींवसी जी भण्डारी* अजमेर आये और शहजादा अजीम जिन व्यक्तियों से मारवाड़ का इतिहास गौरवान्वित हुआ है उन व्यक्तियों में भण्डारी खींवसी जी का स्थान मूर्धन्य है। वे सफल राजनीतिज्ञ थे। तत्कालीन मुगल सम्राट पर भी उनका अच्छा-खासा प्रभाव था। उस समय राजनीति संक्रान्ति के काल में गुजर रही थी। सम्राट औरंगजेब का निधन हो चुका था और उनके वंशजों के निर्बल हाथ शासन नीति को संचालन करने में असमर्थ सिद्ध हो रहे थे। चारों ओर राजनीति के क्षेत्र में विषम स्थिति थी। उस समय जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह जी के प्रधानमन्त्री खींवसी भण्डारी थे। जब भी जोधपुर राज्य के सम्बन्ध में कोई भी प्रश्न उपस्थित होता तब वे बादशाह की सेवा में उपस्थित होकर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से गम्भीर समस्याओं का समाधान कर देते थे और शाहजादा मुहम्मद शाह को राज्यासीन कराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी ऐसा फारसी तवारीखों से भी स्पष्ट होता है। भण्डारी खींवसीजी सत्यप्रिय, निर्भीक वक्ता और स्वामीजी के परम भक्त थे। धर्म के प्रति भी उनकी स्वाभाविक अभिरुचि थी। वे वि० सं० १७६६ में जोधपुर के दीवान बने और सं० १७७२ में वे सर्वोच्च प्रधान बने। फिर महाराजा अजीतसिंह के साथ मतभेद होने से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। पुनः महाराजा अजितसिंह के पुत्र महाराज अभयसिंह के राज्य गद्दी पर बैठने पर पुनः सं० १७८१ में सर्वोच्च प्रधान बने और स० १७८२ में मेडता में उनका देहान्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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