Book Title: Yuga Pradhan Jinachandrasuri
Author(s): Durlabhkumar Gandhi
Publisher: Mahavirswami Jain Derasar Paydhuni
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सुप्रसन्न जेहने मस्तके, गुरु धरे दक्षिण पाणि रे। तेह घरे केलि कमलाकरे, मुख वसे अविरल वाणि रे॥१२॥ जुग०। दरसनी जिणे मुगता करी, सोल सित्तर वासे रे । आविया नयर विलाडए, सुगुरु रह्या चउमासे रे ॥१३॥ जुग०। दिवस आसू वदि बीजने, ऊचरी अणसण सार रे। सुरपुरि सुगुरु सिधारिया, सुर करे जय जयकार रे॥१४॥जुग। नाम समरणे नवनिधि मिले, सवि फले संघनी आस रे । आधि ने व्याधि दूरे टले, संपजे लील विलास रे ॥१५॥ जुग० । केसर चंदन कुसुमसुं, चरचतां सहु गुरु पाय रे। पुत्र संतान परिघल हुवे, दिन दिन तेज सवाय रे ॥१६॥ जुग०। श्रीजिनचंदसूरीसरु, चिर जयउ जुगह प्रधान रे । इणिपरे गुरु गुणसंथुणे, पाठक 'रत्न निधान' रे ॥१७॥ जुग०।
इति श्रीगुरु गीतं, संवत् १६७६ वर्षे लिखितं.

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