Book Title: Yoga aur uski Prasangikta
Author(s): Vishwambhar Upadhyay
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 4
________________ योग और उसकी प्रासंगिकता / १९५ उन्मनीभाव में शरीर विखर सा जाता है, भस्म सा हो जाता है, मानो वह शरीर उड़ गया है, विलीन हो गया है, वह है नहीं अतः शरीरानुभूति का प्रत्यन्ताभाव ही उन्मनावस्था है । जैनयोग में यहाँ तक तो अन्य योगियों जैसा ही अनुभव है, किन्तु पद्धति में अन्तर है । उदाहरण के लिए जैनयोग में प्राणायाम पर बल नहीं दिया गया है, यों 'योगशास्त्र' में उसका वर्णन है । ध्यान पर अधिक जोर है । और समाधि में सर्वविषयोपस्थिति का प्रभाव हो जाता है। इस मुक्तावस्था में निर्द्वन्द्वता के कारण, इन्द्रियों और मन के स्तब्ध या शान्त हो जाने से आनन्द प्राप्त होता है। इन्द्रियज और मानसिक सुखों में दुःख का, क्षोभ का लेश रहता है । समाधिन धानन्द में सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता भी मिलती है, यह भी कहा गया है: सादिकमनन्तमनुपममन्याबाधं स्वभावजं सौख्यम् प्रायः स केवलज्ञानदर्शनो मोदते मुक्तः । ( एकादश प्रकाश ) योगानुभवों से चमत्कार भी होते हैं, प्रसाधारण अनुभव होते हैं। इसका प्राचार्य हेमचन्द्र ने विस्तार से वर्णन किया है, जिसमें सिद्धियों और निद्वियों गगनगमन-परकायाप्रवेशादि का भी पहलवन है और इसका भी कि एक इन्द्रिय से अनेक इन्द्रियों का अनुभव मिल सकता है। सौन्दर्यशास्त्र में इन्द्रियक्रमविपर्यय को माना गया है किन्तु यहाँ मात्र क्रमाविपर्यय नहीं बल्कि अनेकानुभवों की उपलब्धियों को माना गया है: सर्वेन्द्रियाणां विषयान् गृहणात्येकमपीन्द्रियम् । यत्प्रभावेन सम्मग्रथोतोलब्धिस्तु सा मता ॥ ( प्रथमप्रकाश ) योगी जीभ से सूंघता और देखता है, नाक से चखता और देखता हैं, आंख से सुनता है, सूंघता है, चखता है—श्रादि । " भाषागत या संज्ञा विशेषणादि के अन्तर के बावजूद जैनयोग सांख्ययोग - पतंजभलियोग जैसा ही है। जैनयोग में प्राचारपक्ष (सूर्यास्त के पूर्व भोजन अहिंसादि) प्रबलतम है इतना कि प्रति पर पहुँच जाता है जबकि वैदिक परम्परा के योग विशेषकर राजयोग में युक्ताहार विहार को श्रावश्यक माना गया है: "युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टा.... (गीता) । ऊपर के विवेचन में यह देखा गया होगा कि एक विशेष प्रकार का मनोविज्ञान योग के रूप में काम कर रहा है। यह कहा जा चुका है कि यह दो प्रकार का है, इन्द्रिय निगृह का दक्षिणपंथी योग और इन्द्रिय अनुग्रह वाला वाममार्गी योग। दोनों का उद्देश्य निर्द्वन्द्व मनोदशा प्राप्त करना है । इसे यदि सही तौर पर समझा जाए तो यह प्रासंगिक हो सकता है । सांसारिक व्यवहार में द्वन्द्व होता है क्योंकि विभिन्न इच्छाएँ ममताएँ विचार और रागद्वेष तथा हित टकराते हैं। प्रादर्श समसामाजिक व्यवस्था बन भी जाए तो भी व्यक्ति के विकास की समस्या बनी रहेगी। द्वन्द्व साम्यवादी व्यवस्था में भी रहेंगे। अभी वे शोषणज हैं तब वे मनोदशागत, विकासगत प्रकृतिगत और भावगत होंगे श्रतः सवाल वही है कि द्वन्द्वात्मक जगत के व्यावहारिक स्तरों पर कैसे जिया जाए ? योग एक विकल्प पेश करता है। निर्द्वन्द्व होकर द्वन्द्वों का सामना करना ही एकमात्र उपाय है अन्यया क्षोभ और तनाव में उन्माद । Jain Education International ― - For Private & Personal Use Only आसनस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम www.jainelibrary.org

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