Book Title: Yoga aur uski Prasangikta Author(s): Vishwambhar Upadhyay Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 5
________________ पंचम खण्ड | 196 अर्चनार्चन या वहशत में व्यक्ति अपने को रुग्ण बना लेगा या प्रात्मघात कर लेगा। वह रक्तचाप, हृदयशूल आदि का शिकार हो जाएगा। योग, विशेषकर जैनयोग में ईश्वरवाद का भी झंझट नहीं है। योग निरीश्वर शारीरिक मानसिक साधना या ड्रिल है। सांख्य, जैन, बौद्ध मतों के योग में ईश्वर नहीं है, सिर्फ चेतना की एकाग्रता या ध्यान और धारणा है। अतः निरीश्वरवादी भी योग कर सकता है। स्थूल सूत्रों से मनुष्य की चेतना और मन के चमत्कारों की व्याख्या नहीं हो सकती किन्तु सूक्ष्मता से देखें तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में भी पदार्थ (पुदगल) सूक्ष्म है और मानव शरीर चूंकि "अणोः अणीयान् महतो महीयान्" पदार्थ से बना है अतः उसकी शक्ति और संभावना का कोई अन्त नहीं है। योगसाधना का सोवियत रूस में गहन अध्ययन हो रहा है। पता चला है कि यंत्र विज्ञान (साईबरन टिक्स) के आधार पर दूर दृष्टि दूर श्रवण (टेलीपैथी आदि) आदि का अभ्यास हो रहा है और पाया गया है कि टेलीपैथी द्वारा पचास से सत्तर अस्सी प्रतिशत सफलता मिलती है। इसका भौतिकविज्ञान द्वारा अध्ययन करने पर ज्ञात हुअा है कि किसी दूरस्थ व्यक्ति पर ध्यान एकाग्र करने या स्मरण करने, विप्रलम्भ की दशा में सतत ध्यान करने जैसी दशामों में अदृश्य भौतिक किरणें निकलती हैं जो ध्यान या स्मरण के सातत्य से दूरस्थ व्यक्ति तक पहुँच कर उसे क्षुब्ध कर देती हैं। योगज चमत्कारों के वैज्ञानिक अध्ययन का एक उपाय, योगी के शरीर पर यंत्र लगाकर, उसकी दशाओं का अंकन है, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, समाधि आदि में, योगी में क्या शारीरिक परिवर्तन होते हैं और क्यों? यह रोचक और चुनौती भरा विषय है किन्तु आधूनिक, गतिशील युग में तनावों से और चिन्तामों से मानवशरीर को बचाने के लिए योग उपयोगी है, यह तथ्य तो पाप सभी ने स्वीकार कर लिया है। संभव है, विज्ञान से योगज पदार्थ और प्रत्यक्ष भी सिद्ध हो जाएँ, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान के रूप में योगजदशाओं का अध्ययन कर ही रहा है। अभी तक योग की अलौकिकता में अनेक संदेह हैं किन्तु दूरदर्शन या दूरश्रवण या दूरसंदेशप्रेषण जैसे अनुभवों को प्राज संदेहास्पद नहीं माना जाता। जैनयोग का अध्ययन और प्रयोग इस सम्मोहक विषय में मदद कर सकता है, इसमें संदेह नहीं है। 'गया-प्रयाग' सात-३-पच्चीस जवाहरनगर जयपुर 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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