Book Title: Yoga aur uski Prasangikta Author(s): Vishwambhar Upadhyay Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 2
________________ योग और उसकी प्रासंगिकता | १९३ उस क्षण या क्षणों में यह सोचो कि यह जो नादसौन्दर्य या ध्वनिमाधुर्यं है, यह समूची सृष्टि की सतत प्रक्रिया का प्रतिफलन है यानी इस सृष्टि का होना (Becoming) सृष्टि का होते रहना या उसका होरहापन अपने बोध में लाप्रो। इससे इन्द्रियज अनुभव ब्रह्माण्डगत-कास्मिक ज्ञान से जुड़ जाएगा और जिस अनुभव के नीचे या पीछे ज्ञान जुड़ा हुआ है, उसमें पतन हो ही नहीं सकता । इसी तरह शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के जो इन्द्रियज अनुभव हैं, वे अनुभव स्वाभाविक हैं और यदि उनके साथ उक्त परिज्ञान जुड़ा हो तो इन्द्रियज अनुभव उसके साथ जुड़े ज्ञान के कारण इन्द्रियातीत ज्ञान की अग्नि में प्राहुति की तरह पड़ेगा और मानवचेतना प्रानन्दित हो उठेगी। इस तरह तांत्रिक योग में योग का अर्थ वृत्तिनिरोध नहीं, वृत्ति का __ रूपान्तरण है यानी निरोध का अर्थ है, Transformation of human consciousness the rough Sensuous exprieence. इस प्रकार योग दक्षिणयोग और वामयोग इन दो भागों में बँटा हया है। अधिकारीभेद से साधना का विधान है। उदाहरण के लिए जिस व्यक्ति के मन में इन्द्रियज अनुभवों की क्षणभंगुरता देखकर उनसे विरक्ति उपजती है, वे दक्षिणपंथी योग करें यानी वृत्तियों के दमन का मार्ग अपनाएं किन्तु जिनके मन में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के प्रति प्रबल आकर्षण है, जो भोगोन्मुख हैं, कामनाएँ और वासनाएँ जिन्हें तृप्ति के लिए प्रतिक्षण ललचाती हैं, ऐसे व्यक्तियों के लिए तांत्रिक या वाममार्गी योग का विकल्प है जो भोग को योग में परिणत कर देता है। जिस तरह लोहा पानी में डूब जाता है मगर उसे पीट कर, उसकी नाव बना लेने पर समुद्र को पार किया जा सकता है, उसी प्रकार वासनाओं, कामनाओं, इच्छाओं और वृत्तियों, संक्षेप में काम, क्रोध, मद, लोभ का रूपांतरण संभव है । इसकी पद्धति विषस्य विषमौधषम है, विष को विष से मारो, काम को काम से, लोभ को लोभ से, भय को भय से जीतो । स्पष्ट है कि यह विकटसाधना है, तलवार की धार पर चलना है । पर यह विकल्प तो है, कठिन होने से खतरनाक-क्षेत्र (Dangerous Zone) में उतरने से, अनुभवों की उत्कटता या संवेग की प्रबलता में भी अपने बोध या चैतन्य को जागत रखना कठिन है परन्तु तभी तो इसे वीरसाधना कहा गया है, कोमल और कायर इसे करेंगे तो पतन होगा ही मगर वीर व्यक्ति के लिए यह असंभव नहीं है। दक्षिणपंथी योगियों-कपिल, पतंजलि, बुद्ध और जैन योगियों ने जमकर इस वाममार्ग का विरोध किया है किन्तु दक्षिणपंथियों या वैदिकमतावलम्बियों में भी राजा जनक तथा वासुदेव-कृष्ण जैसे उदाहरण हैं जिन्होंने स्वाभाविक जीवन का दमन न कर 'राजयोग' का अभ्यास किया और इन्द्रियज अनुभवों से संन्यास नहीं लिया। __ संन्यासमार्गी योगियों में वैराग्य द्वारा योगसाधना हुई, वृत्तिदमन द्वारा। सभी संन्यासमागियों में यह सामान्य प्रवत्ति है चाहे वे जैन हों या वैदिकमतावलम्बी। इन वत्तिनिरोधकों में जैनयोग परम्परा का अपना महत्त्व है। जैनयोग ध्यानप्रधान है। प्राचार्य हरिभद्र के योगबिन्द्र, योगदृष्टिसमुच्चय, योगशतक तथा योगविशिका में इस ध्यान का वर्णन है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने "योगशास्त्र' की रचना की, प्राचार्य शुभचन्द्र के "ज्ञानार्णव' में इसीका विस्तार है और जैनतांत्रिक योगसाधना (दक्षिणपंथी या शुद्धाचारी) का वर्णन है। उपाध्याय यशोविजय ने आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -Page Navigation
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