Book Title: Yog Swarup aur Sadhna Ek Sarvangin Vivechan
Author(s): A D Batra
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 7
________________ योग : स्वरूप और साधना ७ . तपः सन्तोषमास्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम् । सिद्धान्तश्रवणं चैव हीमतिश्च जपो व्रतम् ॥१॥ यम और नियमों के इस विवरण में यदि पतंजलि को आधार माना जाय तो अन्तर्गत विवरण में थोड़ा-सा भेद ध्यान में आता है । उपनिषद्कार ने शौच को यम के अन्तर्गत लिया है और कुछ अन्य विश्लेषण अपनी ओर से दे दिया है। नियमों के वर्णन में भी कुछ अधिक विश्लेषण हमें उपलब्ध है। यद्यपि अपरिग्रह शब्द का यहाँ उल्लेख नहीं है, तो भी भावरूप से उपलब्ध है । परम्परागत योग-प्रणाली में यह एक महत्त्वपूर्ण योगदान है और सम्भवतः साधक को शब्द छल से बचाने के लिए सुस्पष्ट विवेचन किया गया है। मण्डल ब्राह्मण उपनिषद् में यद्यपि अष्टांग योग शब्द का प्रयोग किया है तो भी इसका विश्लेषण परम्परागत अष्टांग योग से भिन्न है। यहाँ पर चार यम दिये गये हैं और नौ नियम दिखाये हैं। इस विवरण से एक बात स्पष्ट होती है कि यद्यपि परम्परागत शैली और इस उपनिषद् की शैली में कुछ भेद है, तथापि अधिक से अधिक मार्गदर्शन करने की भावना परिलक्षित है। योगचूडामणि उपनिषद् के अनुसार योग के छः अंग मान्य किये गये हैं। उसमें यम और नियम समाविष्ट नहीं है। योगतत्त्व उपनिषद् में चार प्रकार के योग बताये गये हैं। हठयोग का वर्णन करते समय अष्टांग योग का क्रम मान्य किया है। यहाँ एक बात और कुछ नये रूप में दिखती है, इसके अनुसार आहार को मुख्य यम बताया गया है और अहिंसा को मुख्य नियम । चार आसन भी मुख्य रूप से बताये गये हैं—सिद्धासन, पद्मासन, सिंहासन (सिंह आसन) और भद्रासन । योगशिक्षा उपनिषद् में यद्यपि चार प्रकार के योग दिये गये हैं तथापि परम्परागत अष्टांग योग का वर्णन उपलब्ध नहीं है । परन्तु योग अभ्यास सम्बन्धी विविध आयाम विस्तृत रूप में उपलब्ध हैं। शांडिल्य उपनिषद् में परम्परागत अष्टांग योग का क्रम मान्य किया है। यहाँ पर भी दस प्रकार के यम और दस प्रकार के नियमों का उल्लेख है। एक महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्रत्याहार सम्बन्धी है। शांडिल्य उपनिषद् के अनुसार पाँच प्रकार के प्रत्याहार दिये गये हैं। ध्यान सम्बन्धी चर्चा में सगुण और निर्गुण दो प्रकार के ध्यान बताये गये हैं। उपर्युक्त अति संक्षिप्त वर्णन में हठयोग सम्बन्धी शाब्दिक मतभेद ही स्पष्ट रूप से दिखता है। वास्तव में मूल भावना सभी ग्रन्थकारों को मान्य है-ऐसा प्रतीत होता है। अपनी स्वतन्त्र शैली में विषय प्रतिपादित करते समय इस प्रकार के भेद दिखाई पड़ते हैं। दूसरी महत्त्वपूर्ण चर्चा साधक के विकास की दृष्टि से आहार-आचरण सम्बन्धी विस्तृत और स्पष्ट रूप से की गयी है। यदि ऐसा कहा जाय कि इन ग्रन्थों में विशद किये गये विषय आधुनिक जगत में प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक और उपयोगी हैं तो अतिशयोक्ति न होगी। हठयोग प्रदीपिका में "केवल राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते” (१-२) कुछ इस प्रकार का वर्णन चौथे उपदेश में भी आया है (३ और ८) । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राजयोग की व्याख्या यहाँ पर उपलब्ध नहीं है। योगतत्त्व उपनिषद् में राजयोग का वर्णन बहुत ही संक्षिप्त रूप में उपलब्ध है।" विवेक और वैराग्य को सबसे ज्यादा महत्त्व प्रदान किया गया है। योगशिक्षा उपनिषद् में राजयोग का वर्णन इस प्रकार है योनिमध्ये महाक्षेत्रे जपाबन्धूकसंनिभम् । रजो वसति जन्तूनां देवी तत्त्वं समावृतम् ॥१३६॥ रजसो रेतसो योगाद्राजयोग इति स्मृतः । अणिमाविपदं प्राप्य राजते राजयोगतः ॥१३७॥ राजयोग शब्द का अधिक प्रचार सम्भवतः पतंजलि के योगसूत्रों पर स्वामी विवेकानन्द द्वारा लिखित भाष्य के बाद हुआ । योगसूत्रों को किस आधार पर उन्होंने राजयोग की संज्ञा दी, यह एक विवादास्पद विषय है। Yoga, the method of Re-integration-by Alain Daniclou नामक ग्रन्थ में नवम अध्याय में राजयोग का वर्णन करने का प्रयत्न किया गया है। परन्तु प्रदत्त आधार विषय को कुछ अधिक ही उलझा देता है। सम्भवतः राजयोग शब्द राज शब्द के कारण कुछ भ्रम निर्माण करने में सफल हुआ है। परन्तु राजयोग का सही मर्म अप्राप्य है । ऐसा भी हो सकता है कि हठयोग की व्यवस्थित परम्परा के सामने राजयोग का शिथिल वर्णन टिकने में असमर्थ रहा हो । और आचार्यों ने इसकी आवश्यकता न समझ कर उपेक्षा कर दी हो। योगतत्त्व उपनिषद् में जो चार योग बताये हैं, उनमें मंत्रयोग सबसे प्रथम है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि इसका वर्णन केवल दो श्लोकों में ही कर दिया गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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