Book Title: Yog Swarup aur Sadhna Ek Sarvangin Vivechan
Author(s): A D Batra
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 20
________________ Jain Education International ܕ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड योग की सिद्धि नहीं होगी जब तक कि क्रियारूप प्रत्यक्ष अंगीकार न किया जाय । संकेत इस बात का है कि प्राचीन काल से ही योग परम्परा में 'स्व' अनुभूति की ओर विशेष लक्ष्य केन्द्रित कराया गया था। इसी उत्साह में एक उपनिषकार ने तो यहाँ तक कह दिया कि "जिसने आसन विजय कर ली उसने तीनों लोकों को जीत लिया । ४९ अष्टांग योग में आसन को सबसे अधिक महत्व प्राप्त होने का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि हेतुअहेतु सहज रूप से लोग आसन करने लगते हैं। कई बार तो ऐसा भी अनुभव में आया है कि आसनों के सम्बन्ध में जो विधि - निषेध दिये गये हैं, उनका ज्ञान न होते हुए भी लोग भावनावश आसन किया करते हैं और उसका कुछ न कुछ परिणाम, यद्यपि शरीर के लिए उपयोगी ही होता है, तथापि कभी-कभी कुछ अनिष्ट की सम्भावना रहती है। योग ग्रन्थों में कुछ संदिग्ध चर्चा इस सम्बन्ध में उपलब्ध है। हठयोग प्रदीपिका में नाड़ी शुद्धि का उल्लेख है । अन्यत्र ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के उल्लेख मिलते हैं। 9 स्वामी कुवलयानन्द लिखित ग्रन्थ में आसनों के दो लाभ बताये हैं । 2 पहला, शरीर को पूर्णतया शक्ति प्रदान करना और दूसरा, मेरुदण्ड को सक्रिय करके बुद्धि और कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करना । जहाँ तक पहले विषय का सम्बन्ध है स्थूल शरीर पर होने वाले प्रभावों को आजकल मनोविज्ञान की प्रयोगशालाओं में लोगों ने सिद्ध करने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है। परन्तु कुण्डलिनी शक्ति और बुद्धि पर होने वाले प्रभाव किस तरह कार्य करते हैं और क्यों करते हैं यह एक रहस्य है। शरीर शास्त्र को जितना अधिक हम समझेंगे उतना ही प्रस्तुत रहस्य का सुलझता हुआ स्वरूप हमारे समक्ष आने की सम्भावना है। आधुनिक शरीर विज्ञान की प्रगति और वैज्ञानिक संशोधन और प्राचीन ग्रन्थों में शरीर सम्बन्धी किये गये वर्णन और शरीर पर होने वाले प्रभाव इस बात का संकेत करते हैं कि प्राचीन आचार्य शरीर विज्ञान के कुछ आयामों से अवश्य ही परिचित थे । आज इस बात की आवश्यकता है कि हम एक समन्वयात्मक दृष्टि से चितन भी करें और वैज्ञानिक अनुसन्धान भी । ये आसन जैसे दिखते हैं, उससे कहीं अधिक विशिष्टता लिये हुए हैं और योग साहित्य में उनका वर्णन कुछ ऐसी भाषा में किया गया है, जो आधुनिक समय में या तो रहस्य माना जाय या वैचारिक क्लिष्टता । असंदिग्ध स्वरूप से उसका वर्णन करना बहुत आवश्यक है । जैसा कि हमने ऊपर की पंक्तियों में लिखा है कि आसनों को कुछ व्यक्तियों ने व्यायाम का ही एक प्रकार मान लिया है और विशाल साहित्य भी इस दृष्टि से सर्जन किया है। शारीरिक शिक्षा के सम्बन्ध में हम अधिक विस्तार में न जाकर इतना ही निवेदन करना चाहेंगे कि " यद्यपि आसन करते समय ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर पर कुछ प्रयोग हो रहे हैं, तो भी वस्तुस्थिति यह है कि स्थूल शरीर के साथ लगी हुई ग्रन्थियों और उन ग्रन्थियों के शरीर पर होने वाले परिणाम, उनका मस्तिष्क पर चित्त या मन पर भी होने वाला प्रभाव अभिप्रेत है। इसलिए अष्टांग योग क्रम में आसनों को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उसका एक निश्चित उद्देश्य सामने रखा गया है । यह बात जब शारीरिक शिक्षा के साथ आसन मिला दिये जायेंगे तो आ पायेगी या नहीं ऐसा कह सकना कठिन है । इससे किस प्रकार के लाभ लोगों को मिल सकेंगे, यह भी एक विवाद का विषय है ।" ५५ योग साहित्य में प्राणायाम करने से पहले आसन दृढ़ होना चाहिए ऐसा निर्देश है । अतः आसन कितने समय तक करना ? कितने आसन करते ? और किस हेतु से आसन करने ? यह विषय अपने आप स्पष्ट हो जाता है । हठयोग प्रदीपिका में ऐसा उल्लेख है कि युवा, वृद्ध और दुर्बल कोई भी योगाभ्यास कर सकता है । वहाँ इस बात का निर्देश भी है कि अभ्यास करने की जिज्ञासा होना आवश्यक है और शरीर की आवश्यकतानुसार जैसे हम आहार करते हैं, उसी प्रकार शरीर की आवश्यकतानुसार आसनों का अभ्यास करना भी अभिप्रेत होगा । इसलिए योगशास्त्र में गुरु के महत्व को स्पष्ट किया है और गुरु के ही मार्ग-दर्शन में अभ्यास करने का संकेत किया है । "" उदाहरण के लिए, कोई सा पहले दिन ही पद्मासन में पन्द्रह-बीस मिनट सुविधापूर्वक बैठ सकेगा और दूसरा सम्भवत: पन्द्रह-बीस दिन बाद भी इस आसन में न बैठ सके। इसलिए आसन जय की कल्पना का अर्थ हम पतञ्जलि के स्थिरसुख शब्द से अच्छी तरह समझ सकते हैं। इन दो शब्दों ने योग की सर्व प्रकार की व्यापकता को मान्य कर लिया है और उसके साथ-साथ साधक को पूर्ण स्वतन्त्रता भी दे दी है । शरीर शास्त्र के शोधकर्ताओं के लिए योगशास्त्र का यह एक आह्वान है, "शरीर की अवस्था सुखकर है या नहीं इसका अनुसन्धान कुछ व्यक्तियों ने करना आरम्भ किया है । परन्तु योग सम्बन्धी साहित्य को सामने रखकर इस दृष्टि से व्यक्ति-निरपेक्ष निरीक्षण की आवश्यकता है ।" आसन करते समय योगाचार्यों ने आहार सम्बन्धी जो संकेत दिये हैं" उनसे केवल इस बात का संकेत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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