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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
आसन प्रयोग विधि एक चिन्तन
भारतीय संस्कृति में योग-परम्परा का एक विशिष्ट स्थान है । आध्यात्मिक अभ्यास मार्ग में शरीर को एक विशिष्ट अवस्था की आवश्यकता होती है और सम्भवत: इसीलिए प्राचीन काल में अध्यात्म मार्गी साधकों ने शरीर पर नियन्त्रण प्राप्त करने के कुछ साधन खोज निकाले थे । स्थूल रूप से दिखायी देने वाला शरीर और उस शरीर पर निय न्त्रण करने वाली शक्तियाँ (प्राण, मन, कुण्डलिनी, आत्मा इत्यादि) अपने नियन्त्रण में हों, ऐसी सबकी इच्छा रहती है । इस नियन्त्रण ने ही योग परम्परा में आसन का महत्व प्रस्थापित किया है। ये आसन विभिन्न स्वरूप के हैं । कालान्तर में इनकी संख्या, समय, मर्यादा, अधिकारी आदि के विषय में मतभेद उठ खड़े हुए और इन मतभेदों ने योग में भिन्न-भिन्न परम्पराएँ खड़ी कर दीं। कहीं-कहीं तो यह मतभेद केवल शाब्दिक प्रतीत होता है । परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, यदि मनुष्य स्वभाव की विविधता को मान लिया जाय तो विविध मार्ग स्वीकार करने में हमें कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
आसन करने से शरीर पर दृश्य और कुछ अदृश्य रूप में प्रभाव पड़ते हैं । यह वर्णन भी योग सम्बन्धी पुस्तकों में विस्तार से पाया जाता है। आसनों की संख्या के सम्बन्ध में और आसनों की विधि के विषय में 'योग' के अन्तर्गत सबसे ज्यादा साहित्य उपलब्ध है ।
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योग - साहित्य में प्रमुख रूप से दो प्रकार की परम्पराओं का साहित्य उपलब्ध है । पतंजलि के 'योगसूत्र' की एक परम्परा है तो दूसरी परम्परा के साहित्य के रूप में, हठयोग प्रदीपिका, घेरण्ड संहिता सिंह संहिता, योग याज्ञवल्क्य संहिता, भक्ति सागर और कुछ योग उपनिषद् हमें योग के सम्बन्ध में विस्तृत भूमिका उपलब्ध कराने में सहायक होते हैं । (योग उपनिषदों में मुख्य रूप से शाण्डिल्य उपनिषद्, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, दर्शन उपनिषद्, त्रिशिखी ब्राह्मण उपनिषद् इत्यादि का उल्लेख है) इन सभी ग्रन्थों में (पतजलि के अतिरिक्त) भिन्न-भिन्न आसनों का वर्णन है और आसन करने की विधि और उनसे होने वाले लाभ आदि का विश्लेषण है ।
सर्वप्रथम हम पतञ्जलि के मत का विवेचन करेंगे। योग सूत्रों में अष्टांग योग का विवेचन करते समय आसन की परिभाषा पतञ्जलि ने 'स्थिरसुखमासनम्' (२-४६ ) की है । आगे के दो सूत्रों में पतञ्जलि ने आसनों से होने वाले लाभों को बताने का प्रयत्न किया है। आसनों से होने वाले लाभ एक व्यक्तिगत अनुभूति का विषय हैं और जैसा कि हमने ऊपर निर्दिष्ट किया है, ये अनुभूतियाँ स्वाभाविक रूप से व्यक्तिगत ही होंगी। उसके विषय में वैज्ञानिक संशोधन की आवश्यकता है । मुख्य विषय स्थिरसुख कहा है और स्थिरसुख की परिभाषा करना बड़ा कठिन है । पर स्थिरसुख का अनुभव लेने में कोई अड़चन नहीं है । पतञ्जलि के ऊपर भाष्य लिखने वाले व्यास, वाचस्पति और भोज इस विषय पर मौन हैं। सम्भवतः स्थिरसुख की व्याख्या करना ये अनावश्यक समझते रहे होंगे अथवा स्थिरसुख की कल्पना लोगों के सामने रखने में उन्हें कुछ कठिनाई रही होगी । विज्ञान भिक्षुओं ने 'निश्चल' और 'सुखकर' शब्दों का उपयोग किया है परन्तु इन शब्दों से भी विषय कुछ स्पष्ट नहीं होता । अन्य सभी भाष्यकारों ने आसनों की संख्या गिनाकर ही सन्तोष प्राप्त कर लिया है । पतञ्जलि की परम्परा को सामने रखते हुए अष्टांग योग को एक महत्वपूर्ण स्थान देने के पश्चात् आसन सम्बन्धी इतने कम सूत्र उपलब्ध हैं कि उन सूत्रों के मनमाने अर्थ लगाने की सुविधा या मतभेद उत्पन्न करने की परिस्थिति, इच्छा न होते हुए भी निर्माण हो जाती है। सम्भवतः पतञ्जलि की भूमिका को देखते हुए और मन का स्वभाव, शरीर की अवस्था और परिस्थिति के अनुसार, हम जो चाहे अर्थ लगालें; इस तरह की बहुत बड़ी सुविधा हमें इन छोटे सूत्रों में उपलब्ध है। स्थिरसुख प्राप्त करने के लिए मार्ग का निर्देशन करते हुए, उससे प्राप्त होने वाले फल का निर्देश एक सूक्ष्म तथा गहन मनोवैज्ञानिक सुविधा है। इसमें पतञ्जलि के द्वारा चित्रित मानव स्वभाव की विविधता की मान्यता हमें दिखायी देती है ।
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आसनों की दृष्टि से यदि हम पतञ्जलि के योगसूत्रों को अधिक सुविधाजनक न समझे तो हमें हठयोग के ग्रन्थों का सहारा लेना पड़ता है। इन ग्रन्थों ( हठयोग प्रदीपिका आदि) में विस्तृत व सुस्पष्ट मार्ग-दर्शन उपलब्ध है । हठयोग प्रदीपिका के पहले अध्याय के १७वें श्लोक में आसनों का वर्णन भी है और उनसे होने वाले लाभों का संकेत भी किया गया है
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