Book Title: Yasastilaka and Indian Culture
Author(s): Krishnakant Handiqui
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 3
________________ Jain Education International Second Edition: 2000 copies Copies of this book can be had direct from Jaina Samskṛti Samrakṣaka Sangha, Santosha Bhavan, Phaltan Galli, Sholapur (India) Price Rs. 25/- per copy, exclusive of postage जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय सोलापूर निवासी ब्रह्मचारी जीवराज गौतमचन्दजी दोशी कई वर्षोंसे संसार से उदासीन होकर धर्मकार्य में अपनी वृत्ति लगा रहे हैं । सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी, कि अपनी न्यायोपार्जित सम्पत्तिका उपयोग विशेष रूपसे धर्म और समाज की उन्नति के कार्य में करें। तदनुसार उन्होंने समस्त देशका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे साक्षात् और लिखित सम्मतियां इस बातकी संग्रह की कि कौनसे कार्य में सम्पत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मत संचय कर लेनेके पश्चात् सन १९४१ की गर्मियों में ब्रह्मचारीजीने तीर्थक्षेत्र गजपंथा (नासिक) के शीतल वातावरण में विद्वानों की समाज एकत्रित की, और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिए उक्त विषय प्रस्तुत किया । विद्वत्सम्मेलनके फलस्वरूप ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति और साहित्य के समस्त अंगों के संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षण संघ' की स्थापना की और उसके लिए ( ३०००० ) तीस हजारके दानकी घोषणा कर दी । उनकी परिग्रहनिवृत्ति बढती गई, और सन १९४४ सालमें लगभग ( २००००० ) दो लाख की अपनी संपूर्ण इस्टेट संघको ट्रस्टरूपमें अर्पण की । इसी संघ अन्तर्गत ' जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचालन हो रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ इसी मालाका द्वितीय पुष्प है । प्रकाशक : श्रीमान् लालचन्द हिराचन्द जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापूर मुद्रक : मा. ह. पटवर्धन, संगम प्रेस, प्रा. लि. ; ३८३, नारायण पेठ, पुना २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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