Book Title: Vyavaharnay ki Abhutarthtaka Abhipray
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ ९० : सरस्वती-धरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ प्राप्त पदार्थ माना है। यह मानी हई बात है कि पराश्रित और अस्थायी होनेके कारण पानीके साथ हो रहा संस्पर्श कमलपत्रका और अग्निके सहयोगसे हो रही उष्णतामय पर्याय पानीका स्वतःसिद्ध धर्म नहीं है और यही कारण है कि वे दोनों निश्चयनयके विषय नहीं हैं। लेकिन स्वतःसिद्ध धर्म न होनेसे यदि उनको आकाशके पुष्प और गधेके सींगकी तरह सर्वथा असद्भुत (अभावात्मक) ही माना जाय तो फिर उन्हें व्यवहारनयका विषय कैसे माना जा सकेगा ? तथा तब जीवोंको जलके साथ हो रहे कमलपत्रके संस्पर्शका और जलकी अग्निके सहयोगसे हो रही उष्णतामय पर्यायका जो भान होता है उसे क्या भ्रमज्ञान नहीं कहा जायगा? और यदि ऐसे ज्ञानोंको भ्रमज्ञान माना जाता है तो इसके अतिरिक्त व्यवहारनय फिर क्या वस्तु मानी जायगी ? जो जैन मान्यताको वेदान्तकी मान्यतासे पृथक कर सके। अतः यही स्वीकार करना चाहिए कि जिसप्रकार वस्तुमें निश्चयनयके विषयभत स्वतःसिद्ध धर्मोंका सर्वथा सदभाव रहता है उसी प्रकार वस्तुमें व्यवहारनयके विषयभूत भेद-सापेक्ष और अन्य वस्तु-सापेक्ष आपेक्षिक धर्मोंका भी कथंचित् सद्भाव और कथंचित् अभाव रहता है। तात्पर्य यह है कि कमलपत्रका जलके साथ हो रहा संस्पर्श व जलकी अग्निसहयोगजन्य उष्णतामय पर्याय दोनों ही जब जीवोंके अनुभवमें आते हैं तो जबतक वह अपेक्षा विद्यमान है तबतक उनकी आपेक्षिक धर्मके रूपमें सद्भूतताको अस्वीकृत करनेकी कौन हिम्मत कर सकता है ? । इस प्रकार कमलपत्रका जलके साथ हो रहा संस्पर्श, जलकी अग्निके सहयोगसे निष्पन्न हई उष्णतामय पर्याय, मिट्टोकी कुम्भकारके सहयोगसे उत्पन्न होनेवाली घटरूप पर्याय, दर्पणमें पदार्थके अवलम्बनसे पड़नेवाला पदार्थका प्रतिबिम्ब, और ज्ञानकी पदार्थक अवलम्बनसे पदार्थज्ञानरूप परिणति ये सब उस-उस वस्तुकी आपेक्षिक अवस्थाके रूपमें जब तक अपेक्षा बनी हुई है तब तक सद्भुत है । इसी प्रकार कमलपत्रका जलके साथ हो रहे संस्पर्शमें जलका सहयोग, जलकी उष्णतामय पर्यायमें अग्निका सहयोग, मिट्टीकी घटपर्यायमें कुम्भकारका सहयोग, दर्पणमें पड़ रहे पदार्थके प्रतिबिम्बमें पदार्थका सहयोग और ज्ञानकी पदार्थज्ञानरूप परिणतिमें पदार्थ का सहयोग ये सब उस-उस वस्तुके आपेक्षिक धर्मके रूपमें जबतक अपेक्षित है तबतक सद्भुत है और इसीलिए ये सभी प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभावकी अपेक्षा वचनरूप व्यवहारनयके तथा ज्ञाप्य-ज्ञापक भावकी अपेक्षा ज्ञानरूप व्यवहारनयके विषय है एवं क्योंकि ये सब उस-उस वस्तुके स्वतः सिद्ध धर्म या स्वतः उत्पन्न होनेवाले धर्मोके रूपमें सर्वथा सद्भत नहीं हैं, इसीलिए ये सब प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभावकी अपेक्षा बचनरूप निश्चयके तथा ज्ञाप्य-ज्ञापकभावकी अपेक्षा ज्ञानरूप निश्चयनयके विषय नहीं हैं । साथमें यह भी निश्चित समझना चाहिए कि व्यवहारनयके विषय होनेके कारण उपर्युक्त सभी धर्म आकाशके पुष्प तथा गधेके सींगकी तरह सर्वथा असद्भूत भी नहीं हैं। इसीप्रकार आत्मामें उस-उस पुद्गलकर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले राग, द्वेष और मोह आदि औदयिक भावों तथा उस-उस पुद्गलकर्मके क्षयोपशम आदिके आधारपर आत्मामें उत्पन्न होनेवाले क्षायोपशमिकादिभावोंके विषयमें भी कथंचित् सद्भूतपने और कथंचित् असद्भूतपनेको मान्यता ही युवत है । एक बात और है कि यदि व्यवहारनयके विषयभूत उक्त सभी धर्मोको या इसी प्रकारके अन्य धर्मोको सर्वथा असद्भूत माना जायगा तो इसका समयसारकी गाथा १४ को आत्मख्यातिटीकासे साथ ही उनके विषयमें जीवोंको होनेवाले सद्भूतताके अनुभवके तो विरुद्ध होगा ही लेकिन इस तरहसे तो दो आदि पुद्गल परमाणुओंके परस्पर-संयोगसे निष्पन्न द्वयणुक आदि स्कन्धोंको कथंचिद् सद्भूतता भी समाप्त हो जायगा, जिसका परिणाम यह होगा कि लोकमें जितना-जितना स्कन्धाश्रित व्यवहार चलता है और प्राणियोंको जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5