Book Title: Vyavaharnay ki Abhutarthtaka Abhipray Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 5
________________ 3 | धर्म और सिद्धान्त : 91 स्कन्धोंकी सद्भुतताका अनुभव होता है वह सब भी मिथ्या कल्पनाकी वस्तु रह जायगी, क्योंकि दो आदि परमाणुओंके मिश्रणसे ही तो द्वय णुक आदि स्कन्धोंका निर्माण होता है। परन्तु जब यह सिद्धान्त निश्चित है कि प्रत्येक अणु दूसरे एक या अनेक अणुओंके साथ बद्धता (मिश्रण) को प्राप्त होकर भी स्वतन्त्र द्रव्य होनेके कारण सर्वदा अपनी-अपनी आकृति, प्रकृति और विकृतिमें ही रहता है, कभी न तो दूसरे अणुरूप हो सकता है और न दूसरे अणुओंके गुणधर्मोको ही अपने अन्दर लाता है तो व्यणुकादि स्कन्धोंकी कोरी कल्पनाके अतिरिक्त और क्या स्थिति रह जायगी ? इस प्रकार यह निश्चित हो जाता है कि वस्तुमें भेदके आधारसे अथवा परवस्तुके आधारसे जितने अभूतार्थ धर्म सिद्ध होते हैं वे सब इस लेखमें दर्शाये गये प्रकारसे कथंचित् सद्भुत और कथञ्चित् असद्भूत ही होते हैं। न तो भूतार्थ धर्मोंकी तरह सर्वथा सद्भुत ही होते हैं और न आकाशके पुष्प तथा गधेके सींगकी तरह सर्वथा असद्भत हो होते हैं / अथवा यों कहिये कि स्वतःसिद्धताके रूपमें सर्वथा सदभुत रहना हो वस्तुको भृतार्थता है और सापेक्षताके रूपमें कथञ्चित् सद्भुत और कथञ्चित् असद्भूत रहना ही वस्तुकी अभतार्थता है / समयसारकी उल्लिखित गाथा 11 के भूतार्थ और अभूतार्थ शब्दोंका इसी प्रकार विश्लेषण करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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